BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Thursday, June 6, 2013

गुम होती टॉपर बेटियां

गुम होती टॉपर बेटियां


पढ़ी-लिखी बेटियों में से महज 15 प्रतिशत ही कामकाजी बन पाती हैं, जबकि इनमें स्थायी तौर पर और थोड़ी अवधि (3-6 महीने, कुछ साल) तक काम करने वाली महिलाएं भी शामिल हैं. कहां गुम हो जाती हैं ये टॉपर बेटियां, कहां दफन हो जाते हैं उनके सपने....

लीना


इन दिनों परीक्षा परिणामों का दौर रहा है. बेटियां इतिहास रच रही हैं, अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रही हैं. लगभग सभी परीक्षाओं में लड़कों के मुकाबले वे ही अव्वल आ रही हैं, टॉप कर रही हैं. छात्राओं के उत्तीर्ण होने का प्रतिशत भी छात्रों की अपेक्षा अधिक ही रह रहा है. सीबीएससी 10वीं की परीक्षा में 99 फीसदी छात्राएं पास हुईं हैं, तो 12वीं में भी 85 फीसदी, जबकि केवल 73 प्रतिशत लड़के पास हुए. बिहार में तो सीबीएससी 12वी बिहार और बिहार बोर्ड के तीनों संकायों विज्ञान, कला और कामर्स में न सिर्फ उन्होंने बाजी मारी है, बल्कि तीनों में टॉप भी किया है. कला संकाय में तो टॉप 20 में 19 लड़कियां ही हैं.

school-girls

इन परिणामों ने बेटियों को हौसला दिया है और उन्हें सपने देखने का हक भी. कोई वैज्ञानिक बनना चाहती है तो कोई प्रशासनिक अधिकारी, कोई डॉक्टर-इंजीनियर तो कोई सीए, शिक्षिका... जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़कर काम करने का, खुद के पांव पर खड़े होने का और परिवार को संबल देने का- बेटियां अब सपने देख रही हैं.

बहुत खूब! लेकिन क्या ये सपने सचमुच साकार हो पाते हैं, हो पाएंगे? या कि आगे चलकर हमारे पुरूष सत्तात्मक समाज में अपने सपनों की कुर्बानी देकर उन्हें ही फिर 'घर बैठना' पड़ जाएगा.

अब तक के आंकड़े तो यही कहते हैं. एक ओर दसवीं में 99 फीसदी पास होने वाली बेटियां हैं, तो दूसरी ओर हमारे देश के शहरों में मात्र 15.4 प्रतिशत ही कामकाजी महिलाएं हैं. देश के ग्रामीण क्षेत्र में जरूर 30 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं हैं, जिनकी बदौलत ग्रामीण और शहरी क्षेत्र दोनों में मिलाकर जरूर औसतन 25 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं हो जाती हैं. कामकाजी महिलाओं का आंकड़ा ऐसा इसलिए नजर आता है कि गांवों में खेतों में मजदूरी का काम करने वाली महिलाओं की संख्या काफी है. ग्रामीण कृषि महिला मजदूरों का प्रतिशत करीब 49 है. और इनमें शायद ही 99 फीसदी पास होने वाली बेटियां हों.

देखा जाए तो इन पढ़ी-लिखी बेटियों में से महज 15 प्रतिशत ही कामकाजी बन पाती हैं, जबकि इनमें स्थायी तौर पर और थोड़ी अवधि (3-6 महीने, कुछ साल) तक काम करने वाली महिलाएं भी शामिल हैं.

तो कहां गुम हो जाती हैं ये टॉपर बेटियां? कहां दफन हो जाते हैं उनके सपने? कुछ को तो इससे आगे उच्च शिक्षा पाने का ही मौका नहीं मिल पाता है, विभिन्न कारणों से. जबकि किसी तरह पास कर गए बेटों को भी हमारा समाज किसी न किसी तरह उच्च शिक्षा में दाखिला दिलवा ही देता है. जबकि बेटियों को किसी तरह विदा कर देने की जिम्मेवारी समझने वाला समाज उसे साधारण शिक्षा दिलाकर उन्हें ब्याहकर 'मुक्ति' पा लेता है.

हां, कई बेटियां आगे मनमुताबिक पढ़ पाती हैं. लेकिन उनमें से भी अधिकतर आगे चलकर घर-परिवार की जिम्मेदारियों में ही बांध दी जाती हैं/ बंधने को विवश कर दी जाती हैं. और इस तरह देश की जनगणना में कामकाजी महिलाओं वाले खाने में रहने की बजाय उनकी गिनती ही कहीं नहीं रह जाती है.

आखिर इनकी चाहतें हकीकत क्यों नहीं बन पातीं? क्यों नहीं मिल पाती इनके सपनों को उड़ान? सवाल एक है, वजहें कई-कई. और इनके जबाव न सिर्फ हमें तलाशने होंगे, बेटियों को जबाव देना भी होगा.

leenaलीना सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखती हैं.

http://www.janjwar.com/campus/31-campus/4060-gum-hoti-topper-betiyan-by-leena-for-janjwar

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