उम्मीद अभी ज़िन्दा है सरहद के दोनों ओर
एक ऐसे असहिष्णु दौर में जब सरहद के दोनों तरफ नफ़रत की आँधी चल रही हो उस समय अगर अमन के पैरोकार दोनों मुल्कों में आवाज़ उठाते हैं तो यह काबिले तारीफ है। पाकिस्तान में सरबजीत की हत्या के बाद जिस तरह से भारत में माहौल विषाक्त करने का प्रयास किया जा रहा है और इसमें मीडिया खासतौर पर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया बहुत ही खराब रोल अदा कर रहा हो ऐसे में पाकिस्तान के महत्वपूर्ण अखबार जहाँ इस मसले पर पाकिस्तान सरकार के रवैये की आलोचना कर रहे हैं वहीं भारत में भी अमन की आवाज़ कमजोर नहीं पड़ी है। उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने भी मानवीय आधार पर जम्मू जेल में हमले में मरणासन्न सनाउल्लाह को पाकिस्तान भेजने की अपील भारत सरकार से की है।
पाकिस्तान के महत्वपूर्ण अखबार द एक्सप्रेस ट्रिब्यून ने अपने संपादकीय में लिखा है कि केवल यह पर्याप्त नहीं है कि यह पता लगाया जाये कि सरबजीत पर जेल में हमला किन लोगों ने किया बल्कि उन जेल अधिकारियों से सख्ती से निपटा जाना चाहिये जिनके ऊपर सुरक्षा की जिम्मेदारी थी।
अखबार लिखता है कि सरबजीत की सुरक्षा की जिम्मेदारी पाकिस्तान की थी। उसके परिवार ने पाकिस्तान से न्याय माँगा था। पंजाब के कार्यवाहक मुख्यमन्त्री नजम सेठी ने मामले की न्यायिक जाँच के आदेश दिये हैं। यह अभी नहीं कहा जा सकता कि यह हमला पूर्व नियोजित था या नहीं। अखबार लिखता है कि यह गंभीर चिंता का विषय है कि एक भारतीय कैदी जिसका वकील लगतार उसकी जान को गंभीर खतरा होने के विषय में सरकार को चेताता रहा, उसको पाकिस्तानी जेल में कीमा बनाने हद तक पीटा गया। यह जेल अधिकारियों की गंभीर एकमुश्त आपराधिक लापरवाही है। अखबार ज़ोर देकर लिखता है कि पाकिस्तान सरकार को इस बात का जवाब देना ही होगा कि सरबजीत की जान को गंभीर खतरा होने की उसके वकील की चेतावनी के बाद पाक सरकार ने उसकी सुरक्षा के लिये क्या उपाय अपनाए?
अखबार लिखता है कि इस घटना ने न केवल सरबजीत की एक कैदी के रूप में अधिकारों का हनन किया गया बल्कि जेल अधिकारियों द्वारा बरती गई गंभीर खामी ने पाकिस्तानी जेलों की वस्तुस्थिति को उजागर कर दिया है। अखबार कहता है कि उन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सख्त से सख्त एक्शन लिया जाना चाहिये जिन के ऊपर सरबजीत की सुरक्षा का जिम्मेदारी थी।
इस घटना को भारत-पाक सम्बंधों में दरार डालने वाला बताते हुये अखबार लिखता है कि उम्मीद की जानी चाहिये कि इस घटना से उपजे कूटनीतिक विवाद को हल करने के लिये पाक सरकार एक निष्पक्ष जाँच कराएगी। वैसे भी इस घटना ने पाकिस्तान की छवि को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। अखबार जोर देकर लिखता है भारत सहित अपने सभी पड़ोसी मुल्कों से बेहतर और मिलनसार सम्बंध बनाये रखना पाकिस्तान के ही हित में है। सरबजीत की मौत की त्रासदी को आसानी से रोका जा सकता था। अखबार कहता है कि इस घटना की निष्पक्ष जाँच होनी चाहिये और दोषी अधिकारियों को दण्डित किया जाना चाहिये।
सवाल यह है कि क्या भारत के मीडिया से भी ऐसी ही समझदारी और गम्भीरता की उम्मीद की जा सकती है। अफसोस है कि इसका उत्तर फिलहाल ना में ही है।
इसी तरह पाकिस्तान की जानी मानी पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता बीना सरवर ने भी लगातार ट्विटर पर इस मसले पर पाकिस्तान सरकार की आलोचना की और कट्टरपंथियों को करारे जवाब भी दिये। उन्होंने कहा कि बेशक जब कानून अपना काम करता है तब कवल न्याय होना ही नहीं चाहिये बल्कि यह होता हुआ दिखाई भी देना चाहिये।
भारत में उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने भी जम्मू जेल में हमले में मरणासन्न सनाउल्लाह को पाकिस्तान भेजने की पाक सरकार की माँग मानवीय आधार पर स्वीकार करने की अपील भारत सरकार से की है। उन्होंने भारत व पाकिस्तान दोनों की सरकारों से तत्काल एक समिति गठित करने की अपील की है जो दोनों देशों में बन्दी ऐसे कैदियों जिन्हें संदिग्ध या अपर्याप्त सुबूतों अथवा कंफेशन (स्वीकारोक्ति) के आधार पर दोषी ठहराया गया हो, की जल्द रिहाई का तन्त्र स्थापित कर सकें।
जस्टिस काटजू कहते हैं कि अनेक लोगों को कथित कंफेशन के आधार पर दोषी ठहराया गया है और हर कोई जानता है कि हमारे देशों में ऐसे कंफेशन कैसे लिये जाते हैं (थर्ड डिग्री अपनाकर)। इसलिये सजा के लिये इन (कंफेशन) पर निर्भरता पूरी तरह से गलत है। वह कहते हैं कि दुर्भाग्य से दूसरे देशों के नागरिकों के विषय में विचर करते समय लोग पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो जाते हैं। अब समय इन पूर्वाग्रहों की दीवार को गिरा दिया जाये अन्यथा यह पूर्वाग्रह बड़े अन्याय का कारण बनेंगे जैसा कि डॉ. खलील चिश्ती और सरबजीत सिंह इसका शिकार बने।
वरिष्ठ पत्रकार जगमोहन फुटेला कहते हैं- "सौ फीसदी सही हैं पत्रकार सरबजीत बैंस और मेरे और बहुत से दोस्त। सनाउल्ला पर हुये हमले को हम सरबजीत पर हुये हमले का बदला कह कर ख़ारिज नहीं कर सकते। हमें मान ही लेना पड़ेगा कि मानवाधिकारों के मामले में हम भी कुछ कम जाहिल नहीं हैं। शोक अगर सरबजीत का है तो दुःख सनाउल्ला का भी होना चाहिये। जिम्मेवारी दोनों सरकारों और दोनों आवाम की है। जनता के स्तर पर जागृति की लौ जलती रहनी चाहिये। सोना नहीं है क्योंकि हम सब के जागे बिना सबेरा भी होना नहीं है।"
वरिष्ठ साहित्यकार मोहन श्रोत्रिय कहते हैं- "भारत और पाकिस्तान उन सगे भाइयों की तरह हैं, जो कुम्भ के मेले में बिछुड़ गये थे। एक-सा आचरण गवाह है। अब कोई राजनेता न्यूटन के नियम (क्रिया-प्रतिक्रिया) की फिर से याद दिला सकता है। "
वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया समीक्षक आनंद प्रधान कहते हैं- "मानवाधिकार, जेलों में क़ैदियों की बदतर हालत, एकस्ट्रा-जुडिशियल हत्याएँ, न्याय के नाम पर अन्याय, ये सभी कितने बड़े मुद्दे हैं लेकिन भारत के लिये नहीं बल्कि पाकिस्तान के लिये…यहाँ सब ठीक है, पाकिस्तान में सब बुरा है… इसे ही कहते हैं अंध राष्ट्रवाद और आत्ममुग्धता…"
इसीलिये सरहद को दोनों ओर उम्मीद की लौ अभी बाकी है। इंसानियत यूँ ही मर नहीं सकती।
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