BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Saturday, January 18, 2014

जिनसे अमेरिका को कोई खतरा नहीं है,अमेरिकी उनकी जासूसी नहीं करता! ओबामा के भाषण को ध्यान से पढ़ें तो भारतीय सत्तावर्ग का आधार अभियान समझ में आ जाना चाहिए।जाहिर है कि नागरिकों की खुफिया जानकारी का भारत देश की एकता और अखंडता से कोई लेना देना नहीं है।यह खालिस मुक्त बाजार के हित में कारपोरेट सफाया अभियान का एजंडा है।इस एजंडा को पूरा करने में जायनवादी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद अचूक हथियार है,जिसका इस्तेमाल सभी पक्ष कर रहा है। आदमजाद नंगा होकर अब मुक्त बाजार के महोत्सव में हम जश्न ही मना सकते हैं,अपनी जान माल की हिफाजत नहीं।

जिनसे अमेरिका को कोई खतरा नहीं है,अमेरिकी उनकी जासूसी नहीं करता!


ओबामा के भाषण को ध्यान से पढ़ें तो भारतीय सत्तावर्ग का आधार अभियान समझ में आ जाना चाहिए।जाहिर है कि नागरिकों की खुफिया जानकारी का भारत देश की एकता और अखंडता से कोई लेना देना नहीं है।यह खालिस मुक्त बाजार के हित में कारपोरेट सफाया अभियान का एजंडा है।इस एजंडा को पूरा करने में जायनवादी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद अचूक हथियार है,जिसका इस्तेमाल सभी पक्ष कर रहा है।

आदमजाद नंगा होकर अब मुक्त बाजार के महोत्सव में हम जश्न ही मना सकते हैं,अपनी जान माल की हिफाजत नहीं।


पलाश विश्वास


खास खबर है,जिनसे अमेरिका को कोई खतरा नहीं है,अमेरिकी उनकी जासूसी नहीं करता।खतरा जिनसे हैं मसलन अमेरिका के मित्र देशों के राष्ट्रध्यक्ष, प्रधानमंत्री से लेकर अमेरिकी नागरिक तक की प्रिज्म जासूसी को अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जायज ठहरा दिया है। सही और गलत का यह जायनवादी सौंदर्यशास्त्र है,जो भारत में भी खूब लागू है।अमेरिकी हितों के खिलाफ जो हैं,भारत सरकार और भारतीय नस्लवादी नवधनाढ्य सत्तावर्ग को उनसे जबर्दस्त खतरा है।उनकी खुफिया निगरानी का भारत में भी चाक चौबंद इंतजाम है और लोकतंत्र का शतनाम जाप करने वाली कारपोरेट राजनीति इस ड्रोन प्रिज्म सीआईए नाटो तंत्र को ही मजबूत करने में लगी है।सर्वशक्तिमान वैश्विक व्यवस्था के शिरोमणि की समझ में नहीं आ रहा है कि अबतक जासूसी से हासिल जानकारी के आचार डालने की वैज्ञानिक पद्धति क्या होगी। अब इस जानकारी को किसी के हवाले करने से भी नहीं हिचकेगी अमेरिकी। भारत में नागरिकों की खुफिया जानकारी का अंतिम हश्र क्या होगा,ओबामा के इस सुधारात्मक कार्यक्रम से उसे लेकर नाना शंकाएं उत्पन्न हो गयी हैं।


गौरतलब है कि देवयानी प्रकरण में भारत अमेरिका राजनय युद्ध के फर्जी घमासान के बावजूद भारत सरकार की ओर से भारतीय नागरिकों की खुफिया निगरानी पर आधिकारिक कोई आपत्ति दूसरे तमाम देशों की तरह अब तक दर्ज नहीं हुई है। खुफिया निगरानी कार्यक्रम में अमेरिका मित्र देशों के प्रबल विरोध की वजह से जो सुधार करने जा रहा है,उससे न भारत और न भारतीय नागरिकों की,न अमेरिका में और न भारत में अमेरिकी खुफिया निगरानी में कोई फ्रक पड़ने वाला है। देवयानी खोपड़ागड़े दलित हैं और उनके साथ हुए अन्याय के विरोध के लिए भारत सरकार के हम आभारी हैं।लेकिन भारतीय अति महत्वपूर्ण नागरिकों की जो अबतक अमेरिका में कूकूरगति होती रही है,वे मामले भी खुलें तो समझ में आये कि यह राजनयिक युद्ध कितना असली है। इसके उलट नाटो की आधारपरियोजना को लागू करते हुए अमेरिका और सीआईए को सारे गोपनीय तथ्य देने वाली अपनी भारत सरकार इन तथ्यों को न केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों,कारपोरेट घरानों के साथ बल्कि माफिया और आपराधिक गिरोह के लिए भी उपलब्ध करा रही है।आदमजाद नंगा होकर अब मुक्त बाजार के महोत्सव में हम जश्न ही मना सकते हैं,अपनी जान माल की हिफाजत नहीं।


आधार विरोधी मोर्चा के सिपाह सालार गोपाल कृष्ण जी ने आज सुबह सुबह फोन किया और बताया कि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के तहत जिन राज्यों में आंखों की पुतलियां और दसों उंगलियों की छाप जमा किया जाना है,भारत सरकार की आधिकारिक सूची में पश्चिम बंगाल का नाम नहीं है।उनके लिए पहेली है कि बंगाल के स्थानीय निकायों को सुप्रीम कोर्ट की मनाही के बावजूद एनपीआर के तहत नागरिकों को आदार बनाने की अनिवार्यता का फतवा क्यों दिया जा रहा है। जबकि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ही पहल पर बंगाल विधानसभा में माकपाइयों के समर्थन से आधार को नकद सब्सिडी से जोड़ने के खिलाफ फतवा जारी हुआ है।


हमारे लिए भी यह पहेली है। जैसे अरविंद केजरीवाल और योगेंद्र यादव नीत खास आदमी ब्रिगेड को असंवैधानिक आधार के तहत नागरिकों की खुफिया निगरानी से कोई ऐतराज नहीं है,उसी तरह सैम पित्रोदा की सलाह पर चलने वाली बंगाल पीपीपी बंगाल सरकार को बुनियादी तौर पर आधार से कोई परेशानी है नहीं। बंगाल विधानसभा में जो सर्वदलीय प्रस्ताव पास हुआ है, वह आधारविरोधी कतई नहीं है और बाकी देश की कारपोरेट राजनीति की तरह बंगाल की कारपोरेट राजनीति को भी भारतीय नागरिकों की निजता और गोपनीयता से कुछ लेना देना नहीं है। वे नकद सब्सिडी को आधार से जोड़ने का विऱोध सिर्फ इसीलिए कर रहे हैं क्योंकि बंगाल में दस फीसदी लोगों के आधार कार्ड भी अबतक बने नहीं हैं और आधार की वजह से अचानक नागरिक सेवाएं स्थगित हो गयी तो इसके राजनीतिक समीकरण पर होने वाले दुष्प्रभाव की दरअसल चिंता है।


फिरभी तेलकंपनियों और खासकर अप्रैल से गैस की कीमत दोगुणा हो जाने की स्थिति में रिलायंस के हितों की चिंता ज्यादा  है,इसीलिए स्थानीय निकायों से वाम बेदखली के बाद सत्ता पक्ष ने सर्वदलीय प्रस्ताव के विपरीत यह पहल कर दी है।


हम बार बार आपका ध्यान दिला रहे हैं कि कारपोरेट कायाकल्प से सारे राजनीतिक विकल्प कारपोरेट है। मुख्य समस्या राजनीतिक विकल्प का नहीं है,बल्कि कारपोरेट युद्धक राज्यतंत्र है जो संविधान,कानून के राज, लोकतंत्र, पर्यावरण,नागरिक अधिकारों,मानवअधिकारों के अलावा प्रकृति और मनुष्यता के विरुद्ध है।अगले बजट में सभी तरह की सब्सिडी खत्म होनी है। कांग्रेस हार गयी तो संघ परिवार की सरकार हो या आप,आम आदमी और अमीरों के बीच की खाई गरीबों का सफाया करके ही खत्म करेगी।समूची कर प्रणाली बदल जायेगी।गाजरों की थोक सप्लाई कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व की तरह मुक्त बाजार के हितों के संरक्षण के लिए राजनीतिक समीकरण साधने के लिए ही हैं। रंग बिरंगे राजनीतिक विकल्प से हमारी समस्याओं का समाधान नहीं होगा और न बंद होगा अबाध नरमेध अभियान।


लेकिन ऐन चुनाव से पहले बारह सब्सिडी सिलिंडर की घोषणा से लोग बाग बाग है और किसी को खबर नहीं है कि गैस की कीमतों में दोगुणा इजाफा अप्रैल से ही लागू होना है।विनियंत्रित बाजार में तरह तरह के करतब से हम अपनी क्रयशक्ति बढ़ाने की कवायद में ही जिंदगी गुजार रहे हैं।


इसे इसतरह समझ लें कि सबसे बड़ा भ्रष्टाचार तो बुनियादी संस्थान विवाह में है।सबसे ज्यादा धोखाधड़ी विवाह नामक पवित्रता की आड़ में है। अबाध सेक्स का खुला यह लाइसेंस है पुरुषतंत्र के लिए, जहां काबिल से काबिल लड़की उपभोक्ता वस्तु के अलावा कुछ भी नहीं है।स्त्री अस्मिता का सत्यानाश इसी विवाह संस्थान के जरिये होता है।किसी को जिंदगीभर सुनंदा पुष्कर बन जाने के बाद भी इसका अहसास शायद ही होता है।

जो व्यक्ति जहां है सिर्फ अपनी बेटी के विवाह में दिये जाने वाले दहेज और तत्संबंधी आयोजन के लिए हर सूरत में हर तरह अंधाधुंध कमाई के फिराक में होता है। आप सिर्फ दहेज का लेनदेन बंद कर दें तो तृणमूल स्तर पर जो भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी पैठी हैं,उनका तुरंत सफाया हो जाये। लेकिन कानून और सशक्तीकरण के पाखंड के बावजूद स्त्री निधन का महोत्सव विवाह और दहेज के माध्यम से पूरे राजनीतिक समर्थन से जारी है और इस व्यवस्था के खिलाफ कोई झाड़ू कहीं नहीं है।


अमेरिकी हितों के मद्देनजर प्रबंधकीय दक्षता और तकनीकी चमत्कार की जो  राजनीति कारपोरेट महाविध्वंस के लिए है,उसमें पार्टीबद्ध लोग जाहिर है कि किसी किस्म का परिवर्तन रज्यतंत्र में करने के खिलाफ होंगे। जाहिर है कि नस्ली भेदभाव के तहत सामाजिक अन्याय और असमता का वीभत्स तांडव भी जारी रहना है।

लेकिन सवर्ण असवर्ण विवाह संस्थान में जो स्त्री  विरोधी दहेज वर्चस्व है ,उसके खिलाफ कोई अमेरिका के खिलाफ जंग की जरुरत नहीं है और न कारपोरेट हितों का कोई प्रत्यक्ष लेना देना नहीं है।परिवर्तन के झंडेवरदार अपने प्रभाव क्षेत्र में इस दहेज वर्चस्व विवाह पद्धति को साफ करने के लिए एकबार सपाई तो करके देखें।राज्यतंत्र में बुनियादी परिवर्तन की शुरुआत कम से कम इस तरह अपने ही घर की सफाई से शुरु करने में किसीको कोई दिक्कत नही है।


लेकिन दीवाल पर लिखे आलेख की तरह इस सच से हम मुंह चुराते हैं।उसीतरह बहिस्कार और जनसंहार की नीतियों पर आधारित,बहुसंख्य कृषि समाज के महाविध्वंस को उद्देश्यित खुले बाजार के तंत्र में हम अपना अपना खाता दुरुस्त करने में ही लगे हैं।जमा के बेहिसाब गणित के ही हम सारे भारतीय नागरिक पहरुआ हो गये हैं।इसके लिए निर्वस्त्र हो जाने पर शर्म का अहसास तक नहीं होता।गू में भी पड़ा होगा पैसा तो जीभ से चाटकर निकाल लेंगे लोग।पैसे के अबाध वर्चस्व के खिलाफ चींचीं करने वालों की बलि देते हुए।


कटु सत्य तो यह है कि जाति, धर्म, भाषा, नस्ल, क्षेत्र,रंग की अस्मिताएं तोड़कर हम सामाजिक और पारिवारिक संबंध जोड़ते हुए देश जोड़ने और सामाजिक न्याय और समता के लिए कोई नागरिक पहल करना तो दूर,उस दिशा में सोचने में भी असमर्थ हैं। इससे भी बड़ा शर्त यह है कि इन दायरों में रहकर अस्मिता और पहचान बचाते हुए भी हम कुसंस्कार और कुप्रथा का अंत करके एक स्वच्छ ईमानदार समाज के लक्ष्मणगंडित औपनिवेशिक दौर के नवजागरण सुलभ सीमाबद्ध पहल के लिए तैयार नहीं हो सकते। सोच भी नहीं सकते। देश के लोगों की कोई परवाह किये बिना,खुल बाजार में एक दूसरे के वध को सदैव त्तपर हम लोग देशभक्ति के मिथ्या स्वाभिमान का उत्सव रचते हुए स्वयं को,समाज को और देश को तोड़ने का हरसंभव प्रयत्नकरने में बहुआयामी दक्षता के उत्कर्ष पर है। भ्रष्टाचार मुक्त समाज के लिए बिना आचरण हम राजनीतिक विकल्प में अपनी ही रचे हुए आत्मध्वंस को दोहरा रहे हैं।


अर्थ व्यवस्था और वैश्विक व्यवस्था और राज्य तंत्र में बदलाव की तैयारी की ये बुनियादी और प्राथमिक शर्तें हैं,जन्हें हम कम से कम अपने संदर्भ में लागू करना ही नहीं चाहते। यह ध्यान  देने ग्य है कि औपनिवेशिक शासन के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता संग्राम आदिवासी और किसान विद्रोहों से हुआ और किसानों और आदिवासी को ही स्वतंत्र देश में हमने तबाही के कगार पर पुंचा दिया है।सत्तापक्ष विपक्ष इसके लिए जितना जिम्मेदार है,अपने बाजारु आचरण से हम सारे भारतीय नागरिक भी उसके लिए कम जिम्मेदर नहीं है।यह भी गौर करने वाली है कि आजादी का अहसास भी नवजागरण से ही होता है। पूरी दुनिया में यह जितना सच है,उतना ही सच भारत के संदर्भ में भी है।भारतीय अस्मिता की बनावट नवजागरण से रची गयी तो नागरिकों के सशक्तीकरण अभिानकी निरंतरता ने ही आजादी का जज्बा पैदा किया। आजादी का वह जज्बा ही सिरे से गायब है और हमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारी नागरिकता,हमारी निजता और गोपनीयता हाशिये पर है। मानुष के हक हकूक करने वाले चेहरे के पीछे अमानुष ही है,मानुष नहीं।आधार प्रकल्प को इसलिए हम समझ ही नहीं सकते। डांडी यात्रा या विदेशी कपड़ा के वर्जन के भावावेग को हम समझ ही नही सकते क्योकि हममें से हर कोई अपनी अपनी अस्मिता में कैद है और कहीं कोई सौ टक्का भारतीय है ही नहीं।महज टोपी लगाकर देश की स्वतंत्रता का अंजाम भारत विभाजन हुआ तो हम लोग बार बार उसी अंजाम को दोहराने को नियतिबद्ध इंद्रियों से विकलांग लोग हैं।भोग के अलावा हमारा कोई सरोकार नहीं है और न जीवनदर्शन।दृष्टि अंध है हमारी सारी कुशलता,दक्षता,विधायें,माध्यम और मेधा।


ओबामा के भाषण को ध्यान से पढ़ें तो भारतीय सत्तावर्ग का आधार अभियान समझ में आ जाना चाहिए।जाहिर है कि नागरिकों की खुफिया जानकारी का भारत देश की एकता और अखंडता से कोई लेना देना नहीं है।यह खालिस मुक्त बाजार के हित में कारपोरेट सफाया अभियान का एजंडा है।इस एजंडा को पूरा करने में जायनवादी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद अचूक हथियार है,जिसका इस्तेमाल सभी पक्ष कर रहा है।


बीबीसी के मुताबिक अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने मित्र देशों और उनकी सरकारों की ख़ुफ़िया निगरानी को रोकने का एलान किया है।अमरीकी इलेक्ट्रॉनिक ख़ुफ़िया तंत्र में भारी बदलाव की घोषणा करते हुए ओबामा ने कहा कि अभी जिस तरह से ये कार्यक्रम चलाया जा रहा है, उस पर रोक लग जाएगी।

ओबामा ने ये भी एलान किया कि राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) करोड़ों अमरीकियों के फ़ोन रिकॉर्ड से जुटाई गई जानकारी अपने पास नहीं रख सकेगी। ये जानकारी कहां जमा रहेगी, इस पर उन्होंने फ़िलहाल कुछ भी नहीं कहा है। लेकिन खुफ़िया अधिकारियों और अमरीकी एटॉर्नी जनरल को 60 दिनों का समय दिया गया है कि वो इस पर अपनी राय दें। माना जा रहा है कि जिस तरह के सुधार का एलान ओबामा ने किया है, वो कई अमरीकी अधिकारियों की उम्मीद से कहीं ज़्यादा है। अमरीकी ख़ुफ़िया तंत्र से जुड़े कई पूर्व अधिकारियों ने ओबामा के इन कदमों की तीखी आलोचना की है और कहा है कि इससे अमरीका की सुरक्षा को धक्का लगेगा। लीक हुई जानकारी की वजह से अमरीका को देश के अंदर ही नहीं अपने मित्र देशों के सामने भी शर्मिंदगी उठानी पड़ी जब पता चला कि उन देशों के नेताओं पर भी निगरानी रखी जा रही थी। यूरोपीय देशों ख़ासकर जर्मनी के साथ अमरीका के रिश्तों में इस लीक की वजह से काफ़ी तनाव आया।

"मैं दुनिया के लोगों को बताना चाहता हूं कि अमरीका उन आम लोगों की बिल्कुल निगरानी नहीं करता है जिनसे अमरीका को कोई ख़तरा नहीं है."--बराक ओबामा, अमरीकी राष्ट्रपति।


इस भाषण में उन्होंने अपने मित्र देशों के नेताओं की चिंताओं को भी दूर करने की कोशिश की. उनका कहना था, ''मैं अपने मित्र देशों और साझेदार देशों के नेताओं से कहना चाहूंगा कि अगर किसी विषय पर मुझे उनकी सोच के बारे में जानना होगा तो मैं फ़ोन उठाकर उनसे बात कर लूंगा, न कि उनकी ख़ुफ़िया निगरानी करूंगा।''


ओबामा ने अपने भाषण में एनएसए कॉन्ट्रेक्टर एडवर्ड स्नोडेन का भी ज़िक्र किया जिन्होंने रूस में पनाह ले रखी है और जिनकी लीक की हुई जानकारी से ही ये पूरा हंगामा शुरू हुआ। उनका कहना था कि स्नोडेन ने जिन दस्तावेज़ों को सनसनीख़ेज़ तरीके से लीक किया, उनकी वजह से कई अमरीकी कार्यक्रमों पर आने वाले कई सालों तक असर पड़ेगा।

नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्थाओं ने जहां इन सुधारों का स्वागत किया है, वहीं उनका कहना है कि कई ऐसे पहलू हैं जिन पर और ठोस सुधार लागू किए जा सकते थे और अगर ऐसा नहीं हुआ तो इस पूरे कार्यक्रम पर ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ेगा।


  1. आधार योजना का सच हो ही गया उजागर - Janjwar

  2. www.janjwar.comविमर्शविमर्श

  3. 10-01-2012 - ब्रिटेन सरकार के हाल के निर्णय के बाद कहीं भारत में भी इस परियोजना को तिलांजलि न दे देनी पड़े... गोपाल कृष्ण ... आई.डी./आधार परियोजना) असंसदीय, गैरकानूनी, दिशाहीन और अस्पष्ट है और राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक अधिकारों के लिए ...

  4. आधार कार्ड से राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा - Janjwar

  5. www.janjwar.comविमर्शविमर्श

  6. 08-03-2012 - राहुल गाँधी ने 'आधार' को पार्टी का एजेंडा बनाया था. अब जबकि उन्होंने पार्टी की हार की जिम्मेदारी ले ली है उन्हें चाहिए की वो मतदाताओं द्वारा खारिज 'आधार' परियोजना को रोकने के लिए कदम उठायें ... गोपाल कृष्ण. चुनाव के दौरान ...

  7. देशद्रोही पंचमवाहिनी में शामिल हैं आधार समर्थक ...

  8. www.hastakshep.comहस्तक्षेपबहस

  9. 03-01-2014 - जाने अनजाने जो लोग सीआईए और नाटो की असम्वैधानिक कॉरपोरेट आधारपरियोजना के पैरोकार हैं, वे तमाम लोग देशद्रोही पंचमवाहिनी में ... गोपाल कृष्ण जी की अगुवाई में हमारे अनेक साथी लगातार इस मामले में जनजागरण चला रहे हैं।

आधार और जनसंख्या रजिस्टर परियोजना पर संदेह

नवभारत टाइम्स | Dec 30, 2011, 04.00AM IST

गोपाल कृष्ण॥

भारत सरकार की बायोमेट्रिक्स ( जैवमापन ) पर आधारितविशिष्ट पहचान संख्या बताने वाली यूआईडी आधार योजनानागरिक अधिकारों के लिए खतरनाक है। वित्त से संबंधितसंसदीय समिति की जो रिपोर्ट 13 दिसंबर को दोनों सदनोंमें पेश की गई , उसमें यह भी कहा गया है कि इस योजनाको शुरू करते समय सरकार ने दुनिया के दूसरे देशों केअनुभवों की अनदेखी की है।


संसदीय समिति का मानना है कि यह देशवासियों के निजीजीवन पर एक तरह का हमला है। ब्रिटेन में ऐसे पहचानपत्र कानून को खत्म कर देने का फैसला 2006 में ही कर लिया गया था। वहां सरकार ने घोषणा की है किअगले कदम में पासपोर्ट आदि के लिए जुटाए गए आंकड़े भी खत्म कर दिए जाएंगे।


भारत सरकार कहती है कि यूआईडी परियोजना गरीबों के लिए चलाई जाने वाली वित्तीय योजनाओं कोसमावेशी बनाएगी और सरकारी सहायता ( सब्सिडी ) असली जरूरतमंदों तक ही पहुंचे - इसके लिए उनकीपहचान को आसान बनाएगी। लेकिन सरकार भविष्य की कोई गारंटी नहीं दे सकती। अगर यहां नाजियोंजैसा कोई दल कभी सत्तारूढ़ हो गया , तो यूआईडी के ये आंकड़े उसे भी प्राप्त होंगे और वह बदले की भावनासे उनका इस्तेमाल नागरिकों के किसी खास तबके के खिलाफ कर सकता है। जर्मनी , रूमानिया तथा यूरोपके कई और जगहों पर पहले ऐसा हो चुका है , जहां वह जनगणना से लेकर नाजियों को यहूदियों की सूचीप्रदान करने का माध्यम बना।


पिछले साल 18 मई की अपनी प्रेस विज्ञप्ति में भारत सरकार ने बताया था कि कैबिनेट कमेटी ने विशिष्टपहचान प्राधिकरण द्वारा निवासियों के जनसांख्यिकीय और बायोमेट्रिक आंकड़े इकट्ठे करने की पद्धतिसिद्धांतत : स्वीकार कर ली है। इसमें चेहरे तथा आंखों की पुतलियों की तस्वीरें तथा सभी दस उंगलियों केनिशान लेने का प्रावधान है। इन्हीं मानकों और प्रक्रियाओं को जनगणना के लिए रजिस्ट्रार जनरल आफइंडिया और यूआईडी व्यवस्था के अन्य रजिस्ट्रारों को अपनाना पड़ेगा।


लेकिन संसदीय समिति ने सरकार के इस कदम को असंवैधानिक और कार्यपालिका के अधिकार से बाहरपाया। योजना मंत्रालय की यूआईडी योजना से गृह मंत्रालय का राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( एनपीआरपरियोजना ) शुरू से ही जुड़ा हुआ था , जिसका खुलासा प्रधानमंत्री द्वारा दिसंबर 2006 में गठित शक्ति प्राप्तमंत्रिसमूह की घोषणा से होता है। यह भी पहली बार है कि यहां जनसंख्या रजिस्टर बनाया जा रहा है। इसकेजरिए रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया जो कि सेंसस कमिश्नर भी हैं , देशवासियों से संबंधित आंकड़ों काभंडार तैयार करेंगे।


यह समझ जरूरी है कि जनगणना और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर अलग - अलग चीजें हैं। जनगणनाहमारी जनसंख्या , साक्षरता , शिक्षा , आवास , घरेलू सुविधाओं , आर्थिक गतिविधियों , शहरीकरण ,प्रजनन दर , मृत्यु दर , भाषा , धर्म और प्रवासन आदि के संबंध में बुनियादी आंकड़ों का सबसे बड़ा स्रोतहै। केंद्र व राज्य सरकारें इसी के आधार पर अपनी योजनाएं बनाती हैं और नीतियों का क्रियान्वयन करतीहैं।


दूसरी ओर राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर , देशवासियों और नागरिकों के पहचान संबंधी आंकड़ों का समग्रभंडार तैयार करने का काम करेगा। इसके तहत व्यक्ति का नाम , उसके माता - पिता , पति - पत्नी का नाम ,लिंग , जन्मस्थान और तारीख , वर्तमान वैवाहिक स्थिति , शिक्षा , राष्ट्रीयता , पेशा , वर्तमान और स्थायीनिवास का पता जैसी तमाम सूचनाओं का संग्रह किया जाएगा। इस आंकड़ा भंडार में 15 साल की उम्र सेऊपर सभी व्यक्तियों की तस्वीरें और उनकी उंगलियों के निशान भी रखे जाएंगे।


राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के आंकड़े जमा करने के बाद अगला काम होगा - हर नागरिक को विशिष्टपहचान पत्र प्रदान करना। प्रस्तावित यह था कि यह पहचान पत्र एक तरह का स्मार्ट कार्ड होगा , जिसकेऊपर आधार पहचान अंक और फोटो के साथ उस व्यक्ति से संबंधित सभी बुनियादी जानकारियां छपी होंगी।यह सारा विवरण एक चिप में होगा।


सरकार नागरिकों के आंकड़ा कोष को राष्ट्रीय निधि बताती है। लेकिन यह निधि कब निजी कंपनियों कीनिधि बन जाएगी , यह भी कहा नहीं जा सकता। संसदीय समिति ने संभवत : इसीलिए यह आशंका जताईहै कि ऐसी योजनाएं किन्हीं विशेष स्थितियों में आम नागरिक समाज के खिलाफ हथियार के रूप में भीइस्तेमाल हो सकती हैं।


Search Results

  1. Boycott UID/Aadhaar Number By Gopal Krishna - Countercurrents.org

  2. www.countercurrents.org/krishna270911.htm

  3. Boycott UID/Aadhaar Number. By Gopal Krishna. 27 September, 2011. Countercurrents.org. This is to appeal to you and to draw your most urgent attention ...

  4. UID//Aadhaar Scheme Is Against Civil Liberties By Gopal Krishna

  5. www.countercurrents.org/krishna231110.htm

  6. Nov 23, 2010 - This is with reference to the memorandum of understanding (MoU) between Ministry of Human Resource Development and the Unique ...

  7. Delhi Residents, Unorganised And Informal Workers Face Biometric ...

  8. www.countercurrents.org/krishna210313.htm

  9. Biometric Profiling By Aadhaar/UID. By Gopal Krishna. 21 March, 2013. Countercurrents.org. A Sheila Dikshit's budget speech ignores Punjab & Haryana High ...

  10. UID/Aadhar | Bargad... बरगद...

  11. bargad.org/category/uidaadhar/

  12. Jan 3, 2014 - Posts about UID/Aadhar written by bargad. ... Gopal Krishna, the author of this article, is an activist. He runs ToxicsWatch Alliance, Ban ...

  13. Articles Questioning Aadhaar: GOPALA KRISHNA

  14. questioningaadhaar.blogspot.com/2010/12/gopala-krishna.html

  15. by Ram Krishnaswamy - in 63 Google+ circles

  16. Dec 1, 2010 - GOPALA KRISHNA. By Gopal Krishna. 21st Dec 2010. Today I was on Dr. Katherine Albrecht Radio Show, in US at 3 AM early morning for an ...

  17. Activists cry foul against Aadhaar - The Telegraph

  18. www.telegraphindia.comFront PageJharkhand

  19. Jan 12, 2012 - Arguing that the creation of Aadhaar numbers had no legislative base as... of Citizens' Forum for Civil Liberties Gopal Krishna, among others.

  20. 'AADHAAR' How a nation is deceived - Page 95 - Google Books Result

  21. books.google.co.in/books?id=GQDjWjrSgZ4C

  22. Jijeesh p b

  23. lI1 Historical Reasons Against UID//Aadhar Project By Gopal Krishna & Prakash Ray, countercurrent.org, 27/09/2010 Money Life.in National Strategy for Trusted ...

  24. 'Nandan Nilekani is subverting the Constitution' - Rediff.com News

  25. www.rediff.comNews

  26. Feb 5, 2011 - Human Rights activist Gopal Krishna speaks at length to Prasanna D Zore on what ails the UID project and why he thinks it should be scrapped ...

  27. Gopal Krishna News Photos Videos - Rediff.com

  28. www.rediff.comNews

  29. Latest news - Gopal Krishna, Photos - Gopal Krishna, Videos - Gopal Krishna.Gopal... How can Aadhaar be deemed 'voluntary' if service delivery is being made ...

  30. Aadhaar hide more info under RTI - Moneylife

  31. www.moneylife.inLifeUID/Aadhaar

  32. Dec 4, 2013 - Aadhaar and transparency are two distinct things. ... as system integrator, said Gopal Krishna, a member of Citizens Forum for Civil Liberties ...





America's Secret War In 134 Countries

By Nick Turse

18 January, 2014

TomDispatch.com

They operate in the green glow of night vision in Southwest Asia and stalk through the jungles of South America. They snatch men from their homes in the Maghreb and shoot it out with heavily armed militants in the Horn of Africa. They feel the salty spray while skimming over the tops of waves from the turquoise Caribbean to the deep blue Pacific. They conduct missions in the oppressive heat of Middle Eastern deserts and the deep freeze of Scandinavia. All over the planet, the Obama administration is waging a secret war whose full extent has never been fully revealed -- until now.

Since September 11, 2001, U.S. Special Operations forces have grown in every conceivable way, from their numbers to their budget. Most telling, however, has been the exponential rise in special ops deployments globally. This presence -- now, in nearly 70% of the world's nations -- provides new evidence of the size and scope of a secret war being waged from Latin America to the backlands of Afghanistan, from training missions with African allies to information operations launched in cyberspace.

In the waning days of the Bush presidency, Special Operations forces were reportedly deployed in about 60 countries around the world. By 2010, that number had swelled to 75, according to Karen DeYoung and Greg Jaffe of the Washington Post. In 2011, Special Operations Command (SOCOM) spokesman Colonel Tim Nye told TomDispatch that the total would reach 120. Today, that figure has risen higher still.

In 2013, elite U.S. forces were deployed in 134 countries around the globe, according to Major Matthew Robert Bockholt of SOCOM Public Affairs. This 123% increase during the Obama years demonstrates how, in addition to conventional wars and a CIA drone campaign, public diplomacy and extensive electronic spying, the U.S. has engaged in still another significant and growing form of overseas power projection. Conducted largely in the shadows by America's most elite troops, the vast majority of these missions take place far from prying eyes, media scrutiny, or any type of outside oversight, increasing the chances of unforeseen blowback and catastrophic consequences.

Growth Industry

Formally established in 1987, Special Operations Command has grown steadily in the post-9/11 era. SOCOM is reportedly on track to reach 72,000 personnel in 2014, up from 33,000 in 2001. Funding for the command has also jumped exponentially as its baseline budget, $2.3 billion in 2001, hit $6.9 billion in 2013 ($10.4 billion, if you add in supplemental funding). Personnel deployments abroad have skyrocketed, too, from 4,900 "man-years" in 2001 to 11,500 in 2013.

A recent investigation by TomDispatch, using open source government documents and news releases as well as press reports, found evidence that U.S. Special Operations forces were deployed in or involved with the militaries of 106 nations around the world in 2012-2013. For more than a month during the preparation of that article, however, SOCOM failed to provide accurate statistics on the total number of countries to which special operators -- Green Berets and Rangers, Navy SEALs and Delta Force commandos, specialized helicopter crews, boat teams, and civil affairs personnel -- were deployed. "We don't just keep it on hand," SOCOM's Bockholt explained in a telephone interview once the article had been filed. "We have to go searching through stuff. It takes a long time to do that." Hours later, just prior to publication, he provided an answer to a question I first asked in November of last year. "SOF [Special Operations forces] were deployed to 134 countries" during fiscal year 2013, Bockholt explained in an email.

Globalized Special Ops

Last year, Special Operations Command chief Admiral William McRaven explained his vision for special ops globalization. In a statement to the House Armed Services Committee, he said:

"USSOCOM is enhancing its global network of SOF to support our interagency and international partners in order to gain expanded situational awareness of emerging threats and opportunities. The network enables small, persistent presence in critical locations, and facilitates engagement where necessary or appropriate..."

While that "presence" may be small, the reach and influence of those Special Operations forces are another matter. The 12% jump in national deployments -- from 120 to 134 -- during McRaven's tenure reflects his desire to put boots on the ground just about everywhere on Earth. SOCOM will not name the nations involved, citing host nation sensitivities and the safety of American personnel, but the deployments we do know about shed at least some light on the full range of missions being carried out by America's secret military.

Last April and May, for instance, Special Ops personnel took part in training exercises in Djibouti, Malawi, and the Seychelles Islands in the Indian Ocean. In June, U.S. Navy SEALs joined Iraqi, Jordanian, Lebanese, and other allied Mideast forces for irregular warfare simulations in Aqaba, Jordan. The next month, Green Berets traveled to Trinidad and Tobago to carry out small unit tactical exercises with local forces. In August, Green Berets conducted explosives training with Honduran sailors. In September, according to media reports, U.S. Special Operations forces joined elite troops from the 10 member countries of the Association of Southeast Asian Nations -- Indonesia, Malaysia, the Philippines, Singapore, Thailand, Brunei, Vietnam, Laos, Myanmar (Burma), and Cambodia -- as well as their counterparts from Australia, New Zealand, Japan, South Korea, China, India, and Russia for a US-Indonesian joint-funded coun­terterrorism exercise held at a training center in Sentul, West Java.

In October, elite U.S. troops carried out commando raids in Libya and Somalia, kidnapping a terror suspect in the former nation while SEALs killed at least one militant in the latter before being driven off under fire. In November, Special Ops troops conducted humanitarian operations in the Philippines to aid survivors of Typhoon Haiyan. The next month, members of the 352nd Special Operations Group conducted a training exercise involving approximately 130 airmen and six aircraft at an airbase in England and Navy SEALs were wounded while undertaking an evacuation mission in South Sudan. Green Berets then rang in the new year with a January 1st combat mission alongside elite Afghan troops in Bahlozi village in Kandahar province.

Deployments in 134 countries, however, turn out not to be expansive enough for SOCOM. In November 2013, the command announced that it was seeking to identify industry partners who could, under SOCOM's Trans Regional Web Initiative, potentially "develop new websites tailored to foreign audiences." These would join an existing global network of 10 propaganda websites, run by various combatant commands and made to look like legitimate news outlets, including CentralAsiaOnline.com, Sabahi which targets the Horn of Africa; an effort aimed at the Middle East known as Al-Shorfa.com; and another targeting Latin America called Infosurhoy.com.

SOCOM's push into cyberspace is mirrored by a concerted effort of the command to embed itself ever more deeply inside the Beltway. "I have folks in every agency here in Washington, D.C. -- from the CIA, to the FBI, to the National Security Agency, to the National Geospatial Agency, to the Defense Intelligence Agency," SOCOM chief Admiral McRaven said during a panel discussion at Washington's Wilson Center last year. Speaking at the Ronald Reagan Library in November, he put the number of departments and agencies where SOCOM is now entrenched at 38.

134 Chances for Blowback

Although elected in 2008 by many who saw him as an antiwar candidate, President Obama has proved to be a decidedly hawkish commander-in-chief whose policies have already produced notable instances of what in CIA trade-speak has long been called blowback. While the Obama administration oversaw a U.S. withdrawal from Iraq (negotiated by his predecessor), as well as a drawdown of U.S. forces in Afghanistan (after a major military surge in that country), the president has presided over a ramping up of the U.S. military presence in Africa, a reinvigoration of efforts in Latin America, and tough talk about a rebalancing or "pivot to Asia" (even if it has amounted to little as of yet).

The White House has also overseen an exponential expansion of America's drone war. While President Bush launched 51 such strikes, President Obama has presided over 330, according to research by the London-based Bureau of Investigative Journalism. Last year, alone, the U.S. also engaged in combat operations in Afghanistan, Libya, Pakistan, Somalia, and Yemen. Recent revelations from National Security Agency whistleblower Edward Snowden have demonstrated the tremendous breadth and global reach of U.S. electronic surveillance during the Obama years. And deep in the shadows, Special Operations forces are now annually deployed to more than double the number of nations as at the end of Bush's tenure.

In recent years, however, the unintended consequences of U.S. military operations have helped to sow outrage and discontent, setting whole regions aflame. More than 10 years after America's "mission accomplished" moment, seven years after its much vaunted surge, the Iraq that America helped make is in flames. A country with no al-Qaeda presence before the U.S. invasion and a government opposed to America's enemies in Tehran now has a central government aligned with Iran and two cities flying al-Qaeda flags.

A more recent U.S. military intervention to aid the ouster of Libyan dictator Muammar Qaddafi helped send neighboring Mali, a U.S.-supported bulwark against regional terrorism, into a downward spiral, saw a coup there carried out by a U.S.-trained officer, ultimately led to a bloody terror attack on an Algerian gas plant, and helped to unleash nothing short of a terror diaspora in the region.

And today South Sudan -- a nation the U.S. shepherded into being, has supported economically and militarily (despite its reliance on child soldiers), and has used as a hush-hush base for Special Operations forces -- is being torn apart by violence and sliding toward civil war.

The Obama presidency has seen the U.S. military's elite tactical forces increasingly used in an attempt to achieve strategic goals. But with Special Operations missions kept under tight wraps, Americans have little understanding of where their troops are deployed, what exactly they are doing, or what the consequences might be down the road. As retired Army Colonel Andrew Bacevich, professor of history and international relations at Boston University, has noted, the utilization of Special Operations forces during the Obama years has decreased military accountability, strengthened the "imperial presidency," and set the stage for a war without end. "In short," he wrote at TomDispatch, "handing war to the special operators severs an already too tenuous link between war and politics; it becomes war for its own sake."

Secret ops by secret forces have a nasty tendency to produce unintended, unforeseen, and completely disastrous consequences. New Yorkers will remember well the end result of clandestine U.S. support for Islamic militants against the Soviet Union in Afghanistan during the 1980s: 9/11. Strangely enough, those at the other primary attack site that day, the Pentagon, seem not to have learned the obvious lessons from this lethal blowback. Even today in Afghanistan and Pakistan, more than 12 years after the U.S. invaded the former and almost 10 years after it began conducting covert attacks in the latter, the U.S. is still dealing with that Cold War-era fallout: with, for instance, CIA drones conducting missile strikes against an organization (the Haqqani network) that, in the 1980s, the Agency supplied with missiles.

Without a clear picture of where the military's covert forces are operating and what they are doing, Americans may not even recognize the consequences of and blowback from our expanding secret wars as they wash over the world. But if history is any guide, they will be felt -- from Southwest Asia to the Mahgreb, the Middle East to Central Africa, and, perhaps eventually, in the United States as well.

In his blueprint for the future, SOCOM 2020, Admiral McRaven has touted the globalization of U.S. special ops as a means to "project power, promote stability, and prevent conflict." Last year, SOCOM may have done just the opposite in 134 places.


Nick Turse is the associate editor of TomDispatch.com. His latest book is Kill Anything That Moves: The Real American War in Vietnam. He is the author/editor of several other books, including The Changing Face of Empire: Special Ops, Drones, Spies, Proxy Fighters, Secret Bases, and Cyber Warfare, Terminator Planet: The First History of Drone Warfare, 2001-2050 (with Tom Engelhardt), The Complex: How the Military Invades Our Everyday Lives and The Case for Withdrawal from Afghanistan. Turse is currently a fellow at Harvard University's Radcliffe Institute. His website is Nick Turse.com. You can follow him on Twitter @NickTurse, on Tumblr, or Facebook.

http://www.countercurrents.org/turse180114.htm


Cultural Organizations or Trojan Horses?

By George Abraham

18 January, 2014

Countercurrents.org

In ordinary times, a U.S. House resolution ( 417) that calls for 'reaffirming the need to protect the rights and freedom of the religious minorities while praising India's rich religious diversity and commitment to tolerance and equality', may not have ruffled any feathers let alone garnered some media attention. However, in a surprising twist, emotions were flying high over the move by the US lawmakers with some of the national and local Indian organizations that are quite active on the Capitol Hill in lobbying for various causes back in India.

In particular, the Hindu American Foundation (HAF) and the Indian American Muslim Council (IAMC) are at loggerheads over this resolution that may not bode well for the larger interest of India. There is a potential that the ongoing fight might imperil India's image as well as damage national interests among the US legislators at the Capitol. We have heard of charges and counter-charges by both sides and it is time to examine not only the veracity of these charges but also the propriety of actions undertaken by some of these organizations 'on behalf of the community' and 'for the sake of India'.

The recent incident involves a Modi supporter and Chicago-based entrepreneur Shalabh "Shalli' Kumar who tried to hijack a carefully planned event by the Republican Party to woo Indian Americans to GOP. Once the story broke, many organizations and individuals like Mr. Juned Qazi, the Executive Committee member and the President of the Madhya Pradesh Chapter of Indian National Overseas Congress(I) USA wrote to the Republican lawmakers stating that the Republican Party was going against its own fundamental principles and traditions of tolerance and dignity by hosting and promoting such an event.

The leaders of the GOP woke up and learned of the nefarious design by Mr. Kumar under the aegis of the National Indian American Public Policy Institute, to promote Narendra Modi and his candidacy for Prime Minister of India in the upcoming election. Mr. Kumar has committed the egregious error – and is probably in violation of the US ethics rules that prohibit the use of the Congressional seal, stationary and indicia - used the House seal and circulated a flyer that indicated Modi would address the meeting via video link. This action orchestrated by Mr. Kumar probably in collusion with other Modi supporters brought shame and disrepute to our community.

A simplistic view might be that this is an isolated incident. However, if one examines the growth of the Indian Organizations and their activities under cover, a much clearer picture would seem to emerge. NIAPPI is not the first non-profit organization that engaged in this sort of activity. Many of these organizations are founded to promote cultural or religious activities. To an average Indian American, these are noble objectives and for which they would volunteer their time, efforts and resources to promote the heritage and culture of India in a faraway land. It appears to be rewarding especially when these efforts are directed to educate the younger generations of age-old traditions and customs, and build bridges between the two countries and two cultures.

However, some of these organizations seem to be operating under dubious objectives. The US India Political Action Committee (USINPAC), an organization that is dedicated to lobby Congress to promote India's interest in the US has generally done a credible job promoting US-India relations. Their recent intervention on behalf of BJP and Narendra Modi exposes their narrow hidden agenda. A newly issued statement says 'USINPAC has successfully led a grassroots lobbying efforts in Washington DC to stop the above Resolution from going to the House Floor for a vote. ' From now until the National elections in India anticipated in mid.2014, USINPAC will spare no effort in making sure the U.S. Congress does not intentionally or unintentionally influence the outcome of India's upcoming elections. India is a sovereign nation and its citizens have a right to choose their leaders' a recent press release stated. Yes, it appears that USINPAC would like to see the election impacted only one way: to assure a Modi victory! Sadly, the organization that is supposed to stand up for the common values and principles both the nations cherish, has decided to throw in their lot with a leader of a party that is no longer welcome in the U.S. That also explains the deafening silence on their part when minorities in India fall victims to human rights violations in places like Gujarat.

Hindu American Foundation (HAF), is an organization that is said to promote and protect the Hindu philosophy and way of life in U.S. However, lately it has become the lightening rod for the ' Hindutva' agenda. They professes to be ardent supporters of the separation of church and state in US often aligning them with ACLU to fight any Christian symbolism and yet supportive of a supremacist agenda of Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) that has pushed the Narendra Modi candidacy for the Prime Minister in the upcoming election in India. Dr. Raja Swamy, a spokesperson for the 'Coalition Against Genocide' recently commented, "American audiences need to know that HAF and its ilk are rooted in supremacist and majoritarian ideologies. They pay lip service to caste oppression issues and pluralism but have a monoculture and elitist view of the Indian society. They want pluralism and minority rights for themselves here in the US but want minorities, Dalits and women to be second class citizens in India". They ought to examine whether they truly share the same values both these countries are founded upon, freedom, liberty and justice for all.

Federation of Indian Associations (FIA), the umbrella organization for various cultural and regional outfits in NY Tri-state area was established in 1970's to bring the community together. Their flagship event is the India Day Parade in New York every August to coincide with India's Independence Day. If one carefully analyzes these events, the guest lists often include some of those vehemently anti-Congress leaders from India who would participate in the Parade and then go on to do negative propaganda on the UPA Government led by the Congress Party. This year, one of the invitees made the rounds openly promoting Bharatiya Janata Party (BJP).

In a nutshell, some of these organizations are carrying on with a stealth agenda to promote the BJP and advance the cause of Narendra Modi. This overt political activity by cultural organizations might be in direct violation of the by-laws or the approved Constitutions and some of them may even be putting their hard-earned tax-exempt status at risk . Another disturbing aspect in the Asian Indian public arena is the notion that like some other communities, we could maneuver through the political process using money power to achieve any narrow political objectives from some of the largely unsuspecting and often naïve political leaders in this country. Shalli Kumar's action is a prime example of such behavior.

Two top members of a US Congress constituted commission on religious freedom have recently expressed sadness over nomination of Gujarat Chief Minister Narendra Modi as BJP prime ministerial candidate, terming him as the 'poster boy' of India's failure to punish the violent. "It was another son of Gujarat, Mahatma Gandhi, who once offered a broad, tolerant vision for the country and its multi-religious society" wrote Katrina Lantos Swett and Mary Ann Glendon in an Op-ed to CNN.

It is a known fact the Gujarat's High Court rapped Modi for inaction and ordered compensation for religious structures that suffered damage. In 2005, the U.S. State Department agreed with United States Commission for International Religious Freedom (USCIRF) and others and revoked Modi's visa.

It is time to ask a pertinent, albeit rhetorical question to many of these organizations that are acting as Trojan Horses on behalf of Modi: would these US-based organizations support for example, a Chris Christie Candidacy for Presidency if he is to show the same 'inaction', as Modi did in 2002 for not protecting the lives and properties of all Indians alike who live in New Jersey?

George Abraham is Chairman, Indian National Overseas Congress (I), USA

http://www.countercurrents.org/abraham180114.htm


Religion, Peace And Violence

By Ram Puniyani

18 January, 2014

Countercurrents.org


The global scenario is full of violence in the name of religion. The acts of terrorism are attributed to religious teachings at times. The local violence, the attack on religious minorities is also presented as a religious phenomenon. The last three decades have seen this tragic phenomenon where the political agenda of super power on one hand and the agenda of fundamentalist-fascist groups on the other have been given the veneer of religion. The major theory underlying the US policy in the oil zone has derived its legitimacy from Samuel Huntington theory of 'Clash of Civilizations'. In South Asian countries spanning from Pakistan to Myanmar to Sri Lanka, the religious minorities have been on the firing line, have been facing a violence orchestrated by those practicing 'religious nationalism', those who on the pretext of defense of their religion, target the religious minorities. Be it the Hindus and Christians in Pakistan, Christians and Muslims in India, Buddhists and Hindus in Bangla Desh, Muslims in Myanmar or Christians and Muslims in Sri Lanka, the violence has been stalking them in one or the other form. This has increased the feeling of insecurity of religious minorities and also has eroded their rights as citizens.

What has the moral teachings of religion to do with all this? Nothing whatsoever. Still the popular perceptions and propaganda of the religious nationalist groups has been so pernicious that a 'social common sense' has been created, which gives credence to the role of religion in this violence.

It is in this light that three major statements from leaders, two of them religious and one political have come as a breath of fresh air, delinking religion from violence and espousing the peace making role of religion. Surely, religion is the most complex social phenomenon. It does encompass the element of moral values, values of humanism, so to say, on one side. At the same time it encompasses more visible facets of identity like rituals, Holy books, places of worship, the clergy and Holy Scriptures. At another level it has the element of faith in the supernatural power, deities. Surely, some of the religions did not talk of the supernatural power. In those religions, the prophets of the religions themselves, in due course have been given the exalted position of the God. This element of faith in supernatural is varying in degrees but is present all the same in different religions. These three statements, which struck the author all, came from people of diverse religious streams.

The first one came from Pope Francis while deliberating on the future of the church and redefining long-held Catholic doctrines and dogmas. The recently held 'Third Vatican Council' concluded with Pope Francis announcing that Catholicism is now a "modern and reasonable religion, which has undergone evolutionary changes. The time has come to abandon all intolerance. We must recognize that religious truth evolves and changes. Truth is not absolute or set in stone…." In a very profound manner he went on to say that "God is not a judge but a friend and a lover of humanity. God seeks not to condemn but only to embrace… Our church is big enough for heterosexuals and homosexuals, for the pro-life and the pro-choice!"

He added "because Muslims, Hindus and African Animists are also made in the very likeness and image of God, to hate them is to hate God...Whether we worship at a church, a synagogue, a mosque or a mandir, it does not matter. Whether we call God, Jesus, Adonai, Allah or Krishna, we all worship the same God of love. This truth is self-evident to all who have love and humility in their hearts!" "God is changing and evolving as we are, for God lives in us and in our hearts. When we spread love and kindness in the world, we touch our own divinity and recognize it."

This lengthy quote from his speech demolishes so many of the intolerant attitudes towards, 'others', towards those having different norms, towards those having different sexual orientation as well. We witnessed recently in India that most of the clergy of different religions welcomed the Supreme Court decision whereby same sex relations are regarded as a crime. This quote from Pope also goes against the ideology of "Clash of Civilizations"; and the media propaganda whereby people of other religions are looked down upon, and Muslims in particular are demonized by large section of people. The biggest contribution of Pope is to emphasize on respect-tolerance for those who are different from us. It also outlines that we cannot stick to dogmas which were brought in the name of religion at particular time, in the times gone by. This is an extremely welcome stance taken by the highest authority of Catholic faith, something which can be the role model for clergy of other religions to emulate.


Not to be left behind, the founding-leader and patron-in-chief of Minhaj-ul-Quran International and author of the acclaimed book Fatwa on Terrorism and Suicide Bombings, Shaykh-ul-Islam Dr. Muhammad Tahir-ul-Qadri condemned all acts of terrorism and said that the concept of "Jihad has been hijacked by terrorists". He is precisely on the dot as the word Jihad has been given the dastardly meaning by the Salafi version of Islam, a version picked up by the US for trainings in especially set up Madrassas, from where the Mujahidin, Taliban, Al Qaeda were brought up. The politics of control on the oil resources took an inhuman form where United States proactively picked up the pervert version of Islam and popularized as 'the Islam', aided and assisted by its minions and large section of World media aping US in most of the matters. Dr. Mohammad, is in line with the Sufi version of Islam, where tolerance for others and celebration of diversity has been the norm. In the name of this Jihad; so much damage has been done to the human race, to redo which massive efforts are needed and one lauds the efforts of those scholars and clerics of Islam who have presented the human, tolerant face of Islam Worldwide. One cannot forget to mention the great Islamic Scholar, Dr. Asghar Ali Engineer, who strove till the end of his life to present the Islam in the proper light, in the light of values of amity and peace. Surely even today there are many who are aggressively promoting the intolerant versions of Islam, the likes of Dr. Zakir Naik, who are doing great disservice to Islam and human society.


Swami Vivekananda is the latest icon to be hijacked by the politics of intolerance. Those who have spread hatred for religious minorities are projecting him to be their messiah. In this light Indian Prime Minister Dr. Manmohan Singh statement is very praiseworthy. Dr. Singh points out that "true religion cannot be the basis of hatred and division, but of mutual respect and tolerance for faiths and beliefs of all."


One does note the glaring differences in the interpretation of same religion. One can note the diverse and opposite ways in which political actions take place in the name of same religion. Two or three examples are very obvious. From Hinduism one can see Mahatma Gandhi on one side and Nathuram Godse on the other. In Islam one can see Khan Abdul Gaffar Khan, Maulana Abul Kalam Azad on one side and Osama bin Laden and the Muslim nationalists on the other. Same way one can see Pope Francis on one side and Anders Berling Brevik (Norwegian terrorist who killed 86 youth) on the other. It is the same religion in whose name such opposite stands are taken. We need to wake up to free ourselves from the ossified, intolerant views of religions and stand for humanistic teaching and tolerant traditions of religions.

Ram Puniyani was a professor in biomedical engineering at the Indian Institute of Technology Bombay, and took voluntary retirement in December 2004 to work full time for communal harmony in India. He is involved with human rights activities from last two decades.He is associated with various secular and democratic initiatives like All India Secular Forum, Center for Study of Society and Secularism and ANHAD.


http://www.countercurrents.org/puniyani180114.htm



Shamshad Elahee Shams

दाऊदी बोहरा समुदाय के नेता सय्य्दना की १०२ साल की उम्र में मौत, जनाजे में हुआ उपद्रव १८ मरे.

सय्येदना के व्याभिचार के विरुद्ध 'बोहरा समाज सुधार आन्दोलन' के नेता, विश्व प्रसिद्द इस्लामी विद्वान डाक्टर असगर अली इंजीनियर की मृत्यु पिछले साल जब हुई थी, उनकी मैय्यत में गिनती के ढाई दर्जन लोग थे.

कैसा पाखंडी समाज है ? धूर्तता अपनी पराकाष्ठा पर है...लानत.

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  • You, Himanshu Kumar, Shamshad Elahee Shams, Ramesh Bhangi and 49 others like this.

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  • Swayam Sarvahara ये उपद्रव क्यों हुआ?

  • 6 hours ago · Like

  • Arjun Sharma शमशाद साहब वैसे मैं पहले से स्व.स्सय्दना बोहराबुद्दीन के बारे में नहीं जानता था इनके मरणोपरांत विकिपीडिया के द्वारा जानकारी पायी.यूट्यूब से इनके किसी धार्मिक प्रवचन सुनने के लिए कोशिस की लेकिन कुछ नहीं मिला ताकि इनके धार्मिक और अध्यात्मिक ज्ञान को समझ ...See More

  • 3 hours ago · Like

  • Ashok Kumar Sharma Syedna is a State within a State. All followers have to pay compulsory taxes to him and have to follow strict code of conduct including a dress code. Those who oppose his archaic and unconstitutional code are excommunicated from society (community) and...See More

  • 2 hours ago · Like · 3

  • Misir Arun मूर्खों का अनुपात हमेशा अधिक रहा है .....विचित्र किन्तु सत्य |

  • about an hour ago · Like · 2

Navbharat Times Online

आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल पर सोशल मीडिया में कई मजेदार कॉमेंट्स और पिक्स शेयर किए जा रहे हैं, देखें...



फनी पिक्स देखने के लिए क्लिक करें...http://navbharattimes.indiatimes.com/hansi-mazak/funny-photo/hansimazakphotolist/12545581.cms

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Panini Anand

सोमवार सुबह 10 बजे तक अरविंद बवाल अपने टूलबॉक्स भारती का इस्तीफा लें अन्यथा इस्तीफा दे दें. और सोमनाथ भारती शर्म करो और डूब मरो चुल्लू भर पानी में.

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  • You, Abhishek Srivastava, Dilip Khan, Sheeba Aslam Fehmi and 51 otherslike this.

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  • Jyotsna Siddharth horrifying!! AAP will go out of power soon to never come back again!

  • 7 hours ago · Like · 1

  • Kundan Yadav बंदर के हाथ में उस्तुरा मिलने से इस तरह की हरकतें कोई आश्चर्य नहीं।

  • 6 hours ago · Like · 2

  • Lakshman Roy Panini ki baaki baaton se bhale hi kai log sahmat na hon, lekin ye baat bilkul sahi hai ki AAP ne aisa karke khud ko shive sena, ram sena, hindu raksha dal ki category me khada kar liya hai.... ho sakta hai ki wahan galat ho raha ho, jaisa ki harsh bha...See More

  • 3 hours ago · Like

  • Alok Kumar "आप" क्या चाहता है? जन अदालत ! नक्सली स्टाइल.. जिस तरह से उनके स्वयंभू कमांडर (मंत्री) रात बेरात कोर्ट लगाने की कोशिश कर रहे हैं उससे भविष्य अराजक प्रतीत हो रहा है..

  • about an hour ago · Like

Saradindu Uddipan posted a photo to Nagraj Chandal's timeline.

AJAY KUMAR DIMPAL===MANDDAL PRESIDENT DESWA

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Jitendra Yadav shared Forward Press's photo.

Bhujan nayak Raja Mahishasur

साप्‍ताहिक दलित आदिवासी दुनिया के 19-25 जनवरी, 2014 अंक से साभार।

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Satya Narayan

एक दमनकारी राज्यसत्ता को चलाने के लिए यह ज़रूरी है कि वे तमाम लोग, जिनका इस व्यवस्था में स्वर्ग है, एक ऐसे दर्शन का प्रचार करें ताकि जनता की सोचने-समझने की शक्ति को ख़त्म किया जा सके। बड़े-बड़े राजनेता से लेकर फिल्मी एक्टर, वैज्ञानिक, प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर आदि जो करोड़ों की कमाई कर रहे हैं, ऐसे दर्शन का ख़ूब प्रचार करते दिख जायेंगे। शोषणकारी पूँजीवादी राज्यसत्ता अपने तमाम सत्ता-संस्थानों द्वारा चाहे वह शिक्षा केन्द्र हो, न्यायालय व संविधान हों अथवा तथाकथित लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ मीडिया का टी-वी, रेडियो, अख़बार हो – चारों तरफ कूपमण्डूकता, अन्धविश्वास, अवैज्ञानिकता फैलाते हैं।

http://ahwanmag.com/Babas-in-India

तुम राम भजो, हम राज करें।

ahwanmag.com

एक दमनकारी राज्यसत्ता को चलाने के लिए यह ज़रूरी है कि वे तमाम लोग, जिनका इस व्यवस्था में स्वर्ग है, एक ऐसे दर्शन का प्रचार करें ताकि जनता की सोचने-समझने की शक्ति को ख़त्म किया जा सके। बड़े-बड़े राज...

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Ujjwal Bhattacharya

अब रास्ते में कोई काला-कलूटा मिल जाय तो उसे घेर लीजिये. पकड़कर पूछिये - अबे, तेरा वीसा कौन सा है ? इश्टुडेंट है ? किस कालिज का ? बिजनेस करता है साला ? कइसा बिजनेस ? तू अपने को अमरीकी समझता है क्या ? फिर उसके डेरे पर पुलिस का छापा लगवाइये. कोई औरत मिल जाय तो उसे भीड़ के बीच बइठाकर जांच के लिये पेशाब करवाइये. साली जरूर ड्रग्स लेती होगी.

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  • Sujit Ghosh क्या यह सही है कि भारतीय सबसें ज्यादा नस्ली होते हैं । आब तो सुनते है गोरी होने की क्रीम साउथ में भी खुब बिकती है

  • 17 minutes ago · Like

  • Ujjwal Bhattacharya बिल्कुल होते हैं. और वर्ण व्यवस्था भी नस्लवाद है. म्लेच्छ और यवन Xenophobia के शब्द हैं. अन्य धर्मों के साथ धर्मशास्त्रीय विमर्श के आधार पर विवाद नहीं किया गया है, जातिगत आधार पर उन्हें नीचा माना गया है.

  • 13 minutes ago · Like

  • Palash Biswas It is true.The evil of Indian system lies beneath extreme apartheid practiced with surgical precision.

  • a few seconds ago · Like

जनज्वार डॉटकॉम

वर्ष 1932 से 2013 तक लगभग 81 वर्ष की समयावधि के बीच न जाने कितने भू-वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों ने केदारनाथ के आसपास के क्षेत्र को लेकर बौद्धिक बहसें, निरीक्षण-परीक्षण तथा शोध पत्र तैयार किये होंगे, लेकिन अफसोस एक भी फतेह सिंह कण्डारी जी की अनुभवपरक पंक्तियों के समानान्तर नहीं टिकते. समय रहते अगर इस पुस्तक का संज्ञान लिया जाता, तो केदारनाथ की भीषण त्रासदी न झेलनी पड़ती...http://www.janjwar.com/2011-06-03-11-27-26/78-literature/4711-amrit-sanjeevani-ek-shodhparak-dastavej-for-janjwar-by-narendra-kathait-for-janjwar

'अमृत संजीवनी' एक शोधपरक दस्तावेज

janjwar.com

Janjwar

Abhishek Srivastava via Junputh

"जैसे वे किसानों को देते हैं, आदिवासियों को देते हैं, ठीक उसी तरह वे विरोधी विचारों को भी मुआवज़ा देने में कोई गुरेज़ नहीं करते। इस तरह वे विरोधी विचार को एक तरह से खरीद लेते हैं और उसकी धार को कुंद कर देते हैं। मुआवज़ा लेने के बाद जिस तरह किसान या आदिवासी अपनी ज़मीन या जंगल की लड़ाई जारी रखने का नैतिक अधिकार खो देता है, उसी तरह लेखक भी अपने विचार की लड़ाई फिर नहीं लड़ पाता।"

Rangnath Singh Avinash Das Panini Anand Ashutosh Kumar Anita BhartiAjay Prakash Aflatoon Afloo Atul Ch...See More

जनपथ : जयपुर साहित्‍य महोत्‍सव के विरुद्ध त्रैमासिक पत्रिका ''भोर'' का वक्‍तव्‍य

junputh.com

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H L Dusadh Dusadh

10 hours ago ·

  • मित्रों!मेरा विश्व कवि ढसाल पर यह लेख आज,18.1.14 के देशबंधु में प्रकाशित हुआ है.आप इसेwww.deshbandhu.co.in पर भी देख सकते हैं.
  • धरती के नरक से निकला एक अप्रतिम नायक:नामदेव ढसाल
  • एच एल दुसाध
  • 15जनवरी,2014 की मनहूस सुबह.मैं दून एक्सप्रेस से कोलकाता से बनारस जा रहा था.अचानक मोबाइल घनघनाहट सुन कर गहरी नींद से उठ गया.धीरे-धीरे आंखे खोलकर जब मोबाइल के स्क्रीन पर नज़र गड़ाया,सुरेश केदारे के नाम देखकर एक अप्रिय संवाद की आशंका से घिर गया.मैंने मन कड़ा कर मोबाइल ऑन किया.उधर से भाई केदारे के सुबकने की आवाज़ सुनाई पड़ी.उनका सुबकना सुनकर मैंने अनुमान लगा लिया कि ढसाल साहब नहीं रहे.कुछ क्षणों के बाद अपनी रुलाई पर किसी तरह काबू पाते हुए उन्होंने कहा,'भाई साहब दादा नहीं रहे!अभी-अभी उन्होंने आखरी सांस ली है.'मैं स्तब्ध रह गया और मोबाइल काट दिया.
  • 15 जनवरी की सबह साढ़े चार बजे जिस दुखद संवाद का सामना किया उसके लिए लिए विगत एक माह से ही मानसिक प्रस्तुति लेने लगा था.पहले से ही कई बीमारियों से घिरे ढसाल साहब ,जिन्हें उनके अनुसरणकारी प्यार से दादा कहते रहे हैं,पिछले सितम्बर से आंत के कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी से जूझ रहे थे.27 नवम्बर को ही उनका ऑपरेशन होना तय हुआ था,जो उनके रक्त-कणों में कुछ विशेष कमी के कारण टल गया.मैं 27 नवम्बर के पहले ही उनसे मिलने के लिए मुंबई जाना चाहता था.पर, पहुँचा 4 दिसंबर की रात.अगले दिन भाई सुरेश केदारे और लेखक लहू खामकर के साथ उनसे मिलने नरीमन पॉइंट इलाके में अवस्थित 'बॉम्बे हॉस्पिटल' पंहुचा.पता चला तीन डॉक्टरों की टीम उनका कुछ टेस्ट कर रही है जिसमें 3-4घंटे लग सकते हैं.लिहाज़ा उनसे बिना मिले लौटना पड़ा.
  • आईसीइयू में पड़े ढसाल साहब से मिलवाने के लिए सुरेश केदारे जी ने दूसरा प्रयास 7 दिसंबर को किया.किन्तु डॉक्टरों ने मिलने की इज़ाज़त नहीं दी.उनसे न मिलने की निराशा मेरे चेहरे पर गहराते देख भाई सुरेश केदारे और उनके साथ आये एक व्यक्ति ने 'कमाठीपुरा' और 'गोलपीठा' जैसी बस्तियां देख लेने का प्रस्ताव रखा ,जहां वे पले–बढे थे.इन बस्तियों का नाम सुनते ही उनके विषय में पढ़ी बहुत सी बातें जेहन में कौंध गयीं.अतः हम बिना बिलम्ब किये वहां के लिए टैक्सी पकड़ लिए.
  • भाई सुरेश जिन्हें अपने साथ लाये थे ढसाल साहब के बाल सखा वे आत्मा राम भी उस गोलपीठा के ही इलाके के रहनेवाले थे.वे हमें लेकर उस 'गोलपीठा' पहुंचे जहाँ ढसाल साहब बैठकर शुरूआती दिनों में अपनी कवितायेँ लिखा करते थे.मैंने उनकी 'गोलपीठा' पढ़कर इस इलाके के विषय में एक धारणा बना रखा था किन्तु यह साक्षात नरक होगा, इसकी कल्पना नहीं कर पाया था.गोलपीठा से पीबी रोड होते हुए हम 'नवाब चाल' के उस घर की ओर रवाना हुए जहाँ ढसाल साहब पले-बढे.हम जिस रास्ते से गुजर रहे थे उस पर भी ग्लोबलाइजेशन की छाया पड़ी है,ऐसा आत्मा जी ने बताया.सड़कें कच्ची की जगह पक्की हो गयी हैं,चाल भी पक्के मकान में परिवर्तित हो गए हैं.अब बिजली के बल्ब वहां भी रौशनी बिखेर रहे हैं.ढसाल साहब जब युवावस्था की ओर अग्रसर थे तब स्थिति बिलकुल उल्टी थी.बहरहाल बहुत कुछ बदल जाने के बावजूद उस समय के गोलपीठा के विषय में किसी को भी अनुमान लगाने दिक्कत नहीं हो सकती कि वेश्यायों का यह इलाका 30-40 साल पहले साक्षात् नरक रहा होगा.इसका एहसास मुझे रास्ते से गुजरते हुए हुआ.आधे किलोमीटर के सफ़र में मैंने पीबी रोड के दोनों तरफ विभिन्न वय की कम से कम दो सौ वेश्याओं को खड़े पाया,जिनकी आंखों में किसी ग्राहक को पाने के लिए बेचैनी थीं,जो पेट की आग से मजबूर हो कर मुझ जैसे बुजुर्ग को भी बेशर्मी से आमंत्रित कर रहीं थीं.आत्मा जी ने बताया कि भूमाफियाओं और पुलिस की गंठजोड़ से यहाँ की वेश्याओं को भगा दिया गया है किन्तु उन दिनों जब असामाजिक तत्वों और पुलिस की मिलीभगत से यह इलाका वेश्याओं से गुलज़ार रहा करता था, इतनी ही दूरी में सब समय कुछ हज़ार वेश्यायें अपना जिस्म बेंचने के लिए खड़ी मिलती थीं.मानवता के विराट कलंक के रूप में विद्यमान पीबी रोड छोड़कर हम उस 'नवाब चाल' में दाखिल हुए जहाँ ढसाल साहब का परिवार रहता था .
  • ढसाल साहब के पिता एक कसाईखाने में साधारण कर्मचारी थे.उन्ही के आर्थिक-सामाजिक स्तर के दो-तीन परिवारों का उस एक ही कमरे में सहावस्थान था.एक साथ कई चूल्हे जलते थे.आंगननुमा कच्चे नवाब चाल में जल निकासी की कोई व्यवस्था न होने के कारण पास की नाली बजबजाती रहती थी जिससे कीड़े उछल कर भोजन की थाली में आ जाते थे.वहां कमरों में प्राइवेसी और सृजन के लिए शांत वातावरण की कल्पना करना दुष्कर था.ढसाल में सृजन की भूख उन्हें उपयुक्त जगह के तलाश के लिए बाध्य की और उन्होंने वह जगह ढूढ़ निकाली.जगह थी वही गोलपीठा, जहां से वेश्या बाज़ार शुरू होता था;जहाँ दूर-दराज के इलाके से अपना घर-परिवार छोड़कर आये अनपढ़,जाहिल और शराब के नशे में धूत मजदूर जिस्म का सौदा का करने की मानसिक प्रस्तुति लेते थे.ऐसे दम घोटू और अस्वस्थकर जगह पर बैठ कर ढसाल साहब कविता सृजन करते थे.इसी गोलपीठे पर बैठकर लिखी गयी कवितायेँ जब प्रकाशित हुईं,साहित्य की दुनिया स्तब्ध रह गयी.आखिर स्तब्ध क्यों न हो!उन्होंने ने कविता के शास्त्र को ध्वस्त कर दिया था और धरती के नरक के श्याम पक्ष को उसी की भाषा में जिस तरह उकेरा था,वह उसके पहले विश्व कविता जगह में विलुप्त था.यहीं रहकर उन्होंने महज 22-23 साल की युवावस्था में दलित पैंथर जैसे उग्र संगठन को जन्म दिया.यहाँ आते वक्त रास्ते में सुरेश जी ने बहुत दावे के साथ कहा कि गोल पीठा का परिवेश देखने के बाद आप कुछ लिखे बिना नहीं रह पाएंगे.उनका दावा गलत नहीं था.मैंने धरती का नरक देखने के बाद ढसाल साहब की जीवनी लिखने का संकल्प ले लिया था.
  • अगले दिन शाम को हम फिर बॉम्बे हॉस्पिटल पहुंचे.चूँकि मुझे अगले दिन लखनऊ लौटना था इसलिए डॉक्टरों के निर्देश के विपरीत पैन्थरों ने उनसे मिलवाने का विशेष उद्योग लिया और कुछ मिनट के लिए उनका दर्शन करने का अवसर पा गया.मुझे उनसे मिलने के लिए नाक पर मास्क लगा कर अन्दर जाना पड़ा.मैं यही उम्मीद किया था कि उनकी आँखे मुंदी होंगी और मैं उनका चरण स्पर्श कर वापस आ जाऊँगा .किन्तु चमत्कार हुआ.मेरे कदमों की आहट पाते ही उनकी आँखे खुल गयीं.उन्होंने प्यार से मुस्कुराते हुए हालचाल पूछा.उन्हें बोलते देख कुछ जवाब देने की बजाय जल्दी से कमरे से बाहर आया और बैग में पड़ी नई डाइवर्सिटी ईयर बुक लेकर पुनः उनके सामने पहुंचा.मैंने जल्दी –जल्दी इयर बुक में छपे उन पृष्ठों को खोलकर दिखलाना शुरू किया जिनमें उस पिछले 'डाइवर्सिटी डे' के फोटोग्राफ थे जिसका आयोजन स्वयं उनके सौजन्य से हुआ था.अधिकांश तस्वीरों में वे मौजूद थे.तस्वीरे देखकर उनके चेहरे पर मुस्कान खेलने लगी.वहां ज्यादा समय ठहराना उचित नहीं था.लिहाज़ा जल्दी से तस्वीरे दिखा कर चलने लगा.चलने के पहले जब मैंने उन्हें यह बताया कि उनकी जीवनी लिखने जा रहा हूँ ,उनके मुस्कान की लकीर और चौड़ी हो गयी.मैं भाग्यवान रहा कि हर प्रतिकूलता का सदा मुस्कुराते हुए सामना करने वाले ढसाल साहब कैंसर की पीड़ा को छिपा कर मुझ जैसे अपने गुणानुरागी को अंतिम बार भी मुस्कुराहट ही उपहार दिए.धरती के नरक से निकले अप्रतिम पैंथर को शत-शत नमन.
  • दिनांक:17 ,2014.
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Satya Narayan

जब क्रान्तियों की धारा बिखराव-ठहराव और पराजय के दौर से गुजरती है, जब क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी होती है, जब क्रान्तियाँ रुककर सिंहावलोकन, आत्‍ममंथन और आत्‍मालोचन कर रही होती हैं, उस समय ज्‍़यादातर बुद्धिजीवी क्‍या कर रहे होते हैं? यह जानना दिलचस्‍प होगा।

http://nightraagas.blogspot.in/2014/01/blog-post_7027.html

देर रात के राग: एक अंधकार युग में ''महान'' ऐतिहासिक दायित्‍व निभाते बुद्धिजीवियों के बारे में.

nightraagas.blogspot.com

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  • Mk Azad पूँजी के विरुद्ध मिहनतकस वर्ग के महान संघर्ष में सारे साथी अंत तक नहीं चल पाते, कुछ बीच में ही पूँजी के दबाव के चलते या अपनी निम्न मध्यम वर्गीय चेतना के चलते घुटने टेक देते है. ऐसे में वे समूचे कमुनिस्ट आन्दोलन के बारे में नाकाम और व्यर्थ का संशय और अविश्‍वास का माहौल बनाने की कोशिस करने के सिवाय और कुछ भी कर सकने में अपने को असमर्थ पाते है, इस लिए और भी पतन के दलदल में फंसते जाते है. ऐसे लोग उस अभागे इंसान की तरह होते है जिसका सपना- इस जुल्मी दुनिया को बदलने का सपना, फिर से संगठित होने का और मजदूर वर्ग की लड़ाई में साथ खड़ा होने का सपना - मर गया होता है, विश्वास डीग गया होता है. इनके इस त्रासदपूर्ण पतन पर हम अफसोश ही कर सकते है. आज बुद्धिजीवी साथियो का सर्वहाराकरण और मजदूर साथियो का बुधिजिविकरण सचेतन रूप से हर संगठन को करने की सबसे अधिक आवश्यकता है.

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  • Palash Biswas विचारणीय।

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Abhishek Srivastava shared a link.

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पर विवाद

raviwar.com

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल असल में भारत में लूट का खुला खेल चलाने वाली कंपनियों के प्रायोजन को लेकर बयान शुरु हो गया है

जनज्वार डॉटकॉम

आज जब घोटालों से सर्वाधिक कलंकित सरकार की कर्णधार कांग्रेस लगातार अपनी जमीन खोती जा रही है, तो भाजपा फिर से अपनी सांप्रदायिक छवि को मोदी के नेतृत्व में पेश करने की भरपूर कोशिश कर रही है. भ्रष्ट कांग्रेस और साम्प्रदायिक भाजपा के बीच में इस बार कॉर्पोरेट की नजर 'आप' पर है, जिसकी कोई आर्थिक नीति नहीं है…http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/69-discourse/4709-kranti-koi-numaish-nahi-for-janjwar-by-rupresh-kumar-singh

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Deven Mewari with Laxman Singh Bisht Batrohi

कलबिष्ट: एक कथा आख्यान


कथाकार-उपन्यासकार मित्र डा. बटरोही ने फोन पर बातचीत में बताया है कि वे इन दिनों स्मृतियों की लंबी यात्रा कर रहे हैं और इस यात्रा में लोक कथाओं के नायकों से उनका अंतरंग संवाद हो रहा है। इधर बिनसर के निकट कोट्यूड़ गांव में कलबिष्ट मंदिर की भौतिक यात्रा के बाद वे लोकाख्यान कलबिष्ट की मानसिक यात्रा पर हैं और वहां इस आख्यान के नायक कलबिष्ट, नायिका कमला, खलनायक नौलखिया तथा लछुवा और दूसरे पात्रों के साथ सीधा संवाद कर रहे हैं।

कल उन्होंने बताया कि उनकी यह मानसिक यात्रा पूर्ण हो चुकी है और यह यात्रावृत्तांत 'मलदेश का खशिया देवताः कलबिष्ट' के नाम से शब्दों में उतर आया है। यह लंबा आख्यान देहरादून से प्रकाशित मासिक 'पर्वतांचल' के मार्च 2014 में प्रकाशित होगा। इस अंक की अतिथि संपादक हैं दिल्ली विश्वविद्यालय की शोधछात्रा रश्मि रावत।

डा. बटरोही का कहना है कि उन्होंने इस आत्मकथात्मक आख्यान में देश के जाने-माने इतिहासकारों के विचारों के साथ आदिम वीर खश जाति की जड़ों की तलाश की है और अपनी इस तलाश को वर्तमान समय से जोड़ा है।

'पर्वतांचल' मार्च 2014 अंक में पढ़िएगा यह आख्यान।

(parvatanchal@gmail.com)

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Ak Pankaj

3 hours ago ·

  • हां, हमने झारखंड के सृजनरत और संघर्षरत
  • आदिवासी, स्त्री, दलित-पिछड़ी जनता का पक्ष चुना है.
  • साथी Satya Prakash Chaudhary, एक साझा प्रयास 'साल सकम' पर संगीन आरोप लगा कर, एक ही व्यक्ति पर ताबड़तोड़ हमला करते और वैचारिक सवाल को व्यक्तिगत बनाते हुए यह कह कर निकल लेना कि 'फेसबुक पर मैं इस विवाद को यहीं विराम देता हूं', आलोचना की ईमानदारी शैली नहीं है. इसलिए इस संदर्भ में हम अपना पक्ष रखना जरूरी समझते हैं.
  • पहली बात तो यह कि आप जिसे दो प्रमुख सदस्यों का व्यक्तिगत टकराव बता रहे हैं, वह साल सकम के साथियो के लिए व्यक्तिगत बिल्कुल नहीं है, जैसा कि हमारे एक साथी विनोद कुमार जी पहले लिख चुके हैं. टकराव बिना शक वैचारिक है.
  • दूसरी बात यह कि आप यही सवाल उस दूसरे व्यक्ति से क्यों नहीं कर रहे हैं और न ही उसका नाम ले रहे हैं, क्यों? ईमानदार आलोचना का तकाजा यही है कि आप दोनों से 'शहर की पूरी प्रगतिशील जमात के विभाजन का एजेंडा' बनाने पर सवाल करते. लेकिन आप ऐसा नहीं करते हुए और पूरी सचेतनता से उस दूसरे व्यक्ति का नाम बचाते हुए सिर्फ एक पर ही हमले कर रहे हैं. क्यों साथी?
  • आग्रह है कि साल सकम में रहे उस दूसरे प्रमुख सदस्य का नाम आप जरूर बताएं जिसने आपके अनुसार 'व्यक्तिगत टकराव' को 'शहर की पूरी प्रगतिशील जमात के विभाजन का एजेंडा' बना दिया.
  • तीसरी बात यह कि 14 जनवरी का आयोजन पिछले दो साल से साल सकम कर रहा था और आप व आपके संगठन के लोग इसमें शामिल होते रहे थे. तो फिर जब संभवतः 8 जनवरी को एटीआई के आयोजन को लेकर बैठक हुई तो पहले से जारी इस सामूहिक प्रयास 'साल सकम' को तोड़ने में आपका संगठन क्यों एक प्रमुख साझीदार बना? आपने और आपके संगठन ने उसी समय एकता के प्रयास क्यों नहीं किए?
  • चौथी बात यह कि साल सकम के पांच संयोजक थे. पांचों अलग-अलग विचारों और संगठनों से जुड़े लोग हैं और अपनी वैचारिक असहमतियों के बावजूद पांचों ने एक साथ 'साल सकम' बनाया था ताकि वैचारिक संघर्ष को सामूहिक जमीन मिले. इनमें तीन Arvind Avinash, Shambhu Mahato, Ranendra Kumar) वामपंथी हैं, एक लोहियावादी Vinod Jharkhand) और आप सबके अनुसार ही हम 'अस्मितावादी'. आप जानते हैं इनमें से चार एकजुट हैं और एक ने अपना वर्गीय चरित्र दिखाते हुए खुद को अलग किया. और उसके इस गैर-जिम्मेदाराना व गैर-बिरादराना रवैए को रांची/झारखंड ईकाई के चार वामपंथी सांस्कृतिक संगठनों ने आगे बढ़कर साथ दिया. क्यों?
  • इस संदर्भ में दोहरा दूं कि 'साल सकम' का उद्देश्य झारखंड में सृजनरत और संषर्घरत व्यक्तियों, बौद्धिक संगठनों व अन्य सभी जमातों (जिनमें दलित, आदिवासी, स्त्री, पिछड़े, गांधीवादी, लोहियावादी, और वामपंथी प्रमुख हैं) में वैचारिक संघर्ष चलाते हुए व्यापक एकता कायम करना और एक साझा मोर्चा बनाना है. ऐसे महत्वपूर्ण प्रयास को मजबूत करने का काम होना चाहिए या फिर पद, पैसा व बौद्धिक लूट के जरिए जनतांत्रिक संगठनों पर एकाधिकार कायम करने वाले वर्चस्ववादी तोड़क प्रवृत्तियों का सहायक बनना चाहिए?
  • साथी, आप कहते हो 'साल सकम में आपसी मतभेद क्यों हुआ, इसमें मेरी रुचि नहीं है' और 'मतभेद' (विचार) को दरकिनार कर 'मतभेद' को व्यक्तिगत बता कर इसमें रुचि लेते हो, उसके साथ सांगठनिक गठजोड़ बनाते हो. यह कैसी 'सांस्कृतिक पहलकदमी' है?
  • और अंततः यह कि हमने 14 जनवरी के विश्वासघात पर या किसी व्यक्ति विशेष पर कोई हमला अभियान नहीं चलाया. किसी व्यक्ति विशेष का नाम लेकर तो हर्गिज नहीं. प्रवृत्तियों और विचार पर लिखा है हमेशा. हां, अस्मितावाद पर जो तथाकथित 'छद्म प्रगतिशील' व सामंती और पूंजीवादी नजरिया है, उसके खिलाफ लगातार सांस्कृतिक-राजनीतिक अभियान चलाता रहा हूं. यह अभियान तब भी चलाता था जब लिबरेशन और जसम में था. और अब भी चला रहा हूं जब साथ नहीं हूं जो आगे भी जारी रहेगा. क्योंकि हमारा स्पष्ट मानना है कि इस नजरिए के कारण दलित, आदिवासी, स्त्री और उत्पीड़ित समुदायों के सृजन और संघर्ष की ऐतिहासिक अनदेखी हो रही है. इस ऐतिहासिक अनदेखी को दुरूस्त करने की आवश्यकता है ताकि मुक्ति संघर्ष और ज्यादा संगठित व मारक बने. शोषणकारी व्यवस्था ध्वस्त हो.
  • साल सकम से अलग होने वाले साथी और तोड़क प्रयासों पर मूल पोस्ट साथी विनोद जी की थी. जिसे हमने शेयर किया. लेकिन आपने विनोद जी से कोई 'पूछताछ' नहीं की, न ही साल सकम से संबंधित अन्य तीन लोगों से आपने कोई संवाद किया. हमला सिर्फ हम पर ही क्यों?
  • Satya Prakash Chaudhary

  • अश्विनी पंकज जी, साल सकम के बारे में जो सूचना आपने दी है, उसे मैं सही मान लेता हूं और 'प्रायोजित पूंजी' वाली बात के लिए खेद प्रगट करता हूं. लेकिन इस बात से कोई कैसे इनकार कर सकता है कि साल सकम के भीतर के दो प्रमुख सदस्यों के टकराव को आपने शहर की पूरी प्रगतिशील जमात के विभाजन का एजेंडा बना दिया. फेसबुक पर अभियान शुरू कर...See More

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    • Ak Pankaj Nadeem Akhtar, Zeb Akhtar, Syed Shahroz Quamar, Sanjay Krishna, Janwadi Lekhak Sangh Ranchi,Gladson Dungdung, Sunil Minj, Sachin Shrivastava

    • 3 hours ago · Like

    • Syed Shahroz Quamar Satya Bhai ke status par bhi kaha tha..punah wahi bat duraunga ki mahaz ek vyakti par dosharopan sahi nahin..teen saal se ek din to sabhi sath hote the..aakhir kyon alag alag huye..iska jawab kaun dega..aur kya karan rahe uske...tamaam Vaicharik matbhedon ke ek din to apan saath hote the...

    • 2 hours ago · Edited · Like · 2

    • Pramod Sharma Ab maamla samajh me aaya....yah sthiti dukhad to hai hi... Is-se hum jaise logon ko bahut takleef hoti hai jo aap sabhi logon se prem aur aasha rakhte hain!

    • 2 hours ago · Like · 1

    • Ak Pankaj Syed Shahroz Quamar सवाल वैचारिक है. जवाब-बहस साल सकम और उन सभी संगठनों के बीच होना चाहिए था, जो 14 का जनवरी का आयोजन पहले से करता था और जिन्होंने इस 14 जनवरी को गैर-बिरादराना ढंग से हड़पने की कोशिश की. पर टारगेट हमें किया गया. हमें कटघरे में खड़ा किया ग...See More

    • 2 hours ago · Like · 2

    • Satya Prakash Chaudhary Main koi jawab doon, isse pahle agar yah saf kar diya jaye ki Randera Kumar aur Ashwini Pankaj mein takrav kyon hua, to behtar rahega.

    • about an hour ago · Like · 1

    • Janwadi Lekhak Sangh Ranchi पंकज जी आप किन 4 सांस्कृतिक संगठनों की तरफ़ इशारा कर रहे है जिसने वर्गीय चरित्र के एक संयोजक की गैर जिम्मेदाराना हरकत में साथ दिया?

    • about an hour ago · Like

    • Syed Shahroz Quamar Satya ji aapka shukriya ki baqaul aapke is vyaktigat takrao me ab aapne dusre vyakti ka naam liya..ab Pankaj ji Aur Randendr ji ko batana chahiye ki aisa kyon hua..kyonki mujh jaise dheron logon ko ye achcha qatai nahin laga.

    • 50 minutes ago · Edited · Like

    • Satya Prakash Chaudhary Isharon mein bat se achha hai, khul kar bat ho

    • 14 minutes ago · Like

    • Ak Pankaj साथी Satya, चलिए थोड़ी देर के लिए बात मान लेते हैं कि यह मामला व्यक्तिगत है. तो सवाल सिर्फ हमीं से क्यों? पहले तो आपने हरसंभव कोशिश की दूसरे व्यक्ति का नाम न आए. हमें ही टैग कर-कर के कटघरे में खड़े करते रहे. पोस्ट विनोद जी की थी. उनको क्यों नहीं टैग किया...See More

    • 13 minutes ago · Like

    • Ak Pankaj आप भी भोले नहीं हैं Janwadi Lekhak Sangh Ranchi. 14 जनवरी के समानांतर आयोजन में आपका संगठन शामिल है तो आप खूब अच्छी तरह से जानते हैं वे चार संगठन कौन हैं. और हां, साल सकम के आयोजन का आमंत्रण आपको हमने दिया था. पर एक साझा प्रयास 'साल सकम' को ध्वस्त करने की योजना और समानांतर आयोजन तय करते वक्त आपने या आपके संगठन के जो प्रतिनिधि 8 जनवरी की बैठक में शामिल हुए थे, उन्होंने इस तोड़क प्रयास पर सवाल क्यों नहीं उठाया?

    • 12 minutes ago · Like

    • Praveer Peter लगे रहो .. साथियो !

Arvind Kejriwal

Met the Home Minster, Mr. Shinde today. We have asked him to ensure that action is taken against the Delhi police officers who have been found negligent in their duties. This is to ensure that the police understand their responsibility towards the citizens of Delhi and do not allow negligence to creep in. We will protest along with citizens of Delhi outside his office starting Monday if action against the errant cops is not taken.


We have also demanded that the Delhi Police be moved under the direct control of the Delhi Govt.


Instead of hiding behind excuses, we are taking affirmative action to ensure safety & security of the people of Delhi. We will take all necessary steps to ensure that.

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Satya Narayan posted in 4 groups.

माँगपत्रक शिक्षणमाला - 6 प्रवासी मज़दूरों की दुरवस्था और उनकी माँगें मज़दूर आन्दोलन के एजेण्�

mazdoorbigul.net

काम की तलाश में लगातार नयी जगहों पर भटकते रहने और पूरी ज़िन्दगी अनिश्चितताओं से भरी रहने के कारण प्रवासी मज़दूरों की सौदेबाज़ी करने की ताक़त नगण्य होती है। वे दिहाड़ी, ठेका, कैजुअल या पीसरेट मज़दूर के रूप में सबसे कम मज़दूरी पर काम करते हैं। सामाजिक सुरक्षा का कोई भी क़ानूनी प्रावधान उनके ऊपर लागू नहीं हो…

  • Satya NarayanGround Report India Discussion Forum
  • काम की तलाश में लगातार नयी जगहों पर भटकते रहने और पूरी ज़िन्दगी अनिश्चितताओं से भरी रहने के कारण प्रवासी मज़दूरों की सौदेबाज़ी करने की ताक़त नगण्य होती है। वे दिहाड़ी, ठेका, कैजुअल या पीसरेट मज़दूर के रूप में सबसे कम मज़दूरी पर काम करते हैं। सामाजिक सुरक्षा का कोई भी क़ानूनी प्रावधान उनके ऊपर लागू नहीं हो पाता। कम ही ऐसा हो पाता है कि लगातार सालभर उन्हें काम मिल सके (कभी-कभी किसी निर्माण परियोजना में साल, दो साल, तीन साल वे लगातार काम करते भी हैं तो उसके बाद बेकार हो जाते हैं)। लम्बी-लम्बी अवधियों तक 'बेरोज़गारों की आरक्षित सेना' में शामिल होना या महज पेट भरने के लिए कम से कम मज़दूरी और अपमानजनक शर्तों पर कुछ काम करके अर्द्धबेरोज़गारी में छिपी बेरोज़गारी की स्थिति में दिन बिताना उनकी नियति होती है।

  • http://www.mazdoorbigul.net/Charter-of-demand-education-series-6

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Nityanand Gayen

पंजे की पकड़ में

http://khabar.ndtv.com/video/show/special-report/305762

स्पेशल रिपोर्ट : किसानों की आत्महत्या क्यों... वीडियो - हिन्दी न्यूज़ वीडियो एनडीटीवी ख़बर

khabar.ndtv.com

स्पेशल रिपोर्ट : किसानों की आत्महत्या क्यों... हिन्दी न्यूज़ वीडियो। एनडीटीवी खबर पर देखें समाचार वीडियो स्पेशल रिपोर्ट : किसानों की आत्महत्या क्यों... दिल्ली सरकार ने किसानों को कर्ज मुक्त करने का ऐलान किया। घोषणा के बाद लगातार किसानों की आत्महत्या का सिलसिला जारी है। किसानों पर केंद्रित यह स्पेशल…

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Palash Biswas

http://raviwar.com/baatcheet/b51_abhay-kumar-dubey-interview-by-alok-putul.shtml

अभय कुमार दुबे से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत

raviwar.com

लेखक पत्रकार अभय दुबे का मानना है कि भारत में माओवादियों का कोई भविष्य नहीं है.

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आरामतलब साहित्यकारों की फौज का महोत्सव

यह नवमध्यवर्ग भूमंडलीकरण की देन है

नई दिल्ली। जयपुर साहित्य महोत्सव के विरुद्ध अकादमिक जगत में विरोध के स्वर तेज हो रहे हैं। साहित्य के नाम पर कॉरपोरेट तमाशे के खिलाफ हिंदी के गम्भीर और सरोकारी साहित्यकारों के आवाज़ उठाई है और इस महोत्सव की आड़ में कॉरपोरेट षड़यंत्र को बेनकाब किया है। "भोर" पत्रिका की ओर से रंजीत वर्मा और अंजनी कुमार ने इस सम्बंध में एक साझा वक्तव्य जारी किया है जो इस प्रकार है-

जयपुर साहित्‍य महोत्‍सव के विरुद्ध एक वक्‍तव्‍य

जयपुर साहित्य महोत्सव महज महोत्सव नहीं है और वे भी इस बात को छिपा नहीं रहे हैं। अगर यह सिर्फ महोत्सव होता तो मौखिक भर्त्‍सना ही काफी होती या महज उपेक्षा ही इनको मार देने के लिये पर्याप्त होती। अगर मकसद सिर्फ दुनिया भर के लेखकों का आपस में मिल कर मानवता के दुख पर बात करना होता तो भला किसे आपत्ति होती। हां, इतना ज़रूर कोई कह उठता कि मानवता के दुख पर बात करने के लिये ये हर बार जयपुर को ही क्यों चुनते हैं। और वहाँ भी बातचीत के लिये महल में क्यों जा बैठते हैं। या इसी तरह के कुछ और सवाल होते जिनसे बचने के लिये हो सकता है वे अपने कार्यक्रम में कुछ तब्दीली भी ले आते, लेकिन मामला सीधे तौर पर देखा जाये तो इतना भर ही नहीं है। यहाँ वे कार्यक्रमों में कुछ बदलाव लाकर कोई सुधार नहीं कर सकते क्योकि मामला बेहद गम्भीर है और लेखकों के हाथ से बाहर है। क्योंकि वे खुद को आयोजकों के हाथों सुपुर्द किये होते हैं और सच पूछा जाये तो आयोजक की भी वहाँ कोई हैसियत नहीं होती बल्कि वह प्रायोजकों का कारिंदा भर होता है।

दरअसल, यह सारा खेल प्रायोजक का है जिसके पीछे उसकी अपनी सोची-समझी राजनीति है। लेकिन हम यह भी नहीं कह सकते कि जो लेखक वहाँ जाते हैं वे उनकी राजनीति का शिकार होते हैं क्योंकि इनमें से कई लेखकों के लेखन का आधार वही राजनीति होती है। ऐसे लेखक साहित्य में खुद को सही सिद्ध करने के लिये कॉर्पोरेट ताकत का सहारा लेने वहाँ जाते हैं जबकि जो कॉर्पोरेट ताकतें हैं वे विरोध के एकमात्र क्षेत्र साहित्य को अपने अनुकूल करना चाहती हैं, साथ ही अपनी छवि मानवीय और खुद को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रहरी के तौर पर स्थापित करना चाहती हैं। इसके अलावा ये कॉर्पोरेट ताकतें खुद को सही भी साबित करना चाहती हैं क्योंकि उनकी ताकत जिस पूँजी पर टिकी होती है उसका बहुत बड़ा भाग वे लूट, हत्या और दलाली से पैदा करती हैं। उनका तर्क होता है कि जिसका कहीं कोई विरोध नहीं होता वह सही होता है। इसलिये वे तमाम तरह के विरोध को या तो खरीदने की कोशिश करती हैं या उसे हमेशा के लिये खत्म कर देने की।

बहुत दिनों से जबकि एक ओर लोग इस बात को लेकर परेशान थे कि हिंदी साहित्य में आखिर कोई भी बड़ा साहित्यकार ऐक्टिविस्ट क्यों नहीं हुआ, वहीं दूसरी ओर कॉर्पोरेट ताकतें इस कमजोरी को सेंध लगाने के एक तैयार मौके के रूप में देख रही थीं। आज जो यह जयपुर साहित्य महोत्सव इतना विशाल दिख रहा है, उसके पीछे ऐसे आरामतलब साहित्यकारों की एक पूरी फौज का खड़ा हो जाना है जो नवमध्यवर्ग से आए हैं। यह नवमध्यवर्ग भूमंडलीकरण की देन है, और यह भूमंडलीकरण कॉर्पोरेट ताकतों की मानसिक उपज है जिसे दुनिया भर के शासक सच साबित करने पर न सिर्फ खुद तुले हैं बल्कि उन्हें भी उसने छूट दे रखी है कि वे अपनी ताकत भी अपनी इस मानसिक उपज को सच साबित करने में लगाएं।

कोई पूछ सकता है कि आखिर इन सबका अभिप्राय क्या है? तो जैसा कि ऊपर कहा गया, इन सबका एकमात्र मतलब अपनी लूट को बेरोकटोक बनाए रखना है, इसलिये वे तमाम सोचने वाले दिमागों को अपनी सोच के अनुकूल बनाना चाहते हैं। हालांकि उन्हें पता होता है कि चाहे वे जितनी भी ताकत लगाएं कई ऐसे लोग होंगे जो तब भी उनका विरोध करेंगे। ये तमाम बड़े कार्यक्रम किये ही इसलिये जाते हैं ताकि ऐसे विरोधियों को हाशिये पर फेंका जा सके, ठीक उसी तरह जैसे ये किसानों को फेंक देते हैं जब गांव के गांव हथियाने निकलते हैं; ठीक उसी तरह जैसे आदिवासियों को धकिया देते हैं जब जंगल के जंगल अपने कब्जे में करने का नक्शा कागज़ पर तैयार करते हैं।साहित्य का असल मकसद क्या है, उसे वे तय करना चाहते हैं जिसे वे स्वान्तः सुखाय से शुरू करते हैं। वे कई बार अपने यहाँ विरोध के स्वर को भी उठने देते हैं ताकि विरोधियों को लगे कि वह एक खुला मंच है और वे वहाँ जाने में कोई पाप न देखें। लेकिन यह मुआवज़े से ज्यादा कुछ नहीं होता है। जैसे वे किसानों को देते हैं, आदिवासियों को देते हैं, ठीक उसी तरह वे विरोधी विचारों को भी मुआवज़ा देने में कोई गुरेज़ नहीं करते। इस तरह वे विरोधी विचार को एक तरह से खरीद लेते हैं और उसकी धार को कुंद कर देते हैं। मुआवज़ा लेने के बाद जिस तरह किसान या आदिवासी अपनी ज़मीन या जंगल की लड़ाई जारी रखने का नैतिक अधिकार खो देता है, उसी तरह लेखक भी अपने विचार की लड़ाई फिर नहीं लड़ पाता।

''भोर'' पत्रिका ऐसे किसी भी महोत्सव, समारोहों या आयोजनों की भर्त्‍सना करती है और तमाम साहित्यकारों से अपील करती है कि वे जयपुर साहित्य महोत्सव का बहिष्कार करें और अपनी भूमिका पर गम्भीरता से विचार करें।

"भोर" पत्रिका की ओर से

रंजीत वर्मा और अंजनी कुमार द्वारा जारी


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