अथ पौड़ी कथा- 6 : पौड़ी में रची पुस्तकें (क)
लेखक : एल. एम. कोठियाल :: अंक: 17 || 15 अप्रेल से 30 अप्रेल 2011:: वर्ष :: 34 :May 31, 2011 पर प्रकाशित
http://www.nainitalsamachar.in/story-of-pauri-part-6/
अथ पौड़ी कथा- 6 : पौड़ी में रची पुस्तकें (क)
लेखक : एल. एम. कोठियाल :: अंक: 17 || 15 अप्रेल से 30 अप्रेल 2011:: वर्ष :: 34 :May 31, 2011 पर प्रकाशित
आजादी पूर्व के दौर में पौड़ी में रहते हुए जहाँ लेखकों ने इतिहास, संस्कृति पर लिखा वहीं आजादी के बाद लेखकों ने लेखन की दूसरी विधाओं यथा कविता, कहानी, गजल, दोहा, गीत संग्रह, काव्य संग्रह को आजमाया तो संस्कृति, इतिहास, भूगोल, पर्यावरण आदि पर विषयगत पुस्तकों का भी प्रकाशन हुआ। हालांकि कुछेक को छोड़ अधिकतर पुस्तकें हिन्दी व गढ़वाली में लिखी गईं।
इनमें सबसे प्रबुद्ध व प्रमुख थे भजनसिंह 'सिंह'। सैनिक पृष्ठभूमि से होने के साथ-साथ वे चिंतक, अध्येता व सृजनकार भी थे। माना जाता है कि फौज़ी लोग साहित्य, कला, संस्कृति से दूर ही रहते हैं लेकिन वे इसके अपवाद ही रहे। उनकी इतिहास व गढ़वाली भाषा पर रचित पुस्तकें आज सन्दर्भ पुस्तकों का काम करती हैं जिनकी महत्ता आज भी बनी हुई है। सिंह जी की रचनाशीलता उनकी मृत्यु तक बनी रही। यदि वे कुछ और जिये होते तो उनकी कई अन्य अप्रकाशित पुस्तकें भी प्रकाशित हो गई होतीं।
हालांकि सेवाकाल में वे लिखने -पढ़ने लगे थे किन्तु सेना की सेवा की मजबूरी के कारण वे खुल कर सामने न आ सके। इसलिये उनका लेखन सन् 1945 में गढ़वाल राइफल्स से सेवानिवृत्ति के बाद ही सामने आया। पौड़ी के समीप अपने गाँव कोटसाड़ा में आकर वे लेखन में लीन हो गये। सेवाकाल के बाद कई पुस्तकें सामने आती चली गईं। हालांकि इनमें से कुछ लेखन उन्होंने सेवाकाल में ही रचा। इनमें सबसे पहली पुस्तक हिन्दी मुक्तक 'मेरी वीणा' थी जो 1950 में प्रकाषित हुई। इसी साल उनकी सबसे चर्चित पुस्तक 'सिंहनाद' रही जिसके बाद में कई परिवर्धित संस्करण निकले। पुस्तक 'सिंह सतसई' गढ़वाली दोहों का संग्रह थी जिसका 1984 में प्रकाशन हुआ। उनकी कई पुस्तकें अप्रकाशित ही रहीं। इनमें 'गढ़वाल के इतिहास के अस्पष्ट पृष्ठ', 'गढ़वाल के कानूनी ग्रन्थ', 'कालिदास के ग्रन्थों में गढ़वाल' व 'निबन्ध संग्रह सिंहनाद' हैं। हिन्दी में उनकी इतिहास पर लिखी सबसे चर्चित पुस्तक 'आर्यों का आदि निवास मध्य हिमालय' थी और आज भी संस्कृति व इतिहास का शोधार्थी व लेखक इसके अध्ययन के बाद ही आगे बढ़ता है। इस शोध पुस्तक में सिंह जी ने उत्तराखण्ड हिमालय के समाज, भूगोल, संस्कृति, इतिहास पर पहली बार प्रकाश डालने का प्रयास किया। इसके लिये उन्होंने वेदों, पुराणों, रामायण, महाभारत आदि धार्मिक पुस्तकों से लेकर केदारखण्ड, तत्कालीन पुस्तकों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों, यात्रा विवरणों को आधार बनाकर पहली बार इस क्षेत्र पर प्रमाणिक सामग्री देने का प्रयास किया। यह उस दौर की ऐसी पहली पुस्तक थी जिसमें उत्तराखण्ड के आद्य इतिहास पर रोशनी डाली गई थी।
भजनसिंह सिंह लम्बे समय तक जिला पंचायत सदस्य के रूप में सामाजिक जीवन से जुड़े रहे तो पौड़ी में सृजन करने वालों के प्रेरणा श्रोत थे।
सिंह जी के साहित्यिक मित्रों में वाचस्पति गैरोला भी एक थे। एक संयोग ही था कि वे भी कोट विकास खण्ड के मूल निवासी हैं। 1974 में इलाहाबाद से सेवानिवृत्ति के बाद पौड़ी में स्थापित होने का निश्चय किया। यहाँ वे लम्बे समय तक बेहद सक्रिय रहे। यहा पर पहले-पहल उन्होंने एक छापाखाना खोला जहाँ से वे एक साप्ताहिक पत्र 'गढ़वाल मण्डल' निकालने लगे। उनकी ज्यादातर कृतियाँ इलाहाबाद में सेवाकाल में ही निकली जो साहित्य, धर्म, दर्शन, कला, संस्कृति, आध्यात्म जैसे गूढ़ विषयों पर लिखी प्रमुख पुस्तकें हैं। पौड़ी में रहते हुए उनके द्वारा 'गढ़वाल मण्डल' पत्र का पर्यटन अंक व नेहरू स्मारिका का प्रकाशन किया गया जो अपने में उल्लेखनीय कार्य था। अनेकों सम्मानों से नवाजे गये गैरोला जी आज 84 साल की आयु के हो चुके हैं।
डॉ. यशवन्तसिंह कटोच नगर के तीसरे ऐसे व्यक्ति रहे जिनका रचनाकर्म उन विषयों में मील का पत्थर है। प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृति के बाद उन्होंने पौड़ी की धरती को अपनाया और यहीं से लेखन किया। उनका अधिकांश लेखन सेवानिवृति के बाद ही सामने आया जो उनके उस दौरान किये अध्ययन व स्थल भ्रमण का परिणाम है। आज भी 76 साल की आयु में उनका रचनाकर्म जारी है। पुरातत्त्व के क्षेत्र में उनकी लिखी पुस्तकें उनके लम्बे अध्ययन व सतत शोध का परिणाम हैं जो मध्य हिमालय के इतिहास में मील का पत्थर है। यों तो पुरातत्त्व व इतिहास विषय उनकी विशेषज्ञता रही है किन्तु इनसे भी हटकर उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखीं। उनके लेखन का आरम्भ 1981 में उनके शोध ग्रन्थ के 'मध्य हिमालय का पुरातत्त्व' के प्रकाशन से आरम्भ हुआ। इसके बाद 'मध्य हिमालय (1) में 'संस्कृति के पद चिन्ह' 1996 में, मध्य हिमालय (2) मध्य हिमालय की कला' वर्ष 2000 तथा इसके तीसरे खण्ड के रूप में उत्तराखण्ड का नवीन इतिहास 2005 प्रकाशित हुई। उनकी दूसरी पुस्तकों में 'उत्तराखण्ड की सैन्य परम्परा' वर्ष 1994 में, 'सिंह भारती' वर्ष 2000 में सामने आई। हाल ही में उनके द्वारा हरिकृष्ण रतूड़ी की पुस्तक 'गढ़वाल का इतिहास' का संशोधित व संपादित संस्करण प्रकाशित किया है। इसके अलावा वे इन दिनों भारत का ऐतिहासिक शब्द कोश, एटकिंसन के गजेटियर का समीक्षात्मक अध्ययन तथा मध्य हिमालय सिरीज का भाग 4 निकालने जा रहे हैं जिसमें उत्तराखण्ड के इतिहास के पुराभिलेखों की श्रोत सामग्री का विवरण होगा। इतिहास व पुरात्व के अलावा वे गढ़वाली भाषा में भी लिखते आये रहे हैं।
जारी…..
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