केपी सिंह जनसत्ता 27 मार्च, 2013: महाराष्ट्र के पांच विधायकों को एक पुलिस सहायक इंस्पेक्टर के साथ विधानसभा परिसर में मारपीट के आरोप में वर्ष 2013 के लिए सदन से निलंबित कर दिया गया। पुलिस ने दो विधायकों को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। लेकिन विडंबना यह कि बढ़ते राजनीतिक दबाव के चलते सरकार ने मार खाने वाले पुलिसकर्मी को ही अशिष्ट व्यवहार का जिम्मेवार ठहराते हुए निलंबित कर दिया। वहीं हमला करने के मामले में गिरफ्तार दोनों विधायक जमानत मिलने के बाद जेल से बाहर आ गए। घटनाक्रम की शुरुआत तब हुई जब उस सहायक पुलिस इंसपेक्टर ने एक विधायक की तेज गति से जा रही कार को रोक कर उसे गति सीमा की उल्लंघन न करने के निर्देश दिए थे। विधायक ने इसका बुरा माना और उस पुलिस वाले की शिकायत विधानसभा के पीठासीन अधिकारी से की। उस सहायक पुलिस इंस्पेक्टर को अगले दिन विधानसभा में सुनवाई के लिए नियमानुसार तलब किया गया। दुर्योग से विधान सभा की समिति के सामने सुनवाई के लिए गए सहायक इंस्पेक्टर को कुछ विधायकों ने देख लिया। विधायकों ने मिलकर विधानसभा परिसर में ही उसकी जमकर धुनाई कर दी। कुछ दिन पहले चंडीगढ़ में अदालत परिसर में अनधिकृत प्रवेश रोकने के लिए एक हवलदार को चैकिंग-ड्यूटी पर लगाया गया था। चैकिंग करते समय हवलदार का विवाद कुछ वकीलों से हो गया। सारी घटना सीसीटीवी कैमरे में कैद हुई। वकीलों ने हवलदार को एक नहीं, दो बार जमकर पीटा। हवलदार अस्पताल में दाखिल हुआ। पुलिस ने अपने ही हवलदार की ड्यूटी के दौरान हुई पिटाई की प्राथमिक सूचना रिपोर्ट दर्ज नहीं की। वकीलों ने हवलदार पर दुर्व्यवहार के आरोप लगा कर उसकी पिटाई को जायज ठहराने की दलील दी। पुलिस में पनपते रोष को देख कर तीन दिन बाद हवलदार की शिकायत पर वकीलों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज किया गया। वकीलों ने इसके विरोध में हड़ताल की। अदालतों में कई दिनों तक काम ठप रहा। अदालत ने घटना का संज्ञान लेते हुए जांच बिठाई। अखबारों में खबर आई कि हवलदार और वकीलों में समझौता हो गया है। इस बिना पर अदालत ने मुकदमा खारिज कर दिया। मामला बंद हो गया, पर अनेक सवाल छोड़ गया है। तीसरी घटना पंजाब विधानसभा के परिसर में घटी। कुछ विधायक पुलिसिया उत्पीड़न का शिकार हुई एक युवती को विधानसभा के अंदर ले जाना चाहते थे जहां सदन की कार्यवाही चल रही थी। जब पुलिस वालों ने इसमें हस्तक्षेप करना चाहा तो विधायकों ने पुलिस वालों को बंधक बना लिया। अखबारी रिपोर्ट के अनुसार पुलिस वालों के साथ दुर्व्यवहार और मार-पीट हुई। पुलिस वालों ने विधायकों के विरुद्ध इस संबंध में मुकदमा दर्ज कराया है। मुकदमे में क्या होगा यह देखना अभी बाकी है। चौथी घटना जयपुर की है। वकील अपनी मांगों के समर्थन में विधानसभा परिसर में अनधिकृत प्रवेश करके प्रदर्शन करना चाहते थे। जब उन्हें ऐसा करने से रोका गया तो वकीलों और पुलिस में झड़प हुई। पुलिस ने बल प्रयोग किया। विरोध में वकीलों ने पुलिस चौकी फूंक दी और सड़कों पर तोड़-फोड़ की। अगले दिन वकील फिर आए। पुलिस ने उन्हें रोका तो फिर झड़प हुई। पुलिस ने लाठीचार्ज किया। कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों सहित अनेक पुलिस वाले गंभीर रूप से घायल हो गए। वकीलों को भी चोटें आर्इं। अदालत में एक याचिका दायर करके पुलिस के बल-प्रयोग की कानूनी वैधता पर सवाल उठाए गए। अदालत ने मामले की जांच के आदेश दिए और सरकार को सलाह दी कि उस इलाके में तैनात वरिष्ठ अधिकारियों को तब तक वहां से बदल दें जब तक जांच पूरी न हो जाए। शहर की जनता और व्यापारी पुलिस के समर्थन में आ गए। पुलिस वालों ने भी भूख हड़ताल की और अपने अधिकारियों के तबादले की सलाह के विरुद्ध रोष व्यक्त किया। व्यापारियों ने पुलिस के समर्थन में बाजार बंद किया। सरकार को पता लग गया कि जनता पुलिस के साथ खड़ी है। सरकार ने अधिकारियों का तबादला एक हफ्ते तक नहीं किया। अब अदालत की सलाह पर अमल करते हुए सरकार ने पुलिस अधिकारियों का तबादला कर दिया है। जांच रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं हुई है। मारपीट किसी के भी साथ हो, उसे सही नहीं ठहराया जा सकता। पुलिस के साथ मार-पीट की खबरें विस्मित करती हैं क्योंकि अभी तक पुलिस ही लोगों के साथ बदसलूकी करने के लिए बदनाम थी। अंग्रेजी हुकूमत के जमाने से ही पुलिस दमन की चर्चा होती आई है। पुलिस को शासन की मजबूत भुजा बना कर अंग्रेजों ने उसके सहारे भारत पर लगभग दो सौ वर्ष राज किया। शुरुआत से ही पुलिस को कानून-तंत्र के बजाय शासन-तंत्र के रूप में स्थापित किया गया। पराधीन देश में सत्ता का स्थायित्व महत्त्वपूर्ण होता है, न कि नागरिकों की अपेक्षाएं और कानून का राज। इसलिए अंग्रेजों की पुलिस शासन की चहेती एक ऐसी संस्था के रूप में विकसित हुई जो कानून के बजाय हुक्मरानों के प्रति ज्यादा वफादार थी। बदले में हुक्मरानों ने पुलिस को हर प्रकार का संरक्षण दिया। बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशकों में अदालतों की सक्रियता के कारण पुलिसिया जबर पर अंकुश लगाने में काफी हद तक सफलता मिली है। वर्ष 1994 में मानवाधिकार आयोग का गठन हो जाने से स्थिति में और सुधार हुआ है। नागरिकों का मनोबल बढ़ा है और लोग पुलिस के अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाने लगे हैं। स्वतंत्र भारत में पुलिस और नागरिकों के बीच संबंध पुन: परिभाषित हो रहे हैं। पुलिस पर कानून का शिकंजा कसने लगा है। मीडिया की निगरानी से पुलिस की करतूतें उजागर हो रही हैं। एक परिपक्व होते लोकतंत्र का यही तकाजा है। पर भारत जैसे लोकतंत्र में एक मजबूत पुलिस तंत्र- जो कानून के प्रति जवाबदेह हो- का होना बेहद जरूरी है। दुर्भाग्यवश आजाद भारत में अनेक ऐसे समूह स्थापित हो गए हैं जो व्यवस्था को अपने तरीके से हांकना चाहते हैं। यहां यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि ऐसे समूह कौन-से हैं। मुद््दा यह है कि क्या भारत जैसा देश एक कमजोर, निसहाय और जबर की शिकार पुलिस गवारा कर सकता है? अलगाववाद और आतंकवाद ग्रस्त क्षेत्रों में लगभग एक तिहाई देशवासी संगीनों के साए में जी रहे हैं। विधानमंडलों की कार्यवाही बिना पुलिस की सुरक्षा के एक दिन भी नहीं चल सकती। अदालतों को भी अपना काम सुचारुरूप से चलाने और व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस की जरूरत पड़ती है। पुलिस की गैर-मौजूदगी सड़कों पर यातायात एक दिन भी चलना असंभव है। इन परिस्थितियों में क्या पुलिस के मनोबल को इसी प्रकार गिरने देना चाहिए? क्या निष्ठा से अपनी ड्यूटी करने वाले पुलिसकर्मी अदालती, शासकीय और सामाजिक संरक्षण के हकदार नहीं हैं? पुलिस के साथ बदसलूकी और मारपीट की घटनाओं के लिए अकेले शासकीय संस्थाओं को दोष देना उचित नहीं होगा। शासकीय संस्थाएं उसी प्रकार काम करेंगी जैसा उन्हें बनाया जाएगा। भारत की शासन-प्रणाली अंग्रेजों की देन है। ब्रिटिश समाज एक बेहद अनुशासित समाज है और वहां के कानून उसी अनुशासित जनता की जरूरतों को ध्यान में रख कर बनाए गए थे। ब्रिटेन की शासन प्रणाली और कानूनों को हमने भारत जैसे अनुशासनहीन देश में लगभग ज्यों का त्यों अपना लिया। शायद यह एक बड़ी भूल थी। एक अनुशासित समाज पहले राष्ट्र, समाज और नागरिकों के प्रति अपने कर्तव्यों को समझता है और फिर अपने अधिकारों की बात करता है। इसके ठीक विपरीत, एक अनुशासनहीन समाज की प्रणालियां पहले अपने हक जताती हैं और बाद में राष्ट्र और समाज के प्रति दायित्वों की बाबत सोचती हैं। भारतीय शासनतंत्र इसी दोष का शिकार हो गया प्रतीत होता है। पुलिस की सरेआम पिटाई से आम नागरिकों और देश की व्यवस्था को अनेक खतरनाक संकेत मिल रहे हैं। वकीलों ने अदालतों में काम ठप करके यह अहसास करा दिया कि उनके बिना न्याय-व्यवस्था नहीं चल सकती। और यह भी कि अपने समूह के प्रति उनकी वफादारी सर्वोपरि और अटूट है। विधायिका ने जता दिया है कि उन्हें कानून की वर्दी पर हाथ डालने में कतई झिझक नहीं है। पुलिस को भी अब यह अहसास हो गया है कि उनकी वर्दी के अनुशासन की बेड़ियां उन्हें अन्याय सहने के लिए मजबूर कर रही हैं। जयपुर में पुलिस की भूख हड़ताल एक गंभीर चेतावनी है। यह एक दुखद स्थिति है कि पुलिस वाले अपने विरुद्ध हो रहे अन्याय की दुहाई देकर विरोध-प्रदर्शन करने लगे हैं। अखबार में छपी एक खबर के मुताबिक अकेले चंडीगढ़ शहर में पिछले तीन महीने में पुलिस पर हमले की दस घटनाएं दर्ज हुई हैं। पुलिस ने प्रशासन से गुहार लगाई है कि इन मुकदमों को त्वरित अदालत के माध्यम से शीघ्र निपटा कर दोषियों की सजा दी जाए। उनकी दलील है कि अगर पुलिस ही असुरक्षित होगी तो जनता कैसे सुरक्षित महसूस करेगी? मुंबई में भी उच्च पुलिस अधिकारियों ने मुख्यमंत्री से मिल कर पुलिस का मनोबल न गिरने देने की गुहार लगाई। जयपुर की घटना के परिप्रेक्ष्य में एक और लक्षण उभर कर सामने आया है। जनता में किसी के भी साथ हो रहे अन्याय को समझने और परखने की कुव्वत है। व्यवस्था में बैठे लोग एकबारगी न्याय और अन्याय को समझने में चूक कर सकते हैं, पर जनता नहीं। और इतिहास गवाह है कि जब जनता न्याय करने सड़कों पर निकलती है तो उसके सामने व्यवस्था के आदेश निरर्थक होकर रह जाते हैं। प्रशासन लाचार हो जाता है। अत: प्रशासन और व्यवस्था के हित में यही है कि वह हमेशा न्याय के पक्ष में नजर आए। अगर ऐसा नहीं होगा तो लोग अपना न्याय खुद करने लगेंगे। अराजकता की यही निशानी होती है। आदर्श सामाजिक, न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए एक सशक्त पुलिस का होना बेहद जरूरी है। पर सशक्त पुलिस से अभिप्राय एक निरंकुश पुलिस से कतई नहीं है। पुलिस पर अंकुश जरूरी है, पर इस तरह से नहीं कि वह असहाय, प्रताड़ित और हतोत्साह महसूस करना शुरू कर दे। अगर पुलिस वाले कानून तोड़ते हैं तो उन्हें आम नागरिक से दोगुनी सजा मिलनी चाहिए। और अगर कोई पुलिस पर जबर करता है तो उसे चार गुनी सजा होनी चाहिए। पुलिस पर हमला पुलिसिया जबर से कहीं अधिक खतरनाक होता है। पुलिसिया जबर का इलाज कानून में है, मगर पुलिस के साथ हिंसा हो तो उसका इलाज ढूंढ़ना इतना आसान नहीं है। पुलिस व्यवस्था की प्रहरी है। अगर प्रहरी ही असहाय महसूस करेगा तो व्यवस्था कैसे सशक्त हो सकती है? http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41359-2013-03-27-06-44-15 |
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