भारत में पिछले दो दशकों में कई आतंकी हमले हुये हैं। यद्यपि इन हमलों में विभिन्न धर्मों के लोग शामिल रहे हैं तथापि पुलिस और जाँच एजेन्सियों का रवैय्या एक-सा रहा है। मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार करो, उनके विरुद्ध अदालतों में चालान प्रस्तुत करो और बाद में, अदालतों द्वारा बरी कर दिये जाने के बाद, उन्हें रिहा हो जाने दो।
इस अनवरत प्रक्रिया में एक ब्रेक तब आया जब सन 2008 के मालेगांव बम धमाकों की महाराष्ट्र एटीएस के तत्कालीन प्रमुख हेमंत करकरे ने सूक्ष्मता, निष्पक्षता व ईमानदारी से जाँच की। इसके नतीजे में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, स्वामी दयानंद पाण्डेय, स्वामी असीमानंद वहिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा में यकीन करने वाले अन्य कई जेल के सलाखों के पीछे हैं। मालेगांव व अन्य कई बम धमाकों में इनका हाथ होने के सुबूत सामने आ रहे हैं। ऐसी उम्मीद थी कि जाँच में इन एकदम नये तथ्यों के उद्घाटन से पुलिसकर्मियों की सोच में बदलाव आयेगा, वे अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त होंगें और आतंकी घटनाओं की निष्पक्षता से जाँच करेंगे।
परन्तु ऐसा हो न सका। पुलिसकर्मी अपने वही पुराने, घिसे-पिटे ढर्रे पर चलते रहे। हर आतंकी घटना के तुरन्त बाद, बिना किसी जाँच के, वक्तव्य जारी करने का सिलसिला जारी रहा। इन वक्तव्यों में इण्डियन मुजाहिदीन, लश्करया ऐसे ही किसी संगठन को घटना के लिये दोषी करार दे दिया जाता है। उसके बाद बेवजह गिरफ्तारियों और गिरफ्तार लोगों को फँसाने का सिलसिला शुरू होता है। हाल में, इस साल 21 फरवरी को, हैदराबाद में दो बम विस्फोट हुये, जिनमें 17 लोग मारे गये और सौ से अधिक घायल हुये। ये बम साईकिलों पर रखे गये थे और इस घटना के लिये इण्डियन मुजाहिदीन को दोषी बताया गया। बंगलोर में 17 अप्रैल को, भाजपा कार्यालय से 300 मीटर दूर बम विस्फोट हुआ। इसके लिये
मोटर साइकिल का इस्तेमाल किया गया। इस घटना में 16 लोग घायल हुये। इस धमाके को लेकर यह प्रचार किया गया कि यह भाजपा के कार्यालय पर हमला था जबकि तथ्य यह है कि धमाके के स्थान से भाजपा कार्यालय की दूरी 300 मीटर से भी ज्यादा है। कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद ने कहा धमाका और उसके भाजपा कार्यालय के नज़दीक होने के प्रचार से भाजपा को चुनाव में लाभ मिलेगा। भाजपा ने इस बात से इंकार किया।
बेंगलुरू बम धमाकों के पहले का घटनाक्रम दिलचस्प और पोल खोलने वाला है। इस धमाके के केवल दस दिन पहले, केरल के कुन्नोर में एक मोटरसाइकिल में रखे चार किलो विस्फोटक के फट जाने से, मोटरसाइकिल चालक वी दिलीप कुमार मारे गये। वे आरआरएस के कार्यकर्ता थे। यहाँ यह स्मरणीय है की इसके पहले भी नान्देड, कानपुर व अन्य स्थानों पर, आरएसएस व उससे जुड़े संगठनों के कार्यकर्ता बम विस्फोटों में मारे जा चुके हैं। कन्नोर की घटना को मीडिया ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी और यह साफ़ नहीं है कि घटना की जाँच में क्या सामने आया। यह दिलचस्प है हर घटना का दोष 'इण्डियन मुजाहिदीन' पर मढ़ने वाले पुलिस अधिकारी, आतंकवादियों के हिन्दुत्व संगठनों से जुडाव के मामले में चुप्पी साध जाते हैं।
अधिकारियों के इन पूर्वाग्रहों का खामियाजा, अंततः, पूरे देश को भुगतना पड़ता है। हम अपने पूर्वाग्रहों व मान्यताओं के जाल में इस् तरह फँस जाते हैं कि हम असली दोषियों तक पहुँच ही नहीं पाते। और वे अपनी कुत्सित कारगुजारियाँ जारी रखते हैं।
मुसलमान युवकों की जबरन गिरफ्तारियों पर विभिन्न मानवाधिकार संगठनों ने कई जनसुनवाईयाँ आयोजित की हैं व तथ्यों और आँकड़ों का संकलन भी किया है। 'अनहद' ने एक
जनन्यायाधिकरण का आयोजन किया और उसकी रपट को 'स्केप्गोट्स एंड होली काऊज' (बलि के बकरे और पवित्र गायें) शीर्षक से प्रकशित भी किया। हाल में, "जामिया टीचर्स सॉलिडेरिटी एसोसिएशन' ने मनीषा सेठी के नेतृत्व में इसी विषय पर एक अध्ययन किया है, जिसे "फ़्रेम्ड, डेम्ड एंड एक्यूटेड" शीर्षक से प्रकाशित किया गया है। यह रपट पुलिस जाँच प्रक्रिया की एकपक्षता और पकडे गये निर्दोष लोगों की दुश्वारियों का विश्लेषणात्मक विवरण प्रस्तुत करती है। इसमें विशेष रूप से उन मुस्लिम युवकों की चर्चा है जिन्हें दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा ने इस् आरोप में पकड़ा कि वे आतंकी संगठनों ने सम्बद्ध हैं। इनमें से अधिकाँश मामलों में अदालतों ने इन्हें बरी कर दिया। इस रपट से पुलिस के तौर-तरीकों के बारे में आमजनों को जानकारी मिलनी चाहिये थी और पुलिस पर उसका रंग-ढँग बदलने का दवाब पड़ना चाहिये था। परन्तु इस तरह की रपटों को पर्याप्त प्रचार नहीं मिलता। रपट स्वयं कहती है कि मीडिया, घटनाओं के आधिकारिक विवरण को जस का तस स्वीकार कर लेता है जबकि पत्रकारिता के उच्च सिद्धान्तों का तकाजा है कि अधिकारिक तौर पर प्रदान की गयी जानकारी की पुष्टि और पुनर्पुष्टि की जानी चाहिये। मानवाधिकार संगठन झूठे फँसाये गये लोगों को मुआवजा दिलवाने का भी प्रयास कर रहे हैं परन्तु उन्हें अब तक सफलता नहीं मिल सकी है। प्रश्न यह भी है कि क्या उन पुलिस अधिकारियों को सजा नहीं मिलनी चाहिये जिन्होंने ठीक ढँग से जाँच नहीं की, निर्दोषों को जेल भेजा और उनकी ज़िन्दगी बर्बाद की?
यह सचमुच दुखद है कि पुलिस के व्यवहार व कार्यप्रणाली के सम्बन्ध में रपटों – विशेषकर गैर-सरकारी रपटों को – गम्भीरता से नहीं लिया जाता। क्या पुलिस के शीर्ष नेतृत्व का यह कर्त्तव्य नहीं है कि वह इस तरह की रपटों को गम्भीरता से ले?क्या नीति निर्धारकों से हम यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि वे इस् तरह की रपटों के निष्कर्ष के आधार पर नीतियों में उचित परिवर्तन लायेंगे? अन्यों के अलावा, उत्तर प्रदेश का 'रिहाई मंच' भी इस मुद्दे पर अभियान चला रहा है और निर्दोष युवकों को रिहा करवाने की कोशिश कर रहा है। उत्तर प्रदेश सरकार ने इस तरह की घटनाओं की जाँच के लिये निमेष आयोग की स्थापना की थी परन्तु न जाने किस कारण से, उत्तर प्रदेश सरकार इस् रपट को सार्वजनिक नहीं कर रही है और केवल टुकड़ों में काम कर रही है।
जहाँ उत्तर प्रदेश सरकार, मुसलमानों को झूठा फँसाने के मामलों में कार्यवाही करने में हिचकिचा रही है वहीं राज्य की सरकार के एक मन्त्री को अमरीका में मुसलमानों के बारे में पूर्वाग्रहों का मज़ा चखना पड़ा, जहाँ उन्हें बोस्टन के हवाई अड्डे पर रोक लिया गया। मन्त्री जी, उनके साथ जो कुछ गुज़रा, उसके लिये विदेश मन्त्री को दोषी ठहरा रहे हैं। वे यह भूल रहे हैं कि मुसलमानों के बारे में पूर्वाग्रह पूरी दुनिया में फैले हुये हैं और उनके पहले, एपीजे अब्दुल कलाम और शाहरुख खान जैसी शख्सियतों को भी इन्हीं हालातों का सामना करना पड़ा था। क्या इससे सबक लेकर, मन्त्रीजी को, कम से कम अपने प्रदेश में, मुसलमानों के बारे में व्याप्त पूर्वाग्रहों को दूर करने का प्रयास नहीं करना चाहिये? इस सन्दर्भ में सबसे चिंताजनक बात यह है कि मुसलमानों के बारे में पूर्वाग्रह हमारे देश में और गहरे होते जा रहे हैं। सुरक्षा एजेन्सियों और आम जनता, दोनों को ही इन पूर्वाग्रहों से मुक्त किया जाना आवश्यक है।
(हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
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