BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Wednesday, May 15, 2013

स्व-घोषित शिक्षकों और उपदेशकों के नाम

स्व-घोषित शिक्षकों और उपदेशकों के नाम

  To the Self-proclaimed Teachers and Preachers : debate on 'Caste Question and Marxism' का हिन्दी अनुवाद

अभिनव सिन्हा

आनंद तेलतुंबडे ने हमारे बारे में अपना फैसला सुना दिया है। उन्होंने हमें ''जड़ बुद्धि'' के साथ''आत्म-मुग्ध मार्क्सवादी'' कहा है। अब हम क्या कह सकते हैं? जैसा कि वह खुद स्वीकार करते हैं कि कुछ घण्टों के लिये ही वह संगोष्ठी में रुके थे और इस थोड़े-से समय में ही वह हमारे बारे में एक सुनिश्चित अवधारणा तक पहुँचने में सक्षम रहे और अन्ततः अपना फैसला सुना दिया। हालाँकि, उनसे इस छोटी-सी मुलाकात के दौरान हम भी श्रीमान तेलतुम्बडे के बारे में कुछ राय बनाने में सक्षम रहे। हम कुछ उदाहरणों से शुरू करेंगे और फिर श्रीमान तेलतुम्बडे के लेख का पैरा-दर-पैरा जवाब देंगे।

"आत्म-मुग्धता" और ऐसी ही बीमारियों के विषय में…..

1. चण्डीगढ़ संगोष्ठी के अपने पहले वक्तव्य में श्रीमान तेलतुम्बडे करीब एक घण्टे तक बोले। इस लम्बे भाषण में उन्होंने अपना नाम कम से कम तीन से चार बार लिया। उन्होंने शुरुआत यह दावा करते हुये किया, "अम्बेडकरवादी कहते हैं कि आनंद तेलतुम्बडे मार्क्सवादी है और मार्क्सवादी कहते हैं कि आनंद तेलतुम्बडे अम्बेडकरवादी है!" एक जगह वह कहते हैं, "मैं उन लोगों को पसन्द नहीं करता हूँ जो तुरन्त मुझसे सहमत हो जाते हैं"; दूसरी जगह, "मैंने अतिरिक्त मूल्य से सम्बन्धित गणित की एक समस्या देखी जिसे मार्क्स ने बीजगणित का प्रयोग करके हल किया था, लेकिन मैंने पाया कि यह समस्या तो अवकलन समीकरण की थी और तब मैं सोच में पड़ गया कि आखिर मार्क्स ने इसे बीजगणित का प्रयोग करके हल क्यों किया?… फिर मैंने इसे अवकलन समीकरण का प्रयोग करके हल किया और एक अन्तर्राष्ट्रीय जर्नल को भेजा और यह मेरा पहला पेपर था जो एक अन्तर्राष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित हुआ (खी-खी)….. कई वर्षों बाद जब मैं आई.आई.टी. में था मैंने पाया कि एक जापानी वैज्ञानिक ने मेरी पद्धति का प्रयोग अपने शोध कार्य के लिये किया।" फिर यह, "मैं सात वर्ष की उम्र में ही मार्क्सवादी बन गया था और मुझे ऐसा नहीं लगता कि यहाँ पर मौजूद लोगों में कोई भी उस उम्र में मार्क्सवादी बना होगा।" ऐसे अन्य कई उदाहरण दिये जा सकते हैं। हालाँकि, उपरोक्त उदाहरण यह दिखाने के लिये पर्याप्त हैं कि आत्म-मुग्धता या "खुद पर फिदा होना" क्या होता है। मुझे लगता है आनंद तेलतुम्बडे ने पूरी ईमानदारी का परिचय दिया जब उन्होंने यह स्वीकार किया कि वह अपने आप को चण्डीगढ़ जाने के लिये कोसते हैं। लेकिन इस दिखावटीआत्म प्रवंचना (self bashing) के पीछे जो कारण वह दे रहे हैं वे हमें युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होते। इस आत्म प्रवंचना (self bashing) के पीछे के कारणों की हमारी कुछ अलग व्याख्या है जिस पर हम बाद में आयेंगे। इस समय तो हम बस इतना ही कहना चाहेंगे कि श्रीमान तेलतुम्बडे को यह बताना चाहिये कि "आत्म-मुग्धता" से उनका अभिप्राय क्या है। अगर वह शब्दकोश के अर्थ के अनुसार चल रहे हैं तो निश्चय ही उन्हें अपने रवैये पर संजीदगी से ग़ौर फरमाने की ज़रूरत है।

उनका यह दावा है कि हम खुली और निष्पक्ष बहस के लिये तैयार नहीं थे और अपने अप्रोच पेपर को समृद्ध करने के लिये हम अन्य लोगों की सहभागिता को प्रोत्साहित नहीं कर रहे थे। हालाँकि, वह इस आरोप के लिये कोई वाजिब वजह नहीं बताते हैं। उदाहरणार्थ, यदि हम अपने अप्रोच पेपर के ऊपर खुली और निष्पक्ष बहस के लिये तैयार नहीं होते, तो हम श्रीमान तेलतुम्बडे को जालंधर से लेकर नहीं आते (उन्होंने खुद ही यह कहा था कि अगर हम कुछ घण्टों के लिये भी संगोष्ठी में उनकी सहभागिता चाहते हैं तो हमें उनको जालंधर से चण्डीगढ़ लाने और उसी शाम को जालंधर वापस गाड़ी से छोड़ने का इन्तज़ाम करवाना होगा!) और उन्हें वापस जालंधर छोड़ते। अपने वक्तव्यों में भी हमने यह साफ-साफ कहा कि हम उनको सुनना और उनसे सीखना चाहते हैं। हमारे मन में उनके लिये काफी सम्मान था (और अभी भी है)। अपने कुछ ही घण्टों के ठहरने के दौरान उन्होंने लगभग डेढ़ घण्टे तक बोला और हमने बिना किसी व्यवधान के उनको सुना और अन्त में भी हमने उनके सामने कुछ समय और रुकने व कुछ और बातें साझा करने के लिये भी कहा। अगर हम हर चीज़ पर वाद-विवाद और चर्चा करने के लिये खुले नहीं होते तो क्या हम संगोष्ठी में उनकी सहभागिता सुनिश्चित करने के लिये इस हद तक गये होते। हालाँकि उनके पहले वाक्य के साथ ही हमारी सारी उम्मीदें भुरभुरा कर गिर गयीं। उन्होंने जो बातें कहीं उनसे हम सहमत नहीं हो सकते थे और हमने उनकी आलोचना रखी भी। लेकिन मुझे लगता है श्रीमान तेलतुम्बडे अपनी आलोचना सुनने के आदी नहीं हैं और उन्हें यह आलोचना सुनने में दिक्कत हुयी। उन्होंने अपने दूसरे वक्तव्य में असहमति की एक बात तक नहीं कही और उन्होंने जो भी कहा वह मेरे और सुखविन्दर द्वारा रखे गये तर्कों और साथ ही हमारे अप्रोच पेपर में लिखी गयी बातों के साथ सहमति जताते हुये ही कही गयीं थीं। मैं श्रीमान तेलतुम्बडे के इस आरोप को पूरी तरह बेबुनियाद मानता हूँ कि हम सही सिद्ध होने के प्रति उन्मादग्रस्तता के शिकार थे। अपने दूसरे वक्तव्य के बाद भी, उन्होंने पूरी संगोष्ठी को संचालित किये जाने के तौर-तरीके के ऊपर अपनी कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं करायी। वास्तव में, हमने (मैंने और श्रीमान तेलतुम्बडे ने) व्यक्तिगत रूप से अपने मोबाइल नम्बर एक-दूसरे को दिये और वह दिल्ली आकर लम्बी चर्चा करने के लिये तैयार भी हुये। हालाँकि, श्रीमान तेलतुम्बडे इस सम्बन्ध में अपने लेख में पूरी तरह चुप्पी साध गये हैं। हम आश्चर्यचकित हैं।

श्रीमान तेलतुम्बडे के लेख का पैरा-दर-पैरा जवाब…

हम पहले पैरा का ऊपर जवाब दे चुके हैं। इसलिये मैं उनके लेख के दूसरे पैरा से शुरू करूँगा।

2. आनंद तेलतुम्बडे हम पर "संगोष्ठी के असम्पादित वीडियो रिकार्डिंग को सार्वजनिक करने" की दुष्टता का आरोप लगाते हैं। उनका यह मानना है कि आम जनता समझदारी के उस स्तर पर नहीं है जो संगोष्ठी में आये प्रतिनिधियों का था (इसलिये वह चर्चा में भागीदारी नहीं कर सकती!)। यह एक निहायत ही बेतुका तर्क है। पूरी दुनिया में क्रान्तिकारी संगठनों या, यहाँ तक कि अकादमिक संस्थाओं द्वारा आयोजित संगोष्ठियों में प्रतिनिधियों द्वारा दिये गये वक्तव्यों को रिकॉर्ड किया जाता है और ऑनलाइन पोस्ट किया जाता है। इसमें कुछ भी "अपरिष्कृत (raw)" नहीं है। अगर हमने संगोष्ठी के वीडियो ऑनलाइन करने से पहले सम्पादित किये होते तो हम पर वक्तव्यों को तोड़-मरोड़ने का आरोप लगता। इसके अलावा, आखिर श्रीमान तेलतुम्बडे "आम" जनता से इतने भयभीत क्यों हैं? मुझे नहीं लगता कि आम जनता इस स्थिति में नहीं है कि वाद-विवाद में श्रीमान तेलतुम्बडे व अन्य वक्ताओं द्वारा दिये गये वक्तव्यों को सुन और समझ न सके। हम श्रीमान तेलतुम्बडे से यह कहना चाहेंगे कि वह वीडियो को दोबारा देखें और हमें बतायें कि बेचारी मूढ़ "आम" जनता क्या नहीं समझ सकती! और इससे भला यह कैसे साबित होता है कि हम जाति की सच्चाई को समझने में सक्षम नहीं हैं? मेरा कहने का अर्थ यह है कि संगोष्ठी की बहसों को सार्वजनिक करना किस प्रकार जाति को समझने की हमारी अक्षमता से जुड़ा हुआ है? इसीलिये हमने शुरूआत में कहा था कि यह निहायत ही बेतुका तर्क है जो हमें कहीं नहीं ले जाता। हमारा यह विश्वास है कि हमारे द्वारा संगोष्ठी के वाद-विवाद के वीडियो को आम और सामान्य रूप से उपलब्ध कराना ही नहीं बल्कि संगोष्ठी में श्रीमान तेलतुम्बडे की भागीदारी ही उनके लिये सदमे के समान थी, और वह भी उन वजहों से नहीं जो वह बता रहे हैं क्योंकि वह तथ्यों और विवरणों के आधार पर हमारे खिलाफ लगाये गये एक भी आरोप सत्यापित नहीं कर सके। इसलिये हम उनसे आग्रह करेंगे कि वह अपने तर्कों पर पुनः विचार करें।

3. तीसरे पैरा में, पहले श्रीमान तेलतुम्बडे उनके कथनों को मीडिया में "लीक करने" की जिम्मेदारी हम पर डाल देते हैं और पूछते हैं, "क्‍या वह (अभिनव) इसकी जवाबदेही से दोषमुक्त हो सकते हैं?" हम श्रीमान तेलतुम्बडे से यह कहना चाहेंगे कि वह जो कुछ भी कहें उसकी जिम्मेदारी उठाना सीखें। वह खुद स्वीकार करते हैं कि उन्होंने कहा और वह वास्तव में ऐसा मानते भी हैं कि अम्बेडकर के सभी प्रयोग महान विफलता में ख़त्म हुये। तो फिर इसमें समस्या क्या है कि एक हिन्दी अख़बार इसे उद्धृत करता है? और इसके लिये हम कैसे जिम्मेदार हो जाते हैं? सभी संगोष्ठियों में मीडिया आता ही है और यह किसी पार्टी की बन्द कमरे में होने वाली चर्चा तो थी नहीं, और श्रीमान तेलतुम्बडे भी इस तथ्य से अच्छी तरह अवगत थे। अतः एक बार उन्होंने जो कह दिया वह कह दिया और इसकी जिम्मेदारी उठाने में शर्मिन्दगी कैसी और किसी और के कन्धों पर इसे क्यों डालना? दूसरे श्रीमान तेलतुम्बडे उस सन्दर्भ को समझने की दलील पेश करते हैं जिसमें वहाँ वे "खड़े हुये और बोले" जिससे कि कोई उनके दूसरे वक्तव्य को समझ सके। हालाँकि हम उनसे यह आग्रह करते हैं कि अगर हमें वह स्वयम् ही यह सन्दर्भ समझायें तो अच्छा रहेगा। उनके लम्बे भाषण में विकूटीकृत (डेसिफर) और विनिर्मित (डीकंस्ट्रक्ट) करने के लिये कुछ भी नहीं था। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत में ही कहा कि उन्हें अप्रोच पेपर को पढ़ने में दिक्कतों का सामना करना पड़ा क्योंकि वह हिन्दी में था, लेकिन उन्होंने बहुत यत्न करके पूरा पेपर पढ़ डाला। उन्होंने कहा कि पेपर एक ब्राहमणवादी सोच से लिखा गया है और इससे जातिवाद की बू आती है। अब वह कह रहे हैं "इसे जातिवाद और ब्राहमणवादी पहुँच का होने से केवल एक महीन विभाजक रेखा ही अलग करती है।" अब कहें श्रीमान तेलतुम्बडे जी! क्या यह अपनी बातों से पलटी खाना नहीं है? इसके अलावा, अपने पहले वक्तव्य में श्रीमान तेलतुम्बडे ने कहा था कि हम एक कठमुल्लावादी मार्क्सवादी हैं। लेकिन अपने दूसरे वक्तव्य में उन्होंने कहा, "आप कहते हैं कि मार्क्सवाद एक जड़सूत्र नहीं है, तो ठीक है मैं भी यही कहता हूँ, और है भी ऐसा ही।" क्या यह अपनी बातों से पलटी खाना नहीं है, श्रीमान जी? श्रीमान तेलतुम्बडे कहते हैं कि हम अम्बेडकर और फूले को कचरापेटी में डाल रहे हैं। हमने जवाब दिया कि हम ऐसा नहीं कर रहे हैं और हमने अपने अप्रोच पेपर और अपने वक्तव्यों में उनके योगदानों को स्वीकार भी किया है। हालाँकि, यह हमें किसी भी तरह अम्बेडकर के दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र की आलोचना करने से नहीं रोकता और रोकना भी नहीं चाहिये। आलोचना के क्षेत्र में क्षमायाचक या शर्मिन्दा होने की कोई ज़रूरत नहीं और इसका कोई अर्थ नहीं होगा। हमें जैसे को तैसा कहना ही चाहिये। इस पर, श्रीमान तेलतुंबडे सहमत थे और कहा कि वह भी अम्बेडकर की राजनीति और दर्शन से सहमति नहीं रखते। हालाँकि उन्होंने अपने पहले वक्तव्य में यह दावा किया था कि कई लोग यह नहीं जानते कि अम्बेडकर ने जान ड्यूई की सोच का अनुसरण किया था, जो एक प्रगतिशील व्यवहारवादी था; उन्होंने आगे कहा कि डेवियन पद्धति एक वैज्ञानिक पद्धति होने के काफी करीब है जो हर अवधारणा (या परिकल्पनाओं के सम्मुचय) को प्रयोगों के आधार पर परखती है और फिर एक अधिक उन्नत अवधारणा (या परिकल्पनाओं के सम्मुचय) का निर्माण करती है। उन्होंने कहा कि वह डेवियन पद्धति को पूरी तरह तो नहीं मानते हैं लेकिन यह ज़रूर मानते हैं कि यह प्राकृतिक विज्ञान से काफी करीबी से सम्बद्ध है। फिर श्रीमान तेलतुम्बडे ने कहा कि वह प्राकृतिक विज्ञान की पृष्ठभूमि से आते हैं, सामाजिक विज्ञान से नहीं जहाँ सिद्धान्तो को निर्मिति की जा सकती है। उनका यह कथन वस्तुतः जान ड्यूई के व्यवहारवाद और इन्सट्रूमेण्टलिज़म का औचित्य प्रतिपादन या कम से कम प्रशंसा ही तो है। मैंने श्रीमान तेलतुंबडे के अप्रोच की आलोचना की और तर्क किया कि डेवियन पद्धति वैज्ञानिक होने का दावा ज़रूर करती है, लेकिन यह ऐसी है नहीं। क्योंकि विज्ञान को भी ए प्रॉयोरी पहुँच (अप्रोच) और विश्व-दृष्टिकोण (वर्ल्ड-व्यू) की ज़रूरत होती है। फिर हमने अम्बेडकर की डेवियन पद्धति की तफसील से आलोचना रखी। हालाँकि श्रीमान तेलतुम्बडे डेवियन पद्धति के प्रति कहीं भी आलोचनात्मक नहीं नज़र आये। कोई भी व्यक्ति जिसने आनंद तेलतुम्बडे को सुना हो यह समझ सकता है कि वास्तव में वह सभी सिद्धांतो के प्रति डेवियन संशयवाद और पद्धति के प्रति इसकी अंधश्रद्धा की प्रशंसा कर रहे थे, जो कि "स्‍व-दोष निर्धारक (self corrective)" होती है। अपने दूसरे वक्तव्य में श्रीमान तेलतुम्बडे डेवियन व्यवहारवाद के प्रति अपनी प्रशंसा को वापस लेते हैं और यह स्वीकार करते हैं कि वह अमेरिकी उदारवाद का एक प्रमुख स्तम्भ था। अब श्रीमान तेलतुम्बडे कह रहे हैं कि उन्होंने अप्रोच पेपर के केवल एक पैराग्राफ पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया था जिसमें उनके विचारों की तथाकथित विकृति की गयी थी। महोदय, क्या यह अपनी बातों से पलटी खाना नहीं?

4.,5.,6.,और 7. इन चारों पैरा में, श्रीमान तेलतुम्बडे हमारे अज्ञान को अनावृत्त करने का बीड़ा उठाते हैं! आइये देखें कैसे। वह हमारे पेपर को यह दर्शाने के लिये उद्धृत करते हैं कि हमने मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के समन्वय का आरोप उन पर मढ़ दिया है जो कि वास्तव में आधारहीन है, क्योंकि उन्होंने कभी भी 'समन्वय' शब्द का प्रयोग नहीं किया। श्रीमान तेलतुम्बडे यहाँ पर निष्कपट और न्यायप्रिय नहीं प्रतीत होते हैं क्योंकि उन्होंने उस वीडियो को दोबारा अवश्य ही देखा है (जैसा कि उनके लेख से साफ पता चलता है), और हम उनके इस तर्क का संगोष्ठी में ही जवाब दे चुके थे। वहाँ मैंने अपने पहले वक्तव्य में ही यह कहा था कि वास्तव में यह उतना महत्व नहीं रखता कि आप अपने आप को क्या मानते हैं। वस्तुओं के नामकरण की प्रक्रिया हमेशा उनसे बाह्य होती है, यानी कि नाम हमेशा दूसरों द्वारा दिया जाता है; आप खुद को क्या कहते हैं यह बहुत अहमियत नहीं रखता। यह हमेशा अन्य लोग होते हैं जो आपको नाम देते हैं, आप स्वयम् नहीं। मैंने अपने पहले वक्तव्य में यह तर्क रखा कि जब आप यह कहते हैं कि 'जाति का उन्मूलनकास्ट इण्डिया के लिये वही महत्व रखता है जो कम्युनिस्ट घोषणापत्र का मजदूर वर्ग के लिये था तो आप एक मूल्ययुक्त निर्णय (वैल्यू जजमेण्ट) देते हैं। इस पर श्रीमान तेलतुम्बडे ने कहा कि ऐसा करते वक्त वह घोषणापत्र शब्द का प्रयोग एक सामान्य (जेनेरिक) शब्द के रूप में करते हैं और इसमें उनका ध्येय 'जाति का उन्मूलन' को 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' के समतुल्य रखना नहीं था। इस पर मैंने जवाब दिया कि अगर आप एक सामान्य रूप में भी 'घोषणापत्र' शब्द का प्रयोग कर रहे हैं तो भी यह रूपक गलत है और स्पष्टः इसके परोक्ष निमित्त थे। क्योंकि अगर आप इसे एक सामान्य शब्द के रूप में प्रयोग करते हैं तो आप अन्य घोषणापत्रों जैसे 'राइट्स ऑफ मैन', या 'डिक्लेरेशन ऑफ राइट्स ऑफ विमेन' आदि का उदाहरण दे सकते थे। लेकिन आपने 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' को चुना! मेरा तर्क यह है कि यह पूरा रूपकीकरण मूल्य-युक्त है और जो कोई भी श्रीमान तेलतुम्बडे के इस कथन को सन्दर्भ सहित पढ़ता है, आसानी से समझ जाता है कि वे 'घोषणापत्र' शब्द का प्रयोग एक सामान्य शब्द के रूप में नहीं कर रहे हैं बल्कि 'ऐनिहीलेशन ऑफ कास्ट' के महत्व को 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' के समतुल्य रख रहे हैं, जिस पर मुझे लगता है मैंने उचित ही आपत्ति की थी। श्रीमान तेलतुम्बडे की सफाई (कि उन्होंने 'घोषणापत्र' शब्द का प्रयोग एक सामान्य शब्द के रूप में किया था) एक पंगु और लाचार बहाने से अधिक और कुछ नहीं है। इसीलिये अपने दूसरे वक्तव्य में उन्होंने अपनी इस तुलना की हमारे द्वारा रखी गयी आलोचना के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा।

इसके अलावा, वे हमारे ऊपर जातीय विभाजन को उत्पादन प्रक्रिया के दौरान पैदा होने वाले अन्य श्रम विभाजनों के (जैसे कि मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम, कुशल और अकुशल, आदि और ब्रिटिश और आइरिश मज़दूरों, अश्वेत और श्वेत मजदूरों) बराबर रखने का आरोप लगाते हैं। हालाँकि, अगर आप अप्रोच पेपर की पंक्तियों को पढ़ें तो आप पायेंगे कि हमने यह कहा है कि हर जगह श्रम का विभाजन किसी न किसी तरह के श्रमिकों के विभाजन को जन्म देता ही है और अम्बेडकर का यह दावा गलत था कि जाति श्रम का विभाजन नहीं बल्कि श्रमिकों का विभाजन है। हाल ही के इतिहास लेखन और प्रमाणों ने बिना किसी संदेह के यह दिखला दिया है कि वर्ण/जाति व्यवस्था (जाति व्यवस्था या वर्ण व्यवस्था के बजाय इस पद को सुवीरा जायसवाल अधिक उपयुक्त बताती हैं) के उद्गम श्रम विभाजन में हैं जो कर्मकाण्डीय रूप से अश्मीभूत हो गये और श्रमिकों के जड़ विभाजन में परिवर्तित हो गये। अन्य स्थानों पर भी श्रम के विभाजन ने श्रमिकों के विभाजन को जन्म दिया लेकिन अन्य जगहों पर कर्मकाण्डीय रूप से अश्मीभूत न होने के कारण इसने जन्म के आधार पर निर्धारित होने वाले श्रमिकों के जड़ विभाजन का रूप नहीं लिया। इसलिये अश्वेत/ श्वेत, ब्रिटिश/ आइरिश श्रमिकों का विभाजन जाति व्यवस्था कि तरह जड़ नहीं है। हमने इस बात को सेमिनार के दौरान अपने अप्रोच पेपर में जाति व्यवस्था के इतिहास लेखन की चर्चा करते हुये और साथ ही साथ जाति के इतिहास लेखन पर अलग से मेरे द्वारा प्रस्तुत पेपर में भी स्पष्ट किया था। लेकिन श्रीमान तेलतुम्बडे ने अपनी बात को सत्यापित करने के लिये हमें सन्दर्भों से काट कर उद्धृत किया है, जिसका आरोप आश्चर्यजनक रूप से वह हम पर लगाते हैं! श्रीमान तेलतुम्बडे हमें सभी गैर-मार्क्सवादी जाति विरोधी धाराओं को कचरापेटी में फेंकने का दोषी ठहराते हैं। हालाँकि हम पेपर और अपने वक्तव्यों में यह भी साफ कह चुके हैं कि सवाल किसी को खारिज करने या पूर्ण रूपेण स्वीकार करने का नहीं है। असल सवाल है कि जाति आन्दोलन में अम्बेडकर व अन्य धाराओं से क्या सीखा जा सकता है और उनमें किस चीज़ की आलोचना की जानी चाहिये। श्रीमान तेलतुम्बडे ने हमेशा की तरह इस सवाल से कन्नी काट ली है। हमने अपने अप्रोच पेपर में कहा है कि दलित अस्मिता और गरिमा को स्थापित करने में अम्बेडकर के योगदान को पूरी तरह स्वीकार किया जाना चाहिये। हालाँकि, दलित मुक्ति के उनके कार्यक्रम से हम कुछ नहीं अपना सकते, न तो राजनीतिक कार्यक्रम न ही सामाजिक या आर्थिक कार्यक्रम। और श्रीमान तेलतुम्बडे इस बात पर सहमत हैं। और इस तरह अन्त में आकर हम इस सोच में पड़ जाते हैं कि आखिर उन्हें आपत्ति है किस बात पर! क्योंकि हमने हमेशा उन चीजों को विशेष रूप से चिन्हित किया है कि जिनकी हम आलोचना कर रहे हैं, संगोष्ठी में हमारे द्वारा प्रस्तुत सभी पत्रों में। हरेक बिन्दु की प्रति-आलोचना करने के बजाय श्रीमान तेलतुंबडे जी ने यह सुविधाजनक रास्ता अपनाया है-गोलमोल तरीके से हमारे ऊपर आरोप मढ़ने का, अर्थात यह कि जाति आन्दोलन की अन्य सभी धाराओं के प्रति हमने एक रिजेक्शनिस्ट या खारिज कर देने वाला रुख अपनाया है। हम बार-बार कह रहे हैं कि हम किसी चीज को खारिज़ नहीं कर रहे हैं बल्कि हम हर चीज़ के साथ एक आलोचनात्मक रिश्ता बनाने की कोशिश कर रहे हैं, अर्थात हम यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे हैं कि अम्बेडकर से क्या सीखा जा सकता है और अम्बेडकर में किस चीज़ की आलोचना की जानी चाहिये। चीजों के बारे में विशिष्ट रूप से एक-एक करके तर्क करने के बजाय श्रीमान तेलतुम्बडे हमारे ऊपर एक संक्षिप्त अभियोग (summary trial) चलाते हैं और हमारे ऊपर अपने फैसले सुना देते हैं। तो क्या इसे ही एक खुला और निष्पक्ष वाद-विवाद और चर्चा कहते हैं श्रीमान तेलतुम्बडे जी?

8. आठवें पैरा में श्रीमान तेलतुम्बडे 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' और 'जाति का उन्मूलन' की तुलना का प्रश्न उठाते हैं जिसके बारे में हम अपनी अवस्थिति ऊपर लिख चुके हैं। हालाँकि, यहाँ वह एक मज़ेदार बात कहते हैं जिसकी तरफ हम आपका ध्यान आकर्षित कराना चाहेंगे। वह कहते हैं कि वह "विचारधाराओं की पदानुक्रमिकता" के खिलाफ हैं जो उनके अनुसार "ब्राहमणवादी प्रवृत्ति" है। तो आखिर हम यहाँ पाते क्या हैं? श्रीमान तेलतुम्बडे के अनुसार विचारधाराओं या दर्शनों को पदानुक्रमित नहीं करना चाहिये, दूसरे शब्दों में उन्हें बराबरी पर रखा जाना चाहिये! पहली बात तो यह कि हम सिद्धान्तों को पदानुक्रमित नहीं कर रहे हैं। वह अप्रोच पेपर या हमारे वक्तव्यों से एक वाक्य भी प्रस्तुत नहीं कर सकते जहाँ हमने दर्शनों को पदानुक्रमित किया है। हमने जो किया है वह है अम्बेडकर की राजनीति और दर्शन की एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण से आलोचना। श्रीमान तेलतुम्बडे यहाँ अपने डेवियन व्यवहारवाद के शिखर पर हैं, क्योंकि वह केवल दो ही स्थितियों की कल्पना कर सकते हैं: एक दर्शनों को पदानुक्रमित करने की और दूसरी उन्हें एक दूसरे के बराबर रखने की या उन्हें पदानुक्रमित नहीं करने की। तो आखिर श्रीमान तेलतुम्बडे स्वयम् खड़े कहाँ हैं? श्रीमान तेलतुम्बडे की विचारधारात्मक व राजनीति की किस्म क्या है? मार्क्सवादी? या अम्बेडकरवादी? या कुछ और? श्रीमान तेलतुम्बडे की यहीं वह चीज़ है जिसकी हमने संगोष्ठी में आलोचना की थीः पद्धति के लिये यह अंधभक्तिठोस (hard) विज्ञान की पद्धतिअगर ड्यूई के शब्दों को उधार लें तो! और फिर सभी सिद्धान्तों और सभी दर्शनों की सिद्धान्त-मुक्त दर्शन-मुक्त पद्धति के आधार पर परीक्षा! श्रीमान तेलतुम्बडे विज्ञान की यह बुनियादी शिक्षा भूल जाते हैं: आप सिद्धान्त से भाग नहीं सकते, यहाँ तक कि जो सभी सिद्धान्तों से पूरी तरह मुक्त हो जाने की बात करते हैं वे भी एक सिद्धान्त ही सामने रखते हैं। प्राकृतिक (ठोस) विज्ञान में भी हमें ए प्रॉयरी एक सैद्धान्तिक अवस्थिति लेने की ज़रूरत होती है, नाम लेकर कहा जाये तो द्वंद्वात्मक अप्रोच, अन्यथा हमेशा नियतत्ववाद या अज्ञेयवाद के गड्ढे में गिरने का ख़तरा बना रहता है क्योंकि किसी दिये गये समय पर विज्ञान सभी प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकता। कोपेनहेगन स्कूल (हाइजेनबर्ग और बोर) और आइंस्टीन के बीच बहस की यहीं त्रासदी थी; विज्ञान के लिये अंधभक्ति हमेशा नियतत्ववाद और अज्ञेयवाद के युग्मों की 'डिस्जंक्टिव सिंथेसिस' (छद्म विकल्पों का समुच्चय) की ओर ही लेकर जाती है। श्रीमान तेलतुंबडे ने अपने इस नये लेख में उनके अन्दर छुपे ड्यूईवाद की हमारे द्वारा की गयी आलोचना को ही असल में जायज़ ठहराने का काम किया है। तो सम्भवतः श्रीमान तेलतुम्बडे "इन घोषणापत्रों (manifestos) की सत्यता या असत्यता" के बारे में चिन्तित नहीं हैं। हालाँकि यह परिकल्पना ही अपने आप में एक पर-सैद्धान्तिक (ट्रांस-थियोरेटिकल) और पर-ऐतिहासिक (ट्रांस-हिस्टॉरिकल) अति-पद्धति की वैधता को अपने अन्दर छिपाये हुये है, जैसा कि कोई भी देख सकता है। हम अपनी तरफ से यह कह सकते हैं कि सभी की एक अवस्थिति होती है, उनकी इच्छा से स्वतन्त्र, और वे किसी की आलोचना या प्रशंसा केवल अपनी उसी अवस्थिति से करते हैं। हमने अम्बेडकर के सिद्धान्तों और दर्शन की आलोचना एक मार्क्सवादी अवस्थिति से की है क्योंकि हम यह मानते हैं कि सिद्धान्तों से परे, किसी परम वैज्ञानिक पद्धति के अनुरूप किसी अवस्थिति का दावा करना एक थोथा दावा है। श्रीमान तेलतुम्बडे को साफ-साफ शब्दों में अपनी विचारधारात्मक अवस्थिति सामने रखनी चाहिये क्योंकि इस विषय में कोई भी अस्पष्टता सदमा पहुँचाने वाले परिणामों तक ले जाती है जैसा कि इस मामले में हम अभी तक देखते आये हैं।

9. नवें पैरा में, अपने अम्बेडकरवादी आलोचकों की आलोचना करते हुये श्रीमान तेलतुंबडे ने डेवियन विचार को मार्क्सवाद और विज्ञान के लिये और अधिक स्वीकार्य और सहनीय (tolerable) बनाने की कोशिश की है। डेवियन विचार कभी भी किसी सिद्धान्त को समृद्ध करने का उद्देश्य नहीं रखता, जैसा कि श्रीमान तेलतुम्बडे सोचते हैं। यह सचेत रूप से सिद्धान्त-विरोधी है। ड्यूई अपनी पूरी जिन्दगी किसी भी सिद्धान्त के प्रति संशयवादी बने रहे। उनके लिये जो चीज़ महत्व रखती है वह है "ठोस (hard) विज्ञान'' की शुद्ध और आद्य पद्धति; तथाकथित सामाजिक विज्ञान सिद्धान्तों को जन्म देते हैं, बल्कि उन्हें शून्य से निर्मित करते हैं, और इसलिये ड्यूई के मन में सभी सामाजिक विज्ञानों के प्रति केवल घृणा ही भरी हुयी है। अलबत्ता यह एक बिल्कुल अलग मसला है कि ड्यूई खुद एक सिद्धान्त का अनुसरण कर रहे थे, व्यवहारवाद और इन्सट्रूमेण्टलिज़्म का सिद्धान्त जो हर चीज़ का जैविकीकरण कर देता है। उदाहरण के लिये, डेवी के अनुसार हर जैविक रचना एक सन्दर्भ में रहती है और उसको अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिये लगातार अपने आपको अनुकूलित और पुनः अनुकूलित होना पड़ता है। डेवी के अनुसार प्रकृति में होने वाली विकास की प्रक्रियाओं में विच्छेद या क्रम-भंग नहीं होते; यह एक सतत् आरोह-अवरोह या क्रमिक विकास (smooth progression) होता है जिसमें की जीव अपने आपको अपने सन्दर्भ के अनुसार अनुकूलित और पुनः अनुकूलित करता रहता है। इसी प्रकार, ड्यूई के अनुसार, समाज में भी विकास के प्रतिरूपों में विच्छेदन या असतता (क्रान्तियाँ या विद्रोह) नहीं होनी चाहिये; इंसानों को अपनी बौद्धिकता का समुचित प्रयोग करना चाहिये। राज्य इस बौद्धिकता और तर्क के समुचित प्रयोग की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली का प्रतिनिधित्व करता है। हिंसा व्यर्थ है। हम यहाँ ड्यूई की विस्तृत आलोचना में तो नहीं जा सकते। हालाँकि ऐसा प्रतीत होता है कि या तो श्रीमान तेलतुम्बडे को ड्यूई की रचनाओं का गम्भीरतापूर्वक पुनः अध्ययन करने की ज़रूरत है या फिर वह ड्यूई को और अधिक स्वीकार्य बनाने के लिये उसका ग़लत तरीके से विनियोजित (misappropriationकर रहे हैं! हम तेलतुम्बडे के इस तर्क पर सवाल खड़ा करते हैं कि वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में इसी पद्धति का अनुसरण करते हैं। यह क्वाण्टम सिद्धान्त के इन्सट्रूमेन्टलिस्ट वैज्ञानिकों की पद्धति है जो नारा देती है ''मुह बन्द करो और गणना करो"; वास्तव में साइबरनेटिक्सका भी ठीक यहीं नारा है जिससे श्रीमान तेलतुम्बडे इतने सम्मोहित प्रतीत होते हैं। इन विचार सरणियों में हमें बिना किसी "सैद्धान्तिक पूर्वाग्रह" के एक पर-सैद्धान्तिक, शुद्ध और आद्य वैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण कर परीक्षण और गणना करने के लिये कहा जाता है और ठीक यही काम श्रीमान तेलतुम्बडे भी बार-

अभिनव सिन्हा

'मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान' के संपादक अभिनव सिन्‍हा

बार अपने इस लेख में करते हैं: सिद्धान्त के प्रति एक शाश्वत व सतत् घृणा और पद्धति के प्रति एक असुधारणीय अंधभक्ति। हालाँकि अब हम यह जानते हैं कि यह अपने आप में खुद एक पूर्वाग्रह है और तथा-कथित "कठोर" विज्ञान के भीतर ही एक अन्य स्कूल भी है जिसमें सकाता,गूल्डयुकावा जैसे वैज्ञानिक आते हैं और जो ए प्रॉयरी द्वंद्ववादी होने को, यहाँ तक कि प्रयोगशाला में प्रवेश करने से पहले ही द्वंद्ववादी होने को, ज़रूरी मानते हैं। इसलिये, श्रीमान तेलतुम्बडे का यह दावा कि वह न तो किसी के विरुद्ध हैं और न ही किसी के पक्ष में अपने आप में खुद एक अवैज्ञानिक दावा है। अपनी तमाम आशाओं और इच्छाओं से स्वतन्त्र, आप हमेशा ही ऐसा कर बैठते हैं जैसे कि जब कभी आप एक राजनीतिक वक्तव्य देते हैं या फिर मूल्य-युक्त निर्णय बनाते हैं। सैद्धान्तिक उदासीनता या गैर-पक्षधरता एक मिथक है।

इसके अलावा हमने कभी यह नहीं कहा कि श्रीमान तेलतुम्बडे ने मार्क्स को कचरापेटी में फेंका या उनकी विफलताओं की चर्चा की। यह तो वास्तव के श्रीमान तेलतुंबडे के स्वनामधन्य शुभचिन्तकों, यानी कि रिपब्लिकन पैंथर्स के उन पाँच कामरेडों द्वारा किया गया है, जो संगोष्ठी में मौजूद थे लेकिन जिन्होंने संगोष्ठी के दौरान एक बार भी अपना मुँह नहीं खोला, लेकिन तुरन्त ही हमारे खिलाफ और श्रीमान तेलतुम्बडे के कल्पित समर्थन में अपना वक्तव्य जारी कर दिया! इसके अलावा हम यह भी जानने के लिये उत्सुक हैं कि श्रीमान तेलतुंबडे हमेशा शिक्षक-उपदेशक की मुद्रा में ही क्यों रहते हैं? उनका कहना है कि वह संगोष्ठी में मौजूद लोगों को संवेदनशील करने की कोशिश कर रहे थे जो किसी न किसी प्रकार के -वाद से विषाक्त हैं! एक बार फिर श्रीमान तेलतुम्बडे अपने डेवियन श्रेष्ठ पर हैं। वह खुद को अम्बेडकरवादी या मार्क्सवादी या किसी भी अन्य प्रकार का -वादी मानने से दूर रखते हैं। वह एक पर-सैद्धान्तिक पद्धतिशास्त्रीय स्थिति में हैं या फिर एक आसन पर विराजमान हैं जहाँ से हमें उनके द्वारा संवेदनशील बनाया जाना है और हमें उनके प्रवचनों को सुनना था! क्या श्रीमान तेलतुम्बडे का यह व्यवहार आत्म-मुग्धता नहीं है। हम भी जानते हैं और इसका अहसास कराने के लिये हमें श्रीमान तेलतुम्बडे की ज़रूरत नहीं है कि क्रान्तियाँ यथार्थ में होती हैं और न ही अपने पेपर में या अपने वक्तव्यों में ही हमने मार्क्सवाद के प्रति कोई बन्द सिरों वाली या कठमुल्लावादी पहुँच अपनाई है। यहाँ तक कि श्रीमान तेलतुम्बडे ने भी अपने आप को अपने दूसरे वक्तव्य में दुरुस्त किया और कहा कि उन्होंने हमें कठमुल्लावादी नहीं कहा था (जबकि वास्तव में उन्होंने ऐसा कहा था!) और उनका इशारा अप्रोच पेपर के केवल उस पैरा की तरफ ही था जिसमें उनके नाम का जिक्र किया गया था। लेकिन अगर आप श्रीमान तेलतुम्बडे के पहले वक्तव्य को सावधानीपूर्वक सुनें तो साफ समझ जाएंगे कि वह केवल एक पैरा पर टिप्पणी नहीं कर रहे थे बल्कि सामान्य रूप से पूरे पेपर पर अपनी राय रख रहे थे, और वह भी उसे अच्छी तरह पढ़े बिना ही! हम इसे एक गुलाटी मारना और पलटी-खाना न कहें तो और क्या कहें?

10. दसवें पैरा में श्रीमान तेलतुम्बडे यह कहते हैं कि मार्क्सवाद के प्रति अम्बेडकर का अविश्वास इस बात से उपजा था कि मार्क्स एक 'ग्रैण्ड-थियरी' देने का दावा करते हैं। (मार्क्सवाद पर यह बात उत्तर-आधुनिकतावादियों द्वारा लादी गयी है। मार्क्स ने खुद कभी यह नहीं कहा कि वह एक 'ग्रैण्ड थियरी' के रचयिता हैं। हम इस बिन्दु पर बाद में आएँगे।) हालाँकि संगोष्ठी में खुद उन्होंने यह स्वीकार किया था कि अम्बेडकर ने मार्क्सवाद का समुचित अध्ययन नहीं किया था और उन किताबों से जो उन्होंने पढ़ी थीं पता चलता है कि उनको मार्क्सवाद की काफी सतही समझदारी थी और उन्होंने मार्क्सवादी क्लासिक्स कभी नहीं पढ़े थे। साफ तौर पर अम्बेडकर का मार्क्सवाद के प्रति संशय का उनकी 'ग्रैण्ड थियरीज़के लिये नापसन्दगी से कुछ भी लेना-देना नहीं है।(मार्क्स ने कभी ऐसा दावा नहीं किया; उन्होंने सिर्फ यह दावा किया कि एंगेल्स के साथ मिलकर उन्होंने इतिहास और समाज के द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवादी विज्ञान की रचना की।) अम्बेडकर का मार्क्सवाद के प्रति संशय दो वजहों से पैदा हुआ थाः पहला तो उनकी खुद की वर्ग अवस्थिति और दूसरी अमेरिका में उनकी अकादमिक ट्रेनिंग सेजहाँ वे डेवियन इन्सट्रूमेण्टलिस्ट और व्यवहारवादी बने और लन्दन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स सेजहाँ वे कार्ल मेंगर के ऑस्ट्रियन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से प्रभावित हुये। ये बौद्धिक स्रोत मार्क्सवाद के कटु आलोचक हैं। अम्बेडकर के मार्क्सवाद के बिल्कुल विपरीत अवस्थिति अपनाने के लिये केवल इतना ही पर्याप्त था। उन्होंने जब भी कम्युनिस्टों के साथ कोई संश्रय करने की कोशिश भी की तो इसका प्रेरक तत्व मज़दूर वर्गीय राजनीति नहीं बल्कि वही पुराना ड्यूई का व्यवहारवाद ही था। दूसरे, दसवें पैरा में श्रीमान तेलतुम्बडे द्वारा दिये गये अम्बेडकर के राजनीतिक इतिहास के विवरण से ही अम्बेडकर के समझौतापरस्त, गैर-आमूलगामी, गैर-जनदिशात्मक और आत्म-समपर्णवादी पहुँच का सत्यापन हो जाता है। हमें इसके लिये श्रीमान तेलतुम्बडे के लेखन को विनिर्मित करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह स्व-दृष्टव्य (self-evident) है। श्रीमान तेलतुम्बडे के आख्यान से यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि कांग्रेस हमेशा ही अम्बेडकर को अपने राजनीतिक कार्यक्रम में सहयोजित करने के लिये ताक में रहती थी। क्या इसी तथ्य से अम्बेडकर की राजनीति के बारे में काफी कुछ स्पष्ट नहीं हो जाता है? श्रीमान तेलतुम्बडे अम्बेडकर के तथाकथित'राजकीय समाजवाद' की योजना से विस्मयीभूत दिखायी देते हैं जिसका कि समाजवाद से कुछ भी लेना-देना नहीं था! समाजवाद का अर्थ उत्पादन के साधनों पर राज्य का मालिकाना नहीं होता। समाजवाद की निर्धारक चारित्रिक विशेषता स्वयम् राज्य का वर्ग चरित्र होती है। जैसा की एंगेल्स ने 19 वीं शताब्दी में ही प्रदर्शित कर दिया था कि राजकीय पूँजीवाद (इसे राजकीय समाजवाद भी पढ़ा जा सकता है) और कुछ नहीं अपने सीमान्तो तक खींच दिया गया पूँजीवाद है। अम्बेडकर का आर्थिक कार्यक्रम डेवियन आर्थिक कार्यक्रम का भावानुवाद हैं, जिसके अनुसार राज्य सबसे तार्किक अभिकर्ता है और इसलिये सभी आर्थिक गतिविधियों और योजनाओं पर इसका एकाधिकार होना चाहिये। हम श्रीमान तेलतुम्बडे से उम्मीद करते हैं कि वह कम से कम इस तथ्य से तो अवश्य ही परिचित होंगे। हालाँकि वह अम्बेडकर का मार्क्सवादी हस्तगतीकरण करने के लिये काफी उत्सुक दिखायी पड़ते हैं, और ऐसा वह करते भी हैं लेकिन बिल्कुल गुप्त अन्दाज में यह दावा करते हुये कि अम्बेडकर के विचारों और मार्क्सवाद के बीच कोई मिलन बिन्दु नहीं है।

11. श्रीमान तेलतुम्बडे के लेख का ग्यारहवाँ पैरा शायद सबसे दिलचस्प पैरा है। यह दावा करता है कि श्रीमान तेलतुम्बडे मार्क्सवादी पद्धति का अनुसरण करते हैं (नोटः मार्क्सवादी सिद्धान्त/विचारधारा/दर्शन नहीं! सिद्धान्त के लिये वहीं पुराना डेवियन संशयवाद और पद्धति के लिये अंधभक्ति), लेकिन वह अपने आप को मार्क्सवादी नहीं कहेंगे क्योंकि अन्य कई सारे मार्क्सवादी कठमुल्लावादी हैं!लेकिन श्रीमान तेलतुंबडे इस बात का उल्लेख अपने हालिया लेख में नहीं करते हैं कि उनकी इस अवस्थिति की मैंने संगोष्ठी में क्या आलोचना प्रस्तुत की थी। कोई अपने आप को एक मार्क्सवादी या उदारवादी या उत्तर-संरचनावादी मानता है वह इसलिये नहीं कि इन विचारधाराओं को तथाकथित रूप से मानने वाले क्या करते हैं! यह तर्कशास्त्र हमें मूर्खतापूर्ण निष्कर्षों तक पहुँचा देता है। कोई अपने आप को मार्क्सवादी कहता है क्योंकि वह उस पहुँच और पद्धति में भरोसा करता है जिसे वह मार्क्सवादी पहुँच और पद्धति मानता है। अगर इंसानों का बहुलाँश दुख-दर्द, त्रासदी आदि के प्रति उदासीन हो जाता है तो क्या आप अपने को एक इंसान कहना बन्द कर देंगे? नहीं! तब आप अपने को मार्क्सवादी क्यों नहीं कहते अगर मार्क्सवाद में भरोसा करते हैं? हालाँकि हम इस सवाल का जवाब पहले से ही जानते हैं! यहाँ फिर वहीं बात सामने आती हैअपने आप को किसी सिद्धान्त और विचारधारा के साथ एकरूप करना हमेशा एक डेवियन का भयभीत करता है!दूसरी बात, हमने तो पेपर में कहीं नहीं कहा है मार्क्सवाद एक जड़सूत्र है और यह आगे विकसित नहीं हो सकता। इसके विपरीत,हमारे पेपर का बड़ा हिस्सा अम्बेडकर और अम्बेडकरवादियों की आलोचना नहीं है बल्कि भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन की आलोचना है जो जाति की समस्या को समझने में असफल रहा और मार्क्सवाद को भारतीय परिस्थितियों में रचनात्मक तरीके से लागू करने में असफल रहा। लेकिन प्रत्यक्षतः यह साफ है कि हमारे पेपर को अच्छी तरह पढ़े बिना ही श्रीमान तेलतुम्बडे ने हमारे ऊपर हमला बोल दिया है।

इसके सिवाय, अम्बेडकर की मूर्ति-भंजकता, आमूलगामिता आदि श्रीमान तेलतुम्बडे के व्यक्तिगत विचार हो सकते हैं और इस मसले पर हम उनसे सहमत या असहमत हो सकते हैं। लेकिन अप्रोच पेपर और पूरे सेमिनार में हमारी चिन्ता का केन्द्र-बिन्दु यह विश्लषण करना नहीं था कि अम्बेडकर जाति समस्या को कितनी गहराई और उत्कण्ठा के साथ महसूस करते थे बल्कि यह विश्लेषित करना था कि अम्बेडकर का कार्यक्रम इस समस्या का कहाँ तक समाधान सुझाता है और अप्रोच पेपर में हमारे द्वारा प्रस्तुत की गयी अम्बेडकर की आलोचना को इसी सन्दर्भ में देखा और समझा जाना चाहिये।

साथ ही यह भी कोई मायने नहीं रखता कि श्रीमान तेलतुंबडे किस उम्र में मार्क्सवादी बने क्योंकि इससे आज उनके तर्कों की खूबियों या खामियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और न ही यह किसी तरह उन्हें उनके तर्क में लाभ प्रदान करता है। काऊत्स्की, लेनिन से कहीं ज़्यादा उम्रदराज़ मार्क्सवादी था। क्या इससे इस बात पर कोई प्रभाव पड़ा कि अपने साम्राज्यवाद के सैद्धान्तिकीकरण में काऊत्स्की किस प्रकार उलझ गये?

12. बारहवें पैरा में श्रीमान तेलतुम्बडे यह दिखाते हैं कि अम्बेडकर द्वारा दलितों की मुक्ति के लिये किये गये सभी प्रयास कितनी बुरी तरह विफल हुये और इस पर वह यह बोल पड़ने की अवस्था तक चले जाते हैं: "अम्बेडकर की राजनीति के बारे में जितना कम कहा जाये, उतना ही अच्छा।" हालाँकि वह इन गलतियों का स्रोत तलाशने तक नहीं जाते हैंजो कि अम्बेडकर के असुधारणीय बुर्जुआ उदारवादीव्यवहारवादीइंस्ट्रूमेण्टलिस्टप्रतिगामी विचार हैं। वह जनता की क्रान्तिकारी ऊर्जा में भरोसा नहीं करते और बल्कि नायकों की ताकत और मुख्यतः राज्य की ताकत में भरोसा करते हैं। अम्बेडकर की विफलता के कारण उनके दर्शन और राजनीति में निहित हैं और हमने अपने पेपर में इसी चीज़ की आलोचना की है, उनके इरादे की नहीं। सैद्धान्तिक बहसें कभी भी किसी के इरादे पर केन्द्रित नहीं होती हैं क्योंकि यह बेहद मनोगत चीज़ होती है। किसी भी राजनीतिक चर्चा में जो चीज़ दाँव पर होती है वह है किसी भी सिद्धान्त का वैज्ञानिक और दार्शनिक चरित्र और उसकी ऐतिहासिक भूमिका। सिद्धान्तों के वाहक अलग-अलग समय पर क्या महसूस करते हैं, इतिहास में यह महत्व नहीं रखता, जैसा कि श्रीमान तेलतुम्बडे खुद अपने पहले वक्तव्य में कहते हैं, "क्रान्तियों में व्यक्ति विशेष महत्व नहीं रखते।" श्रीमान तेलतुम्बडे के किसी भी वक्तव्य में अम्बेडकर की गम्भीर राजनीतिक और दार्शनिक आलोचना की स्पष्ट रूप से गै़र-मौजदूगी दिक्कततलब है। वह केवल एक तथ्य उल्लेखित करने तक रुक जाते हैं कि अम्बेडकर के सभी प्रयोग महान विफलता में परिणत हुये। लेकिन वह कभी यह प्रश्न नहीं पूछते, ''क्यों?'' श्रीमान तेलतुम्बडे यहाँ अपनी प्रसिद्ध वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करना क्यों भूल जाते हैं? जैसा कि हम देख सकते हैं, यह एक दिलचस्प भूल है।

13.,14.,15.,16.,और 17. इन पैराग्राफों में श्रीमान तेलतुम्बडे एक बार फिर अपने डेवियन आभामण्डल में हैं। वह इतिहास में सभी महान व्यक्तियों की विफलता के बारे में चर्चा करते हैं। हालाँकि हम उन्हें यह याद दिलाना चाहेंगे कि अप्रोच पेपर का मकसद व्यक्तियों और उनके प्रयोगों की विफलता का मूल्याँकन करना नहीं था। असल सवाल तो इन व्यक्तियों द्वारा दिये गये सिद्धान्तों और पद्धतिशास्त्र के मूल्याँकन का है। व्यक्ति सफल होते हैं या असफल, यह इतिहास में बहुत मायने नहीं रखता। बुनियादी प्रश्न यह है कि मार्क्स इतिहास का विज्ञान दे पाए या नहीं? वह ऐसी पहुँच और पद्धति दे पाए या नहीं जो वैज्ञानिक है? स्पष्टतः मार्क्सवाद मार्क्स के सभी कथनों का कुल योग नहीं है। मार्क्सवाद उस पहुँच (विश्व-दृष्टिकोण) और पद्धति का नाम है जिसे मार्क्स ने प्रस्तुत किया। मार्क्स सम्भवतः अपनी इस द्वंद्वात्मक भौतिकवादी पद्धति को खुद कई जगह सही तरीके से लागू करने में विफल रहे, जैसे एशियाई उत्पादन प्रणाली के अपने सिद्धान्त में या फिर भारत में ब्रिटिश शासन के मूल्याँकन में। लेकिन जहाँ तक मार्क्सवादी पहुँच और पद्धति का सम्बन्ध है, इससे उस पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। इतिहास द्वारा उनकी कई आशाओं, निर्णयों और कथनों को ग़लत साबित कर दिया गया, जिसे, संकीर्ण अर्थों में, व्यक्ति विशेष, मार्क्स, के कुछ परिकल्पित निर्णयों की विफलता ही कहा जा सकता है। लेकिन मार्क्स अपने सभी निर्णयों में सही साबित नहीं हो सकते थे (क्या ऐसी अचूकता की आशा करना ही अपने आप में गैर-द्वंद्ववादी नहीं होगा!?) यहाँ पर सवाल किसी व्यक्ति के विभिन्न कथनों और उसकी पहुँच और पद्धति के बीच के अन्तर को समझने का है। मार्क्स खुद यह मानते थे कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद बदलते विश्व के साथ उन्नत होगा, क्योंकि इस विज्ञान का बुनियादी तत्व विश्व का उसकी गति में अध्ययन करना है। इसलिये साम्राज्यवाद का सिद्धान्त लेनिन द्वारा विकसित किया गया, मार्क्स द्वारा नहीं क्योंकि वित्तीय एकाधिकारी पूँजीवाद केवल लेनिन के जीवनकाल में ही समुचित रूप में अस्तित्व में आया। लेकिन यहाँ बुनियादी प्रश्न इस बात को समझने का है कि लेनिन ने भी विश्व का अध्ययन करने के लिये उसी पहुँच और पद्धति का प्रयोग किया जिसका मार्क्स ने किया था। इसलिये "महान व्यक्तियों की विफलता" पर इतने विस्तार से बात करने और उसके बाद यह दावा करने का कोई अर्थ नहीं बनता कि मार्क्स की विफलता अम्बेडकर की विफलता से कहीं अधिक विनाशकारी थी। यह 17वीं शताब्दी की शैली में लिखे जाने वाले व्यक्तियों के इतिहास के समान है जो किसी भी चीज़ के बारे में कुछ नहीं कहता! श्रीमान तेलतुम्बडे इस तर्क को, कि मार्क्सवाद को सतत् उन्नत किये जाने की आवश्यकता है, इस प्रकार रखते हैं जैसे कि ऐसा कहने वाले वह पहले व्यक्ति हों या हमने अपने अप्रोच पेपर में जैसे कुछ और ही कहा हो। न तो हमने अपने पेपर में और न ही अपने वक्तव्यों में यह कहा कि है मार्क्स के शब्द ही अन्तिम शब्द है! अगर हम ऐसा भरोसा करते तो हमें किसी प्रश्न के ऊपर चर्चा के लिये पाँच-दिवसीय संगोष्ठी आयोजित कराने की आवश्यकता महसूस नहीं हुयी होती। हमने अपने अप्रोच पेपर में मार्क्सवादियों और कम्युनिस्टों द्वारा जाति समस्या के विश्लेषण में की गयीं गलतियों का उल्लेख किया है। फिर श्रीमान तेलतुम्बडे एक मार्क्सवादी बुत खड़ा क्यों कर रहे हैं और तीरों और संगीनों के साथ उस पर बरस क्यों पड़े हैं?

इसके साथ ही मार्क्सवाद यह भी कभी नहीं कहता कि क्रान्तियाँ अपरिहार्य है। ऐसा कहना एक प्रकार का अर्थवाद होगा। इसलिये समाजवादी प्रयोगों की विफलता का तर्क देकर या यह कह कर कि क्रान्तियाँ नहीं हुयीं, "मार्क्स की विध्वंसकारी विफलता" को सिद्ध करना, पूरी तरह निरर्थक है! पूँजीवाद की आर्थिक मन्दी कभी भी अपने आप क्रान्तियों को जन्म नहीं देती। हर मन्दी दोहरी सम्भावनाएं उपस्थित करती हैं: क्रान्तिकारी सम्भावना (अगर जनता को क्रान्ति का नेतृत्व देने के लिये कोई क्रान्तिकारी हरावल मौजूद होता है) या प्रतिक्रियावादी सम्भावना (फासीवाद)। प्रति-क्रान्ति की हमेशा सम्भावना होती है और सभी महान मार्क्सवादी चिन्तक, जिनमें मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन शामिल हैं, इस बात के प्रति सचेत थे। अतः यह तथ्य की बीसवीं शताब्दी में टिकाऊ क्रान्तियाँ नहीं हो सकीं किसी भी तरह मार्क्स की तथाकथित 'ग्रैण्ड थियरी' की विफलता नहीं दर्शाती हैं। मार्क्सवाद क्रान्तियों की विफलताओं के विश्लेषण के लिये भी उपकरण देता है, और कई सारे मार्क्सवादियों ने सोवियत और चीनी समाजवादी प्रयोगों की मार्क्सवादी आलोचना रखी भी है और इस तरह के विश्लेषण के द्वारा ही और अधिक उन्नत समाजवादी प्रयोग किये जा सकते हैं। इसे ही वाल्टर बेंजामिन सिद्धान्त की 'रिडेम्पटिव ऐक्टिविटी' कहते हैं। हर विज्ञान इसी तरह की रिडेम्पटिव ऐक्टिविटी से विकसित होता है और मार्क्सवाद, अर्थात समाज का विज्ञान, भी इसका कोई अपवाद नहीं है। ऐसी ऐतिहासिक गतिकी में व्यक्ति विशेष की विफलता महत्व नहीं रखती। जो चीज़ महत्व रखती है वह है उनके द्वारा दी गयी पहुँच और पद्धति। यह आरोप कि मार्क्सवादियों ने उन अम्बेडकरवादियों के प्रत्युत्तर में कुछ नहीं कहा जो कि श्रीमान तेलतुम्बडे को बिना ठोस कारणों के अपना निशाना बनाने में लगे हुये हैं; इस विषय में हम श्रीमान तेलतुंबडे की पीड़ा और गुस्से के साथ पूरी तदनुभूति रखते हैं। हालाँकि इस विडम्बनापूर्ण स्थिति के लिये खुद श्रीमान तेलतुम्बडे जी ही दोषी हैं। सिद्धान्त और विचारधारा के परे कोई अवस्थिति लेने पर ऐसा ही होता है।

इसके अलावा, श्रीमान तेलतुम्बडे नये विकास, जिनकी व्याख्या क्लासिकीय मार्क्सवादी अवस्थिति से नहीं की जा सकती, के सम्बन्ध में जो दावा करते हैं वह कुछ ऐसा हैः श्रीमान तेलतुंबडे दलील देते हैं कि मार्क्स ने श्रम बचाने वाले यन्त्रों की बात की थी लेकिन समकालीन पूँजीवाद में हम श्रम बचाने वाले यन्त्रों की नहीं बल्कि श्रम विस्थापित करने वाले यन्त्रों की बात करते हैं।लेकिन मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का ककहरा जानने वाला व्यक्ति भी यह जानता है कि पूँजीवाद के अन्तर्गत हर श्रम बचाने वाला उपकरण श्रम विस्थापित करने वाले उपकरण में तब्दील हो जाता है। श्रीमान तेलतुम्बडे अपनी खोज से बहुत ज़्यादा उत्साहित हैंलेकिन यह खोज तो पहले ही की जा चुकी है और दुख के साथ कहना पड़ता है श्रीमान तेलतुम्बडे इसमें 150 वर्ष पीछे हैं! श्रम बचाने और श्रम विस्थापित करने वाले यन्त्रों में कोई वास्तविक अन्तर नहीं है। श्रीमान तेलतुंबडे उस परिदृश्य के बारे में सोच कर काफी चिन्तित हो उठते हैं जब केवल एक मजदूर के द्वारा ही पूरे कारखाने को चलाना सम्भव हो जायेगा! इस भय ने कई बुद्धिजीवियों को इस निष्कर्ष की ओर ढकेल दिया है कि मज़दूर वर्ग इतिहास के परिदृश्य से गायब हो रहा है। ऐसे निष्कर्ष केवल यहीं साबित करते हैं कि सम्बन्धित व्यक्ति मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में कुछ भी नहीं जानता है। वास्तव में, ऐसी परिस्थिति केवल बेरोजगारों की उस विशाल सेना को ही पैदा करेगी जिन्हें मार्क्स ने 'पूँजीवाद की कब्र खोदने' वाला कहा था। मजदूर वर्ग खत्म नहीं हो जायेगा बल्कि वह विद्रोह के लिये अन्तिम हदों तक ढकेल दिया जायेगा। यहाँ यह बताने की आवश्यकता नहीं है बिना किसी क्रान्तिकारी सिद्धान्त और ऐसे सिद्धान्त से लैस हरावल के ये विद्रोह क्रान्तियों में परिणत नहीं होंगे। यह सही है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से साम्राज्यवाद के कार्य करने के तौर-तरीकों में भारी बदलाव आय हैं जिन्हें मार्क्सवादी नज़रिए से विश्लेषित करने और समझने की आवश्यकता है। लेकिन ये नये विकास ही इतिहास और समाज के विज्ञान के रूप में मार्क्सवाद के विकास के प्रेरक तत्व रहे हैं; ठीक श्रीमान तेलतुम्बडे के तथाकथित "ठोस विज्ञान" की तरह! इसके बारे में इतना हतप्रभ होने वाला क्या है? संक्षेप में कहें तो श्रीमान तेलतुम्बडे को व्यक्तियों के मूल्याँकन और पहुँच व पद्धतियों के मूल्याँकन में अन्तर करने की आवश्यकता है। इस सम्बन्ध में यह पूछा जा सकता है कि अपने चारों ओर के विश्व को समझने के लिये मार्क्सवाद एक सही पहुँच और पद्धति देता है या अम्बेडकरवाद। श्रीमान तेलतुम्बडे मानते हैं कि अम्बेडकर के पास कोई सिद्धान्त नहीं था और वह एक व्यवहारवादी थे जिन्होंने हमेशा नयी चीजों के साथ प्रयोग करना जारी रखा। लेकिन जैसा कि श्रीमान तेलतुंबडे भी स्वीकार करते हैं, यही तो वह सिद्धान्त है जिसे अम्बेडकर पसन्द करते थे! और संगोष्ठी के दौरान यही सिद्धान्त आलोचना के केन्द्र में था। ऐसी आलोचना पेश करने में गलत क्या है? क्या यह अम्बेडकर को खारिज़ करना या कचरापेटी के हवाले करना हैहमें ऐसा नहीं लगता।

सत्रहवें पैरा में श्रीमान तेलतुंबडे अम्बेडकर के विचारधारात्मक उद्भवों की तलाश करते हैं। हालाँकि फिर वह अम्बेडकर का गलत हस्तगतीकरण करने का प्रयास कर रहे हैं। अम्बेडकर की मार्क्सवाद के लिये नापसन्दगी केवल भारतीय कम्युनिस्टों के उनके अनुभव से ही नहीं जन्मी थीबल्कि उनकी वर्ग अवस्थिति और अकादमिक ट्र्रेनिंग से जन्मी थी। दूसरे मार्क्सवाद का उन्होंने कभी भी एक मानक के रूप में इस्तेमाल नहीं कियाजैसा कि श्रीमान तेलतुम्बडे हमें विश्वास दिलाना चाहते हैंउन्होंने मार्क्सवाद को "सुअरों का दर्शन" कहा था जो उनके रुख को साफ-साफ दर्शाता है। हमने अम्बेडकर के इस रुख की आलोचना की है और वह भी अम्बेडकर द्वारा प्रयुक्त अपमानजनक शब्दावली के बिना। हमें इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता।

18. इस पैरा में श्रीमान तेलतुंबडे एक बार फिर अपने शिक्षक-उपदेशक लबादे में हैं। उन्होंने यह सही चिन्हित किया है कि जाति-प्रश्न को राष्ट्रीय एजेण्डे पर लाने में अम्बेडकर का बहुत बड़ा योगदान रहा है। वह इसमें भारतीय कम्युनिस्टों के योगदान के बारे में भी सही हैं कि इन्होंने आनुभविक धारातल पर जाति उत्पीड़न के खिलाफ जुझारू संघर्ष किया। लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट और अम्बेडकर जाति उन्मूलन के लिये सही कार्यक्रम बनाने में असफल रहे। अपने लेख की शुरुआत में श्रीमान तेलतुंबडे ने कहा था कि पदानुक्रमित करना एक ब्राहमण्यवादी रवैया है। लेकिन वह इस ब्राहमण्यवादी रवैये को अपनी सुविधानुसार अपना लेते हैं। यहाँ वह कहते हैं कि जनवादीकरण में अम्बेडकर का योगदान भारतीय कम्युनिस्टों से कहीं ज़्यादा था!वह इसकी ज़रूरत महसूस नहीं करते कि अपने कथनों को तर्कों और कारणों द्वारा समर्थित करें। इसके लिये वह दूसरी बौद्धिक कलाबाजी मारते हैं और यह कहते हैं कि ऐसा उन्होंने केवल जुमले के रूप में कहा है क्योंकि वह चाहते हैं कि कम्युनिस्ट इस बात पर सोचें कि उन्होंने कितने अवसर गवाँये हैं! एक बार फिर श्रीमान तेलतुम्बडे अपनी सिखाने की क्षमताओं से काफी मन्त्रमुग्ध हैं। इससे कोई इंकार नहीं करता कि जाति प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन द्वारा की गयी गलतियों का विश्लेषण करने की ज़रूरत है और हमने अपने पेपर में, अम्बेडकर की संक्षिप्त आलोचना के अलावा, ऐसा किया भी है। लेकिन श्रीमान तेलतुंबडे द्वारा यह पदानुक्रमिकता चकित करने वाली है और हम उनके द्वारा प्रस्तुत योगदानों के पदानुक्रम से सहमत नहीं है। कम से कम उन्हें अपनी अप्रोच में तो सुसंगत रहना ही चाहिये और अम्बेडकर के पदचिन्हों पर चलते हुये इतनी जल्दी अपनी अवस्थितियों में बदलाव नहीं करने चाहिये।

19. और 20. उन्नीसवें पैरा में श्रीमान तेलतुम्बडे इस प्रकार तर्क करते हैं जैसे कि हम 'आधार और अधिरचना' के रूपक से यान्त्रिक रूप से चिपके हों और यह कहना जारी रखते हैं कि सभी दलित मार्क्सवादियों (हम नहीं जानते की इस शब्द का सही-सही क्या मतलब होता है!) ने इसका परित्याग कर दिया है और इस रूपक पर अन्तर्राष्ट्रीय मार्क्सवादी हलकों में भी विवाद है। हम मानते हैं और हमने अपने पेपर में यह स्पष्ट भी किया है कि आधार और अधिरचना का रूपक किसी भी सामाजिक संरचना के अध्ययन का एक विश्लेषणात्मक उपकरण है और इसका प्रयोग यांत्रिक और इंस्ट्रूमेण्टलिस्ट रूप में नहीं किया जा सकता, जैसा कि भारतीय कम्युनिस्ट अक्सर करते रहे हैं और जाति प्रश्न के विश्लेषण में तो विशेष रूप से। हमने विशेष रूप से भारतीय कम्युनिस्टों में उन कम्युनिस्टों की आलोचना की है जो यह मानते हैं कि जाति अधिरचना का हिस्सा है। इसके विपरीत हमने पेपर में यह तर्क रखा है कि जाति आधार से भी संलग्न है और अधिरचना से भी। लेकिन हम यहाँ इसके विस्तार में नहीं जा सकते। हमारी अवस्थिति को जानने में दिलचस्पी रखने वाले अरविन्द स्मृति न्यास की वेबसाइट से पेपर को डाउनलोड करके पढ़ सकते हैं। लेकिन यहाँ पर एक बार फिर श्रीमान तेलतुम्बडे हमला करने के उद्देश्य से एक काल्पनिक मार्क्सवादी बुत का निर्माण करते हैं।

इसके अलावा श्रीमान तेलतुम्बडे द्वारा यह आलोचना सामने रखी गयी है कि भारतीय कम्युनिस्ट जाति और वर्ग को समझने में असफल रहे। हमने स्वयम् भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की इस विफलता के लिये उसकी आलोचना की है। लेकिन श्रीमान तेलतुम्बडे ने इस मामले को इस तरह प्रस्तुत किया है जैसे कि भारतीय कम्युनिस्टों ने जाति के प्रश्न को उठाया ही नहीं है और इसे उनका सबसे बड़ा पाप करार दिया है। हमने इस पर आपत्ति की क्योंकि यह तथ्यतः गलत है। सुखविन्दर ने श्रीमान तेलतुंबडे की इस आलोचना का जवाब दिया और कम्युनिस्टों के ऊपर उस दोष के लिये महाभियोग चलाने के लिये उनकी आलोचना की जिसके कम्युनिस्ट दोषी ही नहीं हैं। वह अपने हालिया लेख में कहते हैं"आश्चर्यजनक रूप से मार्क्सवादियों की ओर से कभी यह स्वीकारोक्ति (इस गलती के सम्बन्ध में) नहीं की गयी।" एक बार फिर श्रीमान तेलतुम्बडे तथ्यों को तोड़-मरोड़ रहे हैं।हमारा पेपर खुद कम्युनिस्टों द्वारा जाति समस्या को समझने में की गयी गलती के प्रति कटु आलोचनात्मक रुख की गवाही देता है। वास्तव में, पेपर का बड़ा हिस्सा कम्युनिस्ट आन्दोलन की आलोचना को समर्पित है बजाय अम्बेडकर और फूले की आलोचना के।जहाँ तक आधार और अधिरचना का सवाल है कोई भी हमारे अप्रोच पेपर को देख सकता है। हमारी समझदारी उससे बिल्कुल अलग है जिसकी तस्वीर श्रीमान तेलतुम्बडे प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे हैं।

21. इस पैरा में श्रीमान तेलतुम्बडे अपने शिक्षक-उपदेशक के स्वर को जारी रखते हैं। वह दावा करते हैं कि यह केवल वे ही हैं जो लगातार यह कहते रहे हैं कि जातियों को मूल रूप से पदानुक्रम की आवश्यकता होती है और यह पदानुक्रम-रहित जल में जीवित नहीं रह सकती; बाह्य दबाव में वे एक साथ संकुचित होते हैं लेकिन किसी बाह्य दबाव के बिना वे विभाजित होने लगती हैं। वह दोबारा यह कहते हैं कि सभी जाति आन्दोलन जाति की इस बुनियादी चारित्रिक विशेषता को ध्यान में रखने में विफल रहे हैं। यह भी एक थोथा दावा ही है। सुवीरा जायसवाल और आर.एस. शर्मा जैसे इतिहासकार पहले ही इन विशेषताओं की ओर हमारा ध्यान खींच चुके हैं। लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी श्रीमान तेलतुम्बडे अपने खुद के "आविष्कारों" और "खोजों" पर हर्षोन्माद में हैं और हमेशा की तरह ये आविष्कार और खोजें पहले ही की जा चुकी हैं और खेद की बात है कि श्रीमान तेलतुंबडे एक बार फिर देर से पहुँचे हैं! श्रीमान तेलतुम्बडे कहते हैं कि दलितों और पिछड़ी जातियों को यह समझना होगा कि जातीय पहचान नहीं बल्कि यह वर्ग पहचान है जिसमें मुक्तिदायिनी क्षमता है और वह कम्युनिस्टों को भी सलाह देते हैं कि उन्हें दलितों को दिखाना होगा कि वे बदल गये हैं। हम मानते हैं कि ऐसा कम्युनिस्ट केवल संघर्षों और जाति प्रश्न की एक सही समझदारी द्वारा ही दिखा सकते हैं। हम यह भी मानते हैं (और हमने यह पेपर में कहा भी है) कि दलितों की भागीदारी के बिना कोई क्रान्ति सम्भव नहीं है और क्रान्ति के बिना दलितों मुक्ति भी सम्भव नहीं है। हालाँकि श्रीमान तेलतुम्बडे उसका उल्लेख तक नहीं करते हैं। दूसरा, एक बार फिर वह सिद्धान्त और विचारधारा के प्रति अपने संशयवाद का प्रदर्शन करते हैं जब वह कहते हैं कि दलित आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन के बीच मिलन होना चाहिये, न की -वादों के बीच, और ऐसा मिलन तुरन्त ही भारतीय क्रान्ति में फलीभूत हो जायेगा।सबसे पहली बात यह कि क्रान्ति एक विज्ञान का विषय हैअगर लेनिन के शब्दों को उधार लें तो एक उचित वैज्ञानिक और क्रान्तिकारी सिद्धान्त के बिना कोई भी क्रान्तिकारी आन्दोलन नहीं हो सकता। श्रीमान तेलतुम्बडे लेनिन के प्राधिकार का प्रयोग अपनी सुविधानुसार करते हैं। लेनिन आन्दोलन का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धान्त के बारे में काफी विशिष्ट थे। श्रीमान तेलतुंबडे का डेवियन भटकाव एक बार फिर पूरी तरह साफ है।

22.. और 23. इन पैराग्राफों में श्रीमान तेलतुम्बडे आरक्षण की अपनी खुद की वैकल्पिक सोच प्रस्तुत करते हैं जो उनके अनुसार केवल अनुसूचित जातियों की आबादी तक ही सीमित होना चाहिये जिसे समाज में बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। उनके अनुसार, पिछड़ी जातियों और जनजातियों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिये राज्य को अन्य तौर-तरीके उपयोग में लाने चाहिये। आरक्षण की नीति के अन्तर्गत केवल सार्वजनिक क्षेत्र ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण सामाजिक दायरा आना चाहिये, जिसमें सार्वजनिक व निजी दोनों क्षेत्र शामिल हों। श्रीमान तेलतुम्बडे के अनुसार ऐसी आरक्षण नीति वर्तमान आरक्षण नीति की उन सारी बुराइयों से मुक्त रहेगी जो आज शासक वर्गों के हाथ में अपनी इच्छानुसार जनता को बाँटे रखने का सबसे महत्वपूर्ण हथियार बन गयी है। फिर, श्रीमान तेलतुम्बडे अपनी वैकल्पिक आरक्षण नीति में कई सारी और शर्तें जोड़ते हैं। उनका मानना है कि ऐसी स्कीम से जाति उन्मूलन का भार खुद समाज पर ही आ पड़ा होता और वह जाति भेदभाव का अन्त करने को मजबूर होता। हालाँकि हम इस वैकल्पिक आरक्षण नीति के बारे में और विस्तारपूर्वक जानने के लिये उत्सुक हैं, लेकिन हमें लगता है, पहली बात, अगर आरक्षण की नीति को सम्पूर्ण सामाजिक क्षेत्र में विस्तारित कर दिया जाये तो दलित डीस्टिगमैटाइज़्ड (दाग़-मुक्त) नहीं हो जाएंगे, बल्कि जहाँ तक हम देख पाते हैं वे और भी ज्यादा स्टिगमैटाइज़्ड हो जाएंगे। और साथ ही उनके साथ जिस रूप में कलंक जुड़ा हुआ है वह नग्न और 'सतह पर' होने के बजाय और भी सूक्ष्म हो जायेगा। दूसरे यह किसी भी रूप मेंजाति को समाज के लिये एक खत्म किये जाने वाले बोझ में नहीं बदल देगा। जाति का उन्मूलन तब तक नहीं हो सकता जब तक कि वर्ग, राज्य, मानसिक और शारीरिक श्रम, गाँव व शहर, और कृषि व उद्योग के बीच की अंर्तवैयक्तिक असमानताएँ का ह्रास नहीं हो जाता। यहाँ तक कि क्रान्ति के बाद जाति उन्मूलन के लिये कई सांस्कृतिक क्रान्तियों की आवश्यकता होगी। हालाँकि हम श्रीमान तेलतुम्बडे के आरक्षण की नीति के 'जटिल' मॉडल को जानने के लिये खुले हैं, लेकिन मुख्य बात यहाँ पर यह नहीं है। हम श्रीमान तेलतुम्बडे को यह सुझाव देना चाहेंगे कि यदि वह एक सही सैद्धान्तिक अवस्थिति अपनाने में इतने सचेत और उद्यमी होते तो शायद उन्हें कुछ कम समस्याओं का सामना करना पड़ता। हमारे मतानुसार मूल सवाल आज आरक्षण नीति के खास मॉडल में समस्या का नहीं है बल्कि आरक्षण की नीति ही स्वयम् एक समस्या है। आज़ादी के बाद कुछ समय तक यह एक जनवादी अधिकार हो सकता था; हालाँकि आरक्षण का कोई भी मॉडल आज एक भ्रम ही पैदा करता है। आज हमारी माँगें सबके लिये निःशुल्क और समान शिक्षा और सभी के लिये रोजगार होनी चाहिये। केवल ऐसी माँगें ही इस व्यवस्था को उसकी असम्भाव्यता के बिन्दु तक पहुँचा सकती हैं और इन माँगों के लिये होने वाले संघर्षों के दौरान ही जातीगत बन्धन कमजोर पड़ सकते हैं। श्रीमान तेलतुम्बडे की सोच राज्य की भूमिका पर काफी निर्भर है और वास्तव में हम एक सच्चे डेवियन से उम्मीद भी क्या कर सकते हैं! वह सोचते हैं कि यदि राज्य उनके आरक्षण के मॉडल को कार्यान्वित करता हैतो समाज जाति को उखाड़ फेंकने के लिये मजबूर होगा। यह शेखचिल्ली के सपने में रहने के समान है। राज्य कभी भी समाज को एक विशेष तरीके से सोचने या व्यवहार करने के लिये मजबूर नहीं कर सकता। ये ठोस राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संघर्ष होते हैं जो समाज के व्यवहार को आकार प्रदान करते हैं, जिसमें राज्य या तो टिका रहता है या बर्बाद हो जाता है और एक नया राज्य स्थापित होता है। राज्य किसी भी प्रकार के 'सकारात्मक कदमों' द्वारा समाज को किसी खास तरीके से सोचने, कहने या कुछ करने के लिये मजबूर नहीं कर सकता। श्रीमान तेलतुम्बडे ने संगोष्ठी में अपनी आरक्षण नीति की "वैकल्पिक" डेवियन समझदारी की भी कोई व्याख्या नहीं की थी और अब वह हमारी बन्द सिरों वाली पहुँच के लिये हमें खरी-खोटी सुना रहे हैं? क्या यह जायज़ है?!

24. इस पैरा में श्रीमान तेलतुंबडे किसी भी कीमत पर यह साबित करना चाहते हैं कि जहाँ तक जाति समस्या के समाधान से जुड़े हिस्से का सवाल है हमारा पेपर कोई भी नयी बात प्रस्तुत नहीं करता। वह बताते हैं कि ऐसी प्रस्थापनाएँ जाति प्रश्न पर किसी भी कम्युनिस्ट दस्तावेज़ में पाई जा सकती हैं और यहाँ तक कि अम्बेडकर के प्रस्ताव भी हमारे द्वारा अप्रोच पेपर में प्रस्तुत प्रस्तावों से कहीं अधिक आमूलगामी थे। सबसे पहली बात, श्रीमान तेलतुम्बडे से उलट, नूतनता के दावे के प्रति हमारी कोई विशेष चाहत नहीं है। जो सही है वह सही है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कई लोगों द्वारा उसे पहले ही कहा जा चुका है। दूसरे, वह केवल उन्हीं प्रस्थापनाओं का उल्लेख कर रहे हैं जो जाति प्रश्न पर किसी भी आमूलगामी चार्टर के लिये समान हैं। जाति प्रश्न पर प्रस्तावित कार्यक्रम के हमारे पेपर के दो हिस्से हैं। पहला दूरगामी कार्यभारों और समाजवादी समाज के निर्माण द्वारा जाति प्रश्न के समाधान से सम्बन्धित है और दूसरा फौरी कार्यभारों से, जो हमें तत्काल उठाने होंगे। हम श्रीमान तेलतुम्बडे से यह कहना चाहेंगे कि वह अप्रोच पेपर के इस हिस्से पर दोबारा नज़र डालें जिससे कि वे हमारी अवस्थितियों की विशिष्टता को समझ सकें। आरक्षण पर हमारा स्टैण्ड अन्य वाम संगठनों द्वारा साझा नहीं होता। एक नये प्रकार के जाति-विरोधी संगठनों का हमारा स्टैण्ड भी कम्युनिस्ट संगठनों के बहुलांश द्वारा साझा नहीं होता। हरेक अवस्थिति का यहाँ उल्लेख करना बेकार है। रुचि रखने वाले पाठकों से हम अरविन्द स्मृति न्यास की वेबसाइट से अप्रोच पेपर को डाउनलोड कर पढ़ने का आग्रह करेंगे। श्रीमान तेलतुम्बडे को यह साबित करने के लिये कि अम्बेडकर के प्रावधान अधिक आमूलगामी थे प्रस्ताव दर प्रस्ताव तुलना करनी चाहिये; हालाँकि ऐसी पदानुक्रमिक पहुँच से ब्राहमणवाद की बू आती है, फिर भी वे अपनी सनकों और उन्मादों के अनुसार ब्राहमणवादी हो जाते हैं। हम कम या अधिक आमूलगामी के अर्थों में नहीं सोचते हैं। यह दृष्टिकोण का सवाल है। कोई भी जो हमारा पेपर पढ़ता हैसमझेगा कि जातियों के उन्मूलन का हमारा एक वैकल्पिक कम्युनिस्ट कार्यक्रम हैजो कठमुल्लावादी नहीं है और ओपेन-एण्डेड है। हम कभी यह दावा नहीं करते कि हमारा कार्यक्रम अन्तिम और श्रेष्ठ हैइसके उल्ट हम यह मानते हैं कि इसमें कई सारी चीज़े जोड़ी जा सकती हैं या घटाई भी जा सकती हैं। यह वाद-विवाद के लिये प्रस्तुत एक विनम्र प्रस्ताव है। हमने यह संगोष्ठी के दौरान भी कहा था। लेकिन श्रीमान तेलतुम्बडे ये साबित करने के लिये कुछ ज़्यादा ही उत्सुक हैं कि हमने पुराने कम्युनिस्ट कार्यक्रम को ही पुनरुत्पादित कर दिया है! निश्चिय ही हम उन्हें यकीन नहीं दिला सकते।

25. इस पैरा में एक बार फिर श्रीमान तेलतुंबडे की आत्म-मुग्धता सबसे स्पष्ट रूप में प्रकट होती है। श्रीमान तेलतुंबडे कहते हैं कि उन्होंने अपनी 'साम्राज्यवाद विरोध और जाति का उन्मूलन' किताब में जाति उन्मूलन का एक व्यवहारिक खाका पेश किया है। अब ज़रा उनकी खोजों पर नज़र डालते हैं जिनके वह नये और अभूतपूर्व होने का दावा करते हैं। वे कहते हैं कि उन्होंने पाया कि औपनिवेशिक काल से लेकर 1960 के दशक तक हुये पूँजीवादी हमलों के कारण कर्मकाण्डीय जातियाँ कमज़ोर पड़ गयीं और अब क्लासिकीय पदानुक्रमों की बात करना बेकार है। लेकिन जाति के आधुनिक इतिहास लेखन से परिचित कोई भी छात्र/अकादमीशियन/कार्यकर्त्ता जानते हैं कि श्रीमान तेलतुंबडे की इन खोजों में कुछ भी नया नहीं है। इरफान हबीब अपने प्रसिद्ध लेख 'भारतीय इतिहास में जातिमें ऐसे ही तर्क प्रस्तुत करते हैं। सुवीरा जायसवालआर.एस. शर्मा,विवेकानन्द झा जैसे इतिहासज्ञों ने श्रीमान तेलतुम्बडे की किताब के लिखे जाने के बहुत पहले ही यह विचार सामने रखे थे। अतः श्रीमान तेलतुम्बडे का नूतनता का यह दावा अच्छी से अच्छी स्थिति में एक थोथा दावा है और बुरी से बुरी स्थिति में एक गलत दावा। देहाती बुर्जुआ और देहाती सर्वहारा के बीच के जातीय सम्बन्धों को भी काफी पहले स्थापित किया जा चुका है। श्रीमान तेलतुम्बडे अपनी नूतनता का एक बार फिर ग़लत दावा कर रहे हैं। यहाँ तक कि कई कम्युनिस्ट ग्रुपों के दस्तावेज भी ग्रामीण क्षेत्रों में जाति व्यवस्था के इस पहलू का उल्लेख कर चुके हैं। कुलकों और फार्मरों के आर्थिक हित भी किस प्रकार जातीय समीकरणों के रूप में अभिव्यक्त होते हैं यह भी काफी समय से एक सुज्ञात तथ्य है। यही बात राज्य और देहाती बुर्जुआ वर्ग के गठबंधन की उनकी "खोजों" के बारे कही जा सकती है। समाज के अग्रिम तत्वों (बुद्धिजीवियों) द्वारा राजनीतिक अर्थशास्त्र की शिक्षा के द्वारा लोगों को जाति व्यवस्था के कारण पैदा होने वाली सामाजिक बुराइयों के बारे में शिक्षित करने के सम्बन्धित श्रीमान तेलतुम्बडे का चौथा बिन्दु भी एक पुराना तर्क है और अम्बेडकर समेत पहले भी कई व्यक्तियों द्वारा सामने रखा जा चुका है। हालाँकि श्रीमान तेलतुम्बडे की इस आशा के व्यवहार में परिणत होने को लेकर थोड़ा संशय है। और अन्त में, वाम को असुधारणीय और जाति उत्पीड़नों को अंजाम देने वाले तत्वों के साथ "भौतिक रूप से" निपटने का काम सौंप दिया गया है! शानदार! (वाम का काम जाति उत्पीड़नों को अंजाम देने वालों से "शारीरिक रूप से" निपटने तक सीमित कर दिया गया है और शिक्षा/उपदेश/प्रवचन देने की भूमिका को श्रीमान तेलतुम्बडे के लिये आरक्षित कर दिया गया है क्योंकि उनके अनुसार यह तेलतुम्बडे ही हैं जिन्होंने जाति उन्मूलन का खाका पेश किया है!) अपने तर्कों को थोड़ा और स्वीकार्य बनाने के लिये वह यह जोड़ते हैं कि अपनी इस भूमिका से वाम दलितों का भरोसा जीत सकता है और यह क्रान्ति व जाति उन्मूलन की ताकतों को सम्बल प्रदान करेगी। फिर श्रीमान अपनी आखिरी शिक्षा देते हैं, "इतना करो और तुम अपने आप को जातियों के उन्मूलन के करीब पाओगे।" अपनी इन प्रस्थापनाओं को और अधिक विश्वनीयता देने के लिये श्रीमान तेलतुम्बडे कहते हैं कि उनका यह मॉडल साइबरनेटिक्स में उनके खुद के शोध से समर्थित होता है! हम देख सकते हैं कि श्रीमान तेलतुम्बडे एक बार फिर डेवियन "वैज्ञानिक" नियतत्ववाद की ओर वापस जा रहे हैं। श्रीमान तेलतुम्बडे खुद जो भी कहते हों लेकिन इतना तो स्पष्ट हैः नूतनता के उनके दावे आधारहीन हैं और जहाँ तक जाति उन्मूलन का सम्बन्ध हैउनके पास कहने के लिये कुछ भी नया नहीं है।

26. इस पैरा में श्रीमान तेलतुम्बडे यह दावा करते हैं कि वह अपने कथनों से पीछे नहीं हटे। वह कहते हैं कि मैं उनके वक्तव्यों में जिस चीज़ का खण्डन करने के लिये इतनी मेहनत कर रहा हूँ (अम्बेडकर का ड्यूईवाद और एक अलग तरह से श्रीमान तेलतुम्बडे का भी) उस पर श्रीमान तेलतुंबडे का यकीन ही नहीं है। हालाँकि उन्होंने यह खुद स्वीकार किया था कि उन्हें डेवियन पद्धति पसन्द है और यह वैज्ञानिक पद्धति होने के काफी करीब है। यही तो वह चीज़ है जिसका मैंने खण्डन किया था! मैंने यह तर्क किया था कि डेवियन पद्धति अपने को वैज्ञानिक पद्धति की तरह प्रस्तुत करती है लेकिन असल में वह ऐसी है नहीं। इस मामले में यह मैं पहले ही दिखा चुका हूँ कि किस तरह श्रीमान तेलतुम्बडे एक सच्चे डेवियन हैं। उनकी पूरी तर्क पद्धति स्वभाव में डेवियन है। और अब श्रीमान तेलतुम्बडे यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि उनकी डेवियन व्यवहारवाद और इंस्ट्रूमेण्टलिज़्म के प्रति कोई रुचि नहीं है! दूसरे उन्होंने संगोष्ठी में यह माना तो था ही कि वे उन सभी चीजों से सहमत हैं जो मेरे द्वारा कही गयी थीं। उन्होंने कहा,"यहाँ पर बहुत सारी अच्छी बातें कही गयी हैं और उन सबसे वह सहमत हैं।" अब वह कह रहे हैं कि वह पेपर की ओर इशारा कर रहे थे। यह वास्तव में चकित करने वाली बात है! और अगर वह पेपर की ओर भी निर्दिष्ट थे तो भी वास्तव में तो उन्होंने अपने पहले वक्तव्य में पूरे पेपर को भी जातिवादी और ब्राहमणवादी कह कर खारिज़ कर दिया था। (कोई भी इसे नीचे दी गयी लिंक पर दिये गये वीडियो में देख सकता है)। फिर उन्होंने अपने दूसरे पेपर में अपने इस आरोप को वापस ले लिया। श्रीमान तेलतुम्बडे यहाँ एक मनोरंजक वक्तव्य देते हैं। वे कहते हैं कि उन्होंने वहाँ से बाहर निकलने के लिये असुविधाजनक हालत में कुछ बातें कह दींजिसका अर्थ हमारे साथ सहमति के रूप में नहीं लगाया जा सकता! अब हम इस अनोखे वक्तव्य में बारे में फैसला करने का काम पाठकों के ऊपर छोड़ देते हैं। हम पाठकों से और श्रीमान तेलतुम्बडे से भी दोबारा वीडियो देखने का आग्रह करते हैं। पहले वक्तव्य में उनका स्वर एक शिक्षक/उपदेशक के समान था जो वहाँ अनभिज्ञ मार्क्सवादियों को शिक्षित करने आया था। अपने दूसरे वक्तव्य में वह "असुविधाजनक रूप से" "वहाँ कही गयी अधिकांश बातों से" (पेपर में या मेरे द्वारा श्रीमान तेलतुम्बडे की रखी गयी आलोचना मेंइससे कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि इन दोनों में कोई अन्तरविरोध नहीं है) सहमति प्रकट करते हैं। मैं यह कहना चाहता हूँ कि उनके पहले और दूसरे वक्तव्य के स्वरों में अन्तर है और यह अन्तर इतना स्पष्ट है कि कोई भी इसे देख सकता है। वह मुझे उद्धृत करते हैं ("ऐसा मुझे ध्वनित हुआ कि आपका कमेण्ट पूरे पेपर पर था")। हालाँकि कोई भी व्यक्ति जो वीडियो देखता है यह समझ सकता है कि मैं पूरे विनम्र तरीके से यह कह रहा था कि "हाश्रीमान तेलतुम्बडे आपने हमारे पेपर को जातिवादी और ब्राहमणवादी कह कर खारिज तो किया ही था।" हालाँकि मेरा स्वर केवल विनम्र ही हो सकता था क्योंकि जैसा श्रीमान तेलतुम्बडे खुद कहते हैं कि वह एक "वरिष्ठ कार्यकर्त्ता" हैं! अब वह इसे मतिभ्रम या जो चाहें कहें। लेकिन वाद-विवाद का वीडियो अपने आप सारी कहानी बयान कर देता है। विनम्रतापूर्वक कहें तो अपनी बदलती अवस्थितियों के बचाव में यह बहुत कमजोर तर्क है।

 

27. अपने अन्तिम पैरा में श्रीमान तेलतुंबडे ने अम्बेडकरवादियों को कड़ी डाँट-फटकार लगाई है जो चण्डीगढ़ संगोष्ठी में उनकी भागीदारी के बाद से ही उन पर हमले कर रहे हैं। लेकिन यहाँ भी यह स्पष्ट नहीं है कि वह अम्बेडकर में किसी चीज़ का बचाव कर रहे हैं: व्यक्ति विशेष का या उनके विचारों का। क्योंकि जहाँ तक विचारों का सवाल है हम नहीं जानते कि हमारे जाति उन्मूलन के कार्यभार में हम डेवियन व्यवहारवाद से क्या सीख सकते हैं। असल में, श्रीमान तेलतुंबडे खुद कई जगहों पर कहते हैं कि अम्बेडकर के पास जाति उन्मूलन का कोई कार्यक्रम नहीं था। तो फिर अम्बेडकर के किन विचारों की रक्षा की जानी चाहिये? एक बार फिर यहाँ श्रीमान तेलतुंबडे अपनी आत्म-मुग्धता और "दलितों के भोलेपन" में अपने आधारहीन भरोसे की नुमाइंदगी पेश करते हैं। आइए इस पैरा के कुछ कथनों पर नज़र डालते हैं: "यह मैं नहीं हूँ बल्कि आप लोग हैं जिन्होंने बाबासाहेब अम्बेडकर के भोले-भाले अनुयायियों की भावनाओं का एक ऐसे व्यक्ति के (अर्थात् श्रीमान तेलतुम्बडे खुद!) खिलाफ बेज़ा इस्तेमाल करके अपमान किया हैजो कि शासक वर्गों के शिविर से दूर रहते हुये एकनिष्ठ रूप से केवल उन लोगों की सेवा में जुटा रहा है।""मैं ही हूँ वह व्यक्ति जिसने तुम्हारे कबीले के उलट बाबासाहेब अम्बेडकर की स्तुति में रत्तिमात्र भी भक्ति नहीं दिखायीबल्कि मैंने जो कुछ भी किया उसमें उत्कृष्टता प्रदर्शित करने मेंउत्पीड़ित जन के पक्ष में खड़े होने में और उन लोगों की ओर से हमारे चारों ओर मौजूद दुनिया का विश्लेषण करने की क्षमता हासिल करने में उनके रोल मॉडल का पूरी सत्यनिष्ठा के साथ अनुसरण किया…।" अब यह कोई भी देख सकता है कि किस सीमा तक श्रीमान तेलतुम्बडे राजनीतिक आत्मसम्मोहन और आत्म-मुग्धता का शिकार हैं। वह अपने आपको दलित लक्ष्य के स्व-उद्घोषित नायक के रूप में देखते हैं। और यह काफी दिलचस्प है कि उन्होंने हम पर आत्म-मुग्धता का आरोप लगाया है!

अन्त में हम केवल इतना कह सकते हैं कि सभी को श्रीमान आनन्द तेलतुंबडे के साथ हुयी बहस दोबारा देखनी चाहिये और हर चीज़ में-स्वर, अन्तर्वस्तु और रूप में बदलाव को देखना चाहिये। वीडियोज़ को देखना ही इस लेख में श्रीमान तेलतुम्बडे द्वारा किये गये खोखले दावों को समझने के लिये पर्याप्त है। हमने पैरानुसार जवाब दिया ताकि भ्रम की कोई सम्भावना न रह जाये और सभी कॉमरेड्स श्रीमान तेलतुम्बडे के हमारे खण्डन को स्पष्ट रूप से समझ सकें। हम सभी की सुविधा के लिये विडियो का लिंक एक बार फिर दे रहे हैं। सम्पूर्ण वाद-विवाद का लिंकः http://www.youtube.com/watch?v=TYZPrNd4kDQ

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