BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Thursday, March 28, 2013

हमारे लोगों ने अंबेडकर को चुनकर संविधानसभा में भेजा और इसी वजह से हमारे लोग शरणार्थी बना दिये गये, अब हमारे खिलाफ देश निकाला अभियान चल रहा है। अविनाश जी को हमारा भोगा यथार्थ गैर प्रासंगिक लगता है। पर हरिचांद ठाकुर, मतुआ आंदोलन,चंडाल आंदोलन के लड़ाकू योद्धाओं को मुस्लिमलीगी बताने के बावजूद बहस करते रहना हमारे लिए असंभव है। जोगेंद्रनाथ मंडल मुस्लिम लीग समर्थित मंत्री जरूर थे, लेकिन मुस्लिम लीग के किसी सदस्य ने अंबेडकर को वोट नहीं दिये और न मंडल के अलावा मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे तमाम दूसरे वोटरों का दूर दूर से मुस्लिम लीग से को संबंध था। ऐसा मूल्यांकन तो कट्टर हिंदुत्ववादियों ने भी नहीं किया। नमोशूद्र जाति के होने के कारण, विभाजनपीड़ित शरणार्थी परिवार की संतान होने के कारण ऐसे लोगों के साथ हमारा संवाद अब असंभव है।

हमारे लोगों ने अंबेडकर को चुनकर संविधानसभा में भेजा और इसी वजह से हमारे लोग शरणार्थी बना दिये गये, अब हमारे खिलाफ देश निकाला अभियान चल रहा है। अविनाश जी को हमारा भोगा यथार्थ गैर प्रासंगिक लगता है। पर हरिचांद ठाकुर, मतुआ आंदोलन,चंडाल आंदोलन के लड़ाकू योद्धाओं को मुस्लिमलीगी बताने के बावजूद बहस करते रहना हमारे लिए असंभव है। जोगेंद्रनाथ मंडल मुस्लिम लीग समर्थित मंत्री जरूर थे, लेकिन मुस्लिम लीग के किसी सदस्य ने अंबेडकर को वोट नहीं दिये और न मंडल के अलावा मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे तमाम दूसरे वोटरों का दूर दूर से मुस्लिम लीग से को संबंध  था। ऐसा मूल्यांकन तो कट्टर हिंदुत्ववादियों ने भी नहीं किया। नमोशूद्र जाति के होने के कारण, विभाजनपीड़ित शरणार्थी परिवार की संतान होने के कारण ऐसे लोगों के साथ हमारा संवाद अब असंभव है।

साथियो,
जो लोग पलाश जी का ईमेल प्राप्‍त करके उसके संदर्भ को समझने का प्रयास कर रहे हैं, वे मेरे और पलाश विश्‍वास के बीच चली बहस को देखने के लिए यह लिंक देखें :

इस पर आपको मेरे और पलाश विश्‍वास के बीच चली पूरी बहस मिल जायेगी। इसे देखकर यह समझना आसान होगा कि पलाश विश्‍वास वही कर रहे हैं जो अपने तर्क चुक जाने पर बहस से भागने के लिए लोग करते हैं।

साभिवादन,
अभिनव.


हम बहस से भागे नहीं हैं। लेकिन जो बाबासाहेब के प्रति अस्वीकार व अनादर, भहुजन आंदलन को दलितो ंतक सीमाबद्ध करके बात करें, उत्पादन प्रणाली और श्रम संबंधों की आड़ में हिंदुत्व की स्थापनाएं प्रसारित करें, पूना समझौते की चर्चा किये बिना अंबेडकर और दूसरे बहुजन नायकों को पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के समर्थक घोषित करें, बहस में हमारे प्रशनों का जवाब दिये बिना अपने अंबेडकरविरोधी अभियान जारी रखें, उनसे बहस की गुंजाइश कहां है, सोचें। जो अंबेडकर डेवी का अनुयायी कहकर सिरे सेखारिज कर दें और उन्हें मुस्लम लीग के समर्थन से संविधान सभा में निर्वाचित बतायें, ऐसे प्रखर विद्वान जो संविधान, लोकतंत्र और धर्मनिरपेश्क्षता में आस्था न रखते हों, वे हमें चूका हुआ बतायें, इस पर हम कोई मंतव्य नहीं करना चाहते। चंडीगढ़ जाति विमर्श में विश्व प्रसिद्ध  दलित चिंतकों का जो इस्तेमाल उन्होंने अंबेडकर की खिल्ली उड़ाते हुए की , उसके बाद उनसे सम्मानजनक बहस की उम्मीद निराधार है। हमें मार्क्सवादी लेनिनवादी माओवादी विचार धारा या इतिहास की औतिकवादी व्याख्या, द्वंद्वात्मक पद्धति से कोई विरोध नहीं है। इसी पर आनंद तेलतुंबड़े ने भी सहमति जतायी। जिसे अंबेडकर के अवमूल्यन के प्रति आनंद जी की सहमति के बतौर पेश किया गया ौर उनके खंडन को कुत्सा अभियान कहकर प्रचारित किया गया। चंडीगढ़ जाति विमर्श के आधार पत्र  से उनके असली एजंडा बेनकाब है और आनंद जी के वक्तव्य और उसके जवाब से साफ जाहिर है कि अंबेडकर को, और गौतम बुद्ध को भी खारिज करना ही उनका एकमात्र उद्देश्य है। जब अंबेडकर जैस व्यक्ति के विचार, उनके योगदान और बहुजनसमाज के आंदोलन को वे दो कौड़ी का नहीं समझते, तो हम जैसा अपढ़ मामूली पत्रकार, सामान्य कार्यकर्ता उनके सामने मैदान में कैसे टिक सकता है। विचारधारा और सिद्धांता पर जाति विमर्श हावी हो जाते हैं, इसका उन्होंने जवाब तक नहीं दिया। तो ऐसे में बहस कैसेजारी रखी जा सकती है।बहस के लिए ईमानदारी और एक दूसरे के प्रति सम्मान बेहद जरुरी है। क्रांति के इनयुवा तुर्कों को इसकी परवाह नहीं है। इसके अलावा हम तो कारपोरेट साम्राज्यवाद और हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ वलोकतांत्रिक व संवैधानिक लड़ाई के लिए अंबेडकरवादियों व गैर अंबेडकरवादियों का संयुक्त मोर्चा बनाने की बात कर रहे हैं, जिसके वे विरुद्ध हैं। वे लोकतंत्र व संविधान दोनों को सिरे से नकार रहे हैं। ऐसे में इस बहस को जारी रखने से हमें कुछ हासिल नहीं होने वाल है। हम अपना पक्ष अपने तरीके से रखेंगे। सहमति के कुछ बिदु अगर उभरकर आये, तो अपनी अकादमिक सीमाबद्धता के बावजूद हम किसी से भी चर्चा करने को तैयार हैं।

हमने फेसबुक पर और अन्यत्र चंडीगढ़ विमर्श का आधारपत्र और तेलतुंबड़े का वीडियो जारी कर दिया है। हस्तक्षेप ने भी सारे आलेख और आधारपत्र जारी करने का वायदा करें।फिर हमसे बड़े विद्वान और कार्यकर्ता हैं, उनका मतामत आना अभी बाकी है। मेरी पहली प्राथमिकता अपने लोगों तक सूचनाओं पहुंचाने की है। इस बहस में यह काम स्थगित हो रहा है। में हफ्तेभर बांग्ला में लिख ही नहीं पाया। बहसें तो होती रहेंगी, पर इतिहास से ज्यादा हमारे लिए समकालीन इतिहास महत्वपूर्ण हैं। हमारे क्रांतिकारी मित्रों को इसकी परवाह नहीं है और नही अपने आधारपत्र में भारतीय जनते के मौजूदा संकट की उन्होंने चर्चा की है। इसलिए सिर्फ अपने तर्क साबित करने के लिए बहस करते रहने का कोई औचित्य नहीं है। जब हम लोग प्रतिबद्ध होने का दावा करते हैं और जनसरोकारों के लिहाज से विचारधारा और सिद्धांतों की बात कर रहे हैं, तो बहस में जीत हार की बात तो होनी नहीं चाहिए।हम तो लगाता कह रहे थे कि िस बहस का दायरा बढ़ाना चाहिए।

हमारे लोगों ने अंबेडकर को चुनकर संविधानसभा में भेजा और इसी वजह से हमारे लोग शरणार्थी बना दिये गये, अब हमारे खिलाफ देश निकाला अभियान चल रहा है। अविनाश जी को हमारा भोगा यथार्थ गैर प्रासंगिक लगता है। पर हरिचांद ठाकुर, मतुआ आंदोलन,चंडाल आंदोलन के लड़ाकू योद्धाओं को मुस्लिमलीगी बताने के बावजूद बहस करते रहना हमारे लिए असंभव है। जोगेंद्रनाथ मंडल मुस्लिम लीग समर्थित मंत्री जरूर थे, लेकिन मुस्लिम लीग के किसी सदस्य ने अंबेडकर को वोट नहीं दिये और न मंडल के अलावा मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे तमाम दूसरे वोटरों का दूर दूर से मुस्लिम लीग से को संबंध  था। ऐसा मूल्यांकन तो कट्टर हिंदुत्ववादियों ने भी नहीं किया। नमोशूद्र जाति के होने के कारण, विभाजनपीड़ित शरणार्थी परिवार की संतान होने के कारण ऐसे लोगों के साथ हमारा संवाद अब असंभव है।

बाकी बहस करने के लिए बहुजन समाज के तमाम दुकानदार, राजनेता, विद्वान और चिंतरक हाजिर हैं।हमारे मैदान छोड़ने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। दुसाध जी के आलेख आरहे हैं। हस्तक्षेप में ईमानदारी हों तो उन्हें छापें। फिर चलायें बहस। लेकिन अब हरगिज ऐसे लोगों से बात नहीं करना चाहेंगे, जिनका हमारे विचारों और कार्यक्रम के बारे में तनिक सम्मानभाव भी नहीं है। अभिनव जी का ताजा पत्र इसी भाव की मुखर अभिव्यक्ति है।

अब अंबेडकर विरोधियों, बहुजनों को खंडित करने वालों से कोई संवाद नहीं!


​पलाश विश्वास


हम भारत में कारपोरेट धर्मराष्ट्रवादी जायनवादी एकाधिकारवादी नस्लवादी वंशवादी जाति व्यवस्था पर आधारित व्यवस्था को निनानब्वे​​फीसद बहिष्कृत, वंचित, शोषित, मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था की शिकार ​जनता का सबसे बड़ा शत्रु मानते हैं।और मौजूदा राजसत्ता को ​अर्द्धसामंती, पूंजीवादी साम्राज्यवादी विश्वव्यवस्था की दलाल पारमाणविक सैन्यशक्ति मानते हैं, जिसके निरंकुश दमन के आगे जल जंगल जमीन ​​नागरिकता और मानवअधिकार ही नहीं, मानवता , प्रकृति और पर्यावरण विपन्न है। इसके विरुद्ध हम संवैधानिक लोकतांत्रिक जनप्रतिरोध के पक्ष ​​में है क्योंकि आम जनता निहत्था और असहाय है। आत्मरक्षा और प्रतिरोध, दोनों लिहाज से फिलहाल लोकतांत्रिक धरमनिरपेक्ष संयुक्त मोर्चा जिसमें अंबेडकर के अनुयायी और गैर अंबेडकराइट भी शामिल हों, के अलावा हम कोई दूसरा विकल्प नहीं देखते।


जंगल में सीमाबद्ध जनयुद्ध में हमें मुक्तिमार्ग नहीं ​​दिखायी देता। हम मानते हैं कि भारत में बहुजनों का आंदोलन सत्ता और व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध की निरंतरता है, जिसका प्रारंभ गौतम बुद्द की सामाजिक क्रांति से हुई। इस निर्मीयमान बहुजनसमाज में  सत्तावर्ग को छोड़ समस्त भारतवासी जिनमें मुख्यतः दलित, आदिवासी,पिछड़े और धर्मांतरित अल्पसंक्यक, विस्थापित, ​शरणार्थी,बंजारे और कबीले,गंदी बस्तियों में रहने वाले लोग, संगठित और असंगठित मजदूर, छोटे कारोबारी और कऋषि ाधारित आजीविकाओं से जुड़े तमाम समुदाय हैं, जो इस देश के मूल निवासी हैं।


हम आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा के इस बयान को हमारा सही इतिहास मानते हैं कि यह बहुजन समाज हजारों सालों से आक्रमणकारियों का गुलाम है, और यह गुलामी जाति व्यवस्था और वंशवाद, नस्लवाद, भौगोलिक अलगाव में अभिव्यक्त हैं।


हम सशस्त्र सैन्यबल अधिनियम के विरुद्ध हैं और ऐसे तमाम कानूनों, आर्थिक सुधारों और जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध हैं।


हम बायोमैट्रिक डिजिटल नागरिकता को  को आम जनता के  सभी अधिकार छीनने, उसे नागरिकता और संप्रभुता से वंचित करने का सबसे कारगर हथियार मानते हुए उसका विरोध कारपोरेट साम्राज्यवाद के प्रतिरोध में अनिवार्य मानते हैं।


हम आदिवासी इलाकों में जल जंगल जमीन पर आदिवासियों के हक हकूक की लड़ाई और भूमि सुधार, संपत्ति का बंटवारा, सबके लिए समान अवसर, समता , सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेश्रता और आर्थिक सशक्तीकरण के अलावा सत्ता में आनुपातिक प्रतिनिधित्व के लिए लड़ रहे हैं।


हम मानते हैं कि पूना समझौते के अंतर्गत मिले राजनीतिक आरक्षण से इस संसदीय प्रणाली में कारपोरेट बिल्डर प्रोमोटर राज के ही प्रतिनिधि हैं, आम जनता के नहीं। इसलिए इस व्यवस्था को बदले बिना हम बहुजन समाज की मुक्ति का कोई दूसरा विकल्प नहीं देखते और इसके लिए सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति को राजनीतिक क्रांति से पहले अनिवार्य मानते हैं।हम कम्युनिस्टों, लेनिनवादियों और माओवादियों के भी विरुद्ध नहीं हैं और मानते हैं कि वे हमारे बहुजन समाज के ही लोग हैं, पर  सत्तावर्गीय नेतृत्व,चिंतकों, नीति निर्धारकों के विश्वासघाती इतिहास को भूल भी नहीं सकते। हम अलग से दलित विमर्श जैसी किसी भी प्रचेष्टा का विरोध करते हैं क्योंकि हमारा मानना है कि दलित आंदोलन कोई अलग चीज नहीं है, यह किसानों और आदिवासी विद्रोहों, जाति विरोधी आंदोलनों का समन्वय है।


हम पर्यावरण आंदोलन को आर्थिक स्वतंत्रता के लिए अनिवार्य मानते हैं। नस्ली आधार पर हिमालयी क्षेत्र,दक्षिण भारत और आदिवासी इलाकों से रंगभेदी भेदभाव, उनके​​ अलगाव और उनके दमन का विरोध करते हैं। हम कालाधन और अबाध विदेशी पूंजी निवेश की अर्थ व्यवस्था, उदारीकरण, निजीकरण और ग्लोबीकरण का विरोध करते हैं।इस सिलसिले में समविचारवाले संगठनों और व्यक्तियों से हम सहयोग और विचार विमर्श के लिए तैयार हैं।​

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​हम मानते हैं कि अंबेडकर या बारत के दूसरे राष्ट्रीय नेताओं के कहे या लिखे से नहीं, उनके समग्र योगदान के आधार पर मूल्यांकन हो। हम मूर्ति पूजा के विरुद्ध हैं, पर चाहते हैं कि अंबेडकर का अनादर न हों।हम द्वंद्वात्मक पद्धति के विरुद्ध नहीं है और विज्ञान और तर्क को अस्वीकार भी नहीं करते। हम सामंती उत्पादन प्रणाली और श्रम संबंधों के पक्ष में कतई नहीं है। सामाजिक व उत्पादक शक्तियों की गोलबंदी से ही मुक्ति संभव हैं, ऐसा हम मानते हैं।​

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​इतना कहते हुए मैं स्पष्ट कर दूं कि  आधारपत्र और आनंद तेलतुंबड़े के वीडियो देखने पर हमे प्रतीत हुआ कि यह आयोजन न सिर्फ एकतरफा तौर पर भारत में जाति विरोधी आंदोलनों और संगठनों और उनके निर्विवाद नेता डा. बाबासाहेब अंबेडकर को खारिज करने की सुनियोजित योजना कै तहत हुआ, बल्कि इसका मकसद दलितों को बाकी बहुजन समाज से अलग काटने का है। आधार पत्र में आदिवासी आंदोलनों का दलित आंदोलनों के सिलसिले में जिक्र न होना इतिहास विकृति है। इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के बहाने उत्पादन संबंधों, श्रम संबंधों और भूमि बंदोबस्त की दृष्टि से इतिहास की चर्चा करते हुए बहुजनों की पहचान और शासक जातियों के प्रति उसकी प्रिरोधी इतिहास की अवहेलना करते हुए ब्राह्मणवादी तरीके से अंबेडकर ही नहीं गौतम बुद्ध की क्रांतिकारी भूमिका को सिरे से नकारा गया है। आनंद तलतुंबड़े ने लोकतांत्रिक बहस की पद्धति पर सहमति जतायी , न कि अंबेडकर के अवमूल्यन पर। अंबेडकर के जाति उन्मूलन की कोई परियोजना हो या नहीं, इस विमर्श के आयोजकों की जातीय वर्चस्व, रंगभेद, व वंशवादी व्यवस्था जारी रखने की परियोजना बेनकाब हो गयी।


हम उनके वायदे पर भरोसा करके यह मान ही रहे थे कि रपटें आधी अधूरी होंगी, भ्रामक होंगी और हम उनसे बहस को तैयार थे। फिर उनके आधार पत्र में अंबेडकर के मुस्लिम लीग के समर्थन से संविधान सभा पहुंचने जैसी घनघोर बहुजनविरोधी इतिहास विकृति को देखते हुए उनसे बहस की कोई संभावना नहीं लगती। य़ह सर्वविदित सत्य है कि बंगाल के नमोशूद्र जाति के विधायकों ने दलीय अवस्थान तोड़कर अंबेडकर को पूर्वी बंगाल से जिताया, जिसमें मतुआ अनुयायी जोगेंद्रनाथ मंडल के अलावा मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे तमाम लोग थे , जिनका मुस्लिम लीग से कोई लेना देना नही था। इसी वजह से नमोशूद्र बहुल पूर्वी बंगाल के इलाके जबरन पाकिस्तान में डालकर चंडाल आंदोलन की शक्ति खत्म कर दी गयी। इस इतिहास चर्चा में पूना समझौते की चर्चा ही ​नहीं हुई और अंबेडकर को पूंजीवादी साम्राज्यवादी समर्थक और यहां तक कि मुक्त बाजार की व्यवस्था के लिए एक तरफा तौर पर जिम्मेवार ​​ठहराया गया। इस आयोजन में दलित चिंतकों का इस्तेमाल बहुजन समाज और गौतम बुद्ध और अंबेडकर के विरुद्ध किया गया और आरक्षण के औचित्य पर प्रश्नचिह्न लगाया गया।


इनकी लोकतंत्र और संविधान में कोई आस्ता नहीं है। ये हिंदुत्ववादियों के मनुस्मृति संविधान लागू करने की मांग की तर्ज पर अंबेडकर रचित ​​संवि​धान को बदल देने की बातकर रहे हैं।​

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​अगर भारत के इतिहास में अंबेडकर का कोई योगदान नहीं रहा तो कम्युनिस्टों, मार्क्सवादियों और माओवादियों का क्या अवदान है, हमें इसका मूल्यांकन करना होगा।​

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​अगर मुक्तबाजार की नींव अबेडकर ने डाली, तो बीस साल के  इस मुक्त बाजार में इसके प्रतिरोध के लिए इन क्रांतिकारियों ने क्या किये, इसका मूल्यांकन होना जरूरी है।क्या कारपोरेट साम्राज्यवाद के विरुद्ध वामपंथी विचारधारा हमें कोई दिशा देती है, यह भी विवेचनीय है।ये देश काल परिस्थिति को सिरे से नकारते हुए हवाई विचारधारा और सिद्धांत बघारकर हमें दिग्भ्रमित कर रहे हैं। भविष्य में इनके किसी प्रवक्ता से कोई संवाद नहीं होगा।


वे हमारे संगठन और आंदोलन के अस्तित्व पर सवाल उटा रहे हैं।जबकि न उनका संगठन है और आंदोलन । देश में छात्र, महिला . युवा , श्रमिक किसान आंदोलनों को खत्म करने वाले ये वामपंथी कारपोरेट साम्राज्यवादी नस्लवादी जातिवादी हिंदुत्व के सबसे बड़े समर्थक हैं।चंडीगढ़ जाति विमर्श से नये सिरे से फिर साबित हुआ।

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