BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Friday, May 17, 2013

राजनीति का जांबी कारोबार। मुर्दों के लिए सारां जहां, जिंदो को दो गज जमीन नहीं!

राजनीति का जांबी कारोबार। मुर्दों के लिए सारां जहां, जिंदो को दो गज जमीन नहीं!हम लोग भी मुर्दाफरोश हैं।


पलाश विश्वास


अभी अभी सैफ अली खान की एक फिल्म `गो गोवा गान' की खूब चर्चा हो रही है और इसे भारत में पहली जांबी संस्कृति की फिल्म बतायी जा रही है। जांबी संस्कृति पश्चमी बतायी जा रही है। 'गो गोवा गॉन' एक जांबी विधा की फिल्म है जो ज्यादातर हॉलीवुड में बनती रही है। जांबी दरअसल न भूत न है पिशाच, न वैंपायर न मृतात्माएं। लेकिन अभी अभी कई राज्य सरकारों के दो साल के कार्यकाल के पूरे होने पर देश भर में सरकारी खर्च पर मुख्यमंत्रियों के बड़े बड़े पोस्टर समेत जो विज्ञापनों की बहार आयी है, वह क्या है? हम व्यक्ति पूजा में इतने तल्लीन और अभ्यस्त हैं कि अपने नेताओं और पुरखों को जांबी में तब्दील करने में पश्चिम से कहीं बहुत आगे हैं। राजघाट पर मत्था सारे लोग टेकते हैं, पर गांधी की विचारधारा की इस मुक्त बाजार में क्या प्रासंगिकता रहने दी हमने? अंबेडकर की तस्वीर के बिना इस देश की बहुसंख्य जनता को अपना वजूद अधूरा लगता है।पर उनकी विचाऱधारा, समता और सामाजिक न्याय के एजंडा, जाति उन्मूलन के कार्यक्रम, बहुजनों की मुक्ति के आंदोलन का क्या हश्र हुआ है?


'गो गोवा गॉन' फिल्म अपने विषय के अलावा अपने गानों की वजह से भी चर्चा में आ रही है।इस फिल्म का एक गाना "खून चूस ले तू मेरा खून चूस ले" युवाओं के ‌बीच लोकप्रिय हो रहा है। खासतौर पर युवा प्रोफेशनल्स इसे अपनी जिंदगी से जोड़कर देख रहे हैं।फिल्‍म का निर्देशन कृष्‍णा डी के और राज निधिमोरू ने किया है। फिल्‍म के ट्रेलर को यू ट्यूब पर काफी पसंद किया जा रहा है। इसे तीन दिन में एक मिलियन लोगों ने देखा है। फिल्‍म में सैफ अली खान ने एक रूस के माफिया का किरदार निभाया है जो कि खुद को जांबी हन्‍टर कहता है। फिल्म में तड़कते-भड़कते गाने और बेहतरीन डायलॉग्स हैं।



गांधी और अंबेडकर के स्मारक तो फिर भी समझ में आते हैं, लिकिन जिनका इस देश के इतिहास भूगोल में कोई योगदान नहीं है, उनके नाम पर भी तमाम स्मारकों का प्रतिनियत कर्मकांड हैं। ऐसे महापुरुष आयातित भी हैं। उनकी विचारधारा और उनके आंदोलनों से किसी को कोई लेना देना नहीं। सारे लोग पक्के अनुयायी होने का दावा करते हुए सड़क किनारे शनिदेवता , शिव काली  शीतला संतोषीमाता मंदिर और अनगिनत धर्मस्थलों की तर्ज पर स्मारकों के जांबी कारोबार में करोड़ों अरबों की बेहिसाब अकूत संपत्ति जमा कर रहे हैं। उन मृत महानों, महियषियों को जांबी बनाकर उनकी सड़ती गलती देह विचारधारा, विरासत और अंग  प्रत्यंग आंदोलन  के हालत में , उन्हें जीवित रहने को मजबूर कर रहे हैं ताकि वे हमारे निहित स्वार्थ पूरा करने के काम आ सकें।भारतीय राजनीति के इस जांबी कारोबार के मद्देनजर इस फिल्म को देखें, तो कामेडी की हवा निकल जायेगी, भारतीय लोक गणराज्य की त्रासदियां बेनकाब हो जायेंगी। यह हालत हमें दहशत में नहीं डालती क्योंकि हम लोग भी मुर्दाफरोश हैं!


सन् 1974 की बात है। तब मैं दिनेशपुर हाईस्कूल से दसवीं पास करने के बाद जीआईसी नेनीताल का छात्र बनने के बाद सालभर नैनीताल में गुजार चुका था। ग्यारहवीं की परीक्षा दे चुका था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से चरचा के बाद पिताश्री शरणार्थी नेता पुलिनबाबू देशभर के शरणार्थियों की हालत का मौके पर जांच करके प्रधानमंत्री कार्यालय को रपट देने वाले थे। वे उत्तर से दक्षिण पूरब से पश्चिम के दौरे पर थे। नैनीताल में तार आया कि वे दिल्ली पहुंचने वाले हैं, मैं नैनीताल के शरणार्थी नेताओं के साथ दिल्ली पहुंच जाऊं ताकि उस रपट को लिखने के काम को अंजाम दिया जा सकें। शरणार्थी नेता हिंदी में लिख नहीं सकते थे। मेरी मदद की उन्हें सख्त जरुरत थी। मैं दिल्ली कभी नहीं गया था। पिताजी के लिए दिल्ली लखनऊ की तो डेली पैसेंजरी थी। यह मौका चुकना न था। ग्यारहवीं की परीक्षा खत्म होते ही मैं दिनेशपुर आया। कुमुद रंजन मल्लिक और विवेक विश्वास की अगुवाई में नैनीताल के शरणार्थी नेताओं के साथ मैं दिल्ली कूच कर गया।


जून का महीना था। दिल्ली में आग बरस  रही थी। चांदनी चौक के धर्मशाला की छत पर एक कमरे में जहां आराम से वे मछलियां पका और खा सके धर्मशाला की मनाही के बावजूद, हम लोग ठहरे। मेरा दिल्ली दर्शन शुरु हुआ। तब कृष्ण चंद्र पंत इंदिरा मंत्रिमंडल में ऊर्जा राज्यमंत्री थे और नैनीताल से सांसद थे। तीनमूर्ति मार्ग में उनका बंगला था।


पिताजी की वापसी पर बाकी लोग तो शुरुआती दो तीन दिन में सलाह मशविरा के बाद घर लौट गये, रपट लिखने और टाइप करवाने फिर प्रधानमंत्री कार्यालय में जमा करवाने के कातिर मैं दिल्ली ठहर गया। इस बीच पिता के साथ दिल्ली दर्शन शुरु हो गया। शुरुआत जाहिर है कि राजघाट से हुआ। पिताजी कनाट प्लेस तक चांदनीचौक से पैदल घूमने के आदी । नई दिल्ली के तमाम मंत्रालयों में हम पैदल ही घूम रहे थे। सबसे ज्यादा तकलीफ मुझे दिल्ली में पेयजल संकट से हुई। हम लोगों को तराई या नैनीताल में पानी खरीदने की अभिज्ञता न थी। पहाड़ में भारी जलकष्ट के बावजूद पानी बेचने का धंधा चालू न हुआ था। पर धर्मशाला से नीचे उतरते ही सर्वत्र पानी खरीदकर पीने की मजबूरी ने राजधानी के प्रति मेरे मन में वितृष्णा पैदा कर दी। फिर मंत्रालयों में राजनेताओं, अफसरों और मंत्रियों के काम काज और लालफीताशाही से जल्दी ही राजधानी से मेरा मन उचाट हो गया। उन दिनों में रात को लोग दिल्ली में चांदनी चौक जैसे इलाके में खुल्ले में चारपाई डाल कर सोते थे। सुरक्षा इंतजाम मंत्रालयों में भी नदारद था। यहां तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय में पीसी अलेक्जेंडर के कक्ष में हम आराम से बैठकर बतिया सकते थे।


मालूम हो कि हमने लगभग पंद्रह दिनों की मेहनत से वह रपट तैयार की , टाइप करवाया और प्रधानमंत्री कार्यालय को जमा करने के बाद डाक से तमाम मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और राष्ट्रपति को भी भैजा। इस रपट के साथ भारतीय रेलवे की दुर्दशा पर भी पिताजी के अनुभवों की एक लंबी दास्तां लिखी गयी थी। जिसे भी संबंधित मंत्रियों से लेकर प्रधानमंत्री तक को सौपा गया।पावती पर धन्यवाद के औपचारिक पत्रों के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ। और तभी मैंने पिताजी से साफ साफ कह दिया कि इस तरह मैं मंत्रालयों का चक्कर काट नहीं सकता। सत्ता दलों की कोई दिलचस्पी शरणार्थी समस्या हल करने में नहीं है। तभी से पिताजी के खास मित्रों नारायण दत्त तिवारी और केसी पंत समेत तमाम नेताओं से मेरी दूरी हजारों योजन की हो गयी।


बहरहाल इसी दौड़ भाग के मध्य पिताजीने दिल्ली दर्शन की मेरी आकांक्षा पूरी करने में कोई कोताही नहीं की। पिताजी ने सबसे पहले मुझे राजघाट ले गये। फिर शांतिवन और फिर विजय घाट। फिर नंबर लगा तीन मूर्ति भवन का। उसके बाद 30 जनवरी रोड पर स्थित गांधी स्मारक भवन का। चूंकि जीआईसी में ताराजंद्र त्रिपाठी के कब्जे में मैं पहले ही आ चुका था और बांग्ला के बदले हिंदी में लिखना शुरु कर चुका था। कविताएं छपने लगी थीं और कहानियां बी लिखने लगा था। चारों तरफ नजर रखने और चीजों को बारीकी से देखने की आदत हो गयी थी। गांधी स्मारक में दोपहर के वक्त रिसेपशनिस्ट  कन्या से  मिलने आये उनके पुरुष मित्र की बातचीत में किशोरसुलभ दिलचस्पी कुछ ज्यादा ही थी। खासकर, हम जिस माहौल में थे, लड़के और लड़कियों में सहज वार्तालाप या मुलाकात की कोई संभावना नहीं थी।लड़कियां स्कूलों और कालेजों में झुंड में रहती थीं, उनके साथ एकांत की कल्पना की जा सकती थी, हकीकत में ऐसा बहुत कम हो पाता था।जो बहुत मन को भा जाती थीं और जिसके बिना जीना मुश्किल होता था, उससे बतियाने का कोई जुगाड़ बन ही नहीं पाता था।


लेकिन इस जोड़ी ने गांधी स्मारक में बैठे स्मारकों और समाधियों के खिलाफ जो चर्चा की , उसने उस वक्त हमारे मन में तमाम सवाल खड़े कर दिये थे।मसलन वे कह रहे थे कि दिल्ली में जिंदा लोगों को दो गज जमीन मयस्सर नहीं, पर स्मारकों और समाधियों के लिए इतना तमाम तामझाम और हजारों एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा!


दिल्ली में महात्मा गांधी के समाधि स्थल राजघाट, जवाहरलाल नेहरू के समाधि स्थल शान्तिवन , लालबहादुर शास्त्री के समाधि स्थल विजय ,इंदिरा गांधी के समाधिस्थल शक्तिस्थलसे लेकर चरणसिंह के समाधिस्थल किसान घाट और जगजीवनराम के समाधिस्थल समतास्थल जैसे अति महत्वपूर्ण स्मारक स्थल हैं।दिल्ली तो है दिल वालों की। दिल्ली के इतिहास में सम्पूर्ण भारत की झलक सदैव मौजूद रही है। अमीर ख़ुसरो और ग़ालिब की रचनाओं को गुनगुनाती हुई दिल्ली नादिरशाह की लूट की चीख़ों से सहम भी जाती है। चाँदनी चौक-जामा मस्जिद की सकरी गलियों से गुज़रकर चौड़े राजपथ पर 26 जनवरी की परेड को निहारती हुई दिल्ली 30 जनवरी को उन तीन गोलियों की आवाज़ को नहीं भुला पाती जो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के सीने में धँस गयी थी।दिल्ली भारत की राजधानी एवं महानगरीय क्षेत्र है। इसमें नई दिल्ली सम्मिलित है जो कि ऐतिहासिक पुरानी दिल्ली के बाद बसी थी। महान ऐतिहासिक महत्त्व वाला यह महानगरीय क्षेत्र महत्त्वपूर्ण व्यापारिक, परिवहन एवं सांस्कृतिक हलचलों से भरा है। दिल्ली देश के उत्तरी मध्य भाग में गंगा की एक प्रमुख सहायक नदी यमुना के दोनों तरफ़ बसी है। दिल्ली, भारत का तीसरा बड़ा शहर है।


आज करीब चालीस साल बाद वह जोड़ा कहां और किस हाल में होगी, एक साथ या अलग अलग, उनका नाम भी हमें नहीं मालूम, पर उनकी कहीं बातें सिलसिलेवार ढंग से याद आ रही है। क्योंकि अंततः भारत सरकार ने एक सकारात्मक फैसला किया है कि अब किसी भी राष्ट्रीय नेता के निधन पर  राजधानी में कोई समाधि नहीं बनेगी।अब राष्ट्रपतियों, उपराष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, पूर्व राष्ट्रपतियों,  आदि के अंतिम संस्कार राष्ट्रीय स्मृति समाधिस्थल पर किये जायेंगे।


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में गुरुवार को हुई कैबिनेट की बैठक में यह फैसला किया गया कि अब किसी भी नेता के मरने पर उसकी अलग से समाधि नहीं बनाई जाएगी। सिद्धांत रूप में यह फैसला 2000 में ही कर लिया गया था। सरकार का मानना है कि राजघाट के पास कुछ समाधि स्थल बनाए जाने से काफी जगह घिर गई है। जगह की कमी को देखते हुए यह फैसला करना पड़ा कि समाधि परिसर को राष्ट्रीय स्मृति के रूप में विकसित किया जाएगा। यहां दाह संस्कार के लिए जगह बनाने के साथ ही लोगों के लिए भी पर्याप्त जगह छोड़ी जाएगी। यह जगह एकता स्थल के पास होगी।


गौरतलब है कि इसी स्मृति स्थल में हाल में पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल का पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। इस मौके पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी मौजूद थे। प्रार्थना सभा और 21 बंदूकों की सलामी के साथ उनके पार्थिव शरीर का यमुना किनारे स्मृति स्थल में दाह संस्कार किया गया जहां उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी भी मौजूद थी। स्मृति स्थल देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समाधि स्थल 'शांति वन' और लाल बहादुर शास्त्री के समाधि स्थल 'विजय घाट' के बीच स्थित है।


मजे की बात तो यह है कि इसके बावजूद इस क्रांतिकारी फैसले के साथ ही कैबिनेट ने महात्मा गांधी से जुड़े स्थानों को विकसित करने के लिए गांधी धरोहर मिशन शुरू करने का फैसला किया है। इसके लिए 39 मुख्य स्थानों को चुना गया है। इससे पहले पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल व महात्मा गांधी के प्रपौत्र गोपाल कृष्ण गांधी की अध्यक्षता में बना पैनल  स्थानों को चिह्नित कर चुका है।अगर गांधी के नाम पर स्मारकों का कारोबार जारी रहता है, तो अंबेडकर और दूसरों के नाम पर क्यों नहीं?


इस फैसले से केंद्र सरकार की मंशा समझ में आने लगी है।जगजीवनराम और चरण सिंह के निधन के बाद समाधिस्थल को लेकर जो बवाल मचा था, उसके मद्देनजर भविष्य में ऐसी ही घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकना ही असल मकसद है।और कुछ नहीं। इसके साथ ही पहले से बने हुए समाधिस्थल और स्मारक समाधियों और स्मारकों की भीड़ में कहीं गायब न हो जाये, इसे रोकने का भी पुख्ता इंतजाम हो गया है।


आखिर यह भी एक तरह का स्थाई आरक्षण ही हुआ।अतिक्रमण रोकने के लिए चहारदीवार बना दी गयी!


इसी संदर्भ में केंद्र सरकार की मंशा साफ करने लायक एक और फैसला हुआ जो क्रिमीलेयर की सीमा तय करने से संबंधित है, सत्ता वर्ग के क्रिमी लेयर के हित साधने के बाद  कैबिनेट ने ओबीसी आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर की सालाना आय सीमा साढ़े चार लाख से बढ़ा कर छह लाख रुपए कर दी है।मौजूदा हालत में यह सीमा कम से कम बारह लाख करने की मांग की जा रही थी।पर सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के आरक्षण के दायरे में अब सालाना छह लाख रूपए तक की आय वाले लोगों को शामिल करने का फैसला किया है। देश भर में क्रीमी लेयर की सीमा लागू करने के लिए अब तक आय सीमा साढ़े चार लाख रुपए सालाना थी। नई आय पात्रता छह लाख रुपए सालाना होगी यानी छह लाख रूपए सालाना से अधिक आय वाले अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।


क्रीमी लेयर को बाहर रखने के इरादे से की गई आय सीमा में यह बढोतरी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में बढोतरी को देखते हुए की गई है। इससे अन्य पिछड़ा वर्ग के अधिक से अधिक लोग सरकारी सेवाओं और केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों में मिल रही आरक्षण सुविधा का फायदा उठा सकेंगे। सरकार का मानना है कि इससे समाज में समानता और समावेशीकरण बढ़ेगा।


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