BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Sunday, April 28, 2013

संघर्ष की गाथा

संघर्ष की गाथा

Sunday, 28 April 2013 11:18

जनसत्ता 28 अप्रैल, 2013: युवा कथाकार राकेश कुमार सिंह का उपन्यास हुल पहाड़िया पहाड़िया विद्रोह पर केंद्रित है।

पहाड़िया विद्रोह शोषण के खिलाफ किया गया देश का पहला सशक्त और सशस्त्र संघर्ष है। पहाड़िया एक आदिवासी समुदाय है। यह झारखंड क्षेत्र में सदियों से निवास कर रहे हैं। वहां के संथाल परगना क्षेत्र, जो कभी राजमहल, कभी जंगलतराई और कभी दामिन-ए-कोह के नाम से जाना जाता रहा है, में ये संथालों के बसने से पहले से निवास करते रहे हैं। संथालों को तो असल में इस क्षेत्र में अंग्रेजों ने जंगलों की कटाई कराने और फिर उस पर खेती करा कर लगान वसूली के उद्देश्य से बसाया था। दूसरा अन्य बड़ा उद्देश्य उनकी ताकत से पहाड़िया आदिवासियों के 'उपद्रवों' को काबू करना था। अंग्रेजों की इन साजिशों को समझने में संथालों को थोड़ा वक्त लग गया, लेकिन फिर इनकी परिणति संथाल 'हूल' में हुई। यह उपन्यास इस क्षेत्र में संथालों के ठीक से जमने से पहले की कहानी है। इस पहाड़िया विद्रोह का नेतृत्व तिलका मांझी ने किया था। 
राकेश कुमार सिंह ने उपन्यास के शिल्प में पहाड़िया विद्रोह का पूरा इतिहास प्रस्तुत किया है। उनकी चिंता वाजिब है कि पहाड़िया विद्रोह के ऐतिहासिक साक्ष्य नगण्य हैं और जो हैं वे भी विश्वसनीय नहीं जान पड़ते। उनकी यह चिंता बाकी आदिवासी विद्रोहों के संदर्भ में भी खरी उतरती है। 
इस उपन्यास में पहाड़िया आदिवासी समाज जीवंत ढंग से उभरा है। उसकी सामाजिक संरचना, पंचायतें, मांझी, गाड़ादूत, परगनैत, शादी-विवाह, नाच-गान, अखरा, घोटुल, शिकार, पर्व-त्योहार, देवी-देवता, स्त्री-पुरुषों के संबंध, प्रेम कथाएं, जंगल, पहाड़ आदि सब कुछ उपन्यास को पढ़ते हुए आखों के सम्मुख तैरने लगते हैं। पहाड़िया विद्रोह के घटनाक्रम को भी उपन्यासकार ने अच्छी सुसंगति दी है। 
चूंकि इतिहास में तिलका मांझी के लड़ाई लड़ने और शहीद होने के अलावा कोई जानकारी नहीं मिलती, उपन्यासकार ने तिलका के बाकी जीवन की गाथा खुद तैयार की है। उपन्यास के अनुसार तिलका पहाड़िया सुगना पहाड़िया का बेटा है। सुगना गांव का मांझी (प्रधान) है। वह बूढ़ा हो गया है और गांव को नया मांझी चाहिए। यों मांझी का बेटा ही मांझी बनता है, पर उसे कुछ कड़ी परीक्षाएं देनी होती हैं। तिलका पहाड़िया सभी चुनौतियां स्वीकार करता है। वह दोहर के खूंखार चीते को मारता है, सूखे के दौरान पहाड़ियों को भरपेट अनाज उपलब्ध कराता और पास के गांव सोनारी के मांझी गुमना की बेटी गेंदी से अपने गांव के लड़के, अपने दोस्त फागु की शादी करवा कर गांव की इज्जत बचाता है। इस तरह वह गांव का मांझी बन जाता है, पर उसकी असल बड़ी जिम्मेदारी यहां से शुरू होती है। 
यह वह समय था जब पहाड़िया आदिवासी अपने राज्य हंडवा, गिद्धौर, लकड़ागढ़, लक्ष्मीपुर, समरूपपुर, महेशपुर, पाकुड़ आदि को राजपूती छल-प्रपंच से खो चुके थे। तेलियागढ़ी का किला उनके हाथों से निकल चुका था। 1765 में अंग्रेज मुगलों को पछाड़ कर उनसे बिहार, बंगाल और ओड़िशा की दीवानी हासिल कर पहाड़ियों पर अपना कब्जा पुख्ता कर रहे थे। उनके आसपास के मैदानी इलाकों में जमींदारी प्रथा कायम कर रहे थे। महाजनों को बसा रहे थे। देशी रियासतों से सत्ता लगभग छीन चुके थे। यह सब चुपचाप होता देख रहे विवश पहाड़ियाओं में से एक सुगना मांझी अपने बालक जबरा को तेलियागढ़ी के किले के छिन जाने की कथाएं सुनाता है। ईस्ट इंडिया कंपनी के लगातार बढ़ते दमन चक्र की कथाएं। बहादुर जबरा जवानी की दहलीज पर आते ही कंपनी के लिए मुसीबतें खड़ी करने लगता है। कंपनी उसे डकैत घोषित कर देती है। उधर पहाड़ियाओं की नजर में वह 'बाबा तिलका' बन जाता है। वह पूरे पहाड़िया समाज का 'मांझी' बन जाता है- तिलका मांझी। 
कंपनी सरकार के बढ़ते खतरे को भांप कर सुगना मांझी अपने बेटे जबरा को पूरे पहाड़िया समाज को शोषण मुक्त करने का दायित्व देता है। पहाड़िया लोग भी जबरा के एक आह्वान पर लड़ने-मरने को तैयार हो जाते हैं। सबका सपना एक है- शोषण मुक्त, कंपनी से आजाद पहाड़िया समाज। संघर्ष शुरू होता है। पहाड़िए गुरिल्ला अंग्रेजी रुपया और डाक को लूट लेते हैं। अंग्रेजी टुकड़ियां जंगल में आती हैं, पर मार भगाई जाती हैं। कैप्टन ब्रुक मारा जाता है। कलेक्टर क्लीवलैंड नई रणनीतियां बनाता है। वह पहाड़ियाओं का दोस्त-हमदर्द बनने का नाटक करता है। वह पहाड़ियाओं को अपने झूठे विश्वास में फंसा लेता है। पहाड़ियाओं को सेना में भरती कर लेता है। एक पूरी टुकड़ी- 'हिल रेंजर्स' का गठन करता है और तिलका को ही उसका कमांडर बना देता है। पर ये 'हिल रेंजर्स' इसी तरह राजस्थान में तैयार की गई 'मेवाड़ भील कोर' के भीलों की तरह अंग्रेजी गुलाम नहीं बने रहते हैं। ये पहाड़ियाओं पर बढ़ते शोषण को देख विद्रोह कर देते हैं। जबरा पहाड़िया अपनी अंग्रेज सैनिक वाली पहचान को नष्ट कर बागी तिलका मांझी बन जाता है। 

क्लीवलैंड पहाड़ियाओं को पूरी तरह नष्ट करने का संकल्प लेता है। पहाड़ियाओं को नष्ट करने के लिए आॅपरेशन हिलमैन शुरू होता है। अंग्रेज टुकड़ियां पहाड़ियाओं के गांव के गांव जलाने लगती हंै। पहाड़िए भी लोहा लेते हैं। मगर स्थानीय जमींदारों-महाजनों और कुछ डरपोक, स्वार्थी पहाड़ियाओं के धोखे और अंग्रेजों के सहयोग के   चलते आखिरकार पहाड़िया लड़ाके हारने लगते हैं। अधिकतर शहीद हो जाते हैं। तिलका छिपते-छिपाते भागलपुर जाता है। कई दिन बिना खाए-पीए लगातार एक ताड़ वृक्ष पर छिपा बैठा रहता है। एक दिन मौका देख कर क्लीवलैंड को तीर मार देता है। घायल क्लीवलैंड कुछ दिन बाद मर जाता है। तिलका पकड़ा जाता है। घोड़े से बांध कर उसे शरीर की सारी चमड़ी के उधड़ने तक घसीटा जाता है। सांस चलते तिलका के अस्थि पंजर को बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दी जाती है। तिलका का शरीर नहीं रहता, पर वह आने वाली पीढ़ियों को उनके सपनों में दमामा बजाने का आह्वान करता नजर आता है। 
तिलका के संघर्ष को उपन्यासकार ने बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। पहाड़िया समाज और लड़ाई के सभी प्रसंगों को साधने में वह कामयाब रहा है। इस अर्थ में यह एक सफल उपन्यास है। पर उपन्यासकार की कुछ बातों पर बहस भी हो सकती है। उपन्यासकार ने जबरा पहाड़िया और तिलका मांझी को एक ही व्यक्ति बना दिया है, जबकि इतिहास में ये दो व्यक्ति हैं। उपन्यासकार का तर्क है कि चूंकि पहाड़ियाओं के ग्राम मुखिया को मांझी कहा जाता है और मांझी संथालों का एक गोत्र भी है, इसलिए इस एक शब्द के भ्रम से तिलका मांझी को संथाल मान लिया गया। पर उलझन यह है कि पहाड़िए द्रविड़ प्रजाति के हैं और संथाल प्रोटो-आस्ट्रोलायड। दोनों की बोलियां अलग रही हैं। तब फिर उस दौर में यह मांझी शब्द पहाड़िया बोली में आया कहां से? खुद उपन्यासकार पहाड़िया संघर्ष को 'हुल' लिखता है, जबकि हुल संथाली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है विद्रोह। आखिर संथाल विद्रोह (1855) को हूल ही कहा जाता है। उपन्यासकार यह भी लिखता है कि संथाल पहाड़ियाओं के साथ लड़े। तब क्या किसी जबरा पहाड़िया के साथ या तुरंत बाद कोई तिलका संथाल नहीं लड़ सकता? उपन्यासकार के दो नायकों को एक बताने की यह जिद क्या झारखंड क्षेत्र में चल रही आज की संथाल राजनीति को किसी तरह प्रभावित करने की कोशिश है या महज यह बताना कि पहाड़िया समाज का भी क्रांतिकारी इतिहास रहा है। 
इस उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है कि कुछ तारीखों और अंग्रेजी नामों को हटा दें तो यह आदिवासियों के आज चल रहे संघर्षों की गाथा है। आज भी हमारी सरकारें आदिवासियों की जमीन छीन कर कुछ कंपनियों को देना चाहती हैं। आॅपरेशन हिलमेन और आॅपरेशन ग्रीन हंट में कोई फर्क नहीं है। आदिवासी क्षेत्रों में काम कर रहे कई अधिकारी आदिवासियों के साथ क्लीवलैंड और ब्राउन जैसा ही व्यवहार कर रहे हैं। हिल रेंजर्स की तर्ज पर आदिवासियों को एसपीओ बना कर, सलवा जुडूम में भर्ती कर आपस में लड़ाया जा रहा है। ऐसा लगता है जैसे तिलका मांझी आज भी कह रहा है, 'हुल तब तक चलेगा सरदार, जब तक जंगल में कंपनी रहेगी...।'

केदार प्रसाद मीणा 
हुल पहाड़िया: राकेश कुमार सिंह; सामयिक बुक्स, 3320-21 जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली; 595 रुपए।


http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/43375-2013-04-28-05-49-50

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