कविता और समाज : लोकगायक का स्वर और आतंकित सत्ता का विष वमन
Author: समयांतर डैस्क Edition : January 2013
इंद्रेश मैखुरी
जिस गीत के जरिये नरेंद्र सिंह नेगी पर हमला किया गया है वह भी दरअसल कांग्रेस-भाजपा की ही राजनीति का अपसांस्कृतिक चेहरा है। इसकी पतित संस्कृति ने उत्तराखंड को अपने चपेट में ले लिया है। नेगी के खिलाफ लिखे गीत में इसके चिन्ह दिखाई देते हैं। गीत में नेगी को इंगित कर ये कहा जाता है कि "उत्तराखंड में हो रहा विकास तुझको विनाश नजर आ रहा है!" इस प्रकरण को कुछ माह पूर्व गंगा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं पर किए गए शर्मनाक हमले के संदर्भ में देखना चाहिए जिसका नेतृत्व एक पत्रकार ने किया था और इससे एक जाना-माना स्थानीय हिंदी कवि जुड़ा है। इससे ज्यादा शर्म की बात क्या हो सकती है कि जब जाने-माने और अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित तथाकथित बड़े कवि सत्ता की जी हजूरी कर रहे हों तब नरेंद्र सिंह नेगी ही नहीं बल्कि उन जैसे अनेक स्थानीय बोलियों के गीतकार (?) अपनी रचनाओं के माध्यम से राज्य की सत्ता के भ्रष्टाचारों और जनता की पीड़ा व संघर्षों को अभिव्यक्ति दे रहे हैं।
नरेंद्र सिंह नेगी उत्तराखंड राज्य के पश्चिमी क्षेत्र की भाषा गढ़वाली के गायक, गीतकार, कवि हैं, जो पिछले चालीस वर्षों से रचना कर्म में लगे हैं। उत्तराखंड के गीत-संगीत का उन्हें प्रतिनिधि चेहरा कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। अपने चार दशकों के रचना काल में पहाड़ी जीवन के तकरीबन सभी रंग उनके गीतों में नजर आते रहे हैं। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद कांग्रेस-भाजपा की सरकार और उनके मुख्यमंत्रियों के भ्रष्टाचार पर भी उन्होंने गीत लिखे जो अत्यधिक लोकप्रिय हुए। राजनीतिक विरोध को कोई तवज्जो ना देने वाली कांग्रेस-भाजपा को नरेंद्र सिंह नेगी के इन गीतों के चलते काफी फजीहत झेलनी पड़ी।
ऐसे में जब ये चर्चा चली कि अपने गीतों से सत्ता को चुनौती देने वाले नरेंद्र सिंह नेगी पर भी किसी ने गीत लिख दिया है तो ये उत्सुकता होना स्वाभाविक था कि नेगी ने ऐसा क्या किया कि किसी को उनके कारनामों का भंडाफोड़ करने के लिए वैसे ही गीत लिखने पड़ें, जैसे स्वयं नेगी सत्ता के शिखर पुरुषों के चेहरे से नकाब उतारने के लिए लिखते हैं। ऐसे कलाकार, कवि, लेखक आदि लोगों की चर्चा यदा-कदा सार्वजानिक रूप से होती रहती है जो अपने रचनाकर्म में बेहद प्रगतिशील और क्रांतिकारी होते हैं, लेकिन अपने वास्तविक जीवन में इसके ठीक उलट होते हैं। नेगी पर लिखे गए गीत को सुनने से पहले ये भी लगा कि जैसे तमाम बड़े लोग अपनी सृजनशीलता में अलग नजर आते हैं और वास्तविक जीवन में उनका चेहरा कुछ और होता है, कहीं नरेंद्र सिंह नेगी के जीवन के ऐसे ही किसी पहलू का खुलासा तो इस गीत में नहीं किया गया होगा? फिर सोचने पर लगा कि यदि उत्तराखंड के सबसे बड़े गायक और गीतकार कहे जाने वाले नरेंद्र सिंह नेगी का कोई ऐसा दूसरा चेहरा है जो उनके सार्वजनिक चेहरे को नकली सिद्ध करता हो तो उसे सामने आना ही चाहिए। वो कितनी ही महान मूर्ति क्यों न हों, दोमुंह वाली मूर्ति को तो खंडित होना ही चाहिए।
लेकिन नेगी पर लिखे गए गीत को सुनकर पता चला कि ऐसा कोई खुलासा तो इस गीत में नहीं है। शिल्प के लिहाज से देखा जाए तो ये ठीक से गीत भी नहीं कहा जा सकता। लगता है कि किन्हीं कुंठाओं के चलते, संगीत की थोड़ी-बहुत जानकारी के साथ चलताऊ धुन और भौंडे अंदाज में कोई किसी को कोस रहा है। जिस तरह के शब्दों का प्रयोग इसमें है, उसे सुनकर तो पहाड़ के गांवों में होने वाले झगड़े याद आ जाते हैं, जहां खेत की मेंड़ पर खड़े होकर झगड़ालू पुरुष या स्त्री अपने ही गांव के ऐसे व्यक्ति को खूब गाली देते हैं जिससे उसकी खुंदक हो। गाली देने के इस क्रम में कोसने के लिए गलत-सही जो कुछ कहा जा सकता है, वो कहते हैं। वैसा ही कुछ-कुछ मामला इस गीतनुमा गाली-गलौच में भी है, जिसमें नरेंद्र सिंह नेगी की टोपी पर टिप्पणी है, उनके चेहरे का मजाक उड़ाया गया है और उनके उम्रदराज होने पर पूरे साढ़े नौ मिनट 'बुड्ढा' इस ढंग से कहा गया है, जैसे गोया बूढ़ा होना कोई अभिशाप है जो सिर्फ नेगी के ही हिस्से आया है और उन पर गीत लिखने वाला हमेशा ही चिरयुवा और बूढ़ा होने के अभिशाप से मुक्त रहेगा।
नरेंद्र सिंह नेगी पर लिखे गए दोयम दर्जे के गीत से उन स्थितियों की शिनाख्त करने की जरूरत है, जिनके चलते उन पर गीत लिखने के हालात पैदा हुए। जैसा कि शुरू में कहा गया कि नेगी सामाजिक कुरीतियों से लेकर राजनीतिक हालातों पर अपने गीतों के जरिये तीखा हमला करते रहे हैं। जनकवि, जनगायक या जनगीतकार होने का जो प्रचलित अर्थ है कि वह सामाजिक या राजनीतिक कार्यकर्ता जैसा ही होता है, जो अपने सामाजिक-राजनीतिक मिशन को आगे बढ़ाने के लिए गीत, कविता, नाटक जैसे माध्यमों का इस्तेमाल करता है। इन प्रचलित अर्थों में देखें तो नरेंद्र सिंह जनगायक या जनगीतकार की परिभाषा के खांचे में फिट नहीं बैठते हैं। वह तो एक व्यावसायिक कलाकार हैं, एक कमर्शियल परफॉर्मिंग आर्टिस्ट, जो गीत-संगीत के बाजार के जरिये ही लोगों तक पहुंचते हैं। ऐसे में सामाजिक कुरीतियों और उससे भी आगे बढ़कर राजनीतिक व्यवस्था और उसके शिखर पर बैठे चेहरों तथा उनकी नीतियों पर नरेंद्र सिंह नेगी हमला बोलते हैं तो एक व्यावसायिक कलाकार की अपनी सीमाओं का वह अतिक्रमण ही करते हैं। एक तरह से यह उनकी विशेषता ही कही जाएगी कि वह बाजार का इस्तेमाल भी जनता की बात कहने के लिए कर लेते हैं। लेकिन बहुत बार इस अतिक्रमण के अपने खतरे भी हैं। सन् 1994 के उत्तराखंड आंदोलन के दौर में जब आंदोलन पर केंद्रित गीतों का कैसेट रिकॉर्ड कराने नेगी गए तो एक बड़ी कैसेट कंपनी – टी सीरीज ने यह कहते हुए उन्हें रिकॉर्ड करने से मना कर दिया कि उत्तराखंड आंदोलन तो मुलायम सिंह यादव के खिलाफ है और उक्त कंपनी को मुलायम सिंह यादव ने कई सुविधाएं प्रदान की हुई हैं। बाद में ये कैसेट रामा कंपनी ने रिकॉर्ड किया पर वहां भी नेगी को इसके मालिकान को राजी करने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी और यहां तक आश्वासन देना पड़ा कि यदि इस कैसेट से रामा कंपनी को घाटा हो जाएगा तो अगली बार एक कैसेट वे रामा कंपनी के लिए मुफ्त गा देंगे।
इससे आगे पीछे भी नरेंद्र सिंह नेगी पहाड़ी जीवन के दुख-दर्दों, प्रकृति चित्रण से लेकर प्रेम गीत लिखने तक के अलावा सामजिक, राजनीतिक मसलों पर टिप्पणी करते रहे। किसी को इन गीतों से बहुत समस्या नहीं हुई। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद 2002 में राज्य में नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार बनी और इस सरकार ने भ्रष्टाचार और सरकारी खजाने की लूट को कानूनी रूप से संभव बना दिया। इसके खिलाफ नरेंद्र सिंह नेगी ने मुख्यमंत्री तिवारी को केंद्रित कर 'नौछम्मी नारेण' (बहुरुपिया नारायण) गीत लिखा, जिसने तिवारी राज में सरकारी खजाने की खुली लूट पर तीखा व्यंग्यात्मक प्रहार किया गया था। इसके बाद 2007 में भाजपा सत्ता में आयी और 2009 में उत्तराखंड की पांचों लोकसभा सीटें हारने और भाजपा की अंदरूनी उठापटक के चलते भुवन चंद्र खंडूरी को हटाकर रमेश पोखरियाल 'निशंक' मुख्यमंत्री बने। भाजपा राज में भी रास्ता तिवारी के लूट भ्रष्टाचार वाला ही चला। एक बार फिर नेगी ने भाजपाई कुशासन और भ्रष्टाचार पर तंज कसता गीत 'अब कथगा खैल्यु' (अब कितना खाएगा) लिखा और गाया जो काफी लोकप्रिय हुआ। इस गीत में केंद्र की कांग्रेसी सरकार के घोटालों पर भी चोट थी।
नेगी की समस्याएं यहीं से शुरू हुईं। जब तक वह अपने गीतों में सामाजिक राजनैतिक स्थितियों पर टिपण्णी करते हुए भी किसी पर उसकी जिम्मेदारी आयद नहीं कर रहे थे, तब तक किसी को उनसे कोई दिक्कत नहीं थी। लुटेरी सत्ता भी उन्हें उतना ही पसंद करती प्रतीत होती थी, जितना आम जनता। वह सबके चहेते 'गढ़ रत्न' कहलाते रहे। लेकिन जैसे ही उन्होंने कुशासन, लूट और भ्रष्टाचार के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी पर निशाना साधा तो पूरी सरकारी मशीनरी और कांग्रेस नरेंद्र सिंह नेगी को ठिकाने लगाने के अभियान में जुट गई। सरकार द्वारा होने वाले मेलों, नगरपालिकाओं द्वारा आयोजित शरदोत्सवों में उनके कार्यक्रमों पर अघोषित सेंसरशिप लग गई। सरकार से इतर कुछ आयोजकों ने नेगी को अपने कार्यक्रमों में बुलाना भी चाहा तो उन पर दबाव डालकर नेगी के कार्यक्रम रद्द करवाए गए। गढ़वाली वीडियो अलबमों के संदर्भ में सेंसर बोर्ड का नाम भी तभी पहली बार सुनाई दिया। कांग्रेसियों ने जगह-जगह नेगी के पुतले जलाए। 'अब कथगा खैल्यु' के वीडियो के मामले में भी सेंसर बोर्ड इस पर अड़ गया कि भ्रष्ट मुख्यमंत्री का अभिनय कर रहे पात्र का चेहरा ना दिखाया जाए।
आज जिस गीत के जरिये नेगी पर हमला किया गया है वह भी दरअसल कांग्रेस-भाजपा की ही राजनीति का अपसांस्कृतिक चेहरा है। न केवल कांग्रेस-भाजपा की भ्रष्ट राजनीति ने उत्तराखंड में पिछले बारह वर्षों में अपनी जड़ें जमाईं हैं, बल्कि उनकी पतित संस्कृति ने भी उत्तराखंड को अपनी चपेट में ले लिया है। यह सिर्फ कोरी 'कांसिपीरेसी थ्योरी' नहीं है। बल्कि नेगी के खिलाफ लिखे गए गीत में इसके चिन्ह दिखाई देते हैं। जब उस गीत में नेगी को इंगित कर ये कहा जाता है कि उत्तराखंड में हो रहा विकास और तुझको विनाश नजर आ रहा है ! तो ये किसकी पीड़ा है? निश्चित तौर पर ये किसी लोकगायक कहे जाने वाले किसी व्यक्ति की पीड़ा तो नहीं है। ये उत्तराखंड की सत्ता में बैठने वाली कांग्रेस-भाजपा का ही दर्द है। जल, जंगल, जमीन जैसे संसाधनों की लूट और ठेकेदारपरस्त विकास का मॉडल ही तो पिछले बारह सालों में उत्तराखंड की सत्ता में बैठने वालों ने इस राज्य में कायम किया। जो विकास इस राज्य के आम आदमी (जिसमें नरेंद्र सिंह नेगी भी शामिल हैं) को नहीं दिख रहा, उसे दिखाने के लिए सरकार हर साल करोड़ों रुपए विज्ञापन छपवाने पर खर्च करती है। इसलिए ये सत्ता में बैठने वालों का दर्द है कि करोड़ों रुपए के विज्ञापनों से रचे जा रहे इस विकास के आडंबर को नेगी अपने गीतों के जरिये बेनकाब क्यों कर रहे हैं? जब उस गीत में नेगी के बारे में कहा जाता है कि सब जगह घोटाला होने की बात करता है, तू भी घोटालेबाज है, तो इस विचार की जड़ें कहां हैं? सत्ता में बैठ कर जनता के पैसे की लूट करने वाली पार्टियों ने ही ये विचार समाज में फैलाया है कि अगर हम घोटालेबाज हैं तो आजकल ईमानदार है ही कौन और इस क्रम में कहीं सौ रुपया खाने का उदाहरण देकर सत्ताधारी और उनके लगुए-भगुए अपने द्वारा हजार करोड़ या लाख करोड़ रुपए हजम कर जाने को जायज ठहराते हैं। किसी का भी चरित्र हनन करके, अपने पर उठने वाली अंगुलियों को ठिकाने लगाना और ऐसा करने के लिए कुछ प्यादों का प्रयोग करना भी कांग्रेस-भाजपा मार्का राजनीति की विशेषता है।
यह पूरी कोशिश दरअसल सत्ता की अदला-बदली करने वाली पार्टियों द्वारा नरेंद्र सिंह नेगी को यह जताने की एक और कोशिश है कि अपनी हद में रहो। व्यावसायिक गवय्ये हो तो गाना गाओ, हमारा धंधा चौपट मत करो। छल, छद्म करना हमारे लिए कोई मुश्किल नहीं है। हम तुम्हारे खिलाफ तुम्हारी बिरादरी का अपना मोहरा खड़ा कर देंगे, जो तुम पर कीचड़ उछालेगा और तुम उसका न विरोध कर सकोगे न उस पर खामोश ही रह सकोगे। ये प्यादे घटिया, अश्लील, स्त्रियों को उपभोग की वस्तु समझने वाले गीत रचेंगे और सत्ता की सरपरस्ती पाएंगे।
इस पूरे घटनाक्रम में गायक, गीतकार, संगीतकार, संस्कृतिकर्मियों की बिरादरी को यह तय करना है कि वे सत्ता के चारण बन कर विरुदावालियां गाएंगे और सत्ता की आंखों का तारा बनकर अपने को धन्य समझेंगे या फिर लुटेरी सत्ता के खिलाफ तन कर जनता के पक्ष में खड़े होंगे। इतिहास तो यही बताता है कि चारण-भाटों ने राजाओं-महाराजाओं की कितनी ही कृपा क्यों न पायी हो उनके राज के अवसान के बाद चारण-भाटों का कोई नाम लेवा नहीं बचा।
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