BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Welcome

Website counter
website hit counter
website hit counters

Saturday, June 29, 2013

हिमालय पर घात

हिमालय पर घात

Saturday, 29 June 2013 11:02

श्रुति जैन 
जनसत्ता 29 जून, 2013: उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में तबाही अभी थमी नहीं है और प्रधानमंत्री जम्मू कश्मीर में साढ़े आठ सौ मेगावाट की जलविद्युत परियोजना का उद्घाटन कर आए हैं। विकास के नाम पर पिछले कुछ साल से जिस गति से पूरे हिमालय क्षेत्र में इन परियोजनाओं को बढ़ावा मिलता रहा है वह भयानक है। सभी प्रस्तावित परियोजनाएं क्रियान्वित हो जाएं तो हिमालय दुनिया में सबसे ज्यादा बांध घनत्व वाला क्षेत्र हो जाएगा। गंगा घाटी में सबसे ज्यादा बांध होंगे- हर अठारह किलोमीटर पर एक बड़ा बांध। ब्रह्मपुत्र में पैंतीस किलोमीटर पर और सिंधु में छत्तीस किलोमीटर पर बड़ा बांध। 
शोधकर्ताओं ने यह अनुमान सिर्फ 292 बड़े बांधों को ध्यान में रख कर लगाया है, जबकि हिमालय में लगभग दोगुने बड़े बांध और 'रन आॅफ दा रिवर' नाम से हजारों  बड़ी-छोटी परियोजनाएं बन रही हैं। इनके चलते लाखों हेक्टेयर घने जंगल नष्ट हो रहे हैं और पहाड़ खोखले। उत्तराखंड में ही 558 परियोजनाएं बन रही हैं। एक तरह से पहाड़ का मूल स्वरूप ही खत्म किया जा रहा है। चीन, भारत, नेपाल, पाकिस्तान, भूटान में जैसे होड़ चल रही है कि कौन सबसे ज्यादा और सबसे पहले हिमालयी नदियों पर कब्जा करेगा। 
जनजीवन और प्रकृति के नुकसान के बावजूद ऐसी परियोजनाओं को क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है? चाहे बिजली की कभी न खत्म होने वाली आवश्यकता के नाम पर हो या 'पिछड़े' हिमालयी राज्यों के विकास का तर्क, मूल में है निजी कंपनियों के लाभ के रास्ते खोलना। भले प्राकृतिक संसाधनों और उन पर निर्भर लोगों का अस्तित्व ही न रहे। 
शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी योजनाओं में निवेश के बजाय बड़ी परियोजनाओं जैसे बांध आदि में निवेश करना हमेशा से फायदेमंद माना जाता रहा है, क्योंकि इनका लाभ लंबे समय तक मिल सकता है। पर दीर्घकालीन लाभ की धारणा तथ्यों के आधार पर सही नहीं ठहरती। दरअसल, विकास का यह ढांचा इस सच्चाई को अनदेखा कर देता है कि बड़ी परियोजनाएं बनाने वालों और उनसे प्रभावित होने वालों के बीच साधनों, संसाधनों और अधिकारों का बड़ा फासला रहता है। और परियोजना के जरिए समाज की इस असमानता में वृद्धि ही होती है। एक वर्ग के नुकसान से दूसरे वर्ग का फायदा। असमानता को दूर करने के प्रयत्न के बजाय, होता यह है कि जमीन, नदियां, जंगल आदि सामूहिक अधिकार के संसाधन कुछ कंपनियों और धनाढ्यों के कब्जे में चले जाते हैं। किसान, मछुआरे, जंगल और चराई भूमि पर निर्भर अन्य गांव वाले कंगाल हो जाते हैं। यह प्रक्रिया यहीं नहीं रुकती। अबाध दोहन से पीड़ित प्रकृति के कोप की गाज भी सामान्य जनता पर ही अधिक गिरती है। 
लंबे समय से नर्मदा बचाओ आंदोलन और टिहरी बांध विरोधी आंदोलन आदि बड़े बांधों का विरोध करते रहे। इतने वर्षों के संघर्ष के प्रत्युत्तर में सरकार ने एक आसान तरीका अपनाया। उसने विकल्प की बात को आंशिक तरीके से अपने ढंग से इस्तेमाल किया। कहा गया कि अब छोटी परियोजनाओं पर- रन आॅफ द रिवर परियोजनाओं- पर बल दिया जाएगा। हिमालय खासकर उत्तराखंड में, जितनी संख्या में ये परियोजनाएं बन रही हैं, वे किसी भी तरह पर्यावरण या लोगों के हित में नहीं हैं। आंदोलनों ने विकल्प देते हुए सिर्फ 'छोटेपन' पर बल नहीं दिया, बल्कि इन परियोजनाओं को गांव के लोगों द्वारा और उनके स्वामित्व में बनाए जाने पर बल दिया है। इससे उलट उत्तराखंड में ऐसी सभी परियोजनाएं निजी कंपनियां बना रही हैं। 
राज्य के लोगों में निजी कंपनियों के गैर-जिम्मेदाराना रवैए पर खासा आक्रोश रहा है। दरअसल, ऐसी-ऐसी कंपनियों को परियोजना बनाने की स्वीकृति मिली है जिनके पास न इस बारे में कोई विशेषज्ञता है न अनुभव। इनमें कपड़ा बनाने वाली कंपनी से लेकर चीनी मिल तक शामिल हैं। 
कुछ मामलों में यह भी देखा गया है कि कंपनी को स्वीकृति तो मिल गई है, पर वह कहां और किस नदी पर काम शुरू करेगी यह तय नहीं है। राज्य में नदी किनारे से रेत खनन पर कानूनन मनाही है। स्थानीय लोगों को घर आदि बनाने के लिए रेत उपलब्ध नहीं। पर कंपनियां न सिर्फ बेरोकटोक खनन करती हैं, बल्कि निर्माण कार्य में निकले पत्थर, मिट्टी, कचरे आदि को सीधे नदी में डाल देती हैं। 
तेज गति से गंगोत्री और अन्य हिमालयी ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इससे नदियों के बहाव में भारी फेरबदल हो रहे हैं। नेपाल में पिछले पच्चीस सालों में ग्लेशियर पिघलने से बनी झीलों के फूटने से बीस बार बाढ़ आई है। बाढ़ के खतरे बढ़ रहे हैं। उत्तराखंड भूकम्प की दृष्टि से अति संवेदनशील है। राष्ट्रीय भूभौतिकी शोध संस्थान के अनुसार, टिहरी की झील से वहां भूकम्प का खतरा बहुत बढ़ गया है। फिर, पहाड़ी नदियों में गाद भारी मात्रा में आती है। इस सबके चलते परियोजनाओं की उत्पादकता, क्षमता और सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न लगता है। 
लेकिन मुनाफे की होड़ में यह फिक्र दरकिनार कर दी गई है कि परियोजना लंबे समय तक चले। न चले तो भी कुछ ही साल में कंपनी को अच्छा-खासा मुनाफा हो जाता है, फिर निर्माण-कार्य के दौरान वित्तीय सहायता भी मिलती है। बीच के कितने ही लोगों- दलाल, इंजीनियर- वगैरह को फायदा होता है। बाद में परियोजना के दावे पूरे न हों, तो भी क्या फर्क पड़ता है! टिहरी जैसे विशालकाय बांध से, उसकी क्षमता के आधे से कम ही बिजली बन पा रही है।   
इतनी बड़ी संख्या में परियोजनाएं होने से नदियां खत्म हो रही हैं। परियोजनाओं का डिजाइन ही ठीक नहीं। छोटी हों या बड़ी, सभी परियोजनाएं 'रन आॅफ द रिवर' होने का दावा करती हैं। लेकिन असल में ये सभी नदी के बहाव को बिजली बनाने में इस्तेमाल करने के बजाय, बांध बना कर पहाड़ों की घुमावदार नदियों को पूरा का पूरा सुरंग में डाल कर बिजली बना रही हैं। पहाड़ों में विस्फोट और बोरिंग से कई किलोमीटर लंबी सुरंगें बनती हैं। 

सुरंग में नदी का पानी पहले ऊपर की तरफ ले जाया जाता है, फिर ऊंचाई से सुरंग द्वारा ही यह पानी टरबाइन पर छोड़ा जाता है। इतने किलोमीटर में नदी अपने प्राकृतिक बहाव में न रह कर सुरंग में कैद रहती है। कंपनियां नदी का कुछ भी प्रतिशत बहने देना अपना नुकसान समझती हैं। एक परियोजना के पॉवर हाउस के खत्म होने के साथ ही दूसरी परियोजना के बांध की शुरुआत कर देने की योजना है। छोटी परियोजना में हालांकि बांध की ऊंचाई कम रहती है। पर उसकी सुरंग अपेक्षया बड़ी बनानी पड़ती है, क्योंकि पानी को अधिक ऊंचाई से गिराने की जरूरत पड़ती है। इसलिए नदी का फिराव बड़ी परियोजना के मुकाबले छह गुना तक ज्यादा हो सकता है। एक अनुमान के अनुसार उत्तराखंड के पहाड़ों में पंद्रह सौ किलोमीटर लंबी सुरंगें बनेंगी और उनके ऊपर बसे अट््ठाईस लाख लोग प्रभावित होंगे! 
रन आॅफ द रिवर परियोजनाओं के प्रोत्साहन में सरकार का तुरुप का इक्का यह रहा है कि इनसे न तो विस्थापन होगा और न अन्य किसी तरह का प्रतिकूल प्रभाव। इसलिए उत्तराखंड में सौ मेगावाट तक की परियोजनाओं को न तो पर्यावरणीय स्वीकृति की जरूरत है और न ही कोई पुनर्वास योजना बनाने की। सरकार का पूरा प्रयास है कि कंपनियों के रास्ते की थोड़ी-बहुत 'अड़चन', जो पर्यावरणीय मंजूरी और पुनर्वास की जिम्मेदारी के रूप में देखी जाती है, को भी हटा दिया जाए। हर जिम्मेदारी से मुक्त कंपनियां कौड़ी के मोल पहाड़वासियों की न सिर्फ जमीन, जंगल और नदियों पर कब्जा कर रही हैं, बल्कि होटल और रिसॉर्ट बना कर पूरी स्थानीय अर्थव्यवस्था पर ही नियंत्रण करने की कोशिश में हैं।
इतनी सारी परियोजनाओं के कारण पहाड़ कमजोर हुए हैं। बादल फटने (यानी कुछ ही समय में एक जगह पर अत्यधिक बारिश) और भूस्खलन से जान-माल का बहुत नुकसान हुआ है। मगर बाढ़ की स्थिति परियोजना के बैराज टूटने आदि के कारण और भयावह हो जाती है। बाढ़ और भूस्खलन के खतरे बढ़ाने के अलावा भी इन परियोजनाओं ने स्थानीय जीवन को बहुत नुकसान पहुंचाया है। चालू परियोजनाओं के प्रभावित क्षेत्रों में भू-धंसान, घरों में दरारें पड़ने और पानी के स्रोत गायब होने का क्रम जारी है। 
जोशीमठ के पास जेपी कंपनी की अलकनंदा पर बन चुकी परियोजना के चलते पूरा का पूरा चाई गांव धंस गया। कंपनी को क्षतिपूर्ति के लिए कहने के बजाय सरकार ने गांव वालों को आपदा के नाम पर मात्र तीन लाख रुपए में टरका दिया। क्या इतने पैसों में घर बनाने, आजीविका चलाने का कोई फॉर्मूला भी है उनके पास? गांव में बेशक पीने का पानी नहीं, पर जेपी की टाउनशिप को सीधे सुरंग से पानी की आपूर्ति होगी। गांव वालों को कहा गया कि सुरंग से कोई खतरा नहीं, पर कंपनी ने अपनी टाउनशिप दूसरे किनारे सुरक्षित जगह बनाई है। किनारे पर बाड़ लगा कर नदी तक लोगों की पहुंच बाधित कर दी गई है। हद तो यह है कि गांव के रास्ते की जमीन यह कह कर कब्जे में ले ली गई कि सड़क बनाएंगे। अब वहां से आवाजाही पर भी कंपनी का नियंत्रण है। 
इससे कुछ ही नीचे टीएचडीसी की विष्णुगाड-पीपलकोटि परियोजना के विस्फोट (ब्लास्टिंग) से घरों की नींव हिल गई है। गांव के आसपास के पानी के स्रोत गायब होने से जनजीवन बेहाल है। ब्लास्टिंग से डर कर और ऊपर के जल-स्रोतों के प्रभावित होने से जंगली भालू आदि नीचे गांव की तरफ आते हैं। कुछ ने गांव वालों पर हमला भी किया है। बहुत-से स्थानों पर जंगली सूअरों के कारण खेती बरबाद है। पहाड़ों के नीचे ही पूरे के पूरे पॉवर हाउस बनाए जा रहे हैं। 
बिजली की ज्यादा क्षमता के तारों के नीचे की गांव की जमीन बंजर हो रही है। रुद्रप्रयाग के पास मंदाकिनी नदी पर लार्सन ऐंड टूब्रो कंपनी की परियोजना ने गांव के वर्षों के प्रयत्नों से लगे जंगल को तबाह किया है। भिलंगना नदी पर बनी 'छोटी' परियोजना के कारण फालिंडा गांव के लोगों को खेती के लिए पानी नसीब नहीं, क्योंकि नदी का पानी सुरंग में चला गया है और कई किलोमीटर आगे ही वापस नदी में डाला जाता है। 
यह सब देख कर प्रश्न उठता है कि कौन निश्चय करेगा कि नदियों का कितना दोहन किया जा सकता है? यह मान लेना कि अब कुछ भी करके बिजली बनानी ही होगी और अच्छा होगा कि बहती, इसलिए 'व्यर्थ' होती नदी को इस काम में लिया जाए, तर्कसंगत नहीं। 
उत्तराखंड में पानी की कमी से खेती मुश्किल है। फिर, बहुत कम खेती की जमीन बची है। पहले ही यहां छह राष्ट्रीय पार्क और छह अभयारण्य हैं, जिनके आसपास के इलाके पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील घोषित किए गए हैं। पर इससे ठीक उलट, उत्तराखंड में पर्यावरण-प्रतिकूल परियोजनाएं धड़ल्ले से बनती रही हैं। क्या यह राज्य सिर्फ कंपनियों के फायदे के लिए बना था? लोगों ने उत्तराखंड राज्य के लिए इसलिए संघर्ष किया था ताकि वहां के प्राकृतिक संसाधनों पर उनका अधिकार हो, पहाड़ी जीवन के अनुसार ही इनका प्रबंधन हो सके। लंबे समय से लोग वहां घराट और छोटी-छोटी पनबिजली योजना चला रहे थे। इस तरह के उपक्रमों को नष्ट कर, पहाड़ के साथ क्रूर और छलपूर्ण बर्ताव स्वीकार्य कैसे हो सकता है?
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/47996-2013-06-29-05-33-30

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...