BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Monday, March 31, 2014

बिरसा मुंडा की तरह हम सभी मार दिए जायेंगे क्योंकि लकड़बग्घा तुम्हारे घर के करीब आ गया है

बिरसा मुंडा की तरह हम सभी मार दिए जायेंगे क्योंकि

लकड़बग्घा तुम्हारे घर के करीब आ गया है


पलाश विश्वास



भाई फैसल अनुराग ने लिखा हैः

बिरसा मुंडा की तरह हम सभी मार दिए जायेंगे यदि हम अब भी नहीं सचेत हुए तो। ये बड़ी कम्पनिओं के एजेंटों की पार्टियाँ हैं। हमारे जंगल और खदानों को लूटने के लिए ये हमें खरीदना चाहतीं हैं। हम बिरसा की तरह मरना पसंद करेंगें लेकिन बिकना नहीं। एक मुंडा ने एक भाषण में यह कहा।

तो रियाज ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता पोस्ट की है।


इन दोनों के एक ही प्रसंग और संदर्भ में रखकर आज का यह रोजनामचा है।


रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर दोनों टाप के कवि थे तो टाप के पत्रकार भी।हिंदी पत्रकारिता के नवउदारवादी संघी मसीहा संप्रदाय के अभ्युत्थान  से पहले,आपरेशन ब्लू स्टार पर बाकायदा इंदिरागांधी को संपादकीय में बिना देर स्वर्णमंदिर प्रवेश का उपदेश देते हुए हिंदुत्व की मौलिक तूफान रचने में जो सबसे ज्यादा सिद्धहस्त थे और मौजूदा तमाम दिग्गज जिनके आशीर्वादधन्य  गुरुघंटाल हैं,उनके  सर्वव्यापी वर्चस्व की वजह से आज न कविता में और न पत्रकारिता में कोई उनकी कहीं चर्चा करता है।


हमने तो दिनमान से पत्रकारिता के सरोकार के साथ साथ उसकी भाषा भी आत्मसात की है।जिस जनसत्ता प्रभाव में पत्रकीारिता की तत्सम मुक्ति संभव हुआ,उसमें भी सर्वेश्वर और सहाय के साथी हरिशंकर व्यास,वनवारी,जवाहरलाल कौल के साथ मंगलेश डबराल की महती भूमिका रही है।


आज भले ही रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर की तरह औद्योगिक पूंजी का समय नहीं है। लंपट,क्रोनी,आवारा वित्तीय पूंजी के शिकंजे में हैं भारतवर्ष,लेकिन समझने वाली बात तो यह भी है कि उनसे भी पहले सामंती उत्पादनप्रणालीमध्ये  मुक्तिबोध, प्रेमचंद और रामविलास शर्मा का रचा आज भी समान रुप से प्रासंगिक है।शहीदेआजम भगत सिंह के दस्तावेज आज भी हमें दिशाबोध कराते हैं।


सर्वेश्वर का लकड़बग्घा आज का यथार्थ समाजवास्तव है। कारपोरेट क्रोनी कैपिटल अबाध प्रवाहमान,नरसंहार अभियान अबाध और इस राजसूय यज्ञ को फासीवादी कर्मकांड में बदलने का यह आयोजन बाकायदा चुआड़ विद्रोह उपरांत अंत्यजों से बेदखल भूमि के स्थाई बंदोबस्त के  तहत बरतानी गर्भजात शासक वर्णवर्चस्वी नस्ली सत्तावर्ग के सर्वव्यापी आधिपात्य  धाराप्रवाह समय में भगवान बीरसा के अरण्य के अधिकार के उद्गोष के बिना प्रतिरोध असंभव है।


ख्या करने की बात तो यह है कि भारत का संविधान रचने वाले डा.बीआर अंबेडकर ने भी अंततः चेतावनी दी थीः


Parliamentary Democracy has never been a government of the people or by the people, and that is why it has never been a government for the people. Parliamentary Democracy, notwithstanding the paraphernalia of a popular government, is in reality a government of a hereditary subject class by a hereditary ruling class. It is this vicious organization of political life which has made Parliamentary Democracy such a dismal failure. It is because of this Parliamentary Democracy has not fulfilled the hope it held out the common man of ensuring to him liberty, property and pursuit of happiness.


-Dr Babasaheb Ambedkar


भारतीय लोकतंत्र के मौजूदा हालात और विकल्पहीनता के इस संकट पर इस अंबेडकरी तात्पर्य के संदर्भ में भी चर्चा होनी चाहिेए।


अंबेडकर क्या,जिस बरतानी संसदीय लोकतंत्र के हम लोग अनुगामी हैं,उसपर जार्ज बनार्ड शा का लिखा एप्पिल कार्ट का अध्ययन भी बेहद प्रसंगिक है। जहां जनता के द्वारा, जनता के लिए और जनती की सरकार वाली अवधारणा पर शा की दीर्घायित विचारोत्तेजक प्रस्तावना है।


धनतंत्र कोई नयी व्यवस्था तो है ही नहीं। भारतीय वंशवादी नस्ली सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में अंबेडकर की यह चेतावनी समझनी होगी।


मुझे तो ताज्जुब हो रहा है कि स्टार स्पोर्ट्स पर हर ओलर अंतराल अबकी बार मोदी सरकार के उद्घोष को भारतीय जीत की  धारावाहिकता में या मोदी की तर्ज पर या घर घर मोदी की तर्ज पर रुपांतरित करने से कैसे चूक गये मोदियाये सृजनकर्मी।


इस नारे को तो हिसाब से अब यह होना चाहिेए कि अबकी बार मोदी की सरकार,भारत की जय जयकार।


लगता है कि सेमीफाइनल या फाइनल में अश्वमेधी घोड़ों के पिट जाने की आशंका से उन्होंने यह दुस्साहस नही किया होगा।


खेलों में जो मुक्त बाजार का खेल है,वह आइकोनिक अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि है।


विज्ञापनी सितारे अब चुनाव के सबसे जीतने काबिल उम्मीदवार है।यह संकट कितना घनघोर है कि चंडीगढ़ में किरण खेर और गुल पनाग का मुकाबला है तो मेरठ में मोहसिना किदवई के संसदीय विकल्प बतौर प्रस्तुत हैं नगमा।बंगाल में तो सितारे ही चुनाव मैदान में हैं और उनके रोडशो में फैनीतूफान में बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता निष्णात है।


भारतीय समाज में जाति व्यवस्था, वर्णवर्चस्व, वंशवाद और नस्ली क्षेत्रीय भेदभाव का नतीजा है आज का फासीवाद,जिसे विकास के लिए धर्मोन्माद के विकल्प बतौर मैनेजरी सूचनाई विशेषज्ञता और दक्षता के मार्फत सर्जिकल प्रिसिजन के साथ पहले ही खस्ताहाल जनप्रतिनिधित्व शून्य लोकतंत्र की देह में असंवैधानिक नीति निर्धारक चिप्स की सतरह प्रस्थापित किया जा रहा है।


बताया जा रहा है कि संघ परिवार अब राम मंदिर को हिंदुत्व का सबसे बड़ा मुद्दा नहीं मानता।


इसे संघी एजंडा का विचलन समझने की भूल कर रहे हैं हम।


हिंदुत्व के मुकाबले अगर ध्रूवीकरण हुआ तो अहिंदू अस्मिताओं का भी ध्रूवीकरण होना लाजिमी है। जिसका विस्फोट हम हाल में खूब देखते रहे हैं।


इसीलिए अस्मिताओं के कामयाब और नाकाम पिटे हुए चेहरों को भी फैसन परेड में केसरिया कायाकल्प में प्रस्तुत करना संघी रणनीति है ताकि पैदल सेनाओं को एकदूसरे के विरुद्ध लामबंद किया जा सकें।


राम मंदिर हो न हो,संघ परिवार का हिंदू राष्ट्र का एजंडा मौलिक तौर पर अमल में लाने की तैयारी है।


दरअसल हम जिस लकड़बग्घे के सामने हैं,उसका चेहरा शायद सर्वेश्वर के बिंबसंयोजन में भी अनुपस्थित है।


हिटलरी मुसोलिनिया फासीवाद नाजीवाद का जायनी मुक्त बाजारी उत्तरआधुनिक संस्करण है यह लकड़बग्घा,जो अब तक का सबसे जहरीला तत्व है।


विकास के बहाने इस विकल्प को जनादेश में अनूदित करने का प्रकल्प मोदी सर्वभूतेषु है।


दैविक विशुद्धता नस्ली भेदभाव का अंतःस्थल है और हम ईश्वरत्व में लोकतंत्र को समाहित करने लगे हैं।


लकड़बग्घा का यह अवतार ग्रह ग्रहांतर में भी स्वतंत्रता और मानवाधिकार, प्रकृति,पर्यावरण,मनुष्य और मौसमचक्र के भयावह विवर्तन का महाकाव्य है,जहां मर्यादा पुरुषोत्तम या देवि दुर्गा के हाथों सारे आयुध सौंपे जा रहे है दानवीकृत बहुसंख्य के वध के लिए।


इस वधउत्सव में बिरसा मुंडा का प्रतिरोधकल्पे आवाहन बेहद जरुरी है।


ध्यान देने वाली बात है कि अस्मिताओं के आधार पर हो रहे निर्वाचन में जाति,वंश के साथ आवारा क्रोनी पूंजी के तमाम तत्वों की निर्णायक भूमिका है।


ध्यान देने योग्य बात यह है कि कांग्रेस को भारतीय जनता खारिज करती ,उससे पहले तमाम रेटिंग एजंसियां खारिज कर चुकी है।


विनिवेश,प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश,भारत अमेरिकी परमाणु संधि का कार्यान्वयन, कर संशोधन और श्रम कानूनों का सफाया,सेवाओं के मुक्त बाजार के संदर्भ में कांग्रेस की नीतिगत विकलांगता के विरोध में कारपोरेट साम्राज्यवाद का स्वर अपने ही गुलामों के विरुद्ध मुखर है।


ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि भारतीय राजनीति में कांग्रेस एक मंच बतौर अपनी भूमिका निभाती रही है,जिसका कोई वैचारिक चरित्र कभी नहीं रहा है।


कांग्रेस एजंडा मार्फत काम करती रही है।


आर्थिक सुधारों को लागू करते वक्त पांरपारिक जनाधार की चिंता कांग्रेस की सबसे बड़ी राजनीतिक मजबूरी रही है तो नेतृत्व में वंशवादी विरासत का बोझ उसकी ऐतिहासिक कमजोरी।


मीडिया जो उसके विरुद्ध हुआ,उसे समझने के लिए मीडियामध्ये आप का अभ्युत्थान और माडियामध्ये उसका उसीतरह विसर्जन के घटनाक्रम को समझने की जरुरत है।


कारपोरेट और अमेरिकी हितों के विरुद्ध किसी तरह का स्वर इस पतित लोकतंत्र में मुक्तबाजार में तब्दील लोकतंत्र में असंभव हुआ,इसीलिए अरविंद केजरीवाल के तमाम वरदहस्त अब परिदृश्य से अदृश्य हैं।


उसी तरह अमेरिकी एजंडे को लागू करने में नाकाम कांग्रेस जनाधारों को टटोलने और वंशवादी नेतृत्व बहाल करने के अनिवार्य कार्यभार के चलते अब इस मुक्तबाजारी लोकतंत्र में जनादेश का विकल्प नहीं है।


इस पर भी ध्यान देना जरुरी है कि आर्थिक सुधारों के पहले चरण के कार्यान्वयन में राममंदिर सर्वस्व संघ परिवार गुजरात के भयावह नरसंहार के बावजूद पूरी तरह व्यर्थ रहा है।


जो सुधार लागू हुए वे मनमोहनी पहली और दूसरी यूपीए सरकारों ने पिछले दशक में लागू कर दिये।


विनिवेश मंत्रालय का आविस्कार भाजपा ने किया तो उसके राजकाज को संभव बनाया वाम समर्थित यूपीए ने ही।


प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश की अनंत धारा और अबाध पूंजी प्रवाह के महायज्ञ को पूर्णाहुति दी गयी मनमोहनी ईश्वरत्व केमाध्यम से ही।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है श्रम कानूनों का सफाया न कर पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है खुदरा बाजार और रक्षा क्षेत्र में विदेशी पूंजी विनिवेश को संभवव न बना पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है जंगल में जारी जनयुद्ध को सलवा जुडु़म पद्धति से निपटा न पाना और बहुराष्ट्रीय पूंजी की असंख्य परियोजनाओं का वर्षों से लंबित हो जाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है करसंशोधनों के जरिये प्रभुवर्ग के साथ कारपोरेट लंपट क्रोनी आवारा  पूंजी को पूरीतरह करमुक्त न कर पाना।मुक्त बाजार से मुटियाये कारपोरेट इंडिया को अब छूट,रियायत और प्रोत्साहन में कोई रुचि है ही नहीं।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है वित्तीय संशोधनो के जरिये वित्तीय पूंजी के हवाले नागरिकों की जन माल न  कर पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है बायोमेट्रिक डिजिटल आधार प्रकल्प के बावजूद सब्सिडी को पूरी तरह खत्म न कर पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकाम है भारत अमेरिका परमाणु संधि का कार्यान्वयन करके आतंक के विरुद्ध युद्ध के बहाने एशिया महाद्वीप  के बाजार में एकाधिकार वर्चस्व के लिए रणनीतिक अमेरिकी,इजरायली बरतानी पारमाणविक गठजोड़ के तहत बाजार और संसाधनों पर पूरा कब्जा कर पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है भारतीय देहात को कृषि के सफाये के साथ उपभोक्तावादी शहरी चरित्र न दे पाना।


ये तमाम सुधार विकास के पर्याय हैं।


ये तमाम सुधार आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण का एजंडा है।


ये तमाम अधूरे कार्य भारत की नई बनने वाली केंद्र सरकार के अनिवार्य कार्यभार हैं।


इसी एजंडा को अपनाने के लिए राममंदिर की तिलांजलि के बिना कारपोरेट समर्थन असंभव है और देस में सर्वभूतेषु मोदी भी असंभव है।


इसीलिए बंधु,राममंदिर का मुद्दा अब संघ एजंडा में सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं है।


विकास या आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण के एजंडा के कार्यान्वयन का घोषणापत्र  है हर संघी पदक्षेप का तात्पर्य। लेकिन इसका कहीं यह मतलब भी नहीं कि वह रामरथी लालकृष्ण आडवानी के बलिदान से अपने हिंदुत्व के एजंडे का परित्याग कर चुका है या काशी से मुरली मनोहर जोशी के स्थानांतरण मार्फत उसने अपने चरित्र से विचलन भी नहीं अंगीकार किया है।


हम पहले से निरंतर लिखते रहे हैं कि नस्ली हिंदुत्व की विशुद्धता जनसंहारी रक्तपात की फसल है तो उसी खेत की उपज है यह मुक्त बाजार।


विकास का मायने चुआड़ विद्रोह,भील विद्रोह,मुंडा विद्रोह,संथाल विद्रोह,संन्यासी विद्रोह,गोंड विद्रोह,नील विद्रोह में शामिल हमारे तमाम पूर्वजों से लेकर शहीदेआजम भगत सिंह और स्वत्ंत्र भारत में जल जंगल जमीन नागरिकता और मानवाधिकार के लिए लड़ रहे हर व्यक्ति को मालूम है।


बहुसंख्य जनगण को अपनी पैदल सेना बनाये रखने के लिए डायवर्सिटी की समरसी समावेशी चादर ओढ़कर धर्मोन्मादी मुख से विकास का अखंड जाप है यह और वहविकास सचमुच गुजरात माडल का विकास है।


सर्वेश्वर के लकड़बग्घे का मायने बदल गया है।






लकड़बग्घा तुम्हारे घर के करीब आ गया है

Posted by Reyaz-ul-haque on 3/30/2014 11:59:00 AM



सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता. देखिए कि लकड़बग्घा कितने करीब आ गया है और उसके चेहरे पर खून के निशान कितने ताजा हैं. आपकी लाठी और लालटेन कहां है?


उस समय तुम कुछ नहीं कर सकोगे


अब लकड़बग्घा

बिल्कुल तुम्हारे घर के

करीब आ गया है

यह जो हल्की सी आहट

खुनकती हंसी में लिपटी

तुम सुन रहे हो

वह उसकी लपलपाती जीभ

और खूंखार नुकीले दांतों की

रगड़ से पैदा हो रही है।

इसे कुछ और समझने की

भूल मत कर बैठना,

जरा सी गलत गफलत से

यह तुम्हारे बच्चे को उठाकर भाग जाएगा

जिसे तुम अपने खून पसीने से

पोस रहे हो।

लोकतंत्र अभी पालने में है

और लकड़बग्घे अंधेरे जंगलों

और बर्फीली घाटियों से

गर्म खून की तलाश में

निकल आए हैं।

उन लोगों से सावधान रहो

जो कहते हैं

कि अंधेरी रातों में

अब फरिश्ते जंगल से निकलकर

इस बस्ती में दुआएं बरसाते

घूमते हैं

और तुमहारे सपनों के पैरों में चुपचाप

अदृश्य घूंघरू बांधकर चले आते हैं

पालने में संगीत खिलखलिता

और हाथ-पैर उछालता है

और झोंपड़ी की रोशनी तेज हो जाती है।


इन लोगों से सावधान रहो।

ये लकड़बग्घे से

मिले हुए झूठे लोग हैं

ये चाहते हैं

कि तुम

शोर न मचाओ

और न लाठी और लालटेन लेकर

इस आहट

और खुनकती हंसी

का राज समझ

बाहर निकल आओ

और अपनी झोंपड़ियों के पीछे

झाड़ियों में उनको दुबका देख

उनका काम-तमाम कर दो।


इन लोगों से सावधान रहो

हो सकता है ये खुद

तुम्हारे दरवाजों के सामने

आकर खड़े हो जाएं

और तुम्हें झोंपड़ी से बाहर

न निकलने दें,

कहें-देखो, दैवी आशीष बरस

रहा है

सारी बस्ती अमृतकुंड में नहा रही है

भीतर रहो, भीतर, खामोश-

प्रार्थना करते

यह प्रभामय क्षण है!


इनकी बात तुम मत मानना

यह तुम्हारी जबान

बंद करना चाहते हैं

और लाठी तथा लालटेन लेकर

तुम्हें बाहर नहीं निकलने देना चाहते।

ये ताकत और रोशनी से

डरते हैं

क्योंकि इन्हें अपने चेहरे

पहचाने जाने का डर है।

ये दिव्य आलोक के बहाने

तुम्हारी आजादी छीनना चाहते हैं।

और पालने में पड़े

तुम्हारे शिशु के कल्याण के नाम पर

उसे अंधेरे जंगल में

ले जाकर चीथ खाना चाहते हैं।

उन्हें नवजात का खून लजीज लगता है।

लोकतंत्र अभी पालने में है।


तुम्हें सावधान रहना है।

यह वह क्षण है

जब चारों ओर अंधेरों में

लकड़बग्घे घात में हैं

और उनके सरपरस्त

तुम्हारी भाषा बोलते

तुम्हारी पोशाक में

तुम्हारे घरों के सामने घूम रहे हैं

तुम्हारी शांति और सुरक्षा के पहरेदार बने।

यदि तुम हांक लगाने

लाठी उठाने

और लालटेन लेकर बाहर निकलने का

अपना हक छोड़ दोगे

तो तुम्हारी अगली पीढ़ी

इन लकड़बग्घों के हवाले हो जाएगी

और तुम्हारी बस्ती में

सपनों की कोई किलकारी नहीं होगी

कहीं एक भी फूल नहीं होगा।

पुराने नंगे दरख्तों के बीच

वहशी हवाओं की सांय-सांय ही

शेष रहेगी

जो मनहूस गिद्धों के

पंख फड़फड़ाने से ही टूटेगी।

उस समय तुम कुछ नहीं कर सकोगे

तुम्हारी जबान बोलना भूल जाएगी

लाठी दीमकों के हवाले हो जाएगी

और लालटेन बुझ चुकी होगी।

इसलिए बेहद जरूरी है

कि तुम किसी बहकावे में न आओ

पालने की ओर देखो-

आओ आओ आओ

इसे दिशाओं में गूंज जाने दो

लोगों को लाठियां लेकर

बाहर आ जाने दो

और लालटेन उठाकर

इन अंधेरों में बढ़ने दो

हो सके तो

सबसे पहले उन पर वार करो

जो तुम्हारी जबान बंद करने

और तुम्हारी आजादी छीनने के

चालाक तरीके अपना रहे हैं

उसके बाद लकड़बग्घों से निपटो।


अब लकड़बग्घा

बिल्कुल तुम्हारे घर के करीब

आ गया है।


ये एक महीना जी गया तो जी जाउंगा : वीरेन डंगवाल

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Details Category: [LINK=/article-comment.html]सुख-दुख...[/LINK] Created on Monday, 31 March 2014 13:10 Written by राहुल पांडेय
Rising Rahul : वीरेन दा, आपसे तो मुझे न जाने कि‍तने सालों पहले मि‍लना था, पर मैं खुद में बंद आदमी खुद से कभी इतना बाहर ही न आ पाया कि उस यायावरी से जुड़ सकूं, जि‍सने ताजिंदगी आपको बखूबी बरता। अभी भी मुझे खुद से बाहर आने में काफी दि‍क्‍कत है, पर दुख ये है कि अब आपके पास समय कम है...

अभी तक दि‍माग में आपके वो शब्‍द गूंज रहे हैं और शरीर का हर रोंया खड़ा हो जा रहा है कि 'ये एक महीना जी गया तो जी जाउंगा।'


आगे आपने न जोड़ा, न कहा, पर हमने समझ लि‍या और आपकी अनकही हम कभी स्‍वीकार भी न करेंगे वीरेन दा, बता दे रहे हैं अभी से। और हां, Yashwant को बोलने दीजि‍ए एलि‍यन एलि‍यन... मुझे आप बहुत खूबसूरत लगे... ठीक उतने, जि‍तने कि आप हैं।

[B]पत्रकार राहुल पांडेय के फेसबुक वॉल से.[/B]

[HR]

संबंधित पोस्ट...

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Sunday, March 30, 2014

In 2014, Hindutva versus caste

In 2014, Hindutva versus caste

VARGHESE K. GEORGE
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The question in this general election is whether Hindutva will triumph over caste. There are at least three factors clearly nudging politics towards Hindu consolidation

Of the numerous public appearances by the Bharatiya Janata Party (BJP) prime ministerial candidate Narendra Modi over the last year or so, two have been strikingly inconceivable. Both happened in Kerala, often projected as a politically progressive State. In February 2014, Mr. Modi addressed a meeting of Pulayas, a Dalit community that has been for years a bedrock of support for the Communist parties. In April 2013, Mr. Modi was chief guest at the Sivagiri Mutt, founded by Kerala’s legendary social reformer, Sree Narayana Guru who led the backward Ezhava community to social awakening. The Ezhavas too have been largely supporters of the Left. At both the platforms — events separated by more than a year — Mr. Modi made a similar pitch. “Social untouchability may have ended, but political untouchability continues,” he said, referring to the continuing isolation that he faces from various quarters.

“The next decade will belong to the Dalits and the backwards,” he said, emphasising his own lower caste origins, at a rally in Muzaffarpur in Bihar on March 3. That event too was significant as he was sharing the stage with Lok Jansakti Party chief Ram Vilas Paswan, who returned to the saffron fold 12 years after he quit it over the Gujarat riots. And there is more to it. Dalit leader Udit Raj, who has been fashioning himself as the new age Ambedkar, joined the BJP. So did Mr. Ramkripal Yadav, who has for years been a shadow of Rashtriya Janata Dal chief Lalu Prasad Yadav, a champion of backward class politics in Bihar.

The BJP’s efforts to overcome caste barriers in its project to create an overarching Hindu identity are showing signs of success, though it is still far from being a pan-Indian phenomenon. “Mr. Modi has broken the stranglehold of caste. The affinity of these Dalits and backward leaders for the BJP is a clear indication of his acceptance among them,” says Mr. Dharmendra Pradhan, BJP general secretary.

The issue of caste identity

Among the several factors that slowed down Hindutva politics in India, caste identity has been prominent. Politically empowered sections of the backwards and Dalits viewed the Sangh project of a unified Hindu society with suspicion, as its insistence on traditions implied sustenance of the hierarchical social structure that disadvantaged them. One of the most pronounced examples of this was Dr. B.R. Ambedkar, who concluded that Dalit emancipation would not be possible while they remained within the Hindu social order. In turn, Baba Saheb — portrayed with considerable fulmination in Arun Shourie’s book, Worshipping False Gods — has been a villain in the Sangh discourse. But in 2013, an article in the Organiser, the mouthpiece of the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS), portrayed the Dalit icon as someone who contributed to Hindu unity.

The Hindutva project tried a combination of aggressive integration, sometimes accommodating Sanskritising demands from below and constantly working on the fear of an “Other.” But until they hit upon the idea of replacing a mosque in Ayodhya with a temple, all of this could not gather enough strength for the BJP to win a majority in any region of India. But coinciding with the Ayodhya movement was also a great upsurge of backwards, triggered by the implementation of the Mandal Commission report. Subsequently, caste and religion alternated as the prime moving force of politics, depending on the particularities of the time and place, in parts of northern and western India. The BJP gained power in several States. But except in Gujarat, the debate has not been settled conclusively in favour of Hindutva.

The question, therefore, in this election is whether Hindutva will triumph over caste. There are at least three factors clearly nudging politics towards Hindu consolidation.

Debate on Muslim reservation

Hindutva politics in Gujarat rode on violent anti-reservation agitations spearheaded by the Akhil Bharatiya Vidyarthi Parishad (ABVP) in the 1980s. Though the agitation was against the reservation for backwards, the targets were Dalits. Almost immediately after the agitation, Hinduvta politics struck roots, co-opting vast sections of the lower castes into its fold, even as a rising portrayal of Muslims as the “other” unified them. But the trajectory in Uttar Pradesh and Bihar that together elect 120 members of Parliament has been different, as strong backward politics suspected the RSS on the question of reservation and found Muslims as allies. Ironic as it is, quota politics is dividing them now. The lower castes see the demand for Muslim quotas as detrimental to their interests. The case for affirmative action for Muslims is strong, no doubt, but the politics over it has played out much to the advantage of the Hindutva project. A social coalition that has been a bulwark against Hindutva in U.P. and Bihar for the last two decades is showing signs of unravelling.

The Dalit participation in the Muzaffarnagar riots in U.P., and the numerous Yadav versus Muslim skirmishes in Bihar over the last two years have strained the solidarity among the poor and the disadvantaged. Lower caste movements that challenged caste structures have also had a streak of Sanskritising aspirations that seek a better place within the Hindu hierarchy. When the image of the “other” is clearer, this streak becomes prominent.

Willingness to concede leadership

The lower caste sympathy towards the Hindutva project has been matched by a willingness among the upper castes to be content under the leadership of the lower. The turning point was the 2005 Assembly election in Bihar, when the BJP-JD(U) alliance sought a mandate, with Mr. Nitish Kumar being declared as the chief ministerial candidate. Only six months prior to that, when the alliance vacillated over projecting him — because the upper caste segments were not comfortable with the idea of a backward caste CM — it could not win and there was no clear majority for any formation. In 2007, the upper castes voted for Dalit leader Ms. Mayawati in U.P. who won a clear majority, the first for any since the Ayodhya movement. In 2010, the rainbow caste coalition voted for Mr. Nitish Kumar again; in 2012, another variant of the coalition voted for backward caste leader Mr. Akhilesh Yadav in U.P.

This change in the upper caste attitude can dramatically turn round the fortunes of the BJP. The BJP has been responsive to the leadership ambitions of the backwards and Dalits, but the upper caste support to leaders such as Mr. Kalyan Singh and Ms. Uma Bharti has been tentative. “We have the so-called backwards and lower castes standing up and wanting to be counted as Hindus. Sangh has empowered them. Even the communist movements could not accommodate these sections of the society in their leadership,” says Mr. Ram Madhav, senior RSS leader. “In 1998, the BJP had 58 MPs who were SCs and STs, possibly the highest for any party ever as a proportion of its strength,” he says. With Mr. Modi at the helm and the change in upper caste attitudes, the Sangh’s efforts have got a major fillip.

Media-propelled popularity

A third factor that has developed over the last decade is the dramatic popularity achieved by several lower caste gurus, aided by the visual media. To cite two examples, both Swami Ramdev, who was born a Yadav in Haryana and Mata Amritanandamayi, born in a fisherman’s community in Kerala, have attained such a huge following that their caste origins have been eclipsed. TV evangelism, as opposed to scriptural Hinduism controlled by priests, has enrolled a large section of poorer and lower caste people into thinking as Hindus. This may be a rerun of how TV serial “Ramayan” contributed to the Ayodhya movement; and lower caste Hindu gurus are not unprecedented. What makes it all extremely potent is the context of a certain level of economic prosperity among the lower castes, media penetration and the Sangh propaganda.

The terms of engagement between the state and the poor, between the upper and the lower castes, and between Hindus and Muslims could change further in the emerging scenario. “Lalu and Mulayam had managed to command backward castes support with a the promise of share in power. Mr. Modi’s politics for backwards and Dalits is not based on doles and welfare schemes, but overall development,” says Mr. Pradhan.

varghese.g@thehindu.co.in

BJP for action against illegal migrants from Bangladesh: Rajnath Singh

BJP for action against illegal migrants from Bangladesh: Rajnath Singh

 BJP President Rajnath Singh, party's UP incharge Amit Shah (left) and Lalji Tandon being garlanded at a programme in Lucknow on Thursday. (PTI Photo)BJP President Rajnath Singh, party's UP incharge Amit Shah (left) and Lalji Tandon being garlanded at a programme in Lucknow on Thursday. (PTI Photo)

Bharatiya Janata Party President Rajnath Singh on Sunday said people who came from Bangladesh after 1971 and settled in Assam or elsewhere in the country should be treated as illegal migrants and necessary action be taken against them.

“Everybody knows that there has been a huge influx of people of a particular community from Bangladesh during the last four decades and certain political parties have patronised them for vote-bank politics,” Singh said a rally at Karimganj in Barak Valley.

“If BJP comes to power, we’ll institute an inquiry to find out how so many people of a particular community could enter the country illegally and settle down,” Singh said.

“If, however, anybody comes with proper passport, visa or work permit, we have no problem with that but we cannot accept if they do not go back and settle down here,” the BJP chief said.

“In the case of Hindus being harassed in Bangladesh and forced to flee that country, we cannot treat them as refugees, but must be sympathetic to their cause,” he said.

“BJP does not believe in distinction between different religions or on division of the country on the basis of religion as was done during the time of Independence,” he said.

“BJP believes in politics of humanity and not of religion. In Assam, we make no difference between Hindus and Muslims, but illegal migrants who are a threat to the indigenous population, will not be tolerated,” he said.

“Earlier, before BJP came to power in 1998, India was considered a weak country and this was a matter that always hurt Vajpayeeji. After coming to power, he decided that India will carry out nuclear tests and though many countries opposed it, he went on with the tests,” he said.

“Powerful countries threatened to stop economic aid and imposed sanctions, but we finally emerged strong and no country considers us weak now,” Singh said.

Saturday, March 29, 2014

न्याय की गुहार अनसुनी और मानवाधिकार सिरे से लापता

न्याय की गुहार अनसुनी और मानवाधिकार सिरे से लापता

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


बीरभूम के लाभपुर में आदिवासी कन्या से सामूहिक बलात्कार के मामले में पीड़िता की सुरक्षा बंदोबस्त में नाकामी के लिए सर्वोच्च न्यायालय नें बंगाल की मां माटी मानुष सरकार की कठोर भर्त्सना की है और कहा है कि बंगाल में पुलिस और प्रशासन नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में पूरीतर तरह नाकाम है।सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को पीड़िता को महीने भर में पांच लाक रुपये के भुगतान का आदेस दिया है।स्त्री उत्पीड़न और मानवाधिकार हनन का यह बंगीय परिदृश्य है।यह कोई राजनीतिक बयान नहीं है जैसे कि वाममोर्चा चेयरमैन बंगाल में आपातकाल बताते रहते हैं।देश में न्यायिक प्रक्रिया बहाल करने की सर्वोच्च संस्था की यह टिप्पणी खतरे की घंटी है।


न्याय और कून के राज के लिए नागरिकों को स्थानीय सत्ता-केंद्रों की मदद पर निर्भर रहना होगा, जैसा कि अभी पश्चिम बंगाल में देखने को मिलता है। .अपहरण , बलात्कार , राहजनी , अपराध के कई चेहरे । राजनीतिक हिंसा, दमन, उत्पीड़न, कमजोर तबके पर और महिलाओं पर अत्याचार। हर किसी  को हर वक्त राष्ट्र और राजनीति का उन्मुक्त आश्वासन कि न्याय अवश्य  मिलेगा।लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि न्याय की गुहार सिर्फ गुहार बनके रह जाती है अनसुनी और अपराधी छुट्टा घूमते रह जाते हैं।राजनीतिक संरक्षण से बाधित होती है न्यायिक प्रक्रिया।कानून के राज में सभी नागरिक समान है। लेकिन हालत यह है कि  न्याय के  रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं। भारतीय लोक गणराज्य में न्याय नहीं,कानून का राज नही तो तो क्या क्या करेगा आम आदमी?आज फिर पुरुषतंत्र स्त्री उत्पीड़न के विरुद्ध फर्जी प्रतिवाद का जश्न मना रहा है। जबकि हमारी जेहन में गुवाहाटी की सड़क पर दिनदहाड़े नंगी कर दी गयी आदिवासी लड़की के लिए न्याय की आवाज बुलंद हो रही है।हमारी आंखों में इंफल की उन नग्न माताओं का प्रदर्शन आज भी जिंदा है,जो सैन्य शक्ति क बलात्कार की चुनौती दे रही हैं तबस लगातार। भारतीय लोक गणराज्य में फिलवक्त कोई स्त्री कहीं भी सुरक्षित नहीं है। हमने ऐसा मुक्त बाजार चुना है कि पुरुषतंत्र की नंगी तलवारे हर पल स्त्री के वजूद को कतरा कतरा काट रहा है।


पश्चिम बंगाल सरकार के रवैये से नाराज राज्य के दुष्कर्म पीड़ितों के परिजनों ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से गुहार लगाकर भी देख लिया। ये परिजन अपने प्रियजनों के साथ हुए दुष्कर्म की जांच सीबीआई से कराने का दबाव बनाते रहे हैं।लेकिन न्याय की गुहार अनसुनी ही रह गयी।24 परगना जिले के कमदुनी गांव और मुर्शिदाबाद जिले के खरजुना और रानीताला गांवों के लोगों के दिल्ली पहुंचने का बंदोबस्त रेल राज्य मंत्री और कांग्रेस के नेता अधीर चौधरी ने किया था। जिनके विरुद्ध मुर्शिदाबाद में कई आपराधिक माले लंबित हैं।दुष्कर्म के अपराधों पर टालमटोल भरा रवैया अपनाने के लिए इन तीनों गांवों के लोग मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सरकार से खासा नाराज हैं।


बारासात के कामदुनी गांव में सात जून,2013  को परीक्षा से लौट रही एक 20 वर्षीय युवती के साथ दुष्कर्म किया गया और उसके बाद उसकी हत्या कर दी गई। ममता बनर्जी 10 दिनों बाद पीड़िता के घर गईं। कुछ महिलाओं ने जब उनके खिलाफ प्रदर्शन किया तो ममता आपा खो बैठीं। उन्होंने महिलाओं को चुप होने और माकपा की राजनीति न करने को कहा। बाद में उन्होंने दावा कि गांव में उनकी हत्या की साजिश रची गई थी। प्रदर्शन में माओवादी शामिल थे। राजनीतिक हस्तक्षेप से इस मामले को रफा दफा कर दिया गया।उल्टे ग्रामीणों के राष्ट्रपति से मिलने से तृणमूल कांग्रेस नाराज हो गयी। न्याय और कानून व्यवस्था बहालकरने के बजाय मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहती रही कि कुछ लोग उनकी सरकार की बदनामी करने का प्रयास कर रहे हैं।



तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एसएफआई नेता सुदीप्तो गुप्ता की मौत पर संगठन की ओर से किए जा रहे विरोध प्रदर्शनों पर सवाल खड़ा करते हुए कहा कि यह एक दुर्घटना थी। वहीं छात्र नेता की हिरासत में पिटाई से मौत होने संबंधी आरोपों के बीच कोलकाता पुलिस ने मीडिया से संयम बरतने को कहा।बाद में हुआ यह तक कि दिल्ली मे एसएफआई की बदसलूकी के शिकार हो गयी ममता खुद और ममता बनर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की होने वाली अहम मुलाकात रद्द हो गई । योजना आयोग में वामपंथी कार्यकर्ताओं के विरोध पर ममता की नाराजगी की पृष्ठभूमि में बैठक रद्द हुई । नतीजा यह निकला कि यह मामला महज राजनीतिक मुद्दा बनकर रह गया।न्याय की गुहार अनसुनी ही रह गयी।


सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून जिस कश्मीर में और इरोम शर्मिला के अनंत आमरण अनशन के बावजूद जारी है, सलवा जुड़ुम की जद में देश का जो आदिलवासी भूगोल है।भूमि संघर्षों का बथानीटोला जिस मध्य बिहार में है और खैरांजलि जैसा परिदृश्य जहा हैं,उनकी चर्चा बहुत हो चुकी है।आगामी लोकसभा के मद्देनजर कोई कानून के राज की अनुपस्थिति नहीं करता,न्याय से वंचित बहुसंख्य जनगण जिन्हें राजकाज के लिए अपने मताधिकार का प्रयोगकरना है,उनकी सुधि कोई नहीं ले रहा है।देश के अनेक हिस्सों में आज भी भारतीय कानून लागू नहीं है।


बंगाल में पार्टीबद्ध न्याय प्रक्रिया और पार्टीबद्ध कानून व्यवस्था की विरासत बेसक पैंतीस साल की वाम विरासत है।नंदीग्राम,सिगुर,केशपुर, वानतला, मरीचझांपी,नेताई, मंगलकोट,जंगलमहल,आनंद मार्गियों को जिंदा जलाने की घटनाएं वाम मोर्चे के सत्ता में वापसी के रोड ब्रेकर बनी हुई हैं।डायन बताकर स्त्री हत्या की जघन्य परंपरा बदस्तूर जारी है।


सवाल यह है कि परिवर्तन के बाद क्या इस परंपरा में कोई व्यवधान आया है या नहीं। जो नागरिक समाज और जो चमकीले चेहरे वामविरोधी भूमि आंदोलन के वक्त पार्टीबद्धता के दायरे को तोड़कर सड़कों पर थे, वे न सिर्फ नये सिरे से ज्यादा मुखरता के साथ पार्टीबद्ध हो गये हैं बल्कि मानवाधिकार और कानून के राज में उनके मोर्चे पर सन्नाटा छा गया है। वे तमाम आदरणीय व्यक्तित्व अपनी अपनी प्रतिबद्धता और सरोकार के नकदीकरण में निष्णात है।


सत्ता मलाई का जायका लेते लोगों को यह होश भी नहीं रहा कि परिवर्तन के बाद हालात सुधरने के बजाय बिगड़ ही रहे हैं। दिल्ली और मुंबई में स्त्री उत्पीड़न के तमाम मामलों  में फैसले आ रहे हैं।उम्र कैद और फांसी तक की सजा हो रही है छह महीने के भीतर।इसके बावजूद पूरे पैंतीस साल के बाद भी मरीचझांपी प्रकरण की जांच शुरु ही नहीं हुई है।आनंदमार्गियों को जिंदा जलाने की घटना के बाद भी साढ़े तीन दशक बीत गये हैं और आज तक कोई सुनवाई नहीं हुई है। राजनीतिक बंदियों की रिहाई का आंदोलनथम सा गया है।


स्त्री उत्पीड़न तो मां माटी मानुष सरकार के राजकाज में अमावस्या रात है जिसकी किसी सुबह का शायद ही किसी को इंतजार हो।वीभत्स तम बलात्कार कांड बंगाल का रोजनामचा है।राजनीतिक हिंसा का सिलसिला जारी है।बेदखली अभियान प्रोमोटर बिल्डर राज का अनिवार्य अंग है तो कानून व्यवस्था बहाल करने के लिए संबद्ध अफसरों के हाथ पांव अब भी बंधे हैं। वाम शासन के दौरान बिना लोकल कमिटी की इजाजत के थाने में एफआईआर तक दर्ज नहीं होता था। आज वह हालत बदल गयी है,कोई दावा नही कर सकता।कोयलांचल हो या महानगर या उपनगर या नया कोलकाता या सीमाव्रती इलाके सर्वत्र अपराधियों के हौसले बुलंद हैं जो र्जनीतिकदलों के रथी महारथी भी हैं।


घाटाल के सत्तादल प्रत्याशी बांग्ला फिल्म के स्टार नंबर वन जब बलात्कार का मजा लेने का फार्मूला बताते हैं तो पता चलता है कि कामदुनी से लेकर वीरभूम तक तमाम बलात्कारकांडों की जांच  का क्या हश्र होना है।मध्यमग्राम,बारासात से लेकर मध्य कोलकाता के पार्क सर्कस में उत्पीड़ित जीवित या मृत स्त्रिया सिंगुर में बलात्कार के बाद जिंदा जला दी गयी तापसी मलिक की नियति याद दिलाती है।


কোর্টের নির্দেশে পাঁচ লক্ষ ধর্ষিতাকে


বীরভূমের লাভপুরে গণধর্ষণ কাণ্ডে নির্যাতিতা আদিবাসী তরুণীর নিরাপত্তা ব্যবস্থা সুনিশ্চিত না করায় রাজ্য সরকারকে তীব্র ভর্ত্‍সনা করল সুপ্রিম কোর্ট৷ শুক্রবার এই গণধর্ষণ মামলার রায় দিতে গিয়ে দেশের সর্বোচ্চ আদালত বলেছে, নাগরিকের মৌলিক অধিকার রক্ষাতে সম্পূর্ণ ব্যর্থ হয়েছে রাজ্য পুলিশ ও প্রশাসন৷ রাজ্য সরকারকে এক মাসের মধ্যে নির্যাতিতার কাছে পাঁচ লক্ষ টাকা পৌঁছে দেওয়ার নির্দেশ দিয়েছে আদালত৷


ওই ঘটনায় অভিযোগ নেওয়া থেকে শুরু করে পুলিশি তদন্তের পরতে পরতে নানা অসঙ্গতিও শীর্ষ আদালতের নজর এড়ায়নি৷ সেই সব অসঙ্গতির কথা তুলে সুপ্রিম কোর্ট রাজ্য সরকারকে সতর্কও করে দিয়েছে৷ দেশের সর্বোচ্চ আদালতের নির্দেশের পর এদিন সন্ধ্যাতেই জেলাশাসক জগদীশ প্রসাদ মীনার নির্দেশে জেলা প্রশাসনের এক আধিকারিক নির্যাতিতার কাছে পাঁচ লক্ষ টাকা পৌঁছে দিয়ে আসেন৷ প্রসঙ্গত, গণধর্ষণের শিকার ওই তরুণীকে জেলা প্রশাসন একটি হোমে রেখেছে৷ সুপ্রিম কোর্টের বক্তব্য হল, কোনও ক্ষতিপূরণই এমন ক্ষেত্রে নির্যাতিতার জন্য যথেষ্ট নয়৷ তা সত্ত্বেও যেহেতু রাজ্য সরকার নির্যাতিতার মৌলিক অধিকার রক্ষার ক্ষেত্রে গুরুতর ব্যর্থতার নজির রেখেছে, তার জন্যই ক্ষতিপূরণ দরকার৷ রাজ্য সরকার অবশ্য ঘটনার পরপরই ৫০ হাজার টাকা ক্ষতিপূরণ বাবদ দিয়েছিল৷


লোকসভা ভোটের মুখে লাভপুর-কাণ্ডে সুপ্রিম কোর্টের এই রায়ে রাজ্য সরকার চরম অস্বস্তিতে পড়েছে৷ দু'দিন আগেই সারদা-কাণ্ডেও সিবিআই তদন্ত হতে পারে বলে সর্বোচ্চ আদালত ইঙ্গিত দিয়েছে৷ পরপর এই দু'টি ঘটনাতেই সুপ্রিম কোর্টের ভূমিকা নিয়ে রীতিমতো উদ্বিগ্ন রাজ্য প্রশাসন৷ তবে সুপ্রিম কোর্টের মতামত নিয়ে সরকারের তরফে কেউ কোনও প্রতিক্রিয়া জানাননি৷ লাভপুর থানার সুবলপুর গ্রামে সালিশি সভার ফতোয়ায় আদিবাসী তরুণীকে গণধর্ষণের অভিযোগটিকে কেন্দ্র করে সুপ্রিম কোর্ট প্রথম থেকেই কড়া অবস্থান নিয়েছিল৷ ২২ জানুয়ারি লাভপুর থানায় অভিযোগ দায়ের হওয়ার পরই গ্রাম্য সালিশিতে গণধর্ষণের ফতোয়ার খবর শুধু এ রাজ্যে বা দেশে নয়, বিদেশেও নিন্দার ঝড় তোলে৷ পরদিন বিভিন্ন সংবাদ মাধ্যমে খবরটি প্রকাশিত হওয়ার ২৪ ঘণ্টার মধ্যে স্বতঃপ্রণোদিত হয়ে সুপ্রিম কোর্টে মামলাটি রুজু করেছিলেন প্রধান বিচারপতি পি সদাশিবম৷ যা রীতিমতো নজিরবিহীন৷ এর আগে ২০০৭ সালে ১৪ মার্চ নন্দীগ্রামে গুলি চালনার ঘটনায় কলকাতা হাইকোর্ট স্বতপ্রণোদিত হয়ে মামলা করে এবং সিবিআই তদন্তের নির্দেশ দেয়৷


আদিবাসী সমাজের বাইরের এক বিবাহিত যুবকের সঙ্গে সম্পর্ক গড়ে তোলার অভিযোগে সুবলপুর গ্রামের সালিশি সভায় তরুণীটিকে গণধর্ষণের ফতোয়া দেওয়া হয়েছিল বলে অভিযোগ ওঠে৷ সেই ফতোয়া মেনে নিগ্রহ করা হয় ওই যুবতীকে৷ ওই অভিযোগে ১৩ জনকে পুলিশ গ্রেপ্তারও করেছিল৷ নিম্ন আদালতে সেই মামলা এখনও বিচারাধীন৷ কিন্ত্ত দু'মাস পার হতেই নিজেদের রুজু করা মামলাতে শুক্রবার চূড়ান্ত রায় দিয়ে দিল প্রধান বিচারপতি পি সদাশিবমের নেতৃত্বাধীন বেঞ্চ৷ ওই বেঞ্চের বাকি দুই সদস্য হলেন, বিচারপতি সারদ অরবিন্দ ববরে এবং এম ভি রামানা৷ হাসপাতালের চিকিত্‍সায় সুস্থ হওয়ার সুবলপুর গ্রামের ওই তরুণী ও তাঁর মাকে প্রশাসনের ব্যবস্থাপনায় সিউড়ির কাছে একটি হোমে রাখা হয়েছে৷ রায়ে সরাসরি তার উল্লেখ না থাকলেও ওই ধরনের ব্যবস্থাপনার সমালোচনা করেছে সুপ্রিম কোর্টের বেঞ্চ৷ শীর্ষ আদালতের মতে, থাকার অন্তর্বর্তী ব্যবস্থা সাময়িক নির্যাতিতাকে সুরক্ষা দিতে পারে মাত্র, কিন্ত্ত তাদের জন্য দীর্ঘস্থায়ী পুনর্বাসন জরুরি৷


সুপ্রিম কোর্টের নির্দেশ, নিগৃহীতার নিরাপত্তা সুনিশ্চিত করার জন্য সংশ্লিষ্ট এলাকার সার্কেল ইন্সপেক্টরকে রোজ তাঁর আবাস পরিদর্শন করতে হবে৷ এই মামলার প্রসঙ্গে সুপ্রিম কোর্টের প্রধান বিচারপতির নেতৃত্বাধীন ওই বেঞ্চ অতীতের একাধিক মামলার কথাও টেনে এনেছে৷ তার মধ্যে উল্লেখযোগ্য হল, ২০০৬ সালের লতা সিং বনাম উত্তরপ্রদেশ সরকার মামলা, ২০১১ সালের আরু মুগম সারভাই বনাম তামিলনাড়ু সরকার মামলা, ২০১০ সালের শক্তি বাহিনী বনাম কেন্দ্রীয় সরকার মামলা ইত্যাদি৷ ওই সব মামলার উল্লেখ করে সুপ্রিম কোর্ট বলেছে, মোদ্দা কথা হল সংবিধানের একুশ নম্বর ধারায় ভারতীয় নাগরিকদের বিবাহ ক্ষেত্রে পছন্দের স্বাধীনতাকে স্বীকার করে নেওয়া হয়েছে৷ কিন্ত্ত অধিকাংশ ক্ষেত্রেই দেখা যাচ্ছে, পুলিশ-প্রশাসন এসব ক্ষেত্রে অযাচিত ভাবে হস্তক্ষেপ করছে৷ আবার কখনও পুলিশ-প্রশাসন নাগরিকের মৌলিক অধিকার রক্ষায় যথাযথ ভূমিকা নিচ্ছে না৷ তারই পরিণতি হিসেবে এ ধরনের ঘটনা ঘটছে৷


লাভপুর-কাণ্ডে স্বতঃপ্রণোদিত ভাবে মামলা রুজু করার পর রাজ্য সরকারের রিপোর্টের উপর কখনই ভরসা রাখতে পারেনি দেশের শীর্ষ আদালত৷ মামলাটি রুজু হওয়ার দিনেই বীরভূমের জেলা বিচারক ও মুখ্য বিচারবিভাগীয় ম্যাজিস্ট্রেটকে ঘটনাস্থল পরিদর্শন করে রিপোর্ট দিতে সুপ্রিম কোর্ট নির্দেশ দিয়েছিল৷ কিন্ত্ত ওই বিচারকদের রিপোর্টও যে তাদের খুশি করতে পারেনি, শুক্রবারের রায়ে তা স্পষ্ট৷ ওই রায়ে জানানো হয়েছে, অভিযুক্তদের বিরুদ্ধে পুলিশের ব্যবস্থা গ্রহণ সম্পর্কে কোনও তথ্য ছিল না ওই রিপোর্টে৷ বরং নানা অসঙ্গতি ছিল তাতে৷ অসন্ত্তষ্ট আদালত গত ৩১ জানুয়ারি রাজ্যের মুখ্যসচিবের কাছে বিস্তারিত রিপোর্ট তলব করে৷ একই সঙ্গে অতিরিক্ত সলিসিটর জেনারেল সিদ্ধার্থ লুথরাকে আদালত-বান্ধব নিযুক্ত করেছিল সুপ্রিম কোর্ট৷ তাঁর পর্যবেক্ষণেই আদালতের নজরে এসেছিল পুলিশের অসঙ্গতিগুলি৷ যেমন, অনির্বাণ মণ্ডল নামে যিনি প্রথম ঘটনাটিতে এফআইআর দায়ের করেছিলেন, তাঁর উপস্থিতিকে অপ্রাসঙ্গিক মনে করেছে সুপ্রিম কোর্ট৷ তাছাড়া ভারতীয় দণ্ডবিধি অনুযায়ী এ ধরনের ঘটনায় মহিলা অফিসারের মাধ্যমে অভিযোগ গ্রহণ বাধ্যতামূলক হলেও তা মানা হয়নি৷


সালিশি সভা একটি গ্রামের ব্যাপার হলেও ফতোয়া দেওয়ার ওই সভাতে যে সংলগ্ন গ্রাম বিক্রমুর ও রাজারামপুরের মানুষ উপস্থিত ছিলেন, তাও সুপ্রিম কোর্টের নজর এড়ায়নি৷ সালিশি সভা ২০ জানুয়ারি রাতে হয়েছিল কি না, তা নিয়ে এফআইআর ও জুডিশিয়াল অফিসারদের রিপোর্টে ফারাক ধরা পড়েছে সুপ্রিম কোর্টের পর্যবেক্ষণে৷


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