BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Wednesday, May 31, 2017

Hindutva Goons Destroyed Ambedkar Statue in Dumdum! Palash Biswas

Hindutva Goons Destroyed Ambedkar Statue in Dumdum!
Palash Biswas 
It is claimed that Untouchability is not prcticed in Bengal.Bengalies are knwonas progressive,liberal and secular and they claim to be democrat dening any space whatsoever to Dali,OBC and Tribes.The secular and democratic posture is limited to Muslim Vote Bank only using the Muslim demography to sustain caste Hidnu dominance in every spare of life as the truth is exposed by Sacchar commission which ended the 35 years span of Left rule in Bengal.Present CM is also very loud to use the same Muslim demography and playing Hindutva cards on RSS dicated line of Ram,Hanuman puja replicating the Durga and Kali puja politics in vogue hitherto.
Dr.BR Ambedkar or Dalit or Bahujan politics has never been a factor since partition of India and Ambedkirites are micro minority in dalits.Matua movement played a key role to elect Dr.BR Ambedkar to the constituent assembly thanks to the dicsiples of Guruchand Thakur led by Jogendra Nath Mandal And Barrister Mukund Bihari Mallick.
But the constituency  constituted by East Bengal districts of Faridpur,Jaissore and Khulna went to Pakistan and Babasaheb had to be reelected with Congress help and since then he had been out of Bengal Politics as his lieutenant Jogendra Nath Mandal remained in Pakistan.
Most of the Partition victim Dalit refugees and Matus living in Bengal have been Hinduised.While most of theDalit and Matua refugees have been ejected out of Bengal to ensure caste Hindu demographic supremacy to sustain Manusmriti Zamindari rule in Bengal.
In such circumstance,destroying Ambedkar Statue in dalit dominated north Bengal suburban area North dumdum seems quite strange because it has got no political significance as far as HINDU V/S Muslim polarized Vote Bank equation based power politics is concerned.
But Dr Ambedkar represents the identity  as well as existence of Dalits,tribes,OBCs and minorities and the purpose might be detected in the deep rooted caste Hindua Bengali nationalism of hatred and violence against the movement with an objective of equality and justice.
It exposes the liberal,progressive,democrat and secular socity ,politics and nationalism of caste Hindu Hindutva dominant and decicisive.
Pl see the reports:
[31/05 10:59] Bijan Hazra: উত্তর দমদমের পার্কে আম্বেড্করের মূর্তি ভাঙ্গার প্রতিবাদে আগামী রবিবার 4-6-2017 বেলা 2 টোর সময় দূর্গানগর "friends মিশন" এ এক আলোচনা আয়োজন করা হয়েছে , এবং অন্যান্য বিষয়, অনগ্রসর জনজাগরণী মঞ্চের তরফ থেকে সকলকে উপস্থিতি থাকার জন্য আহ্বান জনান হচ্ছে
[31/05 11:03] Bijan Hazra: দুস্কৃতিরা ভেঙ্গেছে !!??? কেমন ধরনের দুস্কৃতি ? যাদের রাগ আম্বেদকরের মূর্তির উপর !! যে আম্বেদকরের জন্য আজ গরীব নীচুতলার ঘরের ছেলেমেয়েরা মাধ্যমিকে সবার থেকে আগে থাকছে !! 
যারা ভেঙ্গেছে তারা তো সামান্য দু টাকার দুস্কৃতি নয় ।
এই দুস্কৃতিদের তাহলে কোথায় পাওয়া যাবে ? 
বস্তিতে না অট্টালিকায় ?

আমরা গুড়িয়ে দেব ওদের ষড়যন্ত্রের হাতঃ
বাবরি মসজিদ ধ্বংসের সময় আরএসএস, বজরংদল, বিশ্ব হিন্দু পরিষদ, সারা ভারত ব্রাহ্মণ সভা প্রভৃতি ৬টি কট্টর মনুবাদী সংগঠন কুম্ভ মেলায় মিলিত হয়ে তাদের আগামী কর্মসূচী নিয়ে একটি গোপন এজেন্ডা প্রকাশ করে। এই গোপন এজেন্ডা থেকে আমরা জানতে পারি যে তারা একটি মহাপ্রলয় মিশন সামনে রেখে ব্রাহ্মণবাদী শক্তির উত্থান ঘটাতে চাইছেন।

এই গোপন এজেন্ডায় তারা জানিয়ে দেয় যে, "অধর্মী আম্বেদকরের জন্য যুক্তিবাদ এবং বুদ্ধ ধর্মের প্রসার আবার শুরু হয়েছে। এই প্রসার বাড়তে থাকলে ভারতবর্ষ থেকে ব্রাহ্মন্যবাদ ধ্বংস হয়ে যাবে। সুতরাং তাদের এক এবং অদ্বিতীয় কর্মসূচী হল আম্বেদকরকে ধ্বংস করা। এই ধ্বংসের ক্রিয়া হিসেবে তারা ন্যায়, অন্যায়, ধর্ম-অধর্ম, অস্ত্রশস্ত্র, ষড়যন্ত্র, হত্যা প্রভৃতিকে হাতিয়ার হিসেবে বেছে নেয় এবং বিজেপি দলকে ক্ষ্মতায় এনে তাদেরকে ঢাল হিসেবে ব্যবহার করার সিদ্ধান্ত নেয়। এরপর শুরু হয়ে যায় রাষ্ট্র জুড়ে আম্বেদকর এবং বুদ্ধের স্টাচ্যু ভেঙ্গে ফেলার কদর্যতা। গত বছর ওরা ভগনা ডিহির বিখ্যাত সিধু-কানু মূর্তিও ভেঙ্গে ফেলেও স্পর্ধা জাহির করে !!!

পশ্চিমবঙ্গের বর্তমান সরকারের আপস এবং অপদার্থতার জন্যই এই জঘন্য শক্তি এখানে মাথা তুলে বিষ ঢালার চেষ্টা শুরু করেছে। শুরু হয়েছে জাতপাতের নামে সামাজিক বয়কট এবং সাম্প্রদায়িক উস্কানী। মমতা ব্যানার্জির আপসের জন্যই এই শয়তানী শক্তি তাদের গোপন এজেন্ডা নিয়ে অনেকটাই এগিয়ে গেছে। আমাদের বুঝতে অসুবিধা নেই যে এই ঘোরতর আম্বেদকর বিরোধী শয়তানরাই গত রবিবার রাতে উত্তর দমদমে নিমতা থানার ৯ নং ওয়ার্ডে স্থাপিত বাবা সাহেব আম্বেদকরের মূর্তি ভেঙ্গে ফেলার স্পর্ধা দেখিয়েছে !!!

এই ঘটনাকে শাক দিয়ে মাছ ঢাকার চেষ্টা করছে বর্তমান শাসক দল। ধিক্কার জানাই এই অপকর্মের।

অবিলম্বে বৃহত্তর কর্মসূচী নিয়ে আমরা এর শেষ দেখে নিতে চাই।
জয় ভীম, জয় ভারত 
জয় ভীম ইন্ডিয়া নেটওয়ার্ক এবং দলিত-বহুজন স্বাধিকার আন্দোলনের পক্ষে 
শরদিন্দু উদ্দীপন

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#AyodhyaBack#Beefgate#Military State हे राम!यह समय सैन्य राष्ट्र में कारपोरेट नरबलि का समय है और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का हिंदुत्व राष्ट्रवाद हमारे हिंदू मानस के कारपोरेट उपभोक्ता मन और मानस में इंसानियत का कोई अहसास पैदा ही नहीं होने दे रहा है।यही हमारी संसदीय राजनीति भी है।राम !राम ! पलाश विश्वास

#AyodhyaBack#Beefgate#MilitaryState

हे राम!यह समय सैन्य राष्ट्र में कारपोरेट नरबलि का समय है और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का हिंदुत्व राष्ट्रवाद हमारे हिंदू मानस के कारपोरेट उपभोक्ता मन और मानस में इंसानियत का कोई अहसास पैदा ही नहीं होने दे रहा है।यही हमारी संसदीय राजनीति भी है।राम !राम !

पलाश विश्वास

हम इसे कतई देख नहीं पा रहे हैं कि भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले और अपनी जान कुर्बान करने वाले हमारे पूर्वजों के सपनों का भारत कैसे ब्रिटिश हुकूमत के औपनिवेशिक दमन उत्पीड़न के मुकाबले समता और न्याय के खिलाफ,नागरिक मानवाधिकारों के खिलाफ,मनुष्य और प्रकृति के खिलाफ होता जा रहा है।

भारतीय आध्यात्म मानवतावाद को ही धर्म मानता रहा है,जिसमें ज्ञान की खोज को ही मोक्षा का रास्ता माना जाता रहा है और सत्य और अहिंसा के तहत ज्ञान का वहीं खोज भारत की जमीन पर रचे बसे तमाम धर्मों,संप्रदायों और समुदायों का आध्यात्म रहा है,जिसे हम बहुलता और विविधता की संस्कृति कहते हैं।हमारा राष्ट्रवाद इस भारतीय संस्कृति और भारतीयता के इस धर्म,दर्शन और आध्यात्म के भी खिलाफ है।

मुक्तबाजारी समाज में मनुष्यता और प्रकृति की परवाह किसी को नहीं है इसलिए नरसंहार संस्कृति के राजकाज बन जाने और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के सैन्य राष्ट्र से हमारे विवेक में कोई कचोट पैदा नहीं होती।

तकनीक ने बाजार का अनंत विस्तार कर दिया है और क्रयक्षमता के वर्चस्व की तकनीकों ने ज्ञान की खोज और भारतीय दर्शन और आध्यात्म के मनुष्यताबोध को सिरे से खत्म कर दिया है।हम हिंसा,दमन,उत्पीड़न,अन्याय,असमता और नरसंहार की कारपोरेट व्यवस्था को ही विकास और सभ्यता मानते हैं।

ज्ञान और ज्ञान की खोज हमारे लिए बेमतलब हैं और इसी वजह से शिक्षा सिर्फ बाजार और क्रयक्षमता के लिए नालेज इकोनामी का तकनीकी ऐप है।

गाय और राम के नाम अंध राष्ट्रवाद की बुनियाद यही है।

बाबरी विध्वंस का जश्न नये सिरे से शुरु हो गया है।

यूपी के किसी मुख्यमंत्री ने 2002 के बाद पहलीबार अयोध्या पहुंचकर कारसेवा का नये सिरे से शुभारंभ अस्थायी राममंदिर में रामलला के दर्शन और पूजन से शुरु कर दिया है।अयोध्या में मुक्यमंत्री का कारसेवा नोटबंदी का चरमोत्कर्ष है ,जिसके मार्फत उनका राज्याभिषेक हो गया।

गौरतलब है कि यह कारसेवा  बाबरी विध्वंस मामले में लौहपुरुष रामरथी लालकृष्ण आडवाणी,मुरलीमनोहर जोशी, उमाभारती,विनय कटियार समेत तमाम अभियुक्तों के खिलाफ चार्जशीट तैयार हो जाने के तुरंत बाद शुरु हो गयी है।

अभी गोहत्या प्रतिबंध के तहत धार्मिक ध्रूवीकरण का खेल पूरे शबाब पर है और विकास,सुनहले दिन,मेकिंग इन इंडिया,डिजिटल इंडिया,स्मार्ट बुलेट आधार इंडिया के सारे के सारे कार्यक्रम फिर एकीकृत रामजन्मभूमि आंदोलन में तब्दील है।

राजकाज और अर्थव्यवस्था अब नये सिरे से  हिंदुत्व की राजनीति के राजधर्म निष्णात है।

गायों की हत्या रोकने के लिए दलितों, मुसलमानों, पिछड़ों और सिखों,स्त्रियों और बच्चों तक की हत्या जारी है।

नागरिक और मानवाधिकार गाय के अधिकार में समाहित है और पूरा देश गाय का देश बन गया है जहां मनुष्यों की बलि गायों की सेहत और सुरक्षा के लिए दी जा रही है।

तो दूसरी ओर,आर्यावर्त के इस हिंदुत्ववादी वर्चस्व के खिलाफ दक्षिण भारत में तेजी से द्रविड़नाडु की मांग उठने लगी है जिसे रजनीकांत के भाजपा में शामिल होने या अलग दल बना लेने के गपशप में नजरअंदाज किया जा रहा है।

मध्य भारत और पूर्वोत्तर भारत में गृहयुद्ध के हालात बने हुए हैं और आदिवासी भूगोल से लेकर दलित अस्मिता  के नये राष्ट्र हिंदू राष्ट्र के खिलाफ विद्रोह पर उतारु हैं।

इसी के मध्य कश्मीर की जनता के खिलाफ भारतीय सेनाध्यक्ष ने औपचारिक युद्ध घोषणा कर दी है।पहले सैन्य अधिकारी को अपनी जीप के समाने किसी मनुष्य को बांधकर उपदर्वियो से निबटने के लिए पुरस्कृत किया गया और उनके करतब पर सारे राष्ट्रभक्त नागिरक बाग बाग हो गये।

फिर भारत के हिंदू राष्ट्र के सेनाध्यक्ष ने साफ साफ शब्दो में कह दिया कि सेना कश्मीर में कश्मीर समस्या के समाधान के लिए तैनात नहीं है बल्कि वे राष्ट्रद्रोही बागी जनता के दमन के लिए काम कर रही है।

गौरतलब है कि मीडिया के मुताबिक कश्मीर में एक शख्स को जीप पर बांधने वाले मेजर नितिन गोगोई का सेना प्रमुख बिपिन रावत ने समर्थन किया है। उन्होंने कहा कि घाटी में भारतीय सेना को गंदे खेल का सामना करना पड़ रहा है और इससे अलग तरीके से ही निपटा जा सकता है। पीटीआई से बातचीत में जनरल रावत ने कहा कि मेजर लीतुल गोगोई को सम्मानित करने का मकसद युवा अफसरों का आत्मबल बढ़ाना था। उन्होंने कहा कि इस मामले में कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी चल रही है, लेकिन आतंकवाद प्रभावित राज्यों में मुश्किल हालात में काम कर रही सेना का मनोबल बढ़ाना जरूरी है। उन्होंने सख्त लहजे में कहा कि 'कश्मीर में चल रहा प्रॉक्सी वॉर बेहद निचले स्तर का है। ऐसे में सेना को भी बचाव के नए-नए तरीके खोजने पड़ेंगे।' जनरल रावत ने कहा, 'जब सैनिकों पर लोग पत्थर फेंकते हैं, पेट्रोल बम फेंकते हैं, उस वक्त क्या मैं सैनिकों को यह कहूं कि आप चुपचाप सहते रहो और मारे जाओ। मैं तुम्हारे शवों को तिरंगे में लपेट कर इज्जत के साथ तुम्हारे घर भेज दूंगा? सेना के जवानों के मनोबल को ऊंचा रखना मेरी जिम्मेदारी है।

सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत का कहना है कि अगर सामने खड़ी भीड़ गोलियां चला रही होती तो सेना के लिए मुकाबले का फैसला आसान हो जाता।सलवा जुड़ुम और अल्पसंख्यकों के देशभर में चल रहे फर्जी मुठभेड़ का यही फार्मूला है।सेनाध्यक्ष के कहने का साफ मतलब है कि वे इतंजार कर रहे हैं कि जनता सेना पर गोली चलाये तो सेना इसका जबाव सैन्य तौर तरीके से दे देगी।

लोकतंत्र में एकता और अखंडता जैसे संवेदनशील मुद्दों को सुलझाने की यह रघुकुलरीति भक्तों के लिए जश्न का मौका है।

सेनाध्यक्ष के इस युद्ध घोषणा जैसे मंतव्य से कश्मीर समस्या कितनी सुलझेगी और उससे भी बड़ा सवाल है कि भारतीय सैन्य राष्ट्र को कश्मीर समस्या या देश में कहीं भी जनांदोलन या जनविद्रोह जैसी चुनौतियों से निबटने के इस तरीके का सभ्यता और मनुष्यता,लोकतंत्र और राष्ट्र की सुरक्षा से क्या संबंध है।

भारतीय राजनीति, भारतीय समाज में गोहत्या निषेध के रामभक्त समय में इस पर किसी संवाद या विमर्श की कई गुंजाइश भी शायद नहीं है।

इस सैन्य वक्तव्य के क्या राजनीतिक असर होगें और उसके सैन्य परिणाम कितने भयंकर होंगे ,इस पर बी बोलेने लिखने की शायद कोई इजाजत नहीं है।

कश्मीर शब्द का उच्चारण ही जैसे राष्ट्रद्रोह है। इस मुद्दे पर सेना प्रधान बोल सकते हैं,आम नागरिक अपनी जुबान बंद रखें तो बेहतर।

यह सैन्य राष्ट्र का निर्माण ही हिंदुत्व का चरमोत्कर्ष है और इसराष्ट्र के लिए कश्मीर ही एकमात्र संकट नहीं है।सिर्फ दलित,आदिवासी,पिछड़े,अनार्य,द्रविड़ और तमाम नस्ली समूहों के अलावा मेहनकशों,किसानों और थार्रों युवाओं का भी इस राष्ट्र से मुठभेड़ होने की भारी आशंका है।

इस अनिवार्य टकराव के  लक्षण देश भर में प्रगट होने लगे हैं।

भुखमरी की स्थिति में खाद्य आंदोलन या बेरोजगारी की हालत में मेहनतकशों और छात्रों के विद्रोह के हालात में यह राष्ट्र क्या करेगा,सेनाध्यक्ष के वक्तव्य से शायद उसका भी खुलासा हो गया है।

ऐसे हालात में  हिंदुत्व के कायाकल्प की वजह से मनुस्मृति राज बहाल रखने पर आमादा भारतीय राजनीति के सारे धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मुलम्मे और कारपोरेट पैकेज शायद बेपर्दा हो जायेंगे।जितनी जल्दी हो,बेहतर होगा।

मौजूदा राष्ट्र का यह सैन्य अवतार हमें इतना गदगदाया हुआ है,राष्ट्र की संरचना इसतरह सिरे से बदल गयी है और राजनीति और राजकाज का जो हिंदुत्व कायाक्लप हो गया है,उसके चलते क हम यह सोच भी नहीं पा रहे हैं कि भविष्य में तेज हो रहे दलित आंदोलन,आदिवासी जनविद्रोह और दक्षिण भारत में जैसे दिल्ली के आधिपात्य के खिलाफ दक्षिण भारत के द्रविड़ अनार्य आत्मसम्मान के द्रविड़नाडु जैसी चुनौतियों के मुकाबले यह राष्ट्रधर्म का सैन्य दमनकारी चरित्र का नतीजा भारत की एकता और अकंडता के लिए कितना खतरनाक होने वाला है।

रामरथ से अवतरित कल्कि अवतार की ताजपोशी के बाद भारत राष्ट्र की संरचना और भारतीय राजनीति के हिंदुत्व कायाकल्प जितना अबाध हुआ है,वह वास्तव में भारतीय संविधान के बदले मनुस्मति विधान के ब्राह्मण धर्म के अंधकार का वृत्तांत है और सामाजिक यथार्थ और उत्पादन संबंध,अर्थव्यवस्थी पवित्र मिथकों के शिकंजे में हैं और विज्ञान विरोधी मानवविरोधी आटोमेशन की तकनीकी शिक्षा हमें इस चस तक पहुंचने नहीं देती।

वोटबैंक के लिए हिंदुत्व और राजकाज में जाति,भाषा,क्षेत्र और नस्ल के आधार पर रंगभेदी नरसंहार का गणित हमारी समझ से बाहर है।शिक्षा का अवसान है तो मनुष्यता का अंत है और सभ्यता गोहत्यानिषेध का रामजन्मभूमि आंदोलन है।

निरंकुश धर्मोन्मादी नस्ली फासिस्ट सत्ता के खिलाफ संसदीय गोलबंदी के तहत हिंदुत्व की राजनीति को हिंदुत्व की राजनीति के तहत मजबूत करने में सत्ता वर्ग का विपक्षी खेमा कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा है।

मुक्तबाजारी हिंदुत्व के एकाधिकार वर्चस्व के मनुसमृति विधान लागू करने के लिए कारपोरेट फंडिंग से मुनाफा की शेयरबाजारी राजनीति का बगुला भगत पाखंडी चरित्र रामनाम की तर्ज पर जुमलेबाजी की हवा हवाई मीडियाई मोदियाई तौर तरीके के साथ 1991 से हिंदू राष्ट्र के एजंडे के साथ जिस बेशर्मी से चल रही है,उसका ताजा नजारा यह गोसर्वस्व राम के नाम नया राजसूय यज्ञ आयोजन है।

संसदीय विपक्ष जनता से पूरी तरह अलग थलग कारपोरेट हित में संघ परिवार के नूस्खे पर ही राजनीति कर रहा है और तमाम बुनियादी मुद्दे और सवाल जैसे सिरे से माध्यमों और विधाओं से गायब हैं,उसीतरह राजनीति और समाज में भी उनका कहीं अतापता नहीं है।

बुनियादी और आर्थिक सवालों को हाशिये पर रखकर सत्ता समीकरण के वोटबैंक राजनीति के तहत धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता के नाम पर जानबूझकर संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडे के गाय और राम के मुद्दे पर पक्ष प्रतिपक्ष की राजनीति और सारा विचार विमर्श सीमाबद्ध है और पीड़ित उत्पीड़ित आवाम की चीखें कहीं दर्ज हो नहीं रही हैं तो दूसरी तरह राष्ट्र का सैन्यीकरण फासिस्ट नस्ली रंगभेदी नरसंहार के एजंडे के तहत मुकम्मल है।

हम अरबों करोड़ों में खल रहे राजनेताओं को इतना डफर नहीं मानते कि वे संघ परिवार के बिछाये जाल में फंसकर राजकाज और राजनय,अर्थव्यवस्था के तमाम मुद्दों,कृषि संकट,कारोबार और उद्योग के सत्यानाश,बेरोजगारी छंटनी,मंदी,भुखमरी और बुनियादी सेवाओं और जरुरतों को क्रयशक्ति से जोड़ने के खिलाफ गोहत्या प्रतिबंध के खिलाफ गोमांस उत्सव जैसे संवेदनशील सांस्कृतिक जोखिम उठाकर अस्सी प्रतिशत से ज्यादा बहुसंख्य जनसंख्या के गाय और राम के नाम हिंदू सैन्य राष्ट्र के पक्ष में ध्रूवीकरण कैसे होने दे रहे हैं या फिर रामजन्मभूमि आंदोलन केतहत जनसंख्या की राजनीति के तहत धारिमिक ध्रवीकरण की संघी रणनीति को कामयाब करने में कोई कोर कसर छोड़ क्यों नहीं रहे हैं।

क्योंकि सिखों के नरसंहार के वक्त  भी राष्ट्र की एकता और अखंडता के नाम समूची राजनीति कांग्रेस की सत्ता और संघ परिवार के हिंदुत्व के साथ गोलबंद थी।सिखों के सैन्य दमन का भी भारतीय धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील हिंदुत्ववादी सवर्ण राजनीति का कोई विरोध उसी तरह नहीं किया था जैसे कि भारत के अभिन्न अंग कश्मीर घाटी की बहुसंख्य मुस्लिम आबादी के खिलाफ युद्ध का कोई विरोध नहीं हो रहा है या मध्य भारत और आदिवासी भूगोल में भारतीय नागरिकों का अबाध कत्लेआम और पूरे देश में दलित और आदिवासी औरतों के साथ बलात्कार और समामूहिक बलात्कार के मुद्दे पर सड़क से संसद तक सन्नाटा पसरा हुआ है या पूर्वोत्तर में नस्ली रंगभेद के चलते वहां जारी नागरिक और मानवाधिकार के सैन्य दमने से हिंदू अंतरात्मा में कोई मानवीय संवेदना की सुनामी पैदा नहीं होती जैसे राम और गोमाता के नाम पर पैदा हो रही है।

यह समय सैन्य राष्ट्र में कारपोरेट नरबलि का समय है और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का हिंदुत्व राष्ट्रवाद हमारे हिंदू मानस के कारपोरेट उपभोक्ता मन और मानस में इंसानियत का कोई अहसास पैदा ही नहीं होने दे रहा है।

यही हमारी संसदीय राजनीति भी है।


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Tuesday, May 30, 2017

ভারতের জন্য একটি আত্মার খোঁজে কর্নেল ভূপাল লাহিড়ী

ভারতের জন্য একটি আত্মার খোঁজে

                     

                                কর্নেল ভূপাল লাহিড়ী

    

      সমস্ত বিশ্বজুড়ে একদিকে যেমন টেকনোলজির উন্নতি হচ্ছে অত্যন্ত দ্রুত গতিতে এবং লাফিয়ে লাফিয়ে বৃদ্ধি পাচ্ছে বিলাসবহুল দ্রব্যের চাহিদা ও ব্যবহার, অপর দিকে তারই সাথে পাল্লা দিয়ে বাড়ছে মানুষের অনৈতিকতা, হিংসা ও হিংস্রতা। এই মানবিকতার অবনমনের চিত্র আমাদের দেশ ভারতবর্ষেও অত্যন্ত স্পষ্ট। একজন ধর্ষিতা মহিলা উলঙ্গ হয়ে দিন দুপুরে দিল্লির রাজপথ দিয়ে চিৎকার করে ছুটছে - অসংখ্য পথচারি  সে দৃশ্য দাঁড়িয়ে দেখছে, কেউ সাহায্যের জন্য এগিয়ে আসছে না। ছত্তিশগড় রাজ্যে রায়পুরের রেভিনিউ বিভাগের আধিকারিকরা বাধ্য করছেন পঁচানব্বই বয়সের এক অসুস্থ বৃদ্ধাকে এই গ্রীষ্মের দাবদাহের মধ্যে চল্লিশ কিলোমিটার পথ ঠেলাগাড়িতে চড়ে সশরীরে তাদের দফতরে উপস্থিত হতে, যাতে করে তিনি তার তিন মাসের বকেয়া পেনসন-এর ১০৫০ টাকা পান। সম্প্রতি উড়িষ্যার হাসপাতাল থেকে এক পিতাকে তার মৃত কন্যার শব দশ কিলোমিটারের বেশি পথ কাঁধে করে বয়ে নিয়ে যেতে আমরা দেখেছি। প্রতিদিন এরকম অসংখ্য ঘটনা খবরের কাগজের পৃষ্ঠায় পৃষ্ঠায় আর টেলিভিসনের পর্দায়।

     বিশ্ববিখ্যাত সমাজ বিজ্ঞানীরা ও মনোস্তত্ববিদ্‌রা এই সমস্যার চুলচেরা বিশ্লেষণ করেছেন এবং কারণগুলো দেখিয়েছেন। তার মধ্যে রয়েছে ভোগবাদজনিত লোভের আধিক্য, একদিকে জনসংখ্যা বৃদ্ধি ও অপরদিকে প্রয়োজনীয় ভোগ্য বস্তুর অপ্রতুলতা, বেকার সমস্যা, তীব্র ও অস্বাস্থ্যকর প্রতিযোগিতা, হতাশাজনিত মনোবিকার ইত্যাদি ইত্যাদি। আধুনিক কালের পণ্ডিতেরা নানা কারণ দেখিয়েছেন বটে, কিন্তু এই সর্বগ্রাসী ও সর্বনাশা সমস্যার সমাধান কীভাবে হবে, সে রাস্তা দেখাতে পারেননি।

   আমরা ভারতবাসীরা নেহাতই হতভাগা, নইলে এই সমস্যার যে সমাধানসূত্র আমাদের প্রাচীন কালের মুনি ঋষিরা বেদ উপনিষদে লিখে গেছেন, সেদিকে আমরা ফিরেও তাকাইনি। বেদান্তের যে অমৃতকুম্ভ স্বামী বিবেকানন্দ আমেরিকা ও ইউরোপে বয়ে নিয়ে গিয়েছিলেন এবং মানুষের চৈতন্যবিকাশের জন্য যে আধ্যাত্মিকতার বানী বিশ্ববাসীকে শুনিয়েছিলেন, সেই মহাজাগরণের স্বদেশি মন্ত্রকে আমরা স্বেচ্ছায় বিসর্জন দিয়েছি। সেই সাথে আমদানি করেছি বিদেশি মন্ত্র - power flows through the barrel of the gun! রক্তাক্ত বিপ্লবের মধ্য দিয়েই আসবে দেশের ক্রান্তি!     

     স্বামী বিবেকানন্দের জন্মভূমি এই আধ্যাত্মিক ভারতবর্ষে দীর্ঘদিন ধরে দেখলাম বন্দুকের ব্যারেল গরম করা সেই ইম্পোর্টেট বিপ্লবের ছবি আমাদের চোখের সামনে সেই হিংসাত্বক রাজনীতি সমাজের সর্বস্তরে ধীরে ধীরে সঞ্চারিত হয়ে সর্বত্র এক হিংস্র ও অমানবিক বাতাবরণ সৃষ্টি করলরাজনৈতিক নেতাদের পোষা সমাজবিরোধীর দল বন্দুক আর বোমা হাতে নিয়ে বুক চিতিয়ে দিন রাত দাপিয়ে বেড়াল শহরের অলি গলিতে আর গ্রামের মাঠে ঘাটে।

   সম্প্রতিকালে এই ছবিটা অবশ্য পাল্টেছে। এখন বন্দুক বোমা নয়। হাতে তরোয়াল আর ত্রিশূল হাতে নিয়ে গৈরিক বস্ত্রধারীদের রাজপথে মিছিল! ভারতবাসীর চৈতন্যবিকাশের জন্য স্বামীজীর আধ্যাত্মিক শিক্ষার পরিকল্পনা এখন তরোয়াল ও ত্রিশূলধারীদের পায়ের তলায় রাজপথে গড়াগড়ি।

    স্বাধীনতার পর থেকেই রাজনৈতিক দলগুলোর মধ্যে চলেছে রক্তক্ষয়ী ক্ষমতা দখলের লড়াই, আর সেই  লড়াইয়ে চারিদিকে সৃষ্টি  হয়েছে হিংস্রতার বাতাবরন। এক প্রতিবেশী আর এক প্রতিবেশীর ঘরে আগুন দিচ্ছে। দেওর দাদাকে খুন করে রক্তমাখা ভাত বৌদিকে খেতে দিচ্ছে।

   নোংরা ভোটের রাজনীতিতে আর সর্বগ্রাসী দুর্ণিতীতে সংবিধান রচয়িতাদের ওয়েলফেয়ার স্টেটের স্বপ্ন কবে উবে গেছে কর্পুরের মতোদুর্নিতিগ্রস্ত রাজনৈতিক নেতা, মেরুদণ্ডহীন পদলেহনকারী প্রশাসন ও সম্পদ-লুন্ঠনকারী মাফিয়াদের আঁতাতের ফলে রাষ্ট্রব্যবস্থা পরিণত হয়েছে আত্মাহীন এক বিশাল শোষণযন্ত্রেসাধারণ মানুষের অধিকার, আশা, আকাঙ্ক্ষা এই অমানবিক যন্ত্রদানবের চাকার তলে আজ পিষ্ট।  

   এসব দেখে শুনেও, আমরা সমাজের শান্তিপ্রিয় সাধারণ মানুষ চাতকের মতো চেয়ে আছি, কবে এই হৃদয়হীন যন্ত্রে একটি আত্মা প্রতিস্থাপিত হবে, কবে কোন রাজনৈতিক দল কৃপা করে  আমাদের মাথায় দুফোঁটা শান্তিজল ছেটাবে!

  আমরা জানি, নৈতিকতা না থাকলে, ব্যক্তি বা সমাজের সমৃদ্ধি সম্ভব নয়। আমাদের ব্যক্তিজীবনে, সমাজে ও রাষ্ট্রে যদি নৈতিকতা, শান্তি ও সমৃদ্ধি ফিরিয়ে আনতে হয়, তাহলে আমাদের আর্থিক উন্নয়ন ও ভোগবিলাসের দ্রব্য আহরণের সাথে সাথে চেতনাবিকাশের দিকেও নজর দিতে হবে। আর এই চেতনাবিকাশের একমাত্র পথ আধ্যাত্মিকতা। সেই পথের কথা লেখা আছে আমাদের প্রাচীন বেদে ও উপনিষদে। এবং সেই পথের কথাই আমাদের সরল ভাষায় একদিন বুঝিয়েছেন স্বামী বিবেকানন্দ।

  আধ্যাত্মিকতার উদ্দেশ্য ঈশ্বর-প্রাপ্তি নয় - উদ্দেশ্য আত্মার উন্নয়ন, চৈতন্যের উন্মেষ, ব্যক্তি ও ব্যষ্টির (সমাজ ও রাষ্ট্রের) উন্নত জীবন দর্শন। সেই জীবন-দর্শনের তত্ত্ব সকল ধর্ম-গ্রন্থেই লেখা আছে, এক্ষেত্রে ধর্মে ধর্মে কোনও বিভেদ নেই। কিন্তু মুশকিলটা হয়েছে কট্টরবাদীদের নিয়ে। তারা ধর্ম নামক দর্শনকে দুমড়িয়ে মুচড়িয়ে এমন ভয়ঙ্কর রূপ দিয়েছে, ধর্ম থেকে আধ্যাত্মিকতাটাই উধাও হয়ে হয়ে গেছে। এখন ধর্ম কথাটা শুনলেই সাধারণ মানুষের মনে আতঙ্ক সৃষ্টি হয়, গায়ে কাঁটা দেয়। ওই ভয়ঙ্কর বস্তুটি থেকে দশ হাত দূরে থাকো!

   কিন্তু আমাদের বুঝতে হবে নৈতিকতার ক্রমাগত অবক্ষয় ও অমানবিকতার এই মহামারিকে প্রতিরোধ করতে হলে আধ্যাত্মিকতা ছাড়া অন্য কোনো পথ নেই। তাই ধর্মনির্বিশেষে আধ্যাত্মিকতার প্রকৃত অর্থ ও উদ্দেশ্য অনুধাবন করে সেটিকে আমাদের ব্যক্তি ও সমাজ-জীবনে সামিল করতে হবে। আর সেটি যাতে করে আমাদের প্রত্যেকের আত্মার গভীরে প্রবেশ করে জীবনের অবিচ্ছেদ্য অঙ্গ হয়ে যায়, শুরুটা করতে হবে সেই ছোটোবেলা থেকে।

  এভাবেই একদিন পুনঃপ্রতিষ্ঠিত হবে ভারতের আত্মা। প্রত্যেক ভারতবাসীর মনে আবার ভেসে উঠবে ভারতমাতার সেই ছবি যাকে শৃঙ্খলমুক্ত করতে একদিন হাজার হাজার স্বদেশপ্রেমী তাঁর পদাম্বুজে অঞ্জলি দিয়েছে তাদের বুকের তাজা রক্ত।

Monday, May 29, 2017

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি ও জীবন জীবিকা বিমুখ প্রযুক্তিনির্ভর বিজ্ঞান যুক্তি বিরোধী বেকারত্বের শিক্ষা নিয়ে কিছু জরুরী কথা! বিকল্প শিক্ষা ব্যবস্থার পরিকাঠামো নিয়ে কিছু চিন্তা ভাবনা! Palash Biswas



#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি ও জীবন জীবিকা বিমুখ প্রযুক্তিনির্ভর বিজ্ঞান যুক্তি বিরোধী বেকারত্বের শিক্ষা নিয়ে কিছু জরুরী কথা!
বিকল্প শিক্ষা ব্যবস্থার পরিকাঠামো নিয়ে কিছু চিন্তা ভাবনা!
Palash Biswas


India may be the world's fastest growing major economy, but the benefits of that growth do not seem to be percolating down to the masses.This is the problem of development not discussed at all.

Beef gate yet again the best tool activated to divert the urgent discussion on economic crisis,employment,education,health and environment which helps the politics of demography, religion,violence,ethnic cleansing and Apartheid,Patriarchy!

Total failure of governance,law and order, fiscal management covered with rigid blind nationalism of Hindutva and beef ban helps to dismiss every mandatory question.

Thus,India politics as well as people of India have been arrested within the tap of a cultural shock created against the majority of Indian demography,970 million to implement the corporate Hindutva agenda of ethnic cleansing!

Ban on sale of cattle at markets for slaughter: Citing federalism, West Bengal, Kerala object to Centre's order

Kerala CM Pinarayi Vijayan as well as West Bengal CM Mamata Banjeree opposed the ban and appealed to his counterparts in other states to object to the "covert attempt to usurp powers of the state legislature in guise of rules under a Central Act."

Hindustan time reports:

Where are the jobs? Being in denial over unemployment woes won't help Modi govt

To begin with, it is imperative that the government and the ruling coalition acknowledge the challenge, and not be dismissive about it. Ambiguous expressions such as "promoting self-employment" do not help.

 Please read:
Business Standard reports:
On May 1, the annual workers' march in Bengaluru to mark the Labour Day saw for the first time a group representing employees of the (IT) industry. It was probably an ominous sign of things to come.

The past few weeks have seen several hundred people let go of by IT services firms joining the Forum for (FITE) or the (NDLF) Wing, two unions claiming to represent tech workers fighting for their rights.

FITE has led the charge by filing cases with the labour departments in Bengaluru, Pune, Hyderabad and Chennai against firms such as Wipro, Tech Mahindra and Cognizant, saying engineers were wrongly terminated by these 

Nitin Sharma (name changed to protect identity), for example, was one such worker who reached out to FITE after being let go.

Sharma, an employee of a large IT services firm, got a promotion last year after four years. When a set of new employees joined his team at a lower pay scale, a senior informed him about his imminent exit. A few days later, he was asked to resign. "I have documents to prove I showed consistent performance. Suddenly, I was given the lowest performance rating available. They said the HR (human resources) department gave me this rating," said Sharma. 

More such people are reaching out to trade unions for help. The have said people were let go because of weak performance as part of the annual review exercise. But this has attracted attention this year as the sector faces its worst crisis in a decade — primarily because of rising protectionism overseas and increasing automation.

For nearly two decades, India's export-focused software industry saw rapid double-digit growth as western clients outsourced work to cut costs and improve profitability. The sector logged exports of $110 billion last year and employed 3.9 million people. 
As the industry matured, grew in single digits. Costs rose, too. But clients started cutting outsourcing budgets on traditional services and spending more on digital and cloud technologies. Lower-end work such as testing and maintenance, which employed a huge number, saw major automation. Then came the blow from abroad. Governments in the US, the UK, Australia and Singapore started restricting movement of inbound labour to protect local jobs. Indian then started looking at ways to cut costs. Non-performers or those who did not have the skills to migrate to new areas were let go. The started hiring residents in the country of operation to get around the governments' labour blockade.

While the industry remains a net hirer, said lobby group Nasscom, "workforce realignment linked to performance appraisal processes is a regular feature every year. Skilling and workforce realignment are essential to remain competitive in international markets. It needs to be appreciated that such workforce realignment is a normal part of the internal process of based on their own operational imperatives." 

Usually, employees let go during the annual appraisal cycles would be absorbed by other firms looking for such skill-sets. This year, however, people being laid off are not getting jobs. Engineers laid off in 2016 are still struggling to get jobs in the new environment. This has led to such engineers getting into unions or forming groups. 

For more than a decade, have largely stayed away from such groupings. High-paying salaries, opportunities to travel to client locations abroad and retention efforts by kept these people glued to the job.  

In 2014, Tamil Nadu saw efforts to unionise after Tata Consultancy Services (TCS) allegedly laid off a large number. The company had denied any such move. Three unions — FITE, a platform formed by the Young Tamil Nadu Movement (YTNM); NDLF Wing and Knowledge Professionals Forum — emerged and started taking up the cases of those who approached them.

Their fight got a shot in the arm in January 2015, when a woman employee got an interim injunction against a termination order issued by TCS. The employee, who was pregnant, was later reinstated by TCS, "as an exceptional case, in line with its practice of not relieving any employee during pregnancy".

Other employees, too, started petitioning the labour department. In June 2016, the Tamil Nadu government allowed employees of to form a trade union, saying labour legislations did not exempt in the IT and IT-enabled services verticals. Maharashtra, too, said the IT sector would get no exemption in this regard.

Maharashtra's Commissioner of Labour Yeshawant Kerure said, "As there is no special Act governing IT, we can only try to protect labour interests based on acts like the Industrial Disputes Act. We try to resolve disputes by inviting both parties to mediate. If that fails, then we advise them to approach the respective labour court. IT sector needs special attention, which is something we will be looking at. There is very little representation in terms of employee rights and that too from a single group". 

Industry response

The industry has played the survival card. When the going was good for companies, employees benefitted. But during tough times, they need to evolve to survive. Firms also say they spend millions of dollars to train and upgrade skills of employees.

C Prabhakar, president of Karnataka Employers' Association, and a labour law expert, said it could become a "question of survival" for IT if they retain surplus people who cannot hone new skills. "The quantum of employees let go of is normal, like before. In IT companies, unlike manufacturing, individual contribution of software engineers is important and there is scope for enhancing skills, too. Even if the management cannot oppose formation of unions, encouraging such unions may turn out to be detrimental," said Prabhakar, a former board member at Wipro. IT provide better service conditions than, say, a factory, he said. "should realise the importance of re-skilling themselves," he added.

Saurabh Govil, head of human resources for Wipro, said in a recent interview: "Unions come as a consequence of an economic reason. Here we are dealing with knowledge workers. They understand it is about being transparent, and fair. You can take a tough call. If you treat people with respect transparency and perceived fairness, then there would not be an issue."

IMPERATIVES FOR JOB CREATION IN INDIA

Vivan Sharan | in Oped/the Pioneer

Recent lay-offs in the IT sector call for the creation of a virtuous cycle of progressive policies which can lead to rounds of investment, innovation and consumption

Recent lay-offs of workers in India's cost-arbitrage driven Information Technology (IT) sector, and the Prime Minister Office's renewed emphasis on job creation have resulted in a much-needed public debate on the future of work. Automation threatens most jobs in India, according to the World Bank, which also maintains that the more widespread the use of technology, the more the impact on jobs. This argument can be challenged in the context of India's large informal workforce. Here, technological dispersion has created jobs through efficiency gains. Notably, in the case of the logistics sector, the use of tracking and communication tools (such as GPS-enabled mobile phones) has helped in the formalisation of supply chains, in unlocking value and in creating jobs. Indeed, very few deterministic assumptions are appropriate in India where 100 million broadband consumers were added in a short period between August 2016 and this February — denoting technological dispersion without precedent.

To grapple with technological complexities, policy-makers must look at the job discourse from a holistic vantage point. For instance, it may be tempting for them to pick winners when faced with technological uncertainties. Energy policy is an example of this — several international Governments have pre-empted technological choices of industries and consumers,with policies aimed at incentivising one technology over another. Empirical evidence, including from advanced industrial economies such as Germany, shows that this approach skews market incentives and yields suboptimal employment. For India, with limited technical resources and capacity of Government, a rigid approach is even more problematic. Our policy-makers must strive to be technology-agnostic while also continuously engaging with the private sector to address difficulties that limit value creation.

Instead of responding to new economic paradigms through knee-jerk protectionism, the Government should rapidly implement the many small, yet powerful interventions that can help the private sector survive technological disruptions. Generation of value and surplus — to invest into technology, upskilling and jobs is central to surviving disruptions across industries.

Inherently, resilient industries such as those within the 'creative economy', which spans the entire media and entertainment sector, offers a good illustrative template for this. The creative economy has propelled multi-billion dollar brands, enhanced India's soft power projection, engaged thousands of entrepreneurs, provided platforms for timely dissemination of vital information and news and contributed significantly to service sector growth. Although its impact is felt globally and it employs over 6.5 lakh workers, the relative contribution of India's creative economy to the GDP (0.9 per cent), is much less than what is seen in most emerging market counterparts; such as Indonesia (over 1.5 per cent), South Africa (over three per cent) and Brazil (nearly 3.5 per cent). Advanced economies of course are in a different league altogether. Illustratively, Bollywood's annual revenues add up to less than a tenth of the size of the Harry Potter franchise.

The anatomy of low value addition in the Indian creative economy illustrates several elements of the job creation conundrum. The television market has been disrupted by technological change globally — online video, Direct To Home and other technologies have disintermediated downstream distributors and helped spread video on demand. At the same time upstream broadcasters in India, who underwrite most content on television and account for about half the economic size of the creative economy, face onerous price regulations. Successive Governments have chosen to protect distributors under the banner of consumer protection instead of letting an industry with proven job creation ability operate on market terms. In a competitive television market with nearly 1,000 channels and no dominance by any one stakeholder or channel, there is no economic case to be made for price regulation. The Government's own attempts at justifying otherwise have never relied on any economic rationale.

Owing to an inability to monetise high value content, little surplus is available in the industry for requisite technology and infrastructure investments required for seamless distribution of video on congested Indian wireless networks. Moreover, because of the current regime, most of the creative content on TV is aimed at garnering maximum eyeballs to keep advertisers happy. This limits the versatility of Indian content and if data remains cheap, discerning consumers will eventually be left with no option but to cut their cords. At the imminent inflection point where mainstream Indian content creators and distributors are forced to compete with global peers, the creative engine will struggle to keep going. It will find itself hopelessly short of funds, infrastructure, and workers with the wherewithal to augment their output to match global standards.

Such a vicious cycle can play out in most industries that depend on technology in some form. The Government should begin thinking of the future of jobs in terms of a virtuous cycle. That is progressive policies and regulations can potentially create the much-desired cycles of investments, innovation and consumption, which can in turn generate new jobs and secure existing ones through upskilling. Creation of economic value should be the mission statement of Government and towards this, it must not pre-empt technological change.

(The writer is a partner at Koan Advisory Group, New Delhi)


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Friday, May 26, 2017

रोजगार नहीं मिलेगा,स्वरोजगार का बंदोबस्त है! लाखों स्वयंसेवक भर्ती किये जा रहे हैं।जो देश के अलग अलग युद्धक्षेत्र में मरने और मारने के लिए तैनात किये जा रहे हैं।यही स्वरोजगार है शायद। अन्यत्र सभी सेक्टर में तो छंटनी और कत्लेआम का माहौल है। पलाश विश्वास

रोजगार नहीं मिलेगा,स्वरोजगार का बंदोबस्त है!

लाखों स्वयंसेवक भर्ती किये जा रहे हैं।जो देश के अलग अलग युद्धक्षेत्र में मरने और मारने के लिए तैनात किये जा रहे हैं।यही स्वरोजगार है शायद।

अन्यत्र सभी सेक्टर में तो छंटनी और कत्लेआम का माहौल है।

पलाश विश्वास

मोदी उत्सव के शुभारंभ पर गोहत्या निषेध लागू करने करने के लिए देशभर में मांसाहार प्रतिबंधित कर दिया गया है।गायों के साथ खेती के लिए पालतू जानवरों कीक बिक्री भी  प्रतिबंधित कर दी गयी है।तो दूसरी ओर युद्धोन्माद का माहौल घना बनाने के लिए अरुणाचल को असम से जोड़ने वाले सबसे लंबे पुल के उद्घाटन को चीन से निबटने की सैनिक तैयारी बतौर पेस किया जा रहा है।

अरुणाचल को लेकर भारत चीन विवाद पुराना है और सड़क संपर्क से अरुणाचल को बाकी भारत से जोड़ने की इस उपलब्धि को चीन के सात युद्ध बतौर प्रचारित करने की राजनाय और राजनीति दोनों समझ से बाहर है।

1962 के भारत चीन युद्ध की पृष्ठभूमि में संसद में नेहरु क बयान को काफी लोग जिम्मेदार मानते हैं।इस सरकारी पार्टीबद्ध राष्ट्रवादी प्रचार से क्या चीन को युद्ध का खुला न्यौता दिया जा रहा है या नहीं,हमारी समझ से बाहर है।यह भी समझ से बाहर है कि संवेदनशील सीमा क्षेत्र में सैन्य तैयारियों का खुलासा करके मीडिया किस तरह का देशप्रेम दिखा रहा है।

सामान्यज्ञान तो यह बताता है कि सुरक्षा संबंधी तैयारियों के बारे में सख्ती के साथ गोपनीयता बरतनी चाहिए।देश की सुरक्षा तैयारियों के राजनीतिक इस्तेमाल को क्या कहा जा सकता है,भक्तमंडली तय कर लें।

मोदी उत्सव की शुरुआत में हालांकि संघ के सिपाहसालार ने ईमानदारी बरतते हुए साफ कर दिया है कि सबको नौकरी देना उनकी सरकार का काम नहीं है।बल्कि राजकाज स्वरोजगार पर है।शाह ने कहा, ''हमने रोजगार को नये आयाम देने की कोशिश की, क्योंकि 125 करोड़ लोगों के देश में हर किसी को रोजगार मुहैया कराना संभव नहीं है। हम स्वरोजगार को बढ़ावा दे रहे हैं और सरकार ने आठ करोड़ लोगाें को स्वरोजगारी बनाया है।

इस स्वरोजगार का मसला क्या है,उनने खुलासा नहीं किया है।

किस सेक्टर में स्वरोजगार मिलना है ,इसकी कोई दिशा कम से कम हम जैसे कम समझ वाले लोगों की समझ के बाहर है।

संघ परिवार के स्वदेशी जागरण मंच को भी यह मामला शायद समझ में नहीं आ रहा है।सबसे ज्यादा चिल्ल पों स्वदेशी जागरण मंच के स्वयंसेवक मचा रहे हैं।हालाकि उन्हें अभी किसी ने राष्ट्रद्रोह का तमगा दिया नहीं है।

खेती में तो किसान और खेतिहर मजदूर खुदकशी कर रहे हैं और खुदरा कारोबार समेत तमाम काम धंधे पर कारपोरेट एकाधिकार है।

युद्ध जैसी परिस्थिति से निपटने के लिए देश सेना के हवाले हैं और संसद और सांसदों को उनसे सवाल पूछने का हक भी छीन लिया गया है।

यूपी में ऐसी ही युद्ध परिस्थिति में कत्ल और बलात्कार के खून के धब्बे मिटाने के लिए अलग प्रचार अभियान चल रहा है और बाकी सचार कंपनियों पर निषेधाज्ञा जारी करके एक चहेती कंपनी के मोबाइल से दंगा भड़काने का पवित्र धर्म कर्म जारी है।रक्षा उत्पादन में भी उसी कंपनी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है तो तीन साल के राजकाज के हिंदुत्व की आड़ में एक योगी का कारपोेरेट साम्राज्य ग्लोबल हो गया है।

अफसोस है कि यूपी वालों को देश बचा लेने की अपील हमने की थी।

कोलकाता में बैठकर यूपी की जमीनी हालत न जानने की वजह से हम यह गलती कर बैठे।

नोटबंदी के बाद वह चुनाव कब्रिस्तान और श्मशानघाट के मुद्दे पर लड़ा गया है और योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी के  चंद दिनों में ही यूपी देश का सबसे बड़ा श्मशान और सबसे बड़ा कब्रिस्तान बी साबित होने लगा है।

जिस हिंदुत्व की सुनामी के दम पर यूपी फतह कर लिया गया,वह हिंदुत्व अब जातियों के महाभारत में तब्दील है और यूपी में जाति युद्ध के हालात कश्मीर के संगीन हालात से कम नहीं है।

जातियों में बंटकर हिंदी आपस में मारकाट करके खुद अपना सफाया कर रहे हैं,हिंदुत्व के एजंडे का यह करतब या करिश्मा भी खूब है।वोट से पहले समरसता और वोट के बाद महाभारत और हस्तिनापुर का साम्राज्यऔर राजकाज ही यूपी की संस्कृति है तो बाकी देश की भी संस्कृति वहीं है।

आत्मध्वंस का राजमार्ग शायद यमुना एक्सप्रेस वे का नया नाम है या फिर गंगा सफाी का मतलब गंगा यमुना के मैदानों में बसी आबादी का सफाया है।

धार्मिक ध्रूवीकरण के तहत हिंदुत्व के नाम पर बंगाल में जो हो रहा है,उसके दृश्य भी सार्वजनिक हैं और बंगाल में भी हाल यूपी जैसे ही हैं।

स्वरोजगार से गोरक्षा का कोई संबंध है या नहीं ,कहा नहीं जा सकता।देश जीतने के लिए भी स्वरोजगार का नया क्षेत्र खुल गया है।

लाखों स्वयंसेवक भर्ती किये जा रहे हैं।जो देश के अलग अलग युद्धक्षेत्र में मरने और मारने के लिए तैनात किये जा रहे हैं।यही स्वरोजगार है शायद।

अन्यत्र सभी सेक्टर में तो छंटनी और कत्लेआम का माहौल है।

नोटबंदी से मुलायम और मायावती के खजाना बेकार करने की रणनीति से यूपी फतह जरुर कर ली गयी,लेकिन उससे कालाधन कितना निकला ,इसका कोई हिसाब नहीं मिला है।

बहरहाल नोटबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र में देशभर में नकदी संकट की वजह से लाखों लोग बेरोजगार हो गये और नोटबंदी की मार से उत्पादन इकाइयों और कारोबार जगत को उबरने का मौका अभी नहीं मिला है तो काम खोने वाले लोगों को नौकरी दोबारा मिलने की कोई संभावना नहीं दिखती है।खेती भी चौपट है और किसानों के लिए खुदकशी जिंदगी का दूसरा नाम है।

यह बेरोजगारी,मंदी,भूख,अकाल,भुखमरी,प्राकृतिक आपदाओं और महामारी का डिजिटल इंडिया है।ज्ञान के बदले मोक्ष का रास्ता अब तकनीक है।आगे स्वर्ग है।

संगठित क्षेत्र में अब तक सिर्फ आईटी सेक्टर में कम से कम पचास हजार युवाओं की छंटनी हो चकी है और अगले तीन साल में साढ़े छह लाख युवाओं के हात पांव दक्षता और तकनीक के नाम पर काट लिए जाने की तैयारी है।

अकेली कंपनियों में सिर्प एल एंड टी में 14 हजार लोगों की छंटनी हो गयी है।

एचडीएफसी बैंक में 10 हजार लोग निकाले गये हैं।

बाकी बैंकों में कितने लोग निकाले गये हैं,मार्केटिंग और मीडिया में भी व्यापक छंटनी के तहत कुल कितने लोग निकाले गये हैं और आगे निकाले जायेंगे,यह अंदाजा लगाकर हिसाब जोड़ने का मामला है क्योंकि इस सिलसिले में कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है।

विदेशी विनिवेश सर्वोच्च स्तर पर है और 2024 तक सेनसेक्स के पूंजी बाजाक केसूचंकांक के एक लाख तक पहुंचने की उम्मीद बतायी जा रही है।

मुनाफा के लिए सात प्रतिशत जीडीपी के मुकाबले एर प्रतिशत रोजगार सृजन का समीकरण हमारे पास है और सभी सेवाओं,सभी सेक्टरों,सभी सराकारी संस्थाओं और उपक्रमों में विनिवेश और निजीकरण के बाद कितना रोजगार बचा रहेगा,इसका हिसाब पढ़े लिखे लोग खुद लगा लें तो बेहतर है।

जाहिर है कि बलि से पहले जैसे बलिप्रदत्त को नशा कराया जाता है, उसीतरह जनसंख्या सफाये के लिए युद्धोन्माद और मजहबी जाति अस्मिता दंगों का यह माहौल तैयार किया जा रहा है ताकि संसादनों,मौकों,समता और न्याय से इस देश की बहुसंख्य आपस में मारकाट करती जनता का सफाया कर दिया जाये।

हमने पहले ही लिखा है कि हमें मानवाधिकार के बारे में चर्चा नहीं करनी चाहिए। धर्मांध देशभक्तों को नागरिक और मनावाधिकार की चर्चा से बहुत तकलीप होती है। हम तो गायों के बराबर हक हकूक मांग रहे हैं।

जितना चाकचौंद इतंजाम गायों को बचाने के लिए हो रहा है,इंसानों और इंसानियत को बचाने किए वैसे ही इंतजाम किये जायें तो बेहतर है।

लेकिन संघ के अश्वमेध अभियान के सिपाहसालार ने साफ साफ कह दिया है कि रोजगार नहीं मिलेगा,स्वरोजगार का बंदोबस्त है।

जाहिर है कि स्वरोजगार संघ परिवार की सेवा से ही संभव है

गौरतलब है कि गाय,बैल के अलावा भैंस से लेकर ऊंट तक खेती के काम में लाये जाते हैं।दूध का मामला साफ नहीं है वरना बकरियां भी नहीं बिकेंगी।बहरहाल मंगलवार को जारी केंद्र सरकार के नोटिफिकेशन में कहा गया है, "ऐसा उपक्रम कीजिए कि जानवर सिर्फ खेती के कामों के लिए लाए जाएं, न कि मारने के लिए।" इसके तहत कई कागजातों का प्रावधान किया है। नए नियम के मुताबिक सौदे से पहले क्रेता और विक्रेता, दोनों को ही अपनी पहचान और मालिकाना हक के दस्‍तावेज सामने रखने होंगे। गाय खरीदने के बाद व्‍यापारी को रसीद की पांच कॉपी बनवाकर उन्‍हें स्‍थानीय राजस्‍व कार्यालय, क्रेता के जिले के एक स्‍थानीय पशु चिकित्‍सक, पशु बाजार कमेटी को देनी होगी। एक-एक कॉपी क्रेता और विक्रेता अपने पास रखेंगे। बता दें कि अधिकतर राज्‍यों में साप्‍ताहिक पशु बाजार लगते हैं।

बहरहाल मीडिया के मुताबिक 26 मई 2017 को देश के तकरीबन 400 अखबारों में पहले पेज विज्ञापन दिया गया है, जो मोदी सरकार के तीन साल की उपलब्धियों से अटा है.

केंद्र सरकार का हर मंत्रालय अपनी बेमिसाल उपलब्धियों के बखान के लिए एक पुस्तिका भी जारी करेगा, जिसमें मोदी काल को यूपीए काल से बेहतर ठहराने की हर संभव कवायद होगी.

टीवी पर रेडियो पर विज्ञापनों की भरमार होगी. इस जश्न को 'मोदी फेस्ट' का नाम दिया गया है जो देश के तकरीबन हर छोटे-बड़े शहर में मनाया जाएगा.

इस फेस्ट की शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी 26 मई को असम से करेंगे. 20 दिन चलने वाले इस फेस्ट में मोदी सरकार के तमाम मंत्री, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और उनके मंत्री, पार्टी के छोटे-बड़े पदाधिकारी ब्रांड मोदी को अजर-अमर बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.

पर कम होते रोजगार अवसरों और छटनी की खबरों से इस फेस्ट पर ग्रहण सा लग गया है. प्रधानमंत्री मोदी सालाना एक करोड़ रोजगार देने के वायदे को पूरा करने में अब तक पूरी तरह नाकाम रहे हैं.

देश में रोजगार की दशा और दिशा पर केंद्र सरकार के श्रम मंत्रालय का श्रम ब्यूरो हर तिमाही में सर्वे कर आंकड़े जारी करता है. पिछली कई तिमाहियों में यह आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश में रोजगार सृजन लगातार कम हो रहा है.

श्रम ब्यूरो के ताजा सर्वे के अनुसार वर्ष 2015 और 2016 में 1.55 और 2.13 लाख नए रोजगार सृजित हुए जो पिछले आठ का सबसे निचला स्तर है.

मनमोहन सिंह काल के आखिरी सबसे खराब दो सालों यानी 2012 और 2013 में कुल 7.41 लाख नए रोजगार सृजित हुए पर मोदी राज के दो सालों 2015 और 16 में कुल 3.86 लाख रोजगार सृजित हुए हैं. यानी 2.55 लाख रोजगार कम.

यूपीए-2 के शुरू के दो साल यानी 2009 और 2010 में 10.06 और 8.65 लाख नए रोजगार सृजित हुए थे. यदि इसकी तुलना 2015 और 2016 से की जाए तो मोदी राज के इन दो सालों में तकरीबन 74 फीसदी रोजगार के अवसर कम हो गए हैं.

श्रम मंत्रालय का श्रम ब्यूरो ने यह तिमाही सर्वे 2008-09 के वैश्विक संकट के बाद रोजगार पर पड़े प्रभाव के आकलन के लिए 2009 से शुरू किया था.

मोदी सरकार ने इस सर्वे में कई बदलाव किए हैं और सर्वे में शामिल प्रतिष्ठानों की संख्या 10 हजार कर दी है जो पहले तकरीबन दो हजार थे. इस सर्वे में देश के समस्त राज्यों को  शामिल किया गया जो पहले 11 राज्यों तक सीमित था.

पहले इस श्रम सर्वे में यानी 2015 तक आठ सेक्टर शामिल थे-कपड़ा, चमड़ा, ऑटोबोइल्स, रत्न और आभूषण, ट्रांसपोर्ट, आईटी/बीपीओ, हैंडलूम,पॉवरलूम.

2016 में कुछ और सर्विस सेक्टर शामिल किए गये. अब इसमें यह आठ सेक्टर हैं- मैन्यूफैक्चरिंग, कंस्ट्रक्शन, व्यापार, ट्रांसपोर्ट, होटल और रेस्त्रां, आईटी/बीपीओ, शिक्षा और स्वास्थ्य. यूपीए काल में कंस्ट्रक्शन में रिकॉर्ड रोजगार के अवसर पैदा हुए थे, पर तब यह सेक्टर श्रम सर्वे में शामिल नहीं था.

बिजनेस स्टैंडर्ड में श्यामल मजुमदार का यह विश्लेषण जरुर पढ़ लेंः

ऑटोमेशन की वजह से नौकरियां जाने को लेकर हाल में मची उथल-पुथल को समझ पाना थोड़ा मुश्किल है। सभी को पता था कि यह जल्द ही आने वाला है लेकिन जब यह वास्तव में सामने आया तो अधिकतर लोग अचंभित नजर आने लगे। इस साल ऑटोमेशन के चलते सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में नौकरियां गंवाने वाले कर्मचारियों की संख्या उतनी अधिक नहीं है लेकिन भविष्य में यह आंकड़ा काफी परेशानी पैदा करने लायक हो सकता है। अगर कंपनियों और सरकार ने आईटी कर्मचारियों के प्रशिक्षण और कौशल विकास पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया तो स्थिति बिगड़ सकती है। उसके अभाव में बहुतेरे लोगों के लिए रोजगार की संभावनाएं क्षीण नजर आ रही हैं।

कर्मचारी और संगठन दोनों ही तकनीक के मोर्चे पर हो रही तीव्र प्रगति के साथ कदमताल नहीं कर पा रहे हैं। मसलन, कंप्यूटर प्रोसेसर की क्षमता हरेक 18 महीनों में दोगुनी हो जाती है। इसका मतलब है कि प्रोसेसर हरेक पांच साल में 10 गुना अधिक शक्तिशाली हो जाता है। ऐसे में सभी को तकनीकी बेरोजगारी जैसी शब्दावली के लिए तैयार हो जाना चाहिए। इस पर कोई संदेह नहीं है कि तकनीकी प्रगति का कौशल, पारिश्रमिक और नौकरी पर गहरा असर पड़ता है। तीव्र गणना क्षमता वाले सस्ते कंप्यूटरों और बड़ी तेजी से बुद्धिमान हो रहे सॉफ्टवेयर की जुगलबंदी ने मशीनों की क्षमता को उस स्तर तक पहुंचा दिया है जिसे कभी मानव की सीमा से परे समझा जाता था। अब बोले गए शब्दों को समझ पाने, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने और खास पैटर्न को पहचान पाने में भी ये सक्षम हो चुके हैं।

ऐसे में आश्चर्य नहीं है कि अतीत के कॉल सेंटर कर्मचारियों की जगह सवालों के खुद-ब-खुद जवाब देने वाले सिस्टम लेने लगे हैं। कृत्रिम बुद्धिमत्ता या ऑटोमेशन बड़ी तेजी से कारखानों से निकलकर उन क्षेत्रों में भी तेजी से पैठ बना रहा है जो बड़ी संख्या में रोजगार देते रहे हैं। रोजमर्रा का अनुभव बताता है कि तकनीकी बदलाव ने पिछले दो दशकों में किस तरह से कम और मध्यम स्तर की दक्षता वाली नौकरियों का सफाया ही कर दिया। क्या कोई भी कंपनी (एयर इंडिया जैसी को छोड़कर) सचिवों, टाइपिस्टों, टेलीफोन, कंप्यूटर ऑपरेटर और क्लर्कों की भारी-भरकम फौज को बरकरार रख पाई है? इन्फोसिस के प्रबंध निदेशक विशाल सिक्का ऑटोमेशन के चलते चलन से बाहर हो जाने की समस्या के बारे में पिछले कुछ समय से लगातार बोलते रहे हैं। कंपनी की तरफ से शुरू किया गया 'ज़ीरो डिस्टेंस' कार्यक्रम इसी सोच को बयां करता है। ग्राहकों के साथ संपर्क के स्तर पर ही आकार लेने वाले विचारों को फलने-फूलने का मौका देने के लिए यह कार्यक्रम शुरू किया गया है। कंपनी ने अपने कर्मचारियों के भीतर से करीब 300 लोगों की पहचान की है।

सिक्का ने इन्फोसिस के कर्मचारियों को नव वर्ष पर दिए अपने पहले बधाई संदेश में ही गंभीर चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था, 'इस समय तकनीक के क्षेत्र में सबसे बड़ा गतिरोध ऑटोमेशन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के ज्वारीय उफान के चलते आ रहा है जो आसानी से तकनीकी नौकरियों को बेदखल कर सकते हैं। खुद को आगे रखने के लिए जरूरी है कि उन्हें अपने सपनों की दुनिया से बाहर निकलना चाहिए और महज मशीनी तौर पर अपना काम पूरा करने के बजाय उपभोक्ताओं के लिए अधिक मूल्यवान कार्य करने पर ध्यान देना होगा।' सिक्का ने अपने संदेश में कहा था, 'अगर हम संकीर्ण जगह में ही सिमटे रह गए, केवल लागत पर ही ध्यान देते रहे और कोई समस्या आने पर प्रतिक्रिया में ही समाधान तलाशते रहे तो हम बच नहीं पाएंगे।' अब ज्यादा चर्चा बड़े डाटा और डाटा विश्लेषण की हो रही है जिसके चलते परंपरागत आईटी पेशेवरों और प्रबंधकों के सामने अपनी क्षमता का विस्तार करने या फिर नौकरी गंवाने की चुनौती खड़ी होने लगी है। अब यह पूरी तरह साफ हो चुका है कि हमारी दुनिया का डिजिटल रूपांतरण हो जाने से परंपरागत आईटी सेवा उद्योग गंभीर खतरे में आ चुका है।

ब्रिटेन के ऑक्सफर्ड मार्टिन स्कूल के कार्ल बेनेडिक्ट फ्रे और माइकल ए ऑजबर्न ने 'द फ्यूचर ऑफ एम्प्लॉयमेंट' शीर्षक से जारी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अमेरिका में इस समय उपलब्ध नौकरियों में से करीब आधी नौकरियां अगले दो दशकों में ऑटोमेशन की वजह से खत्म हो जाएंगी। रिपोर्ट के अनुसार, 'हमारा अनुमान है कि अमेरिका के कुल रोजगार का 47 फीसदी हिस्सा ऑटोमेशन के चलते गहरे खतरे में होगा। इसका मतलब है कि अनुषंगी कारोबार भी अगले एक या दो दशकों में ऑटोमेशन की जद में आ जाएंगे।' उद्योगों में लगे रोबोट विवेक और निपुणता बढऩे से अब पहले से अधिक उन्नत होते जा रहे हैं। वे रोजमर्रा से अलग हटकर भी विस्तृत मानवीय गतिविधियों को अंजाम देने में सक्षम होंगे। तकनीकी क्षमता के लिहाज से देखें तो उत्पादन कार्यों में बड़े पैमाने पर लगे लोगों की नौकरी अगले एक दशक में लुप्त होने की आशंका है।

लेकिन मुद्दा यह है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता या ऑटोमेशन को रोका नहीं जा सकता है क्योंकि इससे कंपनियों को आकर्षक रिटर्न मिलता है और जो काम इंसान नहीं कर सकते हैं उन्हें भी इसके जरिये बखूबी अंजाम दिया जा सकता है। जैसे, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप का आकलन है कि अमेरिका में एक वेल्डिंग कर्मचारी पर प्रति घंटे लागत रोबोटिक वेल्डर की तुलना में तिगुनी होती है। ऐसी स्थिति में कंपनियां उन्हीं लोगों को काम पर रखेंगी जिनके पास ऊंचे दर्जे के काम अंजाम देने की क्षमता होगी। भारत जैसे देश के लिए तो यह मामला और भी अधिक गंभीर है जहां एक करोड़ से भी अधिक लोग हर साल रोजगार की दौड़ में शामिल हो जाते हैं। सार्थक काम की बात छोड़ दीजिए, जब लोग अपनी नौकरी ही नहीं बचा पाएंगे तो उससे काफी गंभीर सामाजिक समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। ऐसे में नौकरी की चाह रखने वालों के लिए अपनी काबिलियत बढ़ाने और नए सिरे से कौशल बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

 

 


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