अरुण कुमार पानीबाबा जनसत्ता 24 अप्रैल, 2012: भारत की सत्ता में हैसियत और भागीदारी का आनुपातिक विश्लेषण करें तो यह तथ्य बखूबी देखा-समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की ही राजनीतिक अहमियत सबसे अधिक रही है। हमारे इस विश्लेषण की मूल चिंता इसी विषय पर केंद्रित है कि लंबे अरसे से उत्तर प्रदेश के नेतृत्व वर्ग से कद्दावर व्यक्तित्व लगभग अनुपस्थित है। आजादी से पहले संयुक्त प्रांत और बाद में उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री गोेविंद बल्लभ पंत अपने समय की कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं में थे। किसी भी पैमाने पर देखा जा सकता है कि उनका कद सरदार वल्लभ भाई पटेल, बाबू राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद आदि से किसी भी तरह कम नहीं था। वे किसी भी तथाकथित हाईकमान की कृपा-दृष्टि के मोहताज नहीं थे। वे पूरी तरह निजी करिश्मे के बूते प्रदेश और देश के नेता थे। त्याग, बलिदान और अनुभव की दृष्टि से देखा जाए तो वे सभी नेताओं में वरिष्ठतम थे। 1935 से कांग्रेस संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष थे। साइमन कमीशन के विरोध के दौरान लखनऊ में जो प्रदर्शन हुआ उसका फिरंगी हुकूमत ने बड़ी क्रूरता से दमन किया था। उस हिंसा के दौरान जो लाठी जवाहरलाल जी के सिर पर पड़ने वाली थी वह पंत जी ने आगे बढ़ कर अपनी गर्दन पर झेल ली थी। नतीजे में उनकी चोटिल गर्दन कभी ठीक नहीं हुई और हमेशा हिलती रहती थी। इस वीरता का जिक्र इसलिए कर रहे हैं कि वर्तमान पीढ़ी को पंत जी की योग्यता की एक झलक मिल सके। वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के साथ-साथ वित्त मंत्रालय भी संभालते थे। खड़े होकर हाथ में पकड़ा कागज नहीं पढ़ सकते थे। गर्दन के साथ हाथ भी हिलता था, इसलिए पूरा बजट-भाषण मौखिक ही देते थे। 1961 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में आल इंडिया ट्रेड यूनियन की हड़ताल के दौरान बतौर केंद्रीय मंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने लोकसभा में भाकपा के तत्कालीन नेता श्रीपाद अमृत डांगे को चेतावनी दी थी, 'डांगे साहब हड़ताल का आयोजन अवश्य करें। यह याद रखिएगा, मेरी सिर्फ गर्दन हिलती है, हाथ हिलता है, लेकिन मेरे आर्डर नहीं हिलते।' उन्होंने उस हड़ताल से पूरी सख्ती से निपट कर दिखाया था। उत्तर प्रदेश से गोविंद वल्लभ पंत के दिल्ली आने के बाद डॉ संपूर्णानंद मुख्यमंत्री बने। वे उच्चकोटि के विद्वान और भारतीय समाजवाद के मौलिक चिंतक थे। उन्हें अपदस्थ करने में चंद्रभानु गुप्त जैसे कद्दावर नेता को पसीना आ गया था। फिर गुप्त जी ने स्वायत्तता का जो कीर्तिमान स्थापित किया वह केंद्र बनाम राज्य की सत्ता में संघर्ष की पहली मिसाल है। तब कांग्रेस हाइकमान ने हर तरह के हथकंडे अपना कर उन्हें अपदस्थ कर दिया था। इसका विस्तृत किस्सा तो वरिष्ठ समाजवादी साथी के विक्रम राव ही सुना सकते हैं। चौधरी चरण सिंह कभी स्वायत्त सत्ता-संपन्न मुख्यमंत्री नहीं बन सके, पर उन्होंने कभी मंत्री के रूप में भी किसी प्रधानमंत्री की हां जी-हां जी नहीं की। अपनी बात पर अड़ कर ही अपना मुकाम तलाशा। एक और दबंग मुख्यमंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा हुए। उन्होंने अपनी चुस्त प्रशासनिक क्षमता और बेलाग कार्यशैली के लिए आपातकाल के दौरान मुअत्तल होना कबूल किया, पर झुकना स्वीकार नहीं किया। इस संदर्भ में भारतीय जनता पार्टी के पहले मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को याद करना जरूरी है। उनकी प्रशासनिक योग्यता और नतीजाखेज क्षमता के डंके से अटल बिहारी वाजपेयी ही नहीं बल्कि संपूर्ण संघ परिवार का आत्म-विश्वास हिल गया था। उनके बगैर भाजपा आज भी खड़ी नहीं हो पा रही है। इस गौरव-गाथा के उलट उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों की सूची में जी-हजूरिया नामों की भी कमी नहीं। अब तो लंबे अरसे से मुख्यमंत्रियों को यह अहसास ही नहीं है कि वे राजनीतिक हैसियत और कद में वीपी सिंह, चंद्रशेखर, एचडी देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल, पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्रियों से कमतर नहीं हैं। देश का राजनीतिक नेतृत्व इस वस्तुस्थिति को जानता हो, न जानता हो, उत्तर प्रदेश की जनता को जरूर यह अहसास है कि उसके मुख्यमंत्री की राष्ट्रीय राजनीति में अहम भूमिका होनी चाहिए, यानी ऐसा व्यक्तित्व जिसकी सलाह और अपेक्षाओं की अवहेलना न की जा सके। चंद्रभानु गुप्त से जवाहरलाल नेहरू और उनके वंशजों का जो संघर्ष हुआ उसी के चलते नेहरू ने गांधीजी के बनाए कांग्रेस-संविधान को लपेट कर ताक पर रख दिया और राष्ट्रीय आंदोलन में तैयार हुई कर्मठ सेना को वस्तुत: निज वंश-सेवा के समूह में तब्दील करने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। आजादी के बाद भी भारतीय राजनीति का मर्मस्पर्शी कटु सत्य यह है कि ऐसी परंपरा डल गई है कि जो भी राष्ट्रीय नेता बनता है वह प्रांतीय नेतृत्व को बौना बनाने में जुट जाता है। संघीय गणतंत्र में प्रांतीय अस्मिता कैसे सुरक्षित रहे इसकी राह प्रांतों की जनता खुद टटोल रही है। सबसे पहले द्रविड़ कषगम आंदोलन ने 1967 में तमिलनाडु को कांग्रेस के केंद्रीयकरण से मुक्त करवा लिया था। उस प्रयोग को उत्तर प्रदेश पहुंचने में चालीस साल लगे। वहां की जनता ने राज्य की सत्ता 2007 में पूर्ण स्वायत्त नेता बसपा सुप्रीमो मायावती को सौंप दी। उनसे राज्य की जनता की एक ही अपेक्षा थी कि उनकी मुख्यमंत्री मायावती राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावी दखल देंगी। कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी देवगौड़ा इसी प्रचार के आधार पर प्रधानमंत्री बन गए कि उन्होंने कर्नाटक में सुराज स्थापित कर दिया है। उससे पहले उनके पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े 1989 में उप प्रधानमंत्री बनने से महज इसलिए रह गए कि भितरघात के चलते लोकसभा का चुनाव हार गए थे, फिर भी योजना आयोग के उपाध्यक्ष तो बने ही। उसी दौरान आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एनटी रामाराव राष्ट्रीय राजनीति के सूत्रधार बन कर उभरे, इस आधार पर कि उन्होंने आंध्र प्रदेश को कांग्रेस कुराज से मुक्त करा दिया है। उत्तर प्रदेश की जनता यह आरोप सुनते-सुनते थक गई है कि बीमारू प्रांतों में यह राज्य प्रमुख है। पिछली बार यहां की जनता ने मायावती को साफ बहुमत दिया था, इसी उम्मीद से कि वे दलित वर्ग का ऐसा कायापलट कर देंगी कि उत्तर प्रदेश विकसित राज्यों में खड़ा हो जाएगा। यह दुखद है कि पिछले पांच-सात सालों में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रभावी प्रचार से यह प्रतिष्ठा अर्जित कर ली है कि दोनों ही प्रधानमंत्री पद के दावेदार माने जाने लगे हैं। इस दौरान इस लेखक के अलावा एक भी अन्य व्यक्ति ने उत्तर प्रदेश की (अब पूर्व) मुख्यमंत्री मायावती को इस योग्य नहीं कहा। हमने 2007 में भी यही सुझाया था कि देश के सबसे अधिक आबादी वाले प्रांत की मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री बनने के लिए प्रयास करती दिखाई नहीं देंगी तो उत्तर प्रदेश की सत्ता भी गंवा बैठेंगी। ऐसा नहीं है कि मायावती सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकार से भी निकृष्ट और निकम्मी थी। सच यह है कि मायावती ने कानून-व्यवस्था में सुधार किया। लेकिन विरोधी प्रचार की कोई काट नहीं हुई कि प्रशासनिक न्याय की कीमत का मीटर पूर्ववर्ती सरकार की तुलना में पचास से सौ प्रतिशत या और अधिक तेज हो गया। एक तरफ यह प्रचार तूल पकड़ता रहा और दूसरी तरफ मायावती ने नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की तरह मामूली प्रयास भी नहीं किया कि वे रायसीना हिल स्थित साउथ ब्लाक की दिशा में अग्रसर हों। उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का विश्लेषण करने से पहले एक सैद्धांतिक स्पष्टीकरण, पचास बरस पहले पत्रकारिता का छात्र होने और प्रशिक्षण के वक्त विज्ञापन विधा के परचे में यह सिद्धांत पढ़ा था कि किसी प्रचार को मनवाने के लिए मुलम्मा अनिवार्य होता है। गिलट पर कलई चढ़ा कर तो चांदी का प्रचार कर सकते हैं लेकिन कोरे पीतल को चांदी या सोना नहीं बता सकते। सच्ची करामात किसी प्रकार की मोहताज नहीं होती। कर्नाटक के हनुमंतैया, तमिलनाडु के कामराज नाडार, पंजाब के प्रताप सिंह कैरो, ओड़िशा के बीजू पटनायक, हरियाणा के बंसीलाल वगैरह ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपनी कार्यशैली की छाप से राष्ट्रीय नेतृत्व के नक्शे में स्थान बनाया। हर स्तर पर योग्यता की मोहर लगा कर दिखाई। उत्तर प्रदेश की जनता ने मायावती को एकछत्र राज्यसत्ता सौंप कर यही संदेश दिया था कि यह राज्य राष्ट्रीय राजनीति, देश की एकता, सामाजिक समरसता के प्रति अपने उत्तरदायित्व के प्रति सजग-सचेत है। मायावती ने यह मौका क्यों गंवा दिया? शायद वे 2007 के जनादेश का अर्थ ही नहीं समझ सकीं। इस बार पुन: जनता ने वैसा ही जनादेश समाजवादी नौजवान अखिलेश यादव को दिया है। इस जनादेश में निहित अर्थ को पहचान कर अखिलेश जन-भावना का समुचित सम्मान करेंगे तो वे भविष्य में राष्ट्रनायक साबित हो सकते हैं। मायावती की राह चलेंगे तो उसी गति को प्राप्त होंगे। अखिलेश को जो जन-समर्थन मिला है उसकी तुलना राजीव गांधी को 1984 में मिले विशाल बहुमत से की जा सकती है। राजीव गांधी के बाद उनका कोई वारिस उस गद्दी पर नहीं बैठ पाया है। इस बार तो रायबरेली-अमेठी-सुलतानपुर की जनता ने वंशानुगत जागीर से भी बहिष्कृत कर दिया। पिछले डेढ़ सौ बरसों से उत्तर प्रदेश की अराजकता विस्तृत आख्यान का रूप ले चुकी है। समूचे प्रांत में अमन-चैन और कानून-व्यवस्था की चुनौती आंखमिचौली का खेल बन गई है। अखिलेश इस नाजुक परिस्थिति और उसकी जटिलता से अवश्य अवगत होंगे। कामराज नाडार का जिक्र पहले आ चुका है, वे राजाजी को अपदस्थ कर मुख्यमंत्री बने थे। ब्राह्मणवादी विद्वतजन एक अति पिछड़े, 'अशिक्षित' राजनेता के अत्यंत शालीन रणकौशल की चर्चा से कतराते रहे हैं? उस लंबी कहानी का बयान इस विश्लेषण में संभव नहीं। गौरतलब है कि उस संघर्ष में सहज विजय के बाद मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले कामराज ने राजाजी के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद मांगा और शपथ ग्रहण करने के बाद फिर चरण स्पर्श कर सफलता के लिए सलाह मांगी। तब राजाजी ने सुझाया था कि विधायकों, पार्टी कार्यकर्ताओं, समर्थकों का सचिवालय में प्रवेश निषेध और प्रशासनिक ढांचे से उनका संपर्क सभी स्तरों पर प्रतिबंधित होना चाहिए, उनकी समस्त समस्याओं का समाधान मुख्यमंत्री कार्यालय से किया जाए। कामराज ने राजा जी की इस सीख का पूरी तरह पालन किया था। उत्तर प्रदेश के नौजवान मुख्यमंत्री को आत्म-परिचय की पुस्तक स्वयं लिखनी है। |
No comments:
Post a Comment