मुंह बोले तो सरोकार, कलम बोले तो नौकरी बचाओ यार!
मीडिया के तमाम गिद्ध सिद्ध हो गये हैं!
न्यू मीडिया का ये वो दौर है, जब अपने समय की प्रतिभाएं तिया-पांचा की परवाह किये बिना विचारों के मैदान में युद्धरत हैं। कहते हैं, हिंदी साहित्य में परिमल बनाम प्रगतिशीलों का दौर कुछ ऐसा ही था। उस समय परचेबाजियां होती थीं, अब ये सब करने के लिए फेसबुक का अखाड़ा है। टीवी पत्रकार अजीत अंजुम ने इंडिया टुडे के ताजा अंक की कवर स्टोरी पर चुटकी ली और संपादक दिलीप मंडल को बधाई दी, तो तमाम युवा-अधेड़-उम्रदराज बहसबाज गंभीरता से कूद पड़े। अविनाश नाम के तीसमारखान ने भी माइलेज लेने की कोशिश की (www.facebook.com), लेकिन क्योंकि वे एक बेहद मामूली आदमी हैं, हम यहां अजीत अंजुम के यहां चली बहस चिपका रहे हैं : मॉडरेटर
अजीत अंजुम का फेसबुक स्टैटस
हमारे एक पत्रकार साथी हैं – दिलीप मंडल। सरोकारी पत्रकारिता के बड़े पक्षधर और कॉरपोरेट पत्रकारिता के भयंकर विरोधी। विचारों से काफी क्रांतिकारी किस्म के हैं। इन दिनों इंडिया टुडे (हिंदी) के संपादक हैं। दिलीप जी के हिंदी इंडिया टुडे के कवर पर दुनिया भर की महिलाओं और पुरुषों के सरोकार से जुड़ी एक कवर स्टोरी है। शीर्षक है, उभार की सनक। कवर पर एक तस्वीर है, जिसके नीचे लिखा है – महिलाओं को चाहिए तराशे हुए वक्ष और मर्दों को चुस्त की चाहत। दिलीप जी को बधाई। ऐसी कवर स्टोरी के लिए। वैसे ये अंग्रेजी इंडिया टुडे का अनुवाद है। आप सब लोग भी चाहें, तो दिलीप मंडल जी को इतना शानदार अंक निकालने के लिए और जन सरोकार वाली पत्रकारिता करने के लिए बधाई दे सकते हैं।
सर, क्या आप मुझे कोई एक मीडिया समूह बता सकते हैं, जो सरोकारों की पत्रकारिता कर रहा है? अभिषेक मनु सिंघवी की सेक्स सीडी की खबर आयी, माना कि कोर्ट का आदेश था, कोर्ट ने कहा था सीडी का प्रसारण न करे, लेकिन कोर्ट ने पत्रकारों को यह आदेश नहीं दिया था कि वो इस बात पर इंवेस्टिगेशन न करे कि सिंघवी कोर्ट चैंबर में क्या कर रहे थे?
खैर… सेक्स बिकता है… और मीडिया के लिए अब सिर्फ सामान बेचना ही तो रह गया है। हम सेक्स बेच रहे हैं, बाबाओं को बेच रहे हैं, सब कुछ तर्क-वितर्क, ज्ञान-विज्ञान ताक पर रखकर निर्मल बाबा जैसे नव भगवानों का विज्ञापन प्राइम टाइम में दिखा रहे हैं…
मैं मीडिया के बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानता। पत्रकारिता कर रहा हूं लेकिन खुद को छात्र ही ज्यादा समझता हूं। बड़े संपादकों पर मैं टिप्पणी नहीं कर सकता। बड़े संपादकों के अपने एजेंडे और अपनी मजबूरियां होती होंगी, और अपने सरोकार भी…
लेकिन एक बात है सर… नयी उम्र के पत्रकार, जो नये मीडिया को समझते हैं, वो अपने तरीके से… कम रिसोर्सों के साथ ही सही… अपनी बात रखेंगे, रिपोर्ट करेंगे और लोगों तक बात पहुंचाएंगे।
एक उदाहरण देता हूं। जैसे ही सिंघवी के सेक्स वीडियो की खबर आयी मुझे आभास सा हुआ कि इसे कार्पोरेट मीडिया कैरी नहीं करेगा… (भई कोर्ट का आदेश जो है)…
इसलिए एक वीडियो रिपोर्ट… ऐसे ही लैपटॉप से बनाकर यूट्यूब पर डाल दिया। इसे अब तक 70 हजार से ज्यादा लोग देख चुके हैं…
अजीत अंजुम
दिलनवाज जी, बात तो दिलीप जी की हो रही है। एक बार मैंने कुछ इसी तरह के सवाल दिलीप जी से पूछे थे, उन्होंने कहा था शायद – फुटबॉल के मैदान में हॉकी की स्टिक नहीं चलती। तो मैंने तो उन्हीं से सीखा है। मुद्दे पर बात करना। मैं तो कुछ कह ही नहीं रहा हूं कि कौन मीडिया हाउस सरोकार की पत्रकारिता करता है, कौन नहीं। मैं तो दिलीप जी की बात कर रहा हूं, अलख जगाते रहे हैं… मशालें लेकर।
दिलनवाज पाशा
दिलीप मंडल जी निश्चित ही सरोकारों की बातें करते हैं। कार्पोरेट मीडिया के अपने नियम हो सकते हैं। हो सकता है वहां रीडर इंट्रेस्ट एक संपादक की समझ और सरोकार से ज्यादा हो इसलिए वो वहां मजबूर हो जाते हों… लेकिन कम से कम सोशल मीडिया पर, संगोष्ठियों में और जहां भी वो जाते हैं स्वीकार तो करते हैं कि कार्पोरेट मीडिया का क्या स्वरूप हो गया है।
मैं यहां उनका पक्ष नहीं ले रहा हूं… लेकिन सर आप भी एक बड़े संपादक हैं। जब कॉलेज में था तो एक सीनियर ने कहा था अजित अंजुम जी से सीखो… उनके तेवर देखो… बहुत कुछ समझ में आएगा।
मैं आपसे सीधा सवाल करता हूं सर…. अब आपके वो तेवर कहां हैं (जिनका उल्लेख मेरे सीनियर ने कहा था)… न्यूज 24 पर न सही, यहीं बता दीजिए कि निर्मल बाबा पर आपकी व्यक्तिगत राय क्या है?
आलोक कुमार
दिलनवाज भाई, अंजुम जी कभी सेमिनारों में जाकर इस तरह के मीडिया से किनारा करने की बात नहीं करते, न ही मजबूरियों को छिपाते हैं। जहां तक मैं समझता हूं टीआरपी के खेल में जो हो रहा है, उसी दुनिया में रह कर बेहतरी की बात करते हैं। दिलीप जी को इस मीडिया से गुरेज था। उन्होंने ताल ठोंक कर हुंकार भरी थी वैकल्पिक रास्ते के जरिये इसे दुरुस्त करने की और दलालों की मंडली में शामिल न होने की। तो स्पष्ट है, गुस्ताखी उन्होंने खुद अपने साथ की है। सुनना तो पड़ेगा।
संजय पाठक
मुखौटे हैं, मुखौटे
किसी के पीछे कौवा छुपा है
तो किसी के पीछे सुग्गा
सुयार भतेरे, भतेरे बंदर
मुखौटे वाले भेड़िये अनेक
क्यों महाराज?
दिलनवाज पाशा
मतलब अब यह हो गया है कि मशाल लेकर अलख जगाने वाले के सामने एक ही विकल्प रहना चाहिए… भूखे रहना।
अश्विनी कुमार श्रीवास्तव
मंडल जी वहां नौकरी कर रहे हैं। जैसे कि अंजुम जी कर रहे हैं। आपके चैनल पर जो कुछ दिखता है, उसके लिए आप तो मासूम बन जाते हैं क्योंकि आप मालिक नहीं, उस चैनल के नौकर हैं। फिर मंडल जी को क्यों कोस रहे हैं… वो कम से कम कहीं तो सरोकार की बात कर रहे हैं।
आलोक कुमार
दिलनवाज भाई, हम भी नौकरी करते हैं। ये हमारी मजबूरी है। पेट भरना है अपना भी, बच्चों का भी। लेकिन सोच-समझ, वैचारिक क्रांतिकारिता इसकी मोहताज नहीं होती। हम अपने ही संस्थान को गरियाएं और विकल्प तलाशने की कोशिश करें तो ये व्यावहारिक नहीं होगा और भूखा तो संस्थान कर ही देगा। पर दिलीप जी इसके उलट उवाच करते आये थे। मानो जब तक भारतीय पत्रकारिता आइडियल या यूं कहे सामाजिक न्याय के कथित सिद्धांतों को अपना नहीं लेती वो लड़ाई लड़ेंगे, फिर क्यों कूद गये कुएं में?
दिलीप जी इंडिया टुडे के कवर पेज पर स्तन का उत्थान दिखा कर अपने पतन की कहानी बयां कर रहे हैं।
शिवानंद द्विवेदी सहर
दिलीप मंडल साहब को मै उसी बच्चे की तरह मानता हूं जो जब मर्जी मिट्टी का घर बनाता है और जब मर्जी उसे गिरा देता है! बच्चों की बातों पर ध्यान नहीं देते अंजुम साहब! इंडिया टुडे अपने जिस दौर में है, उसको आने वाले दिनों में सर्कुलेशन बचाना भारी पड़ेगा! ये तो शुक्र मनाइए कारपोरेट मैनेजरों का (जिनके दिलीप मंडल दिखावटी विरोधी हैं) जो पैसे का जुगाड़ कर दिलीप की नौकरी बचा रखे हैं!
मोहम्मद अनास
जैसे दिलीप मंडल सर बधाई के पात्र हैं, ठीक वैसे ही अजीत अंजुम सर भी। एक महिलाओं के वक्ष के उभार की बात करता है तो दूसरा निर्मल बाबा को दिखा कर खुद को स्थापित करता है। दोनों पत्रकरिता कर रहे हैं और हम जैसों के आदर्श बन रहे हैं।
मैं एक छात्र हूं और हमेशा दोनों से सीखता आया हूं!
दिलनवाज पाशा
कितना आसान हो गया है हंस लेना, उपहास उड़ा लेना…
अभी यहां जितने भी लोग दिलीप जी का उपहास उड़ा रहे हैं, उनमें से कोई एक भी अपनी कोई एक ऐसी रिपोर्ट का लिंक मुझे दे जिसमें जन सरोकार हो। मैं उस व्यक्ति का सम्मान करना चाहता हूं दिल से।
अरे अंधेरे के इस दौर में जब विलासिता संपादकों पर हावी हो गयी है, जब संपादक नोट सूंघकर सोये हैं, तब सरोकारों की बात करना भी हिम्मत का काम है।
मैं तो सलाम करता हूं उस व्यक्ति को जो कम से कम बातों में ही सही सरोकार तो रखता है। यहां तो लोग अपनी व्यक्तिगत राय तक जाहिर करने में गुरेज करते हैं
भारती ओझा
माफ करें अजीत जी, मुझे बहुत कम मौकों पर ही दिलीप जी के विचार और लेख सही लगे हैं। वर्ण व्यवस्था का भान जिन्हें नहीं हो, उनके विचार जातीयता को बढ़ावा देने के लिए काफी है। ये मेरे व्यक्गित विचार हैं। ऐसे शीर्षक के साथ जन सरोकार से भरी कवर स्टोरी के लिए दिलीप जी को मैं बधाई नहीं दे सकती।
मोहम्मद अनास
और कौन लोग बोल रहे हैं जिनकी नजरें उभारों पर जा कर सब कुछ भूल जाती हैं! जो मैगजीन के सबसे पिछले पन्ने को पलटने को आतुर बैठे रहते हैं, दिलीप सी मंडल सर ने वही लिखा जो समाज में हो रहा है, यही तो जन सरोकार है, हां हम उसे किस रूप में स्वीकार कर रहे हैं वो मायने रखता है, पर सरोकार ये नहीं था कि निर्मल बाबा को सबसे ज्यादा दिखाया जाए!
वरुणेश विजय
यह बहस गलत दिशा में जा रही है। या तो इसे सही पटरी पर लाइए या खत्म कीजिए। अजीत सर ने अपनी राय रखी है, उन्होंने किसी पर आरोप नहीं लगाया है।
मोहम्मद अनास
अब 'गलत' लगने लगा। नहीं भाई ऐसा नहीं है, बात दिलीप जी की ही हो रही है, बस उसमें अजीत सर को भी शामिल कर लिया गया है… क्योंकि दोनों जन सरोकारों की बात करते हैं और काम उसके विपरीत (ऐसा कुछ लोगों को लगता है, जरूरी नहीं सबको लगे, मुझे लगे, आपको लगे…)
वरुणेश विजय
मुझे लगता है अनास सही हैं। हम सबको सकारात्मक रुख अख्तियार करने की जरूरत है। आरोप-प्रत्यारोप की जरूरत नहीं है। हम सब जिम्मेदार हैं। कम से कम अपना पार्ट तो सही कर सकते हैं। कभी कभी दूसरों की गलती से खुद भी सीख लेनी चाहिए।
शरद दीक्षित
जब दिलीप मंडल फेसबुक पर डौंडियाते थे तो वो आप पर निशाना साधा करते थे। आप उनका सीधा जवाब देते थे। मुकाबला काफी रोचक होता था। बहुत दिनों बाद वो रण फिर से शुरू हुआ है, लेकिन अफसोस दिलीप मंडल अब इसका जवाब शायद नहीं देंगे।
मुकेश केजरीवाल
दिलनवाज भाई, आप मंडलजी को इसलिए ठीक मान रहे हैं, क्योंकि वह व्यक्ति कम से कम बातों में ही सही सरोकार तो रखता है… लेकिन जो लोग सिर्फ दूसरों को ज्ञान पेल कर मलाई उड़ाते हैं, उन्हें आसाराम और निर्मल जैसा ढोंगी माना जाता है। आपने जन सरोकारों वाली स्टोरी का लिंक दिखाने की चुनौती दे कर कोई गलत काम नहीं किया। इसका आपको हक है। लेकिन अजितजी ही नहीं, प्रभात रंजन, आलोक कुमार जैसे ऊपर के टिप्पणी करने वालों में से कई ने बहुत अच्छी और सरोकार भरी पत्रकारिता की है। दिलनवाज भाई, सारे सरोकार आप इंटरनेट की लिंक पर नहीं देख पाएंगे। थोड़ा गहरे उतरना होगा।
आपका जज्बा बरकरार रहे…
मोहम्मद अनास
जैसे सारे सरोकार/परोपकार लिंक में नहीं ढाला जा सकता, ठीक वैसे ही Dilip C Mandal सर या फिर अजीत अंजुम सर की कथनी/करनी पर बहस भी इस 16 इंच की स्क्रीन पर नहीं हो सकती। यदि होती है, तो सरोकारों को सबूतों की शक्ल देने में क्या परेशानी बड़े भाई मुकेश केजरीवाल।
मुकेश कपिल
सही है। यूं तो ये नेता भी मंचों से बड़ी-बड़ी सरोकारों की बातें करते हैं… लेकिन आखिरकार किसी वकील के चैंबर में नंगा नाच करते हुए पकड़े जाते हैं… या कोई उन पर अपना बाप होने का दावा करता है, तो जब खुद मलाई खा ली तो लंबी लंबी छोड़नी काहे की। मलाई खाने वाले और नेता एक ही हुए। सरोकारों की बात किनारे हो जाती है, जब सामने नौकरी का सवाल हो। जब हमारा वक्ता आएगा निर्णय लेने का तो शायद हम भी मलाई ही ले लें। लेकिन भगवान से यही प्रार्थना है कि इस काबिल बना देना कि सरोकारों को चुनें।
उमाशंकर सिंह
ये मंडल जी के 'दलित एजेंडे' का 'वैकल्पिक मीडिया उभार' है… किसी को अन्यथा नहीं लेना चाहिए
मुकेश केजरीवाल
मोहम्मद अनास, दोस्त, मैंने तो नहीं कहा कि इस 16 इंच स्क्रीन पर ही सारी बहस हो सकती है। रही बात सरोकार के सबूतों की तो अगर सचमुच चाहिए तो थोड़ी मेहनत कीजिए। आसानी से मिल जाएंगे। सचमुच, यह कोई भारत सरकार से जारी नागरिक पहचान पत्र तो है नहीं कि जेब से निकाल कर कोई दिखा दे।
प्रशांत पाठक
मुंह बोले तो सरोकार, कलम बोले तो नौकरी बचाओ यार … सब गिद्ध सिद्ध हो गये।
मोहम्मद अनास
बड़े भाई मुकेश केजरीवाल, सर से पिछले एक साल से फेसबुक पर जुड़ा हूं, व्यक्तिगत नहीं जानता (पर ये कोई पाप नहीं है, क्योंकि व्यक्तिगत तो मैं मनमोहन या राहुल को भी नहीं जानता, पर जितना जानता हूं उतना काफी है बहस/मुबाहसा के लिए! और मुझ जैसा अदना सा पत्रकारिता का छात्र भला कैसे किसी इतने बड़े व्यक्ति के विषय में पूछताछ करे… मजाल नहीं मेरी, वो तो आपको जवाब दे रहा था, क्योंकि आप भटका रहे थे विषय से!
मत्स्येंद्र प्रभाकर
इस स्टोरी में सरोकार तो है 'जन' नहीं। इस मानी में कि इससे आम आदमी को कोई फायदा नहीं है, जिसकी दिलीपजी अपनी शब्द-महिमा में पेशगोई करते आये हैं। मुझे उन्हें सेवा के 'इस ढर्रे' पर तो बधाई देने का मन करता है, उनके इस कृत्य के लिए नहीं। यह ठीक है कि जो दिखता है, वह बिकता है। अपने महान 'शब्द-जाल से फैले' दिलीपजी पर भी यह बात खूब फब्ती है!
अब कहां गया आप का चिंतन भाई, और दलित दलित स्वाभिमान का प्रश्न? उत्तर प्रदेश में सुश्री मायावती के शासनकाल में भ्रष्टाचार चाहे जितना हुआ हो, काम भी तो हुआ है, उन्होंने पर्यटन क्षेत्र में उत्तर प्रदेश की अर्थ-व्यवस्था का (साम्राज्यवादी तरीके का ही सही) 'नया अर्थ-शास्त्र गढ़ा है…' इस ओर किसी महान चिंतक-ज्ञानी-ध्यानी और पत्रकार की नजर क्यों नहीं जाती/जा रही है? सब अपने-अपने तरीके से सिर्फ अखिल-साधना में लग गये हैं।
अश्विनी कुमार श्रीवास्तव
वो पहला पत्थर मारे, जिसने पाप न किया हो। अंजुम जी भले ही मंडल जी की नैतिकता पर सवाल उठा लें, मगर निर्मल बाबा की तीसरी आंख दिखा कर जो मलाई आपने काटी है, वो भी किसी से छिपी नहीं है। और जनता खुद फैसला कर लेगी कि वक्ष का उभार छापने वाले बड़े दोषी हैं या किसी ठग को भगवान घोषित करने वाले। नैतिकता और रोजगार पर सवाल उठाने वाले ऐसे लोगों का बस चलता तो वो मार्क्सवाद में भी पाप देखने लगते क्योंकि एक पूंजीवादी की मदद मार्क्स ने भी ली थी। मुद्दा ये क्यों है कि दिलीप मंडल अगर सरोकार की बात कर रहे हैं तो वो खुद पूंजीवादी सिस्टम के पार्ट क्यों हैं, मुद्दा ये क्यों नहीं है कि मंडल जी जो सवाल उठा रहे हैं, वो सही है या गलत?
संजय कुमार श्रीवास्तव
व्यावसायिक मजबूरी… दरअसल मीडियाकर्मियों को अभी तक यह बात पूर्णरूपेण समझ में नहीं आ पाया कि वे भी अन्य व्यावसायों की तरह ही एक व्यवसाय मीडिया में कार्य करते हैं और इसका मकसद भी अन्य व्यवसायों की तरह मात्र धन कमाना ही है और साथ में थोड़ी शोशेबाजी भी हो जाती है… और फिर व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता भी होगी ही। अच्छी बात यह है कि आम जनता को भी यह बात अब अच्छी तरह समझ में आ गयी है और वह भी इनसे किन्हीं आदर्शों की उम्मीद नहीं करती।
अशोक दास
पहले गिरेबां देख तू अपनी, फिर बता किस-किस की गिरेबां दागी है
किसी ने क्रांति और सरोकारों की बात तो कही थी, तू तो कभी न हो सका बागी है
अजीत अंजुम
भाई लोग, आप लोग मेरी मंशा पर खांमखां संदेह कर रहे हैं। मैं तो दिलीप जी की तारीफ कर रहा हूं कि उन्होंने इतना अच्छा अंक निकाला है। आज सुबह-सुबह अखबार के साथ हॉकर इंडिया टुडे का ये अंक दे गया। कवर देखते ही मुझे दिलीप जी की याद आ गयी। आप लोग मेरी बातों को कृपया गलत अर्थों में न लें।
सुरेंद्र सागर
अजीत अंजुम, कोई टीका टिप्पणी तो मैं आर्टिकल पढ़ कर ही कर सकता हूं, लेकिन हां, इतना जरूर है कि दिलीप सी मंडल एक सजग पत्रकार हैं और कम से कम बाकी पत्रकारों की तरह और न्यूज चैनल की तरह सस्ती और दोमुंही बात नहीं करते।
अजीत अंजुम
दिलनवाज जी, आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। दिलीप जी उच्च विचारों से लैस, समाज और सरोकार के प्रति कटिबद्ध आदमी हैं। मीडिया के बाजारू होने और कॉरपोरेट का कैदी होने के खिलाफ दिलीप जी हमेशा सेमिनारों और अलग अलग मंचों पर बोलते रहे हैं। अच्छी-अच्छी बातें करते रहे हैं। मीडिया के अंडरवर्ल्ड की गहरी समझ भी है उन्हें। तभी तो सेमिनार से इंडिया टुडे की बिल्डिंग में आते ही चोला गेट पर उतार देते हैं। फिर जब सेमिनार में जाना होता है, तो गेट पर टंगा चोला पहन लेते हैं। वैसे ये चोला मिस्टर इंडिया वाला है, आपको दिखता नहीं है। मैं तो उनकी तारीफ कर रहा हूं। गजब की शख्सियत हैं। तीन साल तक बोलते कुछ रहे और करने की बारी आयी तो वही कर रहे हैं जो उन्हें करना चाहिए। मैं तो उनकी flexibility की तारीफ कर रहा हूं भाई। कुछ दिन पहले सनी लियोन की भी कवर स्टोरी आयी थी। बहुत अच्छा अंक था। काफी समझदार हैं दिलीप जी। मैं उनकी तारीफ कर रहा हूं और आप मेरी बातों को तोड़ मरोड़कर समझ रहे हैं तो मैं क्या करूं?
सुरेंद्र जी, आप तो दिलीप जी के अच्छे मित्र हैं। बिल्कुल सही कर रहे हैं। समझाइए न बाकी लोगों को। खांमखां दिलीप जी को लोग गलत समझ रहे हैं। मैं तो यही कह रहा हूं कि दिलीप जी तो हम जैसों से बहुत अच्छे हैं। कभी दोमुंही बात नहीं करते। सिर्फ काम करते हैं। बातें करने का क्या फायदा। मैंने पहले भी सीएनबीसी आवाज में कई सालों तक उनका काम देखा है। बिल्कुल वही करते हैं, तो बाजार चाहता है। बाहर निकलते हैं तो वही बोलते हैं, जो बाजार के खिलाफ हो। अब इंडिया टुडे में वही कर रहे हैं, जो बाजार चाहता है। जिस दिन बाहर निकलेंगे, वही बोलेंगे जो बाजार के खिलाफ हो। इसमें कोई शक नहीं, दिलीप जी हम जैसों से बहुत अलग हैं। बहुत अलग हैं। सही कह रहे हैं आप सुरेंद्र जी।
सुरेंद्र सागर
'मीडिया के अंडरवर्ल्ड की गहरी समझ भी है उन्हें। तभी तो सेमिनार से इंडिया टुडे की बिल्डिंग में आते ही चोला गेट पर उतार देते हैं। फिर जब सेमिनार में जाना होता है, तो गेट पर टंगा चोला पहन लेते हैं…'
अजीत अंजुम ये काम तो सभी न्यूज चैनल कर रहा है। कौन सा चैनल है ऐसा देशभक्त, बताइए। गंदा है पर धंधा है। और फिर नौकरी है… निर्मल बाबा से अपना जिनको हिस्सा मिल गया, चुप हैं, जिनको नहीं मिला, अपने हिस्से के लिए चिल्ला रहा है। वो चोला तो मैंने नहीं देखा जिसे लोग पहन और उतार लेते हैं, बल्कि कुछ पत्रकारों को जरूर देखा है जो दलितों को खुल कर गाली देते हैं। उनमें से एक की कांशी राम जी ने पिटाई भी की थी। ये बात मेरी आंखों के सामने हुई थी। नाम तो और भी हैं, जो बेचारे क्या करें, नौकरी कर रहे हैं। पत्रकारिता अब सिर्फ नौकरी है। आप भी कर रहे हैं और लोग भी कर रहे हैं। सुधार तो बहुत जरूरी है ही।
अजीत अंजुम
बिल्कुल सही कह रहे हैं आप सुरेंद्र जी। मैं तो पूरी तरह सहमत हूं। सब नौकरी कर रहे हैं। अगर आप ये कह रहे हैं कि सब जो कर रहे हैं वही दिलीप जी भी कर रहे हैं तो आप दिलीप जी को नहीं समझते। वो बिल्कुल वो नहीं कर रहे हैं, जो सब कर रहे हैं। वो तो औरों से काफी अलग हैं।
मैं आपसे दरख्वास्त करूंगा कि हम सबके अजीज दिलीप जी के संपादन में निकले सनी लियोन वाले अंक और ताजा अंक, जिसका जिक्र मैंने किया है, आप जरूर देखें। आपका मन खुश हो जाएगा। मेरा तो हो गया है। ऐसा अंक है, जिसे आप बार-बार देखना पढ़ना चाहें। बच्चा, बुजुर्ग, महिला, पुरुष सबके मिजाज और सबकी दिलचस्पी का ख्याल रखा जाता है दिलीप जी की पत्रिका में।
सुरेंद्र सागर
यहां सिर्फ फर्क एक बात का है कि पत्रकारिता में ईमानदारी कितनी है और नौकरी कितनी है। या खालिश नौकरी है।
अजीत अंजुम
बिल्कुल सही कह रहे हैं सुरेंद्र जी।
सुरेंद्र सागर
ये कहना गलत न होगा कि पत्रकारिता जो कर सकती थी, उसको करने में एकदम अक्षम है और इसका रूप स्वरूप बिल्कुल बिगड़ चुका है। इस बात को मानने में शायद किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी।
अजीत अंजुम
सुरेंद्र जी, मैं आपसे सहमत हूं।
सुरेंद्र सागर
शब्द बदलना, स्टाइल बदलना, बोलते वक्त टोन और टेक्सचर ऑफ वॉइस को किसी खास मकसद के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, ये बात आप मुझसे बेहतर जानते हैं।
अजीत अंजुम
तभी तो मैं दिलीप जी की तारीफ कर रहा हूं। वो पत्रकारिता और क्रांतिकारिता के बीच संतुलन साधने के मामले में बहुत बड़े बाजीगर हैं। बहुत जुझारू हैं दिलीप जी। ये सबके वश की बात कहां है। दिन में थानेदारी और रात में चोरी सब कहां कर पाते हैं।
और मैं तो दिलीप जी की बात कर रहा हूं और आप विषयांतर होकर चैनल पर आ रहे हैं। अरे भाई साहब बात क्रांतिवीरों की हो रही है, तो आप हम जैसों की बात क्यों कर रहे हैं। दिलीप जी को आप क्या इस स्तर तक लेकर आएंगे।
सुरेंद्र सागर
अजीत अंजुम, ये वाकई बड़ा गुण है क्योंकि 24 घंटे चोरी करना शायद दिलीप मंडल के वश में नहीं… और 24 घंटे का पहरेदार तो कोई हो ही नहीं सकता।
अजीत अंजुम
बिल्कुल सही कह रहे हैं आप सुरेंद्र जी। तभी तो निदा फाजली साहब ने ये शेर लिखा है,
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना
दिलनवाज पाशा
दिलीप सी मंडल के बहाने अजीत अंजुम जी के स्टेट्स में ही सही, चलो कहीं तो सरोकार जिंदा है।
सरोकार शब्द घिस-घिस कर चपटा हो गया है
अब हमारी समझ में बाजार आता है।
अजीत अंजुम
दिलीप जी, देश की सबसे प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिका के संपादक हैं। तो अगर दिलीप जी अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करते हुए इस पत्रिका की प्रतिष्ठा बढ़ाने में योगदान कर रहे हैं, तो इससे बड़ी बात और क्या होगी। मैं दिलीप जी की हमेशा तारीफ करता रहा हूं। संतुलन साधने में उनका जवाब नहीं। मैं तो उनका फैन हो गया हूं।
आलोक कुमार
मोहम्मद अनास और दिलनवाज पाशा, कभी चाय पर आएं और लिंक और कतरनें देख कर जाएं। रांची-दिल्ली-नोएडा तक की यात्रा में सरोकार को साधने की छोटी कोशिश देख कर जाएं।
पुष्पेंद्र सिंह
मंडल जी के लिए ये अशआर सही बैठता है
परसाई का दावा न कीजिए, हमको मालूम है शेख साहिब
रात में छुप के पीते हैं हजरत, दिन को बनते हैं अल्लाह वाले
रामहित नंदन
इंडिया टुडे के इस अंक में ट्रांसलेशन की कई गलतियां हैं, जिनसे ओरिजनल टेक्स्ट की सेंसुअलिटी को जबर्दस्त धक्का लगा है।
अजीत अंजुम
आलोक कुमार जी, आप किन चक्करों में पड़े हैं। दिलीप जी की क्रांतिकारिता से आपका या किसी का क्या मुकाबला।
शैलेंद्र झा
रामस्वरूप चतुर्वेदी ने जो हिंदी साहित्य के बारे में कहा है, वही मैं आज दिलीप जी के बारे में कहता हूं – विरुद्धों का सामंजस्य।
अभिजीत शर्मा
दिलनवाज पाशा, मैंने आपके लिए कुछ लिंक खोजे हैं। आपके कमेंट के बाद मैंने यू टयूब पर थोड़ा रिसर्च किया, तो अजीत अंजुम जी का ये वीडियो मिला। आपने कहा था कि कोई एक ऐसी रिपोर्ट का लिंक दें, जिसमें जन सरोकार हो।
रामहित नंदन
हिंदी में अगर सेक्स पर कुछ छपे तो बवाल नहीं करना चाहिए। उसे हिंदी समाज के उदारीकरण और खुलेपन के तौर पर देखना चाहिए। वैसे भी हम उस देश के वासी हैं जहां ऋषि वात्स्यायन ने काम सूत्र लिखा था। वैसे भी हमारा हर बड़ा नेता शादीशुदा रहा है। दिलीप जी के प्रेरणास्रोत अंबेडकर भी शादीशुदा थे। उनके भी बाल-बच्चे हैं। अंबेडकर ने गांधी की तरह सेक्स को नैतिकता के चक्कर में भी नहीं फंसाया। हमें सेक्स के मामले में दोगला रवैया नहीं अपनाना चाहिए। दिलीप मंडल को ऐसा अभूतपूर्व अंक निकालने के लिए कोटि कोटि धन्यवाद और साधुवाद।
अजीत अंजुम
रामहित नंदन जी, आप बिल्कुल सही फरमा रहे हैं। सौ फीसदी सहमत। यही तो मैं भी कह रहा हूं कि दिलीप जी के नेतृत्व में भारतीय पत्रकारिता के लिए उल्लेखनीय काम हो रहे हैं, इन्हें रेखांकित करने की जरूरत हैं। अब क्या करूं, कुछ भाई लोग समझ ही नहीं रहे हैं।
मैं आप लोगों के सामने एक बार फिर अपना पक्ष रख दूं। मै कतई दिलीप जी की पत्रकारिता पर सवाल नहीं खड़े कर रहा हूं बल्कि उनके काम को देशहित में मान रहा हूं। लोग मुझे गलत समझने की भूल न करें। जिनकी मंशा ठीक नहीं है, वो पहले अपने को ठीक करें। दिलीप जी से किसी का कोई मुकाबला नहीं।
रामहित नंदन
अजीत जी, मैं आपकी बात से सहमत हूं। हमारे बहुत सारे तथाकथित नैतिक और मूल्यवान साथी रात को पोर्न देखते हैं और सुबह पूजा करते हैं। इंडिया टुडे ने कम छापा है। इंडिया टुडे को तो डेबोनायर की तरह एक हिंदी पत्रिका निकालनी चाहिए। हिंदी में सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ। और भारत के लोगों की सेक्सुअल अर्ज और बिहैवियर को अधिक गहराई और विस्तार से एक्सप्लोर करना चाहिए। इंडिया टुडे के ताजा अंक ने साबित कर दिया है कि उनकी मौजूदा टीम इसे बिना किसी तकलीफ के निकाल लेगी। अगर ऐसा हुआ तो हिंदी वालों पर बहुत उपकार होगा। आखिरकार हमें भी प्लेबॉय और डेबोनायर जैसी गंभीर मैगजीन पढ़ने का पूरा हक है कि नहीं।
अजीत अंजुम
रामहित नंदन जी, आप बिल्कुल सही फरमा रहे हैं। दिलीप जी के नेतृत्व को सलाम।
मोहम्मद अनास
तारीफ तो अजीत अंजुम सर की हम भी करते हैं उनकी सरोकारी बहस के लिए, पर केबिन के पिछवाड़े वो निर्मल बाबाओं को चलवाने से रोक नहीं पाते!
माफी के साथ उन सभी सरोकारी सूरमाओं से असहमति जो दिलीप सी मंडल सर या अजीत अंजुम सर के अंदर, सरोकारों की पत्रकारिता खोजने की चाहत लिए कमेंट घुसेड़ रहे हैं!
बड़े भाई अलोक कुमार, चाय पर जरूर मुलाकात होगी। जल्दी ही दिल्ली अपना आशियाना बनने वाला है। तब कमरे में आएंगे आपके और फाइलों में अखबारी कतरनों को देख आपके साथ चर्चा होगी!
अजीत अंजुम
मोहम्मद अनास, आप दिलीप जी से मेरी तुलना करके या तो उनका स्तर नीचे ला रहे हैं या नाहक मुझे ऊपर उठा रहे हैं। दिलीप जी भारतीय पत्रकारिता के क्रांतिवीर हैं। हमें उनके समकक्ष खड़ा करके कम से कम दिलीप सर का तो अपमान नहीं करें। उनके साथ ये नाइंसाफी होगी और उन तमाम युवा साथियों की उम्मीदों पर कुठाराघात, जो दिलीप सर की क्रांतिकारिता पर भरोसा करते रहे हैं।
मोहम्मद अनास
बड़े भाई अभिजीत शर्मा, शायद आप पेड न्यूज वालों की तरह काम कर रहे हैं, ऊपर पूरी बहस पढ़िए। दिलनवाज पाशा ने अजीत अंजुम सर के सबूत नहीं मांगे थे, ऐसे सबूत सर या दिलीप सी मंडल सर के बड़प्पन को छोटा करते हैं। हम जैसे छुटभैय्या लोगों के कहने मात्र से कुछ बदल नहीं जाता / नया नहीं हो जाता। दिलीप सी मंडल सर जो कर रहे हैं करते रहेंगे, अजीत अंजुम सर को जो करना है, वो करते रहेंगे!
अजीत अंजुम
मोहम्मद अनास… और हां, अगर आप दिलीप जी को सरोकारी सूरमाओं की कैटेगरी में मानते हैं (जैसा कि आपके कमेंट से पता चल रहा है) तो उनके बराबर मुझे क्यों खड़ा कर रहे हैं। ये तो उनका अपमान है। मैं तो उनका सम्मान ही इसीलिए करता हूं क्योंकि वो हम सबसे अलग है। नौकरी करते हैं तो बाजारू हो जाते हैं, बाहर रहते हैं तो बाजार का बाजा बजाते हैं। दिलीप जी की यही तो खासियत है। तभी तो हम उन्हें सलाम करते हैं।
मोहम्मद अनास
यहां एक चीज स्पष्ट कर दूं। मुझे दिलीप सी मंडल सर की क्रांतिकारिता से कोई लगाव या जुड़ाव नहीं है, और न ही भरोसा। जब बाजारवाद के चंगुल में और कार्पोरेट दैत्यों के हाथों सब बिके हुए हैं, तो बहस सब के ऊपर होनी चाहिए, क्यों भला कोई पुरोहित बने और क्यों भला कोई 'खास' चोर बने। पूरे आदर/सम्मान के साथ आपसे असहमत अजीत अंजुम सर… जाने क्यों ऐसा लग रहा है जैसे आप दिलीप मंडल जी से व्यक्तिगत हो रहे हैं, आपसे तो हमें उम्मीद थी!
अजीत अंजुम
मैं बिल्कुल व्यक्तिगत नहीं हो रहा हूं अनस साहब। आप बिल्कुल गलत समझ रहे हैं। मैं मुद्दे पर बात कर रहा हूं। मैं तो ये कह रहा हूं कि कैसे बड़ी नौकरी के बाद कोई वही काम बखूबी करने लगता है, जिस काम को पहले वो पानी पी पीकर कोसता रहा हो। मर्म को समझिए और दिलीप जी की तारीफ कीजिए। हम तो पहले से ही अभिशप्त हैं गालियां सुनने को। जिन्हें लोग माला पहनाते रहे हैं, उन्हें भी समझिए। और हां, मेरी बातों को दिलीप जी की तारीफ में ही लिया जाए।
भूपेंद्र सिंह
अजीत जी, दिलीप जी दलाल स्ट्रीट, मीडिया का अंडरवर्ल्ड लिखते हैं और कॉर्पोरेट मीडिया की मुखालफत करते हैं। मौका मिलने पर खुद कॉरपोरेट मीडिया की गोद में जाकर बैठ जाते हैं। ऐसे दोगले लोगों की कमी नहीं है मीडिया में।
नितिन ठाकुर
इंडिया टुडे के इस विशेषांक का दिलीपजी के संपादन में निकलने का कब से इंतजार था हमें। वैसे हर बात-बेबात को दलित मुद्दों से जोड़ देनेवाले दिलीपजी ने इस खास विषय को दलित चेतना से कैसे जोड़ा होगा, ये देखना दिलचस्प होगा!
सुरेंद्र सागर
मेरा खयाल है अगर यहां सब उस अंक को पढ़ लें, जिसमें दिलीप जी का ये आर्टिकल है वो ज्यादा अच्छा होगा। पत्रकारिता की दुर्दशा सब जानते हैं, न्यूज चैनल आजकल पीआर डिपार्टमेंट बन गया है।
अतुल सिन्हा
दरअसल आजकल संपादकी भी महज एक नौकरी हो गयी है। जो वाकई संपादक होते हैं, वो कंटेंट अपने तरीके से तय करते हैं। इंडिया टुडे तो वैसे भी अनुवाद के लिए जाना जाता है। वहां संपादक तो कभी हुए नहीं। अच्छे अनुवादक जरूर होते हैं। दिलीप जी को तो अनुवाद करने में महारथ हासिल है। कई पुस्तकों का अनुवाद कर चुके हैं। उभार की सनक भी अनुवाद कला का एक नमूना भर है।
[...] टुडे की 'कथित अश्लील' स्टोरी पर फेसबुक पर चली बहस देख रहा था। कई प्रबुद्ध लोगों ने इस [...]
रैदास,कबीर,अम्बेडकर अपनी नौकरी (पेट पालने हेतु) करते हुए समाज के लिए कार्य करते रहे. वे होलटाइमर नहीं थे. अधिकाँश मार्क्सवादी होलटाइमर द्विज जातियों के ही हैं. यह भी देखा गया है कि कथावाचकों की अगली पीढ़ी ने अपनी वाचिकता का प्रयोग मार्क्सवादी सिद्धांत-मीमांसाकार के रूप में करना शुरू कर दिया. हिन्दू समाज में उनको सहज स्वीकृति प्राप्त थी,इसलिए होलटाइमर के रूप में भी उनका गुजारा चलता रहा.
उदास चाँद-सितारों को हमने छोड़ दिया.
हवा के साथ चले और हवा को मोड़ दिया..
अभी तो एक दिलीप मंडल मीडिया के अंडरवर्ल्ड में घुस पाए हैं. वे यहाँ शार्प शूटर का काम करते हैं और फिलहाल भाई का ही हुकम बजाते हैं. जब उनके जैसे अनेक लोग उस अंडरवर्ल्ड में घुस जाएंगे तो हो सकता है गैंग पर कब्ज़ा करके वे लोग खुद प्लान सैट करने लगें कि किसको छोड़ना है और किसको बजाना है.
क्या चम्पकई है? वरिष्ठ पत्रकार एक दूसरे पर व्यंग्य कर रहे हैं… बस यहाँ अब क्रान्ति क्रान्ति खेलने के अलावा कुछ बचा नहीं है पत्रकारिता में..
"इंडिया टुडे के इस विशेषांक का दिलीपजी के संपादन में निकलने का कब से इंतजार था हमें। वैसे हर बात-बेबात को दलित मुद्दों से जोड़ देनेवाले दिलीपजी ने इस खास विषय को दलित चेतना से कैसे जोड़ा होगा, ये देखना दिलचस्प होगा!"
भाई अब इसमें इतना हो हल्ला मचाने की क्या जरुरत है. क्या दलित स्त्रियों को अपने स्तन सुन्दर करवाने का हक नहीं है? अब मुझे statistics का तो पता नहीं पर अनुमान से कह सकता हूँ की दिलीप मंडल के इंडिया टुडे का संपादक बनने के बाद जरुर उसके दलित पाठकों की संख्या में वृद्धि हुई होगी जो दिलीप मंडल की इस उपलब्धि (इंडिया टुडे के संपादक बनने को लेकर) को दलित अस्मिता से जोड़ कर देखते होंगे. अब दिलीप जी में हमेशा से ही गलतियाँ खोजने वाले भाइयों इस घटना में छिपे हुए सकारात्मक पहलु को भी जरा देखने की कोशिश करिए – ये भी तो हो सकता है कि हमेशा से दलितों के हित के लिए मनुवादियों से असहज प्रश्न करने वाले दिलीप जी ने कुछ सोच समझकर ही शायद दलितों में स्तन सौंदर्य की चेतना विकसित करने के लिए ही ऐसे लेख को आवरण कथा के रूप में छापना उचित समझा हो. रोटी, कपडा, मकान, शिक्षा जैसी बुनियादी सरोकारों की बात तो अन्य छुटभैय्ये पत्रकार और संपादक करते ही रहते हैं, लेकिन मेरे हिसाब से स्तन सौंदर्य के लिए की जाने वाली शल्य क्रिया की सम-सामयिक जानकारी इंडिया टुडे के हिंदी अंक में आवरण कथा के रूप में छापकर दिलीप जी ने दलित, पिछड़ी और आदिवासियों में आधुनिक सौंदर्य चेतना जागृत करने का क्रांतिकारी काम किया है. मेरा पूरा विश्वास है कि इतिहास में दिलीप जी का यह क्रांतिकारी कदम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो कर रहेगा और आने वाले समय में दिलीप जी इस बात के लिए याद किये जायेंगे कि किस प्रकार जब सारे सवर्ण, मनुवादी लेखक दलितों को रोटी, कपडा, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी छोटी बातों में उलझाये हुए थे, तब दिलीप जी ने अपने कुशल संपादकीय नेतृत्व में दलितों में यौन चेतना के बीज बोने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. दलित और पिछड़े खासकर स्त्रियाँ उनकी स्तनों के आकार को लेकर उत्पन्न हुई मानसिक हीन भावना जैसी भयंकर स्वास्थ्य संबंधी समस्या (तपेदिक, मलेरिया, कुपोषण, कैंसर, कम आयु में विवाह और उससे जनित बीमारियों को पीछे छोड़ कर) को लेकर दिलीप जी द्वारा फैलाई गयी चेतना के लिए हमेशा आभारी रहेंगे…..
दिलीप मंडल कार्यकारी संपादक हैं मालिक नहीं। अपने हिस्से की जितनी ईमानदारी वो निभा रहे हैं उतना ही देश के बाकी जाति विशेष के संपादक ईमानदार हो जाए तो समस्या हल हो जाएगी। लोगों को इंडिया टूडे के विशेष अंक से तकलीफ नहीं है, उन्हें तकलीफ है दिलीप मंडल से, हर कोई चाहता है कि ईमानदारी से बोलने और काम करनेवाला शख्स गटर में रहे ताकि उनकी आवाज अवसरवादियों के कानों में तरल शीशे की तरह ना घुसे। कम से कम मीडिया जगत में काम करनेवाले लोग जरूर जानते हैं कि एक नेता विशेष का चैनल चलाने वाले लोगों ने पूरे अन्ना आंदोलन के समय क्या किया। घोटालों में फंसी सरकार की खबरों की भ्रूण हत्या किस चैनल पर होती है। आखिर नाक तक अनैतिकता में डूबे लोग कैसे किसी को नैतिकता का पाठ पढ़ा सकते हैं। अगर आप नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे हैं तो दशमलव मात्र ही नैतिक बनके दिखाइये। आप मलाई काटेंगे और नैतिकता दूसरे ढोएंगे। आपके बच्चे एसी में रहे और नैतिकता और ईमानदारी की बात करनेवाला गटर में रहे। दिलीप मंडल कम से कम ईमानदारी से अपनी बात तो कहते हैं। जहां तक अश्लील संस्करण की बात है तो हर तरह के माध्यम में सब तरह की खबरें होती हैं, क्या स्त्री की सुंदरता, स्त्री-पुरुष संबंध खबर नहीं है। आप खबरों की हत्या कर देते हैं और दूसरे को बताते हैं कि क्या खबर है और क्या नहीं। दिलीप मंडल ने कभी खबरों ने समझौता नहीं किया। विशेषांक हर साल आता है। अनैतिकता के गटर में नाक तक डूबे लोग ना जाने किस मुंह से नैतिकता और खबर की बात कर रहे हैं। जिनकी कथनी और करनी में खुद प्रकाश वर्ष की दूरी है वो क्यों दूसरे को कथनी और करनी का पाठ पढ़ा रहे हैं। दिलीप मंडल के खिलाफ जितने लोगों ने लिखा है वो सब के सब इस बात से जले होते हैं कि दलित और समाज के पिछड़े तबके की बात करते है। वो उस समाज की बात करते हैं जिन्कों कभी मौका नहीं दिया गया। किसी ने संघर्ष कर मौका हासिल भी किया तो सारी नैतिकता की परिभाषा पर उसे खड़ा उतरने के लिए कहा जाता है। जबकि सौ में 99वें अनैतिक लोग कहते हैं कि मैं तो अनैतिक हूं ही तुम नैतिक रहो। देश के सारे जाति विशेष के संपादक जो चाहे करें बस दिलीप मंडल आग में कूदकर अग्नि परीक्षा दें। उनसे तकलीफ इस बात से है कि वो कैसे ईमानदार रह के फैसले लेने वाले पद तक पहुंच गए। मायावती के साथ भी यही हुआ। देश के बाकी सीएम कुछ भी करें बस बहन जी को ईमानदार होना चाहिए।
अगर आप ईमानदार हैं तो आपको शीर्ष पर पहुंचने का हक बिल्कुल नहीं है। और जाति विशेष में पैदा नहीं हुए हैं तो बिल्कुल नहीं। अरे सौ में 99 लोग तो जातिविशेष के हैं पहले उन्हें कहिए की अपने हिस्से की ईमानदारी दिखाएं। दिलीप मंडल पत्रकारिता में आखिरी कड़ी हैं जो नैतिक होने का साहस रखते हैं और अपनी शर्तों पर नौकरी करते हैं। अगर इसमें शक है तो उनके पिछले कार्यकाल की पूरी पड़ताल कर लें। जो लोग टिका टीप्पणी कर रहे हैं उनकी कार्यशैली और संपादकीय हम पिछले कई सालों से खुल्लम खुल्ला देख रहे हैं, सीधी सी बात है किसी मंत्री के चैनल में नौकरी कर कोई कैसे उस सरकार और मंत्री के खिलाफ खबर चला सकता है
हिंदी की अशुद्धता को मुद्दा नहीं बनाए मैं हिंदी लिखने में कमजोर हूं। उसपर से क्रॉस चेक नहीं किया है।
जहां जहां अशुद्धता है उसका खुद विवरण दे देता हूं।
जिनकों
खबरों ने को खबरों से समझे
"किसी मंत्री के चैनल में नौकरी कर कोई कैसे उस सरकार और मंत्री के खिलाफ खबर चला सकता है"
भाई जी फिर ऐसी क्या मजबूरी थी दिलीप मंडल के सामने लाला की नौकरी करने की? और ये बात तो है नहीं कि इंडिया टुडे की नौकरी के पहले दिलीप मंडल भूखे मर रहे थे…एक प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान की नौकरी में थे, अच्छी खासी तनखाह पहले भी थी और उनकी पत्नी भी क्लास १ सरकारी अधिकारी की नौकरी में हैं…..नौकरी की मजबूरी की दुहाई देकर आप दिलीप मंडल के दोगली पत्रकारिता के मानदंडों का बचाव नहीं कर सकते…
"मायावती के साथ भी यही हुआ। देश के बाकी सीएम कुछ भी करें बस बहन जी को ईमानदार होना चाहिए।"
तो फिर इसका मतलब यह हुआ कि सत्ता से बाहर रहकर सारी नारेबाजी सिर्फ झूठा दिखावा है और लड़ाई सिर्फ चोरी, मक्कारी, धूर्तता, और लूट खसोट में अपना हिस्सा न मिलने की है ??? बिलकुल सही हैं आप और दिलीप जी जैसे लोगों के लिए अगर लड़ाई सिर्फ इस बात की है…आखिर आप भी भारत के नागरिक हैं, जब २५ प्रतिशत सवर्ण देश को लूट खसोट रहे हैं तो बाकी ७५ प्रतिशत बहुजन क्यों न इस लूट पर अपना अधिकार जताएं? लेकिन फिर इमानदारी, नैतिकता, जातिवाद का विरोध करने का नाटक करने की क्या जरूरत है?? शुरू में ही साफ़ साफ़ क्यों नहीं कहते कि "हमें भी इस देश को लूटने में अपना हिस्सा चाहिए, हमें भी वो सारे अनैतिक, आपराधिक कृत्यों को करने का हक मिलना चाहिए जो आप सवर्ण करते आये हैं"….
भाई ये तो साफ़ साफ़ लूट में हिस्सेदारी की लड़ाई है फिर इतना नाटक करके देश की बाकी बहुजन आबादी में (जो शायद सचमुच में ये मान बैठी है कि कुछ चमत्कार होने वाला है) समाज सुधार के सपने क्यों जगाते हो?
भाई शम्भू से मैं एक बात कहना चाहता हूँ मैं नहीं जानता ये दिलीप मंडल कौन हैं और इस सारे तमाशे कि बुनियाद क्या है. दलित साहित्य क्या होता है ये भी मैं नहीं जानता मुझे तो साहित्य साहित्य ही लगता था इसमें जातिवाद कब घुस गया और क्यों घुस गया ये मेरी समझ से बाहर है. बाहर हाल मुद्दे पर आते हैं आप ये कह रहे हैं कि सब चोर हैं तो फिर हल्ला क्यों. अरे अगर कोई इमानदारी का ढोल पीटता है तो ऐसे मौके पर उस सामने आना चाहिए और खुले आम ये स्वीकार करना चाहिए कि ये मेरी मजबूरी है स्तन दिखाकर मगज़ीन बिकती है और पैसे किसे बुरे लगते हैं. अपनी बात कहूं तो मैं काम पर ईमान घर छोड़ कर जाने वालों में से हूँ मगर ईमान को बैग में छुपा कर जाने वालों से मुझे बड़ी घिन आती है क्योंकि ये अपने ईमान को केवल दिखावे के लिए रखते हैं उसका इस्तेमाल नहीं करते. ये बात मैं किसी व्यक्ति विशेष के लिए कतई नहीं कह रहा हूँ. भाई साहब आप एक तरफ हो जाईये या तो कहिये उन्होंने गलत किया जो व्यावसायिक रूप से सही है या ये कहिये उन्होंने सही किया और वो इसी थाली के चट्टे बट्टे हैं. चलो सब अनैतिक हो जाएँ और ये नैतिकता का मुद्दा ही ख़तम करें. बुद्धिजीवियों कि आधी बुद्धि इसी काम में जा रही है..