भारत के कॉरपोरेट संपादक और ब्रिटेन की लेवसन रिपोर्ट
Author: भूपेन सिंह Edition : January 2013
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) ने पिछले दिनों दक्षिण दिल्ली के अपने शानदार ऑफिस में पत्रकारिता की वर्तमान हालत पर एक बातचीत का आयोजन किया। इसमें ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के प्रतिनिधियों के अलावा न जाने किस गलती से मुझ जैसे कुछ एक्टिविस्ट और पत्रकारों को भी बुला लिया गया। बहस में बीईए के महासचिव एन.के. सिंह, हाल ही तक आजतक-टीवी टुडे ग्रुप के संपादक रहे कमर वहीद नकवी, टीवी संपादक-सीईओ रहे राहुल देव, गवर्नेंस नॉउ के संपादक वी.वी. राव, मिंट में मीडिया स्तंभकार सीएमएस की मुख्य कर्ताधर्ता पी.एन. वासंती, उनके पिता और सीएमएस के अध्यक्ष भास्कर राव के अलावा कुल पच्चीस-तीस पत्रकार जमा थे।
उपरोक्त लोगों का नाम लिखने की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि उनमें से कुछ उम्र, पद और प्रतिष्ठा का रुतबा दिखाकर बहस को एक गढ़ी गई आम सहमति में बदलने की कोशिश कर रहे थे। सारी बातें ऐसी थीं जिनसे कॉरपोरेट मीडिया और भारतीय लोकतंत्र की महानता बार-बार झलके और ऐसा लगे कि मीडिया की वर्तमान विसंगतियों के लिए बीईए से ज्यादा चिंतित और कोई नहीं है। वहां बार-बार बीईए और सीएमएस के साथ मिलकर भारतीय मीडिया की बेहतरी के लिए एक साझा 'प्रोजेक्ट' पर काम करने की बात भी हो रही थी। असहमत लोगों की बातें उनके लिए अव्यावहारिक और 'क्रांतिकारी' विचारधारा से प्रेरित थीं।
बातचीत के केंद्र में जी न्यूज संपादकों की तरफ से कोयला घोटाले से जुड़े उद्योगपति और कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल से सौ करोड़ की वसूली का मामला था। बहस में शामिल नामधारी लोग जी न्यूज संपादक सुधीर चौधरी और जी बिजनेस के संपादक समीर अहलुवालिया की आलोचना कर रहे थे। साथ ही वे यह भी बताने की कोशिश कर रहे थे कि मीडिया का स्वनियमन ही सबसे सही रास्ता है। बहस को स्वनियमन बनाम सरकारी नियंत्रण की बहस में बदला जा रहा था। ये महानुभाव चालाकी दिखाते हुए थोड़ी- सी आत्मालोचना में इतना जरूर स्वीकार कर रहे थे कि आज के समाचार माध्यमों में सुधीर और समीर जैसे लोगों की ही चलती है और आज वे किसी भी मीडिया मालिक के लिए सबसे ज्यादा काम के आदमी हैं। उनके पास कॉरपोरेट मीडिया की साख बचाने के लिए स्वनियमन की माला जपने वाले बीईए और उसकी तरफ से बनाई गई नियामक संस्था न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी (एनबीएसए) की नैतिकता और प्रासंगिकता के पक्ष में अनगिनत दलीलें थीं। वे चाह रहे थे बाकी लोग उनकी हां में हां मिलाएं।
मैंने कहा कि स्वनियमन के लिए बनाई गई संस्था एनबीएसए और उसकी जननी बीईए जिस स्वनियमन की बात करती हैं उस 'स्व' में आम पत्रकारों के लिए कोई जगह नहीं है। वह टेलीविजन एडिटर्स की पहलकदमी से बनाई गई संस्था है और कॉरपोरेट मीडिया में मालिक की मर्जी के खिलाफ कोई संपादक नहीं बन सकता। अलग-अलग मीडिया संगठनों में काम करने वाले अनगिनत साधारण पत्रकारों के हितों का इन संपादकों को कोई ध्यान नहीं रहता। उन्हें लाखों-करोड़ों रुपए की अश्लील तनख्वाह मिलती है जबकि आम पत्रकारों के लिए हजार किफायत बरतने के बाद भी अपना घर चलाना मुश्किल होता है। मैंने सीधे पूछा कि आप लोग संपादक रहे हैं और हैं! क्या आप लोगों ने कभी आम पत्रकारों को अपने अखबार-चैनल में संगठन बनाने की इजाजत दी? अगर आप बहुसंख्यक पत्रकारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं तो आपको उनकी आड़ में स्वनियमन की बात करने का कोई अधिकार नहीं है।
महान पत्रकारों को खुद के लिए कॉरपोरेट पत्रकार का संबोधन बिल्कुल ही आपत्तिजनक लगा। कोई जवाब न होने पर कहा जाने लगा कि सिर्फ आप ही बोल रहे हैं दूसरों को बोलने नहीं दे रहे, जबकि हकीकत यह थी कि वहां संपादक-आयोजक प्रवचन कर रहे थे और ज्ञान हासिल करने की उम्मीद कर रहे थे। जब बर्दाश्त नहीं हुआ तो हमने कहा कि अगर आपने हमें बुलाया है तो बात सुननी भी पड़ेगी वरना हम जा रहे हैं। स्थिति असामान्य हो गई। जब उनके सामने कहा गया कि पत्रकार-मालिक-सीईओ एक ही इनसान होगा तो क्या इसमें हितों का टकराव नहीं है? सुधीर चौधरी एक साथ जी न्यूज के बिजनेस हेड और संपादक कैसे बन गए? राजदीप सरदेसाई, अरुण पुरी, प्रवण रॉय जैसे कई लोग मालिक हैं कि पत्रकार? इस तरह के सवाल उन्हें कल्पनाओं से परे और बहुत ही आपत्तिजनक लगे। मालिकों की दया से बने संपादक, बड़ी पूंजी के मालिकों और पत्रकारीय हितों के बीच टकराव की अनदेखी करते हुए झल्लाकर बोले- क्या आप चाहते हैं कि पत्रकार हमेशा नौकर ही बना रहे वह मालिक नहीं बने? अरुण पुरी जैसे लोगों ने पत्रकारिता के नए मानदंड स्थापित किए हैं, वह कभी संपादक के अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं करते। अखबार टीवी शुरू करने में करोड़ों रुपए लगते हैं, क्या कोई मालिक घाटा उठाने लिए पूंजी लगाएगा? आप ही बताइए इसका क्या विकल्प है? आप इल इनफॉर्म्ड (सही जानकारी नहीं) हैं! हमारे एक साथी ने लगे हाथों यह भी पूछ लिया कि सुधीर चौधरी पहले भी दिल्ली की एक स्कूल शिक्षिका उमा खुराना को फर्जी तौर पर वेश्याओं का दलाल बताकर बदमाम कर चुके हैं, जिस वजह से सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने उस चैनल न्यूज लाइव को पंद्रह दिनों के लिए बंद करवा दिया था। इतनी जानकारी के बाद भी वह बीईए के कोषाध्यक्ष कैसे बन गए? कौन इल इंफॉर्म्ड है? कॉरपोरेट संपादकों ने झल्लाहट के बावजूद पूरे आत्मविश्वास से कॉरपोरेट मीडिया और उसके मालिकों का बचाव किया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकारी नियंत्रण का डर दिखाया और सुधीर चौधरी जैसी घटनाओं के लिए खुद बदलो-जग बदलेगा जैसा दर्शन दिया। वहां अपेक्षाकृत सीधे और सरल माने जाने वाले संपादक वीवी राव ने कहा कि पत्रकारों और मीडिया संगठनों के खिलाफ भी 'मुख्यधारा' के मीडिया में आलोचना छपनी चाहिए तो उनकी बात को भी यूं ही उड़ा दिया गया।
इन घटनाओं से पता चल जाता है कि सत्ता तक पहुंच रखने वाले कॉरपोरेट संपादक और नामचीन एनजीओ पत्रकारिता में नैतिकता की बहस को किस दिशा में मोडऩा चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि यह बहस सिर्फ भारत जैसे देश में ही हो रही हो, भारतीय अभिजात्य के औपनिवेशिक आका रहे ब्रिटेन में भी नियमन को लेकर बहस तेज है। वहां लेवसन रिपोर्ट चर्चा का विषय बनी हुई है। भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू लेवसन रिपोर्ट का हवाला देते हुए द हिंदू अखबार में एक लेख लिखकर किसी अधिकार संपन्न स्वायत्त संस्था से मीडिया नियमन की वकालत कर चुके हैं लेकिन कॉरपोरेट मीडिया को यह बात बिल्कुल भी कबूल नहीं है।
मुनाफाखोर मीडिया घराने कितना गिर सकते हैं, अमेरिका और योरोप के कई देशों के मीडिया से इसे समझा जा सकता है। ब्रिटेन में कॉरपोरेट मीडिया सरदार रूपर्ट मर्डोक की न्यूज कॉर्प की ब्रिटिश कंपनी न्यूज इंटरनेशनल का अखबार न्यूज ऑफ द वर्ल्ड का किस्सा इसका एक बड़ा उदाहरण है। अखबार ने 2002 के बाद पत्रकारिता के सारे मानदंडों का मखौल उड़ाते हुए ब्रिटेन के कई प्रभावशाली लोगों के फोन हैक कर उनकी निजी बातचीत को रिकॉर्ड कर लिया था। इनमें ब्रिटेन के राज परिवार समेत कई सेलिब्रिटीज के फोन भी शामिल थे। इस बात का पता चलने पर अखबार और मर्डोक की आलोचना होती रही है। न्यूज ऑफ द वर्ल्ड का पत्रकार क्लाइव गुडमैन 2007 में राज परिवार के सदस्यों के फोन मैसेज हैक करने के मामले में जेल की हवा खा आया है। अखबार के पत्रकारों और निजी जासूसों की मिलीभगत देखकर आम जनता दंग थी। इसमें पुलिस वालों को घूस देने का मामला भी था। इन तमाम बातों के बावजूद रूपर्ट मर्डोक का कारोबार ब्रिटेन में बढ़ता ही जा रहा था लेकिन जैसे ही जुलाई, 2011 में पता चला कि अखबार ने कत्ल की गई स्कूली छात्रा मिली डॉवलर समेत लंदन बम धमाकों के एक शिकार का भी फोन सनसनीखेज खबरों के लिए टेप किया था तो लोग भड़क उठे। पूरे ब्रिटेन में हंगामा मच गया। परिणाम स्वरूप मर्डोक को 10 जुलाई, 2011 को 168 साल से चला आ रहा अखबार न्यूज ऑफ द वर्ल्ड बंद करना पड़ा। अब मर्डोक और उसके बेटे पर भी अदालत में मामला चल रहा है।
न्यूज ऑफ द वर्ल्ड की घटना के बाद ब्रिटिश मीडिया में अनियमितताओं की जांच के लिए प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने जुलाई, 2010 में जस्टिस लेवसन के नेतृत्व में छह सदस्यीय जांच कमेटी गठित की। इस कमेटी ने नवंबर, 2012 में अपनी रिपोर्ट पेश की। एन एंक्वायरी इनटू द कल्चर, प्रैक्टिसेज एंड इथिक्स ऑफ द प्रेस नाम की यह रिपोर्ट दो हिस्सों में है। पहले हिस्से में ब्रिटिश कॉरपोरेट मीडिया के जनविरोधी व्यवहार का अध्ययन करते हुए उसे सही तरह से संचालित कराने के लिए ठोस नियम बनाने की वकालत की गई है। दूसरे हिस्से में न्यूज ऑफ द वर्ल्ड वाले मामले की विशेष छानबीन की गई है, कोर्ट में मामला होने की वजह से उसे अभी सार्वजनिक नहीं किया गया है।
लेवसन रिपोर्ट में मीडिया की नैतिकता को ध्यान में रखकर एक स्वायत्तशासी और ज्यादा अधिकार संपन्न आयोग बनाने की सिफारिश की है, साथ ही प्रेस कंप्लेन कमीशन (पीसीसी) की जगह एक नई नियामक संस्था बनाने पर जोर दिया गया है। पीसीसी को ब्रिटेन में अखबारों के प्रतिनिधियों ने मिलकर स्वनियमन के नाम पर बनाया हुआ है। लेकिन यह अब तक बिल्कुल भी कारगर साबित नहीं हुई है। इसकी हालत कुछ-कुछ प्रकाशकों के प्रभाव वाली भारतीय प्रेस परिषद की तरह ही नख-दंत विहीन है। ब्रिटिश मीडिया में न्यूज ऑफ द वर्ल्ड की घटनाओं के बाद सरकार को मजबूर होकर इस बारे में बात करनी पड़ी। अब फिलहाल लेवसन रिपोर्ट पर वहां राजनीति गरमा रही है। विपक्ष जहां सारी सिफारिशों को जस का तस मान लेने की बात कर रहा है, सरकारी पक्ष कुछ बातों पर बहस करवाना चाहता है। लेकिन माना जा रहा है कि 2013 में वहां पर एक स्वायत्तशासी नियामक संस्था अस्तित्व में आ जाएगी जो सरकार और कॉरपोरेट के सीधे दखल से मुक्त होगी।
भारतीय मीडिया की हालत देखकर आज यहां भी एक स्वायत्तशासी नियामक संस्था बनाने का वक्त आ चुका है। लेकिन इसके लिए पहली शर्त यही है कि कॉरपोरेट की ताकत के खिलाफ एक जनमत तैयार हो और सरकार पर ऐसा करने के लिए ब्रिटेन की तरह ही दबाव पड़े। सिर्फ पिछले पांच साल की घटनाओं को ही देखें तो यहां कॉरपोरेट, मीडिया और राजनीति के गठजोड़ की पोल खोलता राडिया टेप कांड जैसा भयानक मामला सामने आया है जिसमें बरखा दत्त, वीर सांघवी, प्रभु चावला जैसे कई तथाकथित महान पत्रकारों की संदिग्ध भूमिका का पता चला। लेकिन व्यापक जन दबाव न होने की वजह से इस मामले में अब तक कोई ठोस जांच नहीं करवाई गई। राडिया टेप कांड के तमाम दागी लोग आज भी बड़ी बेशर्मी से पत्रकारिता कर रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि हमारे यहां उल्टी गंगा बह रही है, उद्योगपति रतन टाटा ने पोल खुलने पर निजी अधिकारों के हनन के नाम पर बाकी राडिया टेप सार्वजनिक होने पर ही कोर्ट से स्टे ले लिया। पेड न्यूज को लेकर प्रेस परिषद की सब कमेटी ने रिपोर्ट तैयार की और उसमें कई अखबारों को दोषी पाया गया लेकिन मालिकों के प्रभुत्व वाली परिषद की कमेटी ने उस रिपोर्ट को पास नहीं किया। कोयला घोटाले में दैनिक भास्कर, इंडिया टुडे, प्रभात खबर और लोकमत जैसी मीडिया कंपनियों का जुड़ाव होने के बाद भी सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। जी न्यूज के संपादकों वाले मामले में भी अब तक कोई आधिकारिक जांच नहीं हो रही है।
उदारीकरण की नीतियां अपनाने के बाद भारत में निजी मीडिया का असीम विकास हुआ है। उद्योगपति पत्रकारिता का इस्तेमाल कर अपने बाकी धंधों को चमकाने, सरकारों और सत्ताधारियों को दबाने तथा ब्लैकमेल करने वह जनमत को बरगलाने व अपने पक्ष में करने के लिए मीडिया में पैसा लगा रहे हैं। परिणाम स्वरूप पत्रकारों का एक बड़ा हिस्सा उद्योगपतियों के दलाल या स्टेनोग्राफर में बदल गया है। इन हालात में यहां भी मीडिया के नियमन के लिए लेवसन आयोग की तरह एक जांच जरूरी है। देश के मीडिया की वस्तुस्थिति की जानकारी के लिए एक अधिकार संपन्न तीसरे प्रेस आयोग की स्थापना इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, बशर्ते उसका हश्र पहले और दूसरे प्रेस आयोग की रिपोर्ट की तरह न हो। अगर इस तरह की पहलकदमी का जनदबाव बनता है कि इससे मालिकों की भाषा बोलने वाले बीईए के होश अपने आप ठिकाने आ जाएंगे।
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