हरिराम मीणा जनसत्ता 29 जुलाई, 2013: भूमंडलीकरण का यह वह दौर चल रहा है जब सारे प्राकृतिक संसाधनों का फटाफट और अंधाधुंध दोहन कर लिया जाए, हो सकता है फिर ऐसा सुनहरा अवसर इन कंपनियों को मिले या न मिले। नई आर्थिक नीति की चरम परिणति जन-विरोधी वैश्वीकरण के रूप में अब सामने आ रही है। बहुराष्ट्रीय निगमों, उनको मॉडल मानने वाले देशी पूंजीपतियों और प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट में लगे राजनीतिकों, प्रशासकों और बिचौलियों को यह रास आता है कि जो लोग प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के खिलाफ आवाज उठाते हैं उन्हें ठिकाने लगाया जाए और अपना रास्ता साफ किया जाए। आदिवासी हजारों सालों से देश की प्राकृतिक संपदा के रखवाले (ध्यान रहे कि आदिवासी प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षक रहे हैं, उन्होंने कभी उनके मालिक होने का दावा नहीं किया) रहते आए हैं और अब बचे-खुचे प्राकृतिक संसाधनों पर पूंजीनायकों की गिद्ध दृष्टि को देखते हुए सवाल उठता है कि प्राकृतिक संपदा और आदिवासी समाज कहां तक सुरक्षित हैं? उपनिवेश-काल में एक ईस्ट इंडिया कंपनी ने किस कदर भारत को लूटा था यह समझदार लोगों की स्मृति से ओझल नहीं हुआ है और अब सैकड़ों बहुराष्ट्रीय कंपनियों की घुसपैठ हो चुकी है जिनका दुहरा मकसद है- एक, भारत के प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और दूसरा, भारत को उनका बाजार बना देना। भारत के आदिवासी जन भौगोलिक दृष्टि से मुख्य समाज से अलग-थलग रहते आए हैं। वे पूंजी संचालित बाजार का हिस्सा धीरे-धीरे बनेंगे, लेकिन जहां तक प्राकृतिक संसाधनों की बात की जाती है तो आदिवासी अस्तित्व का सवाल गहरे रूप में जल, जंगल और जमीन से जुड़ा हुआ मिलता है, जिसे दूसरे शब्दों में हम प्रकृति पर निर्भर जीवन कह सकते हैं। आदिवासी जंगल में रहते आए हैं। जंगल प्रकृति का आधारभूत तत्त्व है। अगर जंगल है तो पहाड़ हैं, नदियां हैं, झीलें हैं, सरोवर हैं, वनस्पतियां हैं, जंगली जानवर हैं और धरती के गर्भ में संचयित खनिज संपदा है। इसलिए जब-जब जंगल पर आंच आई तब-तब आदिवासी जन ने अपना मोर्चा संभाला। इतिहास उठा कर देखें तो पता चलता है कि आर्य-अनार्य संग्राम-शृंखला के बाद सीधा ब्रिटिश काल आता है जब जंगलों में बाहरी घुसपैठ हुई। इसका प्रतिरोध विद्रोह और संघर्षों के माध्यम से आदिवासियों ने किया और यह प्रतिरोध भारत के प्रत्येक अंचल में हुआ। मुझे नहीं लगता कि कोई अंचल अछूता रहा हो। ठेठ पूर्वोत्तर की नागारानी गाईदिल्ल्यू से सिद्दू-कानू, बिरसा मुंडा, तिलका मांझी, टंट्या मामा, गोविंद गुरु, जोरिया भक्त, ख्याजा नायक, अल्लूरि सीताराम राजू और केरल की आदिवासी किसान क्रांति। इसी क्रम में उच्च हिमालय के लेप्चा-भूटिया से अंडमान की अबेर्दीन की लड़ाई को शामिल किया जाए। बहुराष्ट्रीयकंपनियों, सत्ता और दलालों की गठबंधनी घुसपैठ के खिलाफ आज अकेला आदिवासी खड़ा है और स्वयं के लिए नहीं बल्कि देश की प्राकृतिक संपदा और राष्ट्र के लिए। भारत में वैश्वीकरण की नीतियों को लेकर करीब ढाई दशक से जोर-शोर से यह प्रचार किया जा रहा है कि सब मर्जों की यही एकमात्र दवा है। अब यह बात स्पष्ट होती जा रही है कि वैश्वीकरण के सारे फायदे राष्ट्र-समाज के भद्र वर्ग को ही मिलते आए हैं। प्रमुख शक्तियां और साधन-संसाधन इन्हीं के अधिकार में रहे हैं। जैसे, राज, धन, ज्ञान, धर्म की शक्तियां; पूंजी, बाजार, तकनीकी, उच्च शिक्षा और अन्य सुविधाएं। इस दृष्टि से भारत के आम आदमी के समाज का विश्लेषण किया जाए तो गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अच्छी शिक्षा का अभाव, स्वास्थ्य की समस्याएं, पेयजल आपूर्ति का संकट और अन्य आधारभूत सुविधाओं का अभाव दिखाई देता है। इस संदर्भ में आदिवासी समाज की दशा में सुधार नहीं के बराबर हुआ है। इससे उलट आदिवासी अंचलों में प्राकृतिक संसाधनों की जो लूट वैश्वीकरण के इस दौर में मची है उसने आदिवासी जीवन को नरकतुल्य बना दिया है जहां आधारभूत सुविधाओं, मानवाधिकारों, लोकतंत्र में साझेदारी आदि की बात तो बहुत दूर, आदिवासी समाज का अस्तित्व ही गहरे संकट में फंसता जा रहा है। 29 मई को मेधा पाटकर ने भोपाल में एक प्रेस कॉन्फें्रस में जोर देकर कहा कि अगर आदिवासी अंचलों में सरकार विकास योजनाओं को लेकर अब भी नहीं पहुंची तो नक्सलवाद को बढ़ावा मिलेगा। इसी सप्ताह छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर जबर्दस्त नक्सली हमला हुआ जिसमें छत्तीसगढ़ के पूर्व गृहमंत्री महेंद्र कर्मा सहित कई नेता हताहत हुए। नक्सलवाद के उभार को भी वैश्वीकरण के संदर्भ में देखा जा सकता है। प्रसिद्ध पत्रकार और आदिवासी विषयों के अध्येता रामशरण जोशी ने 'राजस्थान पत्रिका' (28 मई) में छपे अपने लेख में हिंसा को नकारते हुए बस्तर की समस्या को व्यापक दृष्टि से देखने का आग्रह किया है। उन्होंने ये संकेत दिए कि सरकारें चाहे कांग्रेस की हों या भाजपा की, उनके प्रति आदिवासी समाज में अविश्वास घर कर चुका है, उसे दूर करने की आवश्यकता है। आदिवासियों की जमीनों पर कब्जा, विकास के नाम पर उनका विस्थापन और विकास संबंधी सरकारी कदमों को अविश्वास की दृष्टि से देखना वह समस्या है, जो विशेष रूप से आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती है। पिछले जयपुर लिटरेचर फेस्टीवल में अगर महाश्वेता देवी यह कहती हैं कि 'नक्सलियों के भी अपने सपने हैं' तो वे प्रकारांतर से बहुत कुछ कह देती हैं जिसे समझने की जरूरत है। कोई भी हिंसा समाज क्या, सृष्टि की किसी भी योजना के विरुद्ध अपराध है। सवाल उठता है कि हिंसा का समाधान प्रतिहिंसा है या विकास का सही विकल्प? उपनिवेश-काल से पूर्व आदिवासी समाज भारतीय मुख्य समाज से अलग-थलग रहा। आदिवासी अंचलों में विकास और औपनिवेशिक विस्तार की दृष्टि से हस्तक्षेप हुआ, लेकिन आदिवासी प्रतिरोध को देखते हुए अंग्रेजों ने आदिवासी समाज को अलग-थलग रख कर ही हस्तक्षेप करने की नीति को प्राथमिकता दी, साथ ही उनका नजरिया हिकारत से भरा हुआ था। संपूर्ण आदिवासी समाज को जंगली बर्बर लोगों के समुदाय के रूप में चित्रित किए जाने का कुचक्र रचा गया। प्रसिद्ध फे्रंच लेखक हर्वे कैंफ ने अपनी पुस्तक 'हाउ द रिच आर डेस्ट्रॉइंग द प्लेनेट' की प्रस्तावना में लिखा है- 'इस दुनिया में पाए जाने वाले संसाधनों के उपभोग में हम तब तक कमी नहीं ला सकते, जब तक हम शक्तिशाली कहे जाने वाले लोगों को कुछ कदम नीचे आने के लिए मजबूर नहीं करते और जब तक हम यहां फैली हुई असमानता का मुकाबला नहीं करते। इसलिए ऐसे समय में जब हमें सचेत होने की जरूरत है, हमें 'थिंक ग्लोबली एेंड एक्ट लोकली' के उपयोगी पर्यावरणीय सिद्धांत में यह जोड़ने की जरूरत है कि 'कंज्यूम लेस एेंड शेयर बेटर।' कुछ महीने पहले दिवंगत हुए वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज ने 20 सितंबर 2006 को काराकास में संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में भाषण देते हुए विश्व जन-गण के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का संदर्भ देते हुए कहा था कि- 'मैं याद दिलाना चाहता हूं कि इस दुनिया की जनसंख्या के सात प्रतिशत (अमीर) लोग पचास प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। जबकि इसके विपरीत पचास प्रतिशत गरीब लोग, मात्र और मात्र सात प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जवाबदेह हैं।... इस दुनिया के पांच सौ सबसे अमीर लोगों की आय सबसे गरीब इकतालीस करोड़ साठ लाख लोगों से ज्यादा है। दुनिया की आबादी का चालीस प्रतिशत गरीब भाग यानी 2.8 अरब लोग दो डॉलर प्रतिदिन से कम में अपनी जिंदगी गुजर-बसर कर रहे हैं और यह चालीस प्रतिशत हिस्सा दुनिया की आय का पांच प्रतिशत ही कमा रहा है। हर साल बानबे लाख बच्चे पांच साल की उम्र में पहुंचने से पहले ही मर जाते हैं और इनमें से 99.9 प्रतिशत मौतें गरीब देशों में होती हैं।... नवजात बच्चों की मृत्यु दर प्रति एक हजार में सैंतालीस है, जबकि अमीर देशों में यह दर प्रति हजार में पांच है। मनुष्यों की जीवन प्रत्याशा सड़सठ वर्ष है, कुछ अमीर देशों में यह प्रत्याशा उन्यासी वर्ष है, जबकि कुछ गरीब देशों में यह मात्र चालीस वर्ष है। इन सबके साथ ही 1.1 अरब लोगों को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं है। 2.6 अरब लोगों के पास स्वास्थ्य और स्वच्छता की सुविधाएं नहीं हैं। अस्सी करोड़ से अधिक लोग निरक्षर हैं और एक अरब दो करोड़ लोग भूखे हैं। यह है हमारी दुनिया की तस्वीर।' इन्हीं हालात को देखते हुए क्यूबा के दिवंगत राष्ट्रपति फिदल कास्त्रो ने जोर देकर कहा था 'एक प्रजाति खात्मे के कगार पर है और वह है मानवता।' रोजा लग्जमबर्ग का कहना है कि अगर पृथ्वी को बचाए रखना है तो बर्बर पूंजीवाद का एक ही विकल्प है वह है समाजवाद। सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका की अगुआई में एक मुहिम के तहत अग्रसर पूंजीवाद साम्राज्यवाद को करीब पचीस वर्ष होने जा रहे हैं। इसी चौथाई शताब्दी में अमेरिका ने जो बेलगाम दादागीरी की है उसके ज्वलंत उदाहरण इराक, अफगानिस्तान, मिस्र, लीबिया, सीरिया और लातिन अमेरिका के राष्ट्रों की संप्रभुता में सेंध आदि हैं, लेकिन यह सब कुछ होते हुए भी पश्चिमी राष्ट्रों के साम्यवादी-समाजवादी दलों की सदस्यता में वृद्धि, 2012 के चुनाव में यूनान में तेजी से उभरी रेडिकल वामपंथी पार्टी सिरिजा, अरब देशों में अमेरिका के विरुद्ध शत्रुगत भावना का फैलाव, दक्षिणी अमेरिकी देशों में अमेरिका विरोधी माहौल और अमेरिकी धमकी के खिलाफ उत्तरी कोरिया की चुनौती आदि को देखते हुए दुनिया के हर क्षेत्र में इस नवसाम्राज्यवाद के क्रूर यथार्थ का पर्दाफाश करने और बेहतर विकल्प ढूंढ़ने के प्रयास जारी हैं। वैश्वीकरण बनाम प्रकृति और आदिवासी की अवधारणा को समझने के लिए जाने-माने ग्लोबल इन्वेस्टर जेरेमी ग्रेंथम कहते हैं कि 'सभी संसाधनों के अंधाधुंध उपयोग से हमारी ग्लोबल अर्थव्यवस्था ऐसे कई संकेत दर्शा रही है जिनके कारण हमसे पहले कई सभ्यताएं धराशायी हो चुकी हैं।' माइक्रोसॉफ्ट धनपति बिल गेट्स ने पिछले दिनों प्रायश्चित करते हुए कहा है कि 'पूंजी को अब मानवीय चेहरे के साथ आना चाहिए।' स्पष्ट है कि पूंजी की वैश्विक भूमिका मनुष्य-विरोधी रही है। आज सवाल आदिवासी का होने के साथ-साथ राष्ट्र का है और राष्ट्र के आगे प्रकृति और अंतत: पृथ्वी का। इसलिए सवाल हम सब का है। जो तटस्थ हैं या रहेंगे वे भी बच नहीं सकते। |
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