कहां गुम हो गईं बैलगाडियां
हम भले ही तेज रफ्तार से विकास पथ पर अग्रसर हैं, जो काबिले तारीफ भी है पर सृष्टि के गूढ़ रहस्यों की खोज में हम कहीं न कहीं अपनी प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। आधुनिकता के इस दौड़ में हम मुंशी प्रेमचन्द के हीरा-मोती की जोड़ी के साथ प्राचीन भारतीय परिवहन व्यवस्था की रीढ़ रही बैलगाड़ी को भी खोते जा रहे हैं।
एक दौर था कि गांवों में दरवाजों पर बंधे अच्छे नस्ल के गाय-बैलों और उनकी तंदुरूस्ती से ही बड़े कास्तकारों की पहचान होती थी। प्राचीन भारतीय संस्कृति इसकी साक्षात गवाह है कि कृष्ण युग से ही पशुधन सदा से हमारे स्टेटस सिम्बल रहे हैं। बदलते परिवेश में हम इतने अति आधुनिक हो गये हैं कि कृषि में कीटनाशकों व रसायनों का जहर घोल दिया है जिसकी फलस्वरूप हमें जैविक रसायनों की तरफ फिर से लौटना पड़ रहा है। हमें खुद व अपनी मिट्टी को स्वस्थ रखने के लिए गोबर चाहिए, इसकी खातिर कृषि वैज्ञानिक किसानों को वर्मी कम्पोस्ट बनाने की कला गांव-गांव घूमकर सिखा रहे हैं। एक दौर था कि जुताई करते बैलों से स्वमेव खेतों को गोबर मिल जाया करता था। खेतों में कार्य करते बैलों को उकसाते हुए किसान कहते कि आज खोराक बढ़ी बेटा, जो नेताओं के कोरे आश्वासन नहीं होते थे बल्कि घर वापसी के बाद बैलों को चारा-पानी देने के बाद ही किसान भोजन करते। बदले में इन प्राकृतिक संसाधनों से पर्यावरण सम्बन्धी कोई समसया भी नहीं होती। उस वक्त हम प्रकृति के बेहद करीब थे तथा गवईं समाज में हर-जुआठ, हेंगी-पैना जैसे अनेकों शब्दों का प्रयोग आम था। तमाम कहावते व मुहावरे प्रचलित थीं मसलन गांगू क हेंगा भयल बाड़ा, खांगल बैले हो गइला का आदि।
कितना हसीन दौर था जब हीरा मोती की जोड़ी खेतों के साथ रोड़ की भी शान हुआ करती थी। एक से एक डिजाइनर बैलगाडि़या होती थीं जिनपर लोग गर्व पूर्वक सवारी करते थे। वहीं मालवाहक बैलगाडि़यां बेहद मजबूत व बड़ी होती थीं। यही बैलगाडि़यां प्राचीन भारतीय परिवहन व्यवस्था की रीढ़ मानी जाती थीं। बकायदे एक तबका इससे जुड़ कर अपना व पूरे परिवार का भरण-पोषण करता था। हमारी विकास की दौड़ काफी तेज हो गई है कि हमारे पास इतना मौका नहीं है कि इसकी दिशा व दशा सही भी है या नहीं। निःसन्देह हमने बहुत तेजी से विकास किया है मगर इसकी दशा व दिशा निर्धारित करने में आज भी हम चूक रहे हैं।
यह कैसा विरोधाभाष है कि आज गोबर की महत्ता महसूस की जा रहा है जबकि बैलों, गायों आदि पालतू जानवरों को पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यदा-कदा खेतों या मण्डियों में जो बैलों की जोडि़यां बैलगाड़ी या हरों में देखने को मिल भी जा ते हैं तो उनमें भी जुते बैल मरकटेल ही रहते हैं। अगर हालत यूं ही रहे तो क्या बैलगाडि़यां और बैलों की जोडि़यां देखने को मिल पायेंगी? गोपाल 76 ''पहिले वाला जमाना गईल साहब, अब सगरों टरक, टेक्टर हो गइल बा। बस भूसा बचल बा, उहे ढोवे के मिल जाला कबहू-कभार नाहीं त बैलन क खोराक डाढ बा। '' ऐसे में वो भी क्यों नही छोड देते बैल हांकना? ''साहब, पुरखा-पुरनिया क निशानी बा, बस हमरहीं तक बचल बा चल रहल बा नाहीं त खतमे मान के चलीं।''
वक्ती थपेड़ों से दो-चार बैलगाड़ी स्वामी बस बुजूर्गों की निशानी मान कर इसे जीवित रखे हुए हैं वर्ना आगामी पीढ़ी कब की बैलगाड़ी की थमती रफतार को भूला चुका होता। कार की रफ्तार के सामने बैलगाड़ी का रफ्तार मन्द पड़ चुकी है। टैक्टर ने बैलों की हरवाही छीन लिया है। पशु तस्करी व मांस के ग्लोबल बिजनेस ने बैलों को असमय काल के गाल में ढ़केल दिया है। कभी कुन्तलों वजन लादकर शान से चलती बैलों की जोड़ी आज खुद पशुतस्करों के टकों में ठुंसी लाचार आंखें से जान की भीख मांगती नजर आती हैं। आधुनिक परिवहन के संसाधनों की प्रदूषित गैसों ने जहां लोगों को रोगग्रस्त कर पर्यावरण का बन्टाधार किया है वहीं बैलों की टूटती परम्परा ने खेतों को रासायनिक खादों की तपती ज्वर में झोंक दिया है जिसने व्यक्ति के स्वास्थ को दीमक की तरह चाट कर जिन्दा लाश बना दिया है।
अगर वक्त रहते हम ना सम्हलें तो बैलगाड़ी वक्त के ओराक बन जायेंगे। साथ में भगवान शिव की सवारी भी इतिहास के पन्नों में दफन हो जायेगी। वह वक्त भी आपे वाला है कि बैलों को देखने के लिए हमें चिडि़या घरों की जानिब रूख करना होगा। आने वाली नस्लों को बैल व बैलगाड़ी दिखाने के लिए किताबों व मुंशी प्रमचन्द के हीरा-मोती का दर्शन कल्पना के सहारे करना होगा।
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