फिल्म : चक्रव्यूह में फंसे आदिवासी
Author: समयांतर डैस्क Edition : January 2013
रामप्रकाश अनंत
प्रकाश झा की तीसरी फिल्म है चक्रव्यूह, नक्सल आंदोलन पर बनी है। नवंबर, 2009 में देश के गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने नक्सल प्रभावित इलाकों में ऑपरेशन ग्रीन हंट के नाम से एक सशस्त्र सैनिक कार्रवाई शुरू की थी। उसके बाद मार्च, 2010 के आउटलुक में अरुंधती रॉय का लेख आया 'वॉकिंग विद कॅमरेड्स'। इसमें उन्होंने लिखा कि किस तरह छत्तीसगढ आदि राज्यों में सरकार लोहा, बॉक्साइड आदि खनिजों की प्राइवेट कंपनियों द्वारा लूट का इंतजाम कर रही है। लोहे पर सरकार को जहां 27 रु. रॉयल्टी मिलती है, वहीं प्राइवेट कंपनी 5000 रु. कमाती है। दूसरे खनिजों की स्थिति तो और खराब है। इन प्राइवेट कंपनियों में एक वेदांता है जिससे चिदंबरम का पुराना संबंध बताया जाता है। आदिवासियों को खदेड़कर इन कंपनियों की लूट सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने ग्रीन हंट ऑपरेशन चलाया। क्योंकि माओवादी इस लूट में रोड़ा बन रहे थे।
चक्रव्यूह इसी विषय पर बनी है। फिल्म में नंदी गांव की जगह नंदी घाट का क्षेत्र है जहां माओवादी एरिया कमांडर राजन (मनोज बाजपेयी), जूही (अंजली पाटिल) और नागा का राज चलता है और उनके भय से कोई पुलिस अधीक्षक नंदी घाट में पोस्टिंग लेना नहीं चाहता। पुलिस अधीक्षक आदिल खान (अर्जुन रामपाल) माओवाद को समाप्त करने के लिए अपनी पोस्टिंग नंदी घाट में कराता है। उसका दोस्त कबीर (अभय दओल) पहले उससे वहां पोस्टिंग लेने के लिए मना करता है, बाद में उसका इंफॉर्मर बनकर नक्सलियों के साथ जुड़ जाता है। वह आदिल को सूचना देकर एक ट्रेनिंग कैंप पर छापेमारी में उनके हथियार पकड़वा देता है। प्रोफेसर गोविंद सूर्यवंशी (ओम पुरी) जो अर्थशास्त्री हैं, राजन गोविंद को छुड़ाने के लिए पुलिस पर हमला करता है। गोविंद को तो छुड़ा लिया जाता है पर कबीर की सूचना पर आदिल राजन को पकड़ लेता है। मेदांता जो एक स्टील प्लांट लगाना चाहता है, इसके बाद आदिवासियों का दमन शुरू होता है। इस दमन के बाद कबीर आदिल के मिशन से अलग होकर प्रतिबद्ध क्रांतिकारी बन जाता है। वह मेदांता के बेटे को पकड़ कर उसके बदले राजन को छुड़वा लेता है। पुलिस राजन के घाव में एक कंप्यूटर चिप लगा देती है। चिप की सहायता से पुलिस हेलिकॉप्टर व जमीनी घेराबंदी से राजन को मारना चाहती है। कबीर जिसे नया नाम आजाद मिला है इस चाल को समझ जाता है और राजन के घाव से चिप को निकाल कर दूर चला जाता है। इस तरह पुलिस के चक्रव्यूह को तोड़ते हुए जूही व आजाद के शहीद होने के साथ फिल्म का अंत होता है।
विषय के स्तर पर फिल्म कुछ सार्थक व जनपक्षीय बातें स्थापित करने में सफल हुई है। पूरी फिल्म में यह बात छाई रहती है कि ऑपरेशन ग्रीन हंट की तरह एस.पी. आदिल का माओवादियों को समाप्त करने का जो अभियान है वह और कुछ नहीं आदिवासियों को समाप्त कर मेदांता जैसी कंपनियों की लूट को सुनिश्चित करने का षड्यंत्र मात्र है। यह बात उस समय बहुत स्पष्ट रूप से सामने आती है जब आदिल राजन को पकड़ लेता है तो मेदांता का बेटा उसे 230 गांव खाली कराने के लिए पैसे देने की बात करता है। फिर सलवा जुडुम की तरह निजी सेना का इस्तेमाल करते हुए आदिवासियों के गांवों को हटाने के लिए भेजता है। उसके बाद जो दृश्य उपस्थित होता है वह इस व्यवस्था की गरीब व कमजोरों पर हद दर्जे की क्रूरता का रूपक बन कर उभरता है। बुलडोजरों से आदिवासियों के घर रौंदे जा रहे हैं। वे बहदवास होकर इधर उधर भाग रहे हैं और उन्हें उजाडऩे वाले लोग लॉउडस्पीकर पर चिल्ला रहे हैं – सरकार यह आपके लिए कर रही है, आपका विकास करेगी। यही बात नेता आदिवासियों के बीच जाकर कह रहे हैं – मेदांता का स्टील प्लांट लगेगा, यहां का विकास होगा, सड़कें बनेगीं, स्कूल खोले जाएंगे, यही बात हमारी सरकारें 1990 में शुरू किए आर्थिक उदारीकरण से लेकर आज तक कहती आ रही हैं। फिल्म के अंत में दी गई कमेंट्री में यही बात स्पष्ट की गई है कि आजादी के 65 सालों में विकास के नाम पर जो हुआ है उससे देश की 25 प्रतिशत संपत्ति 100 परिवारों के हाथ में चली गई है और 80 प्रतिशत जनता 20 रुपए रोज पर गुजर कर रही है।
फिल्म पुलिस के चरित्र को अच्छी तरह उजागर करती है। आदिवासी पुलिस को देखकर ही भाग खड़े होते हैं। वह अवैध वसूली करती है, नक्सलियों के नाम पर आदिवासियों का उत्पीडऩ करती है, उनके घर जलाने की धमकी देती है, बलात्कार करती है। सिर्फ पुलिस ही नहीं, सरकार से लेकर मेदांता यानी पूंजीपति वर्ग तक मानवता की दुहाई के पीछे जो घृणित क्रूर जनविरोधी चेहरा है वह फिल्म में झलकता है। यह चेहरा तब और स्पष्ट हो जाता है जब आदिल और उसका मुखबिर बन कर माओवादियों के बीच गया उसका दोस्त कबीर, माओवादी आजाद बनकर लौटता है और उससे सवाल करता है। आदिल उसकी बातों का कोई उत्तर तो नहीं दे पाता बस उन्हीं बातों को बार-बार दोहराता है जिन्हें सत्ता वर्ग हमेशा दोहराता रहा है – देशप्रेम, देशद्रोह, हिंसा, अहिंसा, बात सही है पर रास्ता गलत है, व्यवस्था सुधार, माओवादी भी आदिवासियों की आड़ में सत्ता हथियाना चाहते हैं आदि-आदि।
अब तक यह बात मार्क्सवादी ही कहते थे कि वर्तमान व्यवस्था को सरकार और प्रशासन नहीं चलाते हैं उसे पूंजीपति चलाते हैं लेकिन अब इसे जनता को गुमराह करने वाले व्यवस्था के नुमाइंदे भी कहने लगे हैं। यह बात फिल्म में उस दृश्य में अच्छी तरह परिलक्षित होती है जब कबीर से आजाद बना माओवादी कमांडर राजन को छुड़ाने के लिए मेदांता के बेटे को पकड़ ले जाता है और मेदांता के ऑफिस में मुख्यमंत्री, गृहमंत्री व पुलिस महानिदेशक पहुंचते हैं। उस समय पता चलता है कि लोकतंत्र के ऑफिस को मेदांता ही चला रहा है। मुख्यमंत्री की हैसियत एक क्लर्क जैसी है और पुलिस महानिदेशक इस ऑफिस का चपरासी भर है जो फोन अटेंड करने के लिए रखा गया है।
यह फिल्म माओवाद के मुद्दे पर है इसलिए माओवादियों एवं माओवादियों की रणनीति से सहमति न रखने वाले दूसरे मार्क्सवादियों यानी दोनों की असहमतियां इससे हो सकती हैं। हो सकता है फिल्म उतनी अच्छी न बनी हो। पर मैं तो इतना ही कहूंगा कि फिल्म कुछ सार्थक मुद्दों को उठाती है और एक देखे जाने लायक फिल्म है।
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