BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Wednesday, May 15, 2013

अंधेरे की शिनाख्त के कवि मुक्तिबोध

अंधेरे की शिनाख्त के कवि मुक्तिबोध

अंधेरे से लड़ने के लिए अंधेरे को समझना जरूरी होता है. 'अंधेरे में' कविता अंधेरे को समझने और समझाने वाली कविता है. यह बातें प्रो. मैनेजर पांडेय ने मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' के प्रकाशन के पचास वर्ष के मौके पर कहीं. जन संस्कृति मंच की ओर से गांधी शांति प्रतिष्ठान में 'लोकतंत्र के अंधेरे में आधी सदी' विषयक गोष्ठी में मैनेजर पांडेय ने आगे कहा कि कई बार 'फैंटेसी' असहनीय यथार्थ के खिलाफ एक बगावत भी होती है. इस कविता में फैंटेसी पूंजीवादी सभ्यता की समीक्षा करती है.
kavita-goshthi
आलोचक अर्चना वर्मा ने कहा कि मौजूदा प्रचलित विमर्शों के आधार पर इस कविता को पढ़ा जाए, तो हादसों की बड़ी आशंकाएं हैं. जब यह कविता लिखी गई थी, उससे भी ज्यादा यह आज के समय की जटिलताओं और तकलीफों को प्रतिबिंबित करने वाली कविता है. ऊपर से दिखने वाली फार्मूलेबद्ध सच्चाइयों के सामने सर झुकाने वाली 'आधुनिक 'चेतना के बरक्स मुक्तिबोध तिलस्म और रहस्य के जरिये सतह के नीचे गाड़ दी गयी सच्चाइयों का उत्खनन करते हैं. यह यह एक आधुनिक कवि की अद्वितीय उपलब्धि है.


वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि सामाजिक बेचैनी की लहरों ने हमें दिल्ली में ला पटका था, हम कैरियर बनाने नहीं आए थे. उस दौर में हमारे लिए 'अंधेरे में' कविता बहुत प्रासंगिक हो उठी थी. इस कविता ने हमारी पीढ़ी की संवेदना को बदला और अकविता की खोह में जाने से रोका. हमारे लोकतंत्र का अंधेरा एक जगह कहीं घनीभूत दिखाई पड़ता है तो इस कविता में दिखाई पड़ता है. पिछले पांच दशक की कविता का भी जैसे केंद्रीय रूपक है 'अंधेरे में'. यह निजी संताप की नहीं, बल्कि सामूहिक यातना और कष्टों की कविता है.

चित्रकार अशोक भौमिक ने मुक्तिबोध की कविता के चित्रात्मक और बिंबात्मक पहलू पर बोलते हुए कहा कि जिस तरह गुएर्निका को समझने के लिए चित्रकला की परंपरागत कसौटियां अक्षम थीं, उसी तरह का मामला 'अंधेरे में' कविता के साथ है. उन्होंने कहा कि नक्सलबाड़ी विद्रोह और उसके दमन तथा साम्राज्यवादी हमले के खिलाफ वियतनाम के संघर्ष ने बाद की पीढि़यों को 'अंधेरे में' कविता को समझने के सूत्र दिए. 'अंधेरे में' ऐसी कविता है, जिसे सामने रखकर राजनीति और कला तथा विभिन्न कलाओं के बीच के अंतर्संबंध को समझा जा सकता है.

समकालीन जनमत के प्रधान संपादक और आलोचक रामजी राय ने कहा कि मुक्तिबोध को पढ़ते हुए हम अंधेरे की नींव को समझ सकते हैं. पहले दिए गए शीर्षक 'आशंका के द्वीप अंधेरे में' में से अपने जीवन के अंतिम समय में आशंका के द्वीप को हटाकर मुक्तिबोध ने 1964 में ही स्पष्ट संकेत दिया था कि लोकतंत्र का अंधेरा गहरा गया है. 'अँधेरे में' अस्मिता या म‍हज क्रांतिचेतना की जगह नए भारत की खोज और उसके लिए संघर्ष की कविता है. मुक्तिबोध क्रांति के नियतिवाद के कवि नहीं हैं, वे वर्तमान में उसकी स्थिति के आकलन के कवि हैं. 

विचार गोष्ठी का संचालन जसम, कविता समूह के संयोजक आशुतोष कुमार ने किया. इस मौके पर कहानीकार अल्पना मिश्र, कवि मदन कश्यप, कथाकार महेश दर्पण, ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक दिनेश मिश्र, कवि रंजीत वर्मा, युवा आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी, वरिष्ठ कवयित्री प्रेमलता वर्मा, शीबा असलम फहमी, दिगंबर आशु, यादव शंभु, अंजू शर्मा, सुदीप्ति, स्वाति भौमिक, वंदना शर्मा, विपिन चौधरी, भाषा सिंह, मुकुल सरल, प्रभात रंजन, गिरिराज किराडू, विभास वर्मा, संजय कुंदन, चंद्रभूषण, इरफान, हिम्मत सिंह, प्रेमशंकर, अवधेश, संजय जोशी, रमेश प्रजापति, विनोद वर्णवाल, कपिल शर्मा, सत्यानंद निरुपम, श्याम सुशील, कृष्ण सिंह, बृजेश, रविप्रकाश, उदयशंकर, संदीप सिंह, रोहित कौशिक, अवधेश कुमार सिंह, ललित शर्मा, आलोक शर्मा, मनीष समेत कई जाने-माने साहित्यकार, बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी और प्रकाशक मौजूद थे. 

आयोजन की शुरुआत रंगकर्मी राजेश चंद्र द्वारा 'अंधेरे में' के पाठ से हुई और चित्रकार अशोक भौमिक के 'अंधेरे में' के अंशों पर बनाए गए पोस्टर को आलोचक अर्चना वर्मा ने तथा मंटो पर केंद्रित 'समकालीन चुनौती' के विशेषांक को लेखक प्रेमपाल शर्मा ने लोकार्पित किया. 

प्रस्तुति- सुधीर सुमन

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