BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Saturday, May 14, 2016

बिहार और झारखंड में पत्रकारों की हत्या और विखंडित पत्रकारिता पलाश विश्वास

बिहार और झारखंड में पत्रकारों की हत्या और विखंडित पत्रकारिता

पलाश विश्वास

पत्रकारिता उतनी आसान नहीं है ,जितना रात दिन 24 घंटे लाइव सूचना विस्फोट के बाजार और ग्लेमर से नजर आता है।


दुनियाभर में सत्तावर्ग को सबसे ज्यादा सरदर्द प्रेस की आजादी की वजह से है।प्रेस को साधे बगैर सत्ता के लिए मनमानी करना असंभव है और इस लिए सधे हुए पत्रकारों की तुलना में बागी जनपक्षधर पत्रकारोें पर हमले हर देश में हर काल में होते रहते हैं।


हमारे पड़ोस में बांग्लादेश में हर साल ब्लागरों, कवियों, लेखकों के साथ बड़े पैमाने पर हर साल प्रेस पर हमले होते हैं और मारे जाते हैं पत्रकार।अब हम भी तेजी से बांग्लादेश बनते जा रहे हैं।विडंबना है कि इस सिलसिले में जनता को कोई मुद्दा प्रसंगिक नहीं है।


इस तुलना में अब भी भारत में पत्रकारिता का जोखिम कम है।लेकिन भारत की राजधानी,राज्यों की राजधानी और महानगरों में माफिया युद्ध में,मसलन जैसे मुंबई में न उलझें,तो प्रेस का काम आसान ही कहना होगा।


जबकि पत्रकारों की सबस बड़ी फौज जिलों और कस्बों से हैं और सत्ता और प्रशासन के साथ साथ आपराधिक माफिया गिरोह की मर्जी के खिलाफ पत्रकारिता करना बेहद खतरनाक है,जिसे सुविधानजक वातानुकूलित पर्यावरण में समझना मुश्किल है।


ऐसे पत्रकारों पर देश के कोने कोने में हमले जारी हैं।जितने हमले हो रहे हैं,उतनी खबरे या बनती नहीं हैं या बनने के बावजूद छपतची नहीं है।हमले इसलिए भी हो रहे हैं क्योंकि पत्रकारिता में घमासान है और कोई पत्रकार अब किसी दूसरे पत्रकार के साथ खड़ा नहीं है।


अभी उड़ीसा के गिरफ्तार पत्रकार के हक में नई दिल्ली में जंतर मंतर पर हुए धरना और प्रदर्शन में दिल्ली के पत्रकार शामिल नहीं हुए तो दंडकारण्य खासकर छत्तीसगढ़ में सलवाजुड़ुम में फंसी पत्रकारिता के बारे में बाकी देश के पत्रकारों को कोई परवाह नहीं है।


पत्रकारिता भी अब श्रेणीबद्ध है।

कुछ पत्रकारों पर हमले हों तो बाकी पत्रकारों को फर्क नहीं पड़ता, इस आत्मघाती प्रवृत्ति से पत्रकारिता का जोखिम भारत में भी बढ़ता जा रहा है।पत्रकारिता इसीलिए लहूलुहान है।किसी को किसी के जाने मरने की कोई परवाह नहीं है।बाहरी हमले जितने हो रहे हैं,उससे कहीं ज्यादा पत्रकारिता के तंत्र में सफाया अभियान है।


इसे समझने के लिए उत्तराखंड के ऊर्जा प्रदेश बनने से काफी पहले,वहां विदेशी पूंजी और कारपोरेट माफिया तत्वों के हाथों जलजंगल जमीन पूरी तरह बेदखल होने से भी पहले थोकदारों ने एक पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या कर दी थी,जिसका पूरे देश में प्रबल विरोध हुआ।


हमने धनबाद के दैनिक आवाज से पत्रकारिता शुरु की जबकि तब झारखंड आंदोलन तेज था लेकिन अलग राज्य बना नहीं था।

कोयलाखानों की राजनीति पर माफिया वर्चस्व बेहद भयंकर था और बाहुबलियों की तूती बोलती थी।


सड़कों पर जब तब गैंग वार का नजारा पेश होता था।उन्हीं कोयला खदानों में झारखंड के दूरदराज इलाकों की खाक छानने के बावजूद हम तमाम पिद्दी से पत्रकारों को कोई खास तकलीफ नहीं हुई।


हम 1980 से 11984 तक बिहार बंगाल के कोयलाखानों की प्तरकारिता करते रहे और निजी तौर पर या सामूहिक तौर पर हम लोग माफिया और राजनीति दोनों पर भीरी पड़ते थे।


उसी झारखंड में अब एक पत्रकार की हत्या हो गयी जबकि माफिया और बाहुबलियों का उतना प्रभुत्व अब झारखंड में नहीं है।


इसीतरह जब हम धनबाद में ही थे,बिहार के मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र थे या फिर केदार पांडेय।तब चारा घोटाला से बड़े आरोप मिश्र के खिलाफ थे।जिसके बारे में रोज आर्यावर्त इंडियन नेशन में सिलसिलेवार खुलासा उसीतरह हो रहा था,जैसे इन दिनों बंगाल में एक समाचार समूह दीदी के राजकाज का कच्चा चिट्ठा कोल रहा है रोज।


डा.जगन्नाथ मोर्चा के खिलाफ आर्यावता इंडियन नेशन की मोर्चाबंदी का जो नतीजा हुआ,उसका नाम है कभी पास न होने वाला बिहार प्रेस विधेयक,जिसका बिहार ही नहीं,पूरे देश में विरोध हुआ।


यह आर्यावर्त इंडियन नेशन की ही पत्रकारिता थी कि जब इंडियन एक्सप्रेस ने बाकायदा इंदिरा गांधी के खिलाप मोर्चा खोल रखा था,उसी वक्त बिहार में रोजाना मुख्यमंत्री और राज्यपाल के दौरे और उनके बयान और सरकारी खबरों की लीड बना करती थी।


बिहार के पत्रकारों ने इतनी जबर्दस्त एकजुटता दिखायी कि बिहार प्रेस बिल वापस न होने तक सरकारी खबरों का बहिस्कार हर अखबार का रोजनामचा हो गया।


आंदोलन कामयाब होने के बाद बिहार की पत्रकारिता ही बदल गयी और सत्ता की मर्जी के खिलाफ माफिया राज के खिलाफ खुल्लमखुल्ला पत्रकारिता होने लगी लेकिन बिहार में पत्रकारिता का जलवा और बाकी देश में वही नजारा देख लेने के बाद किसी की हिम्मत नहीं हुई कि किसी पत्रकार को छू भी लें।


भारत में पत्रकारिता की उस अभूतपूर्व मोर्चाबंदी की फिर पुनरावृत्ति हुई नहीं है।फिर सरकारी खबरों का बायकाट का नजारा दिखने को नहीं मिला,जब सत्ता को अखबार के पन्नों पर अपना चेहरा देखने को तरसना पड़ा।क्योंकि अब तमाम तरह के रंग बिरंगे घरोनों से जुड़े पत्रकारों में एकता लगभग असंभव है।


जनप्रतिबद्धता की बात तो छो़ड़ ही दें,पत्रकारों का एक बहुत बड़ा तबका सत्ता से नत्थी हैं तो दूसरा तबका भी कम बड़ा नहीं है जो सीधे बाजार से नत्थी हैं।


मुंबई मे तो पेशेवर पत्राकिराय पेशेवर माफियाकर्म की तरह अपने साथियों का आखेट करने लगा।तो सत्ता और बाजार के हित में यह कुरुक्षेत्र हम महानगर और राजधानी से लेकर जिला शहरों और कस्बों तक बाकायदा नेटवर्क है।


अब पत्रकारों के आपसी हित भी टकराते हैं और बहुत सारे मामलों में शिकार पत्रकार का साथ देने के बजाय बाकी पत्रकारों का एक बड़ा तबका सत्ता और माफिया का साथ दे रहा है तो देश भर में मुक्तबाजार के समर्थक पत्रकार बाकायदा सलवाजुड़ु की पैदल फौजें है।


पत्रकारिता अब कारपोरेट हैं तो पत्रकार भी कम कारपोरेट नहीं हैं।


संपादक कहीं हैं ही नहीं ,हर कहीं सीईओ या मैनेजर लामबंद है।


जाहिर है कि पत्रकारों के हित भी कारपोरेट हित है जो आपस में टकराते हैं औक तमाम बुनियादी ज्वलंत मुद्दों से या तो कतराते हैं,या फिर जनपक्षधरता के उलट कारपोरेट हित में ही पत्रकार गाते बजाते हैं।


इसी दौरान पहले के बाहुबलि जो पीछे से राजनीति के सात नत्थी थे,अब सीधे राजनीतिक और सत्ता के चेहरे से जुड़ गये हैं।


अब मालूम ही नहीं पड़ता कि कौन सा इलाका लोकतंत्र का इलाका है औरकौन सा माफिया का।


इसीतरह यह भी मालूम करना मुशिकल है कि कौन सी पत्रकारिता माफिया नेटवर्क है और कौन सी पत्रकारिता प्रेस की आजादी है।


इसी घालमेल में प्रेस पर हमले बढ़ गये हैं जो और तेज होने के आसार है।


विखंडित पत्रकारिता की वजह से न सिर्फ हमले बढ़ गये हैं बल्कि नजारा यह है कि एक ही घराने के अलग अलग संस्करण के हालात अलग अलग हैं,वेतनमान अलग अलग हैं और जिन्हें सबकुछ मिल रहा है,वे बाकी लोगों की तनिक परवाह नहीं करते।


इसी विखंडित पत्रकारिता का नतीजा यह है कि पालेकर एवार्ड लागू करने के लिए देश भर में आंदोलन हुआ तो मणिसाणा तक पत्रकारों के वेतनमान और कार्यस्थितियों में कोई ज्यादा फर्क नहीं था।


अब सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में मजीठिया एवार्ड लागू कितना हुआ और कितना नहीं हुआ,अपने अपने संदर्भ और प्रसंग में देख लें।फिरभी सुप्रीम कोर्ट में जितनी हलचल रही,उतनी हलचल प्रेस में हुई नहीं है।


अब पत्रकारों की हत्या जैसा प्रेस की आजादी और लोकतंत्र पर कुठाराघात भी आज की पत्रकारिता के लिए सत्ता संघर्ष का मामला है और किसी सनसनीखेज सुर्खी से इसका अलग कोई महत्व नहीं है।


विडंबना यह है कि विशुध पत्रकारिता करने वाले लोग भी कम नहीं है बल्कि बहुसंख्य वे ही हैं और उनमें अनेक लोग बेहतरीन काम भी कर रहे हैं।लेकिन बिखरे हुए मोर्च पर यह पत्रकारिता बेअसर है और ऐसे पत्रकारें के आगे बढ़ने या सिर्फ टिके रहने के भी आसार नहीं है।


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