भारत डोगरा जनसत्ता 25 अप्रैल, 2012: भारत के कृषि-इतिहास में शायद ही किसी फसल की किसी किस्म का इतना बड़बोला प्रचार किया गया हो जितना कि बीटी कॉटन का। कपास की इस जीएम (जेनेटिक संवर्धित) किस्म की उपलब्धियों को खूब बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया, जबकि इसकी अनेक समस्याओं और दुष्परिणामों को चालाकी से छिपाया गया। इस तरह के एकपक्षीय प्रचार का कारण भी काफी स्पष्ट था। कपास की इस किस्म को जैसे-तैसे सफल घोषित करने का प्रयास इतनी जोर-शोर से इस कारण किया गया ताकि अन्य जीएम फसलों के लिए भी अनुमति प्राप्त करने का अनुकूल माहौल तैयार किया जा सके। यही वजह थी कि जीएम फसलों के प्रसार से जुडेÞ अति शक्तिशाली स्वार्थ बीटी कॉटन के प्रचार-प्रसार के लिए करोड़ों रुपए खर्च करने को तैयार रहे हैं। लेकिन इस संदर्भ में सामाजिक कार्यकर्ताओं, किसान संगठनों, चंद जनपक्षीय वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की मेहनत और निष्ठा की प्रशंसा करनी होगी, क्योंकि उन्होंने अपने बेहद सीमित साधनों से बीटी कॉटन के बड़बोले और महंगे प्रचार-प्रसार का सामना काफी सफलता से किया है, जिसके फलस्वरूप हकीकत अब देश के सामने आ रही है। हाल ही में 'जीएम-मुक्त भारत के लिए गठबंधन' ने बीटी कॉटन के भारत में एक दशक के रिकार्ड के बारे में रिपोर्ट तैयार की, जिससे इस जीएम फसल की कड़वी सच्चाई लोगों के सामने आ सके। आंध्र प्रदेश में पिछले साल की खरीफ फसल में बीटी कॉटन के लाखों एकड़ के क्षेत्र में उत्पादकता में अत्यधिक कमी आई, लगभग दो-तिहाई क्षेत्र में पचास प्रतिशत से अधिक की। महाराष्ट्र में भी उत्पादकता में गिरावट दर्ज हुई। किसान संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता ही नहीं, अब तो सरकारी तंत्र में ऊंचे पदों पर बैठे कई अधिकारी और कृषि वैज्ञानिक भी स्वीकार कर रहे हैं कि बीटी कॉटन का क्षेत्रफल तेजी से बढ़ने के दौर में भारत में कपास उत्पादकता में शिथिलता आई है, नए हानिकारक कीड़ों या जंतुओं का प्रकोप बढ़ा है और मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन पर प्रतिकूल असर पड़ा है। केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान के निदेशक केआर क्रांति ने हाल के अपने अनुसंधान-पत्रों में इन समस्याओं की ओर ध्यान दिलाया है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा कपास उगाने वाले राज्यों को इस वर्ष के आरंभ में जारी किया गया एक नोट भी चर्चा में है। इसमें बीटी कॉटन के प्रसार के साथ-साथ कपास उत्पादकों की बढ़ती समस्याओं और उनकी आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं की तरफ ध्यान खींचा गया है। इस नोट में कहा गया है कि कीटनाशकों पर बढ़ते खर्च के कारण किसानों का कुल खर्च बहुत बढ़ गया। पिछले पांच वर्ष में बीटी कॉटन के उत्पादन में कमी आई। एक समय गुजरात में बीटी कॉटन बहुत तेजी से फैला, पर अब इसकी अनेक समस्याएं सामने आ रही हैं। हाल की रिपोर्टों के अनुसार, जब पिछली बार मानसून ठीक नहीं रहा तो मीली बग कीड़े का प्रकोप बढ़ गया और अनेक किसान बीटी कॉटन छोड़ने लगे। विदर्भ (महाराष्ट्र) में तो बीटी कॉटन बोने वाले बहुत-से किसान कम वर्षा की स्थिति में तबाह ही हो गए। चीन में बीटी कॉटन उगाने वाले किसानों की स्थिति पर हाल ही में 'गार्डियन' में आयन सिंपल ने लिखा है बीटी कॉटन उगाने के बाद मिरिड कीड़ों का प्रकोप बढ़ गया, जिससे दो सौ तरह के फल, सब्जियां और मक्का की फसलें तबाह हो सकती हैं। चीन की कृषि अकादमी के वैज्ञानिक डॉ कांगमिंग वू के अनुसंधान ने भी इस ओर ध्यान दिलाया है। बीटी कपास या उसके अवशेष खाने के बाद या ऐसे खेत में चरने के बाद अनेक भेड़-बकरियों के मरने और अनेक पशुओं के बीमार होने की बात सामने आई है। डॉ सागरी रामदास ने इस बारे में विस्तृत अनुसंधान किया है। उन्होंने बताया है कि ऐसे मामले विशेषकर आंध्र प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और महाराष्ट्र में सामने आए हैं। पर अनुसंधान तंत्र ने इस पर बहुत कम ध्यान दिया है और इस गंभीर चिंता के विषय को उपेक्षित किया है। भेड़-बकरी चराने वालों ने स्पष्ट बताया कि सामान्य कपास के खेतों में मवेशियों के चरने पर ऐसी स्वास्थ्य-समस्याएं पहले नहीं, जीएम फसल आने के बाद ही देखी गर्इं। हरियाणा में दुधारू पशुओं को बीटी कॉटन बीज और खली खिलाने के बाद उनमें दूध कम होने और प्रजनन की गंभीर समस्याएं सामने आर्इं। बीटी कॉटन से विशेष तौर पर जुडेÞ इन तथ्यों के साथ इस ओर ध्यान दिलाना भी जरूरी है कि सभी जीएम फसलों के औचित्य पर विश्व के अनेक विख्यात वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक संगठनों ने सवालिया निशान लगाए हैं। दुनिया के अनेक जाने-माने वैज्ञानिकों ने 'इंडिपेंडेंट साइंस पैनल' बना कर इसके माध्यम से जीएम फसलों के बारे में चेतावनी दी है। इस पैनल में शामिल अनेक देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने जीएम फसलों पर एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज तैयार किया, जिसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है- 'जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैं, और ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रहीं हैं। अब इस बारे में व्यापक स्वीकृति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रांसजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। इसलिए जीएम फसलों और गैर-जीएम फसलों का सह-अस्तित्व नहीं हो सकता। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जीएम फसलों की सुरक्षा प्रमाणित नहीं हो सकी है। अगर इन चेतावनियों को अनसुना किया गया तो स्वास्थ्य और पर्यावरण की ऐसी क्षति होगी जिसकी पूर्ति नहीं की जा सकेगी। इसलिए जीएम फसलों को अब दृढ़ता से अस्वीकृत कर देना चाहिए। कुछ समय पहले विश्व के सत्रह ख्याति-प्राप्त वैज्ञानिकों ने भारत के प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर स्पष्ट बताया कि इस विषय पर अब तक हुए अध्ययनों का निष्कर्ष यही है कि जीएम फसलों से उत्पादकता नहीं बढ़ी है। इन वैज्ञानिकों ने यह भी कहा है कि विश्व में जीएम फसलों का प्रसार बहुत सीमित रहा है और पिछले दशक में इसकी नई फसलें बाजार में नहीं आ सकी हैं और किसान भी इन्हें स्वीकार करने से कतराते रहे हैं। उन्होंने अपने पत्र में आगे यह भी जोड़ा कि जीएम तकनीक में ऐसी मूलभूत समस्याएं हैं जिनके कारण कृषि में यह सफल नहीं है। जीएम फसलों में उत्पादन और उत्पादकता के मामले में स्थिरता कम है। इन वैज्ञानिकों के उपर्युक्त पत्र में यह भी कहा गया है कि जलवायु बदलाव के दौर में जीएम फसलों से जुड़ी समस्याएं और बढ़ सकती हैं। जीएम फसलें स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक हो सकती हैं, इससे संबंधित ढेर सारी जानकारी उपलब्ध है और इसके बारे में जन चेतना भी बढ़ रही है। यही वजह है कि अनेक देशों में जीएम फसलों और खाद्य पर कडेÞ प्रतिबंध हैं। जहां ऐसे प्रतिबंध होंगे, वहां के बाजार का लाभ उठाने में जीएम फसल उगाने वाले किसान वंचित हो जाएंगे। यह मांग भी जोर पकड़ रही है कि जीएम उत्पाद पर इसका लेबल लगाया जाए। जीएम उत्पाद का लेबल लगा होगा तो स्वास्थ्य के बारे में चिंतित लोग इसे न खरीद कर सामान्य उत्पाद को खरीदेंगे और इस कारण भी जीएम फसल उगाने वाले किसान की फसल कम बिकेगी या उसकी फसल को कीमत कम मिलेगी। पर सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा तो यह है कि जीएम फसलें जेनेटिक प्रदूषण से उन किसानों के खेतों को भी प्रभावित कर देंगी जो सामान्य फसलें उगा रहे हैं। इस तरह जिन किसानों ने जीएम फसलें उगाने से साफ इनकार किया है, उनकी फसलों पर भी इन खतरनाक फसलों का असर हो सकता है। कुछ किसान जीएम फसल उगाएंगे तो जेनेटिक प्रदूषण की आशंका के कारण पूरे क्षेत्र को ही जीएम प्रभावित मान लिया जाएगा और इस क्षेत्र में उगाई गई फसलों पर कुछ बाजारों में प्रतिबंध लग सकता है। यह ध्यान में रखना बहुत जरूरी है कि जीएम फसलों का थोड़ा-बहुत प्रसार और परीक्षण भी बहुत घातक हो सकता है। सवाल यह नहीं है कि उन फसलों को थोड़ा-बहुत उगाने से उत्पादकता बढ़ने के नतीजे मिलेंगे या नहीं। मूल मुद्दा यह है कि इनसे सामान्य फसलें भी संक्रमित या प्रदूषित हो सकती हैं। यह जेनेटिक प्रदूषण बहुत तेजी से फैल सकता है और इस कारण जो क्षति होगी उसकी भरपाई नहीं हो सकती। अगर एक बार जेनेटिक प्रदूषण फैल गया तो दुनिया भर में अच्छी गुणवत्ता और सुरक्षित खाद्यों का जो बाजार है, जिसमें फसलों की बेहतर कीमत मिलती है, वह हमसे छिन जाएगा। आने वाले समय के लक्षण अभी से दिख रहे हैं कि स्वास्थ्य के प्रति जागरूक लोग दुनिया भर में रासायनिक और जेनेटिक प्रदूषण से मुक्त खाद्यों के लिए बेहतर कीमत देने को तैयार होंगे। अगर जेनेटिक प्रदूषण को न रोका गया तो किसानों का यह बाजार उनसे छिन जाएगा और वैसे भी खेती की बहुत क्षति होगी। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों को केवल इस कारण परेशान किया गया या उनका अनुसंधान बाधित किया गया, क्योंकि उनके अनुसंधान से जीई फसलों के खतरे पता चलने लगे थे। इन कुप्रयासों के बावजूद निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीई फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम स्मिथ की पुस्तक 'जेनेटिक रुलेट्' (जुआ) के तीन सौ से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप या परिचय उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लीवर, आंतों जैसे विभिन्न महत्त्वपूर्ण अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीई फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने की चर्चा है और जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है। अब तक उपलब्ध सारे तथ्यों के आधार पर यह दृढ़ता से कहा जा सकता है कि सभी जीएम फसलों पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए। इनके परीक्षणों पर भी इस हद तक रोक लगनी चाहिए ताकि इनसे जेनेटिक प्रदूषण फैलने की कोई आशंका न रहे। देश के पर्यावरण, कृषि और स्वास्थ्य की खातिर यह नीतिगत निर्णय लेना जरूरी हो गया है। |
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