अथ पौड़ी गाथा-9 : आन्दोलनों की धरती है पौड़ी
अथ पौड़ी गाथा-9 : आन्दोलनों की धरती है पौड़ी
लेखक : एल. एम. कोठियाल :: अंक: 23 || 15 जुलाई से 31 जुलाई 2011:: वर्ष :: 34 :August 16, 2011 पर प्रकाशित
पौड़ी राजनीतिक रूप से बेहद सचेत व सक्रिय, प्रभावशाली व सजग लोगों का भी नगर रहा है। एक समय पौड़ी ने समूचे गढ़वाल का नेतृत्व किया था। यहीं से पूरे गढ़वाल को संदेश जाता था। इस नगर से अनेकों ने राजनीति का ककहरा सीखा तो कई राजनीतिज्ञ राज्य व देश की राजनीति के शीर्ष तक गये। इस धरती से अनेकों आन्दोलन चले और लगभग सभी आन्दोलनों में सार्थक परिणाम मिले। लेकिन इस नगर में जन्मे पृथक राज्य आन्दोलन का चन्द लोगों को तो लाभ हुआ, किन्तु यह इस नगर के हितों के लिये अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही सिद्ध हुआ। राज्य बनने के बाद इस नगर की उपेक्षा होने के कारण यह नगर रसातल की ओर जाने लगा। सरकार की बेरुखी व नगर के प्रति उसके दुराग्रह के कारण यहाँ से शुरू हुआ पलायन का अन्तहीन सिलसिला बदस्तूर जारी है।
इस उपेक्षा को राज्य बनते समय ही कई लोगों ने महसूस कर लिया था और पौड़ी बचाओ आन्दोलन भी चला। किन्तु सरकार इसे तोड़ने में सफल रही और उस कमजोरी का लाभ सरकारी अधिकारी उठाने लगे। उनको डर था कि यदि पौड़ी में अवस्थापना विकास हुआ तो उन्हें यहाँ पर बैठकर काम करना होगा। इस क्रम में उनके द्वारा यहाँ के मण्डलीय कार्यालयों की उपयोगिता को ही समाप्त कर दिया। पहले आयुक्त व अन्य अधिकारी मुख्यालय में बैठते थे, लेकिन आज मण्डलायुक्त व आई.जी. गढ़वाल कभी कभार आ भी जायें तो गनीमत है। इन दो प्रमुख अधिकारियों के देहरादून में बैठने से बाकी अधिकारी भी उनका अनुसरण करने लगे। पौड़ी पहले से ही प्रशासनिक नगर रहा। सरकारी कार्यालयों की वजह से ही यहाँ पर रौनक रहती थी। बड़े अधिकारी रहते थे तो नगर के बारे में सोचते भी थे। लेकिन अब जिला स्तरीय अधिकारी व अन्य कर्मचारी शुक्रवार को ही देहरादून भाग जाते हैं और अक्सर मंगलवार तक ही लौटते हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो देहरादून भी सरकारी टूर बनाकर जाते हैं। इस कारण पौड़ी की सड़कें शनिवार को ही सूनी दिखने लगती हैं।
चर्चित व जागरूक नागरिकों की मौजूदगी किसी नगर के महत्व को बढ़ाती हैं व समाज को प्रेरणा देती है। लेकिन जब यहाँ से जागरूक लोग ही पलायन करने लगे तो बाकी का क्या कहना? आज तो देखा-देखी में यहाँ का हर क्षमतावान व्यक्ति देहरादून या अन्यत्र बसने को बेताब है। लगभग 35-40 हजार की आबादी वाले इस नगर से अब तक 400 से 600 परिवार देहरादून जा बसे हैं। एक प्रकार की सामाजिक व राजनीतिक शून्यता यहाँ व्याप्त हो गई है। रही-सही कसर पालिका व विधान सभा सीटों के आरक्षित होने के बाद से पूरी हो गई है। इसका परिणाम यह दिखा है कि नगर के अनेक सक्रिय राजनीतिक लोगों ने राजनीतिक लाभ न मिलने के कारण यहाँ की समस्याओं से पूरी तरह से किनारा कर लिया है। उन्हें यहाँ के सरोकारों से कोई मतलब नहीं रहा। कभी बात-बात पर सरकारी उपेक्षा के खिलाफ लोग सड़क पर आ जाते थे। आज इसका हाल पूछने वाला कोई नहीं है। नगर के लिये बन रही नानघाट पेयजल योजना में घपले ही घपले हो रहे हैं लेकिन कोई बोलने को तैयार नहीं है। एक समय ऐसा था जब इस नगर से अनके लोग पैदल चलकर यह देखने गये थे कि नानघाट योजना के श्रोत पर कितना पानी है। लेकिन आज पौड़ी में बन रहे बस अड्डे में हो रहे धीमे निर्माण पर, निर्माण ऐजेन्सी, ठेकेदार व नगर पालिका की मनमानी व भ्रष्टाचार पर बोलने को कोई तैयार नहीं।
लेकिन बीता दौर ऐसा न था। उस समय इस नगर से अनेक अभियानों व आन्दोलनों का श्रीगणेश हुआ। आजादी के आन्दोलन में भी इस नगर की अपनी भूमिका रही तो उसके उपरान्त नगर में अनेकों सामाजिक आन्दोलनों का सिलसिला कभी नहीं टूटा। पूरे देश की तरह ही यहाँ भी आजादी के आन्दोलन में 1930 के बाद ही तेजी आई। नगर में शिक्षा का प्रसार होने और बाहरी विश्वविद्यालयों में शिक्षा लेने हेतु जब छात्र जाने लगे तो इससे विचारों का आदान-प्रदान अधिक तेज हुआ। ब्रिटिश गढ़वाल की राजधानी होने के कारण यहाँ पर कांग्रेस को सक्रिय किया गया। यह लोग चुपचाप यहाँ से राष्ट्रीय अभियानों में जाते। वे बडे़ नेताओं से लगातार पत्र-व्यवहार करते। गढ़वाल के अनेक कांग्रेसी गांधी जी व नेहरू जी व अन्य बड़े लीडरों को यहाँ के राजनीति के हालात की जानकारी देते व विभिन्न अभियानों पर उनकी राय मांगते थे। तब कांग्रेस आज जैसी नहीं थी जिसके लोग आज राजनीतिक सत्याग्रह यात्रा निकाल रहे हैं। तब आजादी के लिये संघर्ष करने के लिये बने इस संगठन के किस व्यक्ति को कब जेल में बन्द कर दिया जाये, कुछ पता नहीं होता था। बेहद संकल्पबद्ध व समर्पित लोग हुआ करते थे जिनको राजनीतिक लाभ से कोई मतलब नहीं होता था।
1930 का साल ऐतिहासिक था। देश भर में चले सविनय अवज्ञा आन्दोलन की गढ़वाल में भी सुगबुगहाट होने लगी थी। सभी प्रमुख स्थानों पर धारा 144 लगाई गई, ताकि कांग्रेसी सभा न कर सकें। इसके बावजूद जुझारू नेता अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने चमोली में अंग्रेज सरकार की नीतियों का विरोध किया तो उनको व कुछ अन्य कांग्रेसियों को गिरफ्तार कर पौड़ी लाकर जेल में बन्द कर दिया गया। डिप्टी कमिश्नर इबटसन ने अनुसूया प्रसाद बहुगुणा को उनके दुस्साहस के लिये सबक सिखाने की सोची और उनके साथ उसने जेल में जम कर दुव्र्यवहार किया। इस घटना की जानकारी जेल से बाहर आई तो कांग्रेसियों में भारी रोष व्याप्त हो गया। वे डी.सी. का विरोध करने लगे। इस स्थिति को देखते हुये इबटसन कुमाऊँ कमिश्नर से मिलने नैनीताल चला गया। इस बीच में जिले के कांग्रेसियों ने एकजुट होकर इबटसन के लौटने पर उसका व्यापक विरोध करने का निश्चय किया। इबटसन का पहले कोटद्वार में विरोध हुआ और उसके बाद दुगड्डा, जो उस समय गढ़वाल का प्रवेश द्वार था, पहुंचने पर। विरोध करने वाले कुछ कार्यकर्ताओं को सरकार ने बन्द करा दिया।
उस समय तक कोटद्वार से दुगड्डा के बीच लोग बैलगाड़ी से सफर करते थे। पौड़ी से कोटद्वार के बीच तक कोई सड़क न थी। इसलिये आवागमन पैदल मार्ग से ही होता था जो दुगड्डा-डाडामण्डी – सतपुली – काँसखेत होकर पौड़ी व वहाँ से श्रीनगर के बीच था। इससे आने में लोगों को तीन से चार दिन लग जाते थे। 18 जुलाई को इबटसन पौड़ी पहुँचने वाला था। एक बड़ी भीड़ ने कन्डोलिया के समीप इबटसन को रोक कर जोरदार नारेबाजी की। इस पर इबटसन ने अपना घोड़ा भीड़ पर दौड़ा दिया और साथ में आये सुरक्षाकर्मियों को भीड़ को तितर-बितर करने का आदेश दिया। इसके बाद पूरे नगर में धारा 144 लगा दी गई और जीवानन्द डोभाल, भोलदत्त चन्दोला, कोतवालसिंह नेगी, महेशानन्द थपलियाल, लोकानन्द नौटियाल, आनन्द सिंह, जोध सिंह, ब्रह्मानन्द थपलियाल, सरोपसिंह, भिलेश्वरानन्द डोभाल सहित आन्दोलन के 18 प्रमुख लोगों को चुन-चुन कर घर से पकड़ा गया और फतेहगढ़ जेल भेज दिया गया। इनमें कुछ 3 माह व कुछ को 6 माह जेल की सजा हुई। .
…..जारी
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