अथ पौड़ी कथा.10 आन्दोलनों की धरती-2
लेखक : एल. एम. कोठियाल :: अंक: 01-02 || 15 अगस्त से 14 सितम्बर 2011:: वर्ष :: 35 :September 16, 2011 पर प्रकाशित
http://www.nainitalsamachar.in/story-of-pauri-garhwal-part-10/
अथ पौड़ी कथा.10 आन्दोलनों की धरती-2
लेखक : एल. एम. कोठियाल :: अंक: 01-02 || 15 अगस्त से 14 सितम्बर 2011:: वर्ष :: 35 :September 16, 2011 पर प्रकाशित
आजादी की लड़ाई के दौर में उत्तराखण्ड की धरती 1928 से 1932 के मध्य सबसे अधिक उद्वेलित रही। राष्ट्रीय स्तर पर पहले साईमन कमीशन का विरोध हुआ, जिसके बाद 1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के तहत नमक सत्याग्रह प्रमुख था। चूंकि उत्तराखण्ड में नमक बनाने की संभावना नहीं थीं, इसलिये कांग्रेसियों ने सांकेतिक तौर पर कई स्थानों पर सभायें कीं और सरकारी कानूनों का विरोध किया। ईबटसन काण्ड विरोध सभायें करने वाले नेताओं के उत्पीड़न का ही परिणाम था, जिससे यहाँ की जनता जिले के हाकिम के खिलाफ ही विरोध पर उतर आई। 1931 में महज एक हजार की आबादी वाले ब्रिटिश गढ़वाल के मुख्यालय पौड़ी में डिप्टी कमिश्नर ईबटसन के इस प्रकार विरोध ने अंग्रेजी सरकार के कान खड़े कर दिये थे। आगे से इस तरह का विरोध न हो, इसके लिये सरकार ने आन्दोलनकारियों को सबक सिखाने के डिफेन्स इन्डिया रूल्स के तहत सजायें कीं। इसका बाहरी असर काफी हुआ और एकबारगी यह लगने लगा था कि पौड़ी जिले में कांग्रेस समाप्तप्राय है। लेकिन अन्दर ही अन्दर युवा कार्यकताओं में चिंगारी सुलग रही थी। उनका मौका आया वर्ष 1932 में, जब संयुक्त प्रान्त के लाट (गवर्नर) मैलकम हैली पहाड़ के दौरे पर आने को थे। सितम्बर के पहले पखवाड़े में उनके आगमन की तिथि निर्धारित हुई। सरकार व सरकारपरस्त लोग चाहते थे कि इस अवसर पर मैलकम हैली का नागरिक अभिनन्दन हो।
नौजवान कांग्रेसियों को जब इसका पता चला तो वे व्यग्र हो उठे। उन्होंने तय किया कि जब हैली पौड़ी आयें तो उनकी सभा में तिरंगा फहरा कर सरकारी भ्रम को दूर किया जाय। लेकिन यह करना आसान न था। सवाल यह था कि भारी पुलिस बन्दोबस्त के बावजूद ऐसा कौन करेगा ? कांग्रेस नेता जयानन्द भारती ने इस काम को करने का बीड़ा उठाया। जयानन्द भारती कांग्रेस में रह कर दलितों के अधिकारों के लिये काम करने के कारण पहले ही अपना स्थान बना चुके थे। हैली के अभिनन्दन समारोह के ठीक एक दिन पहले, 6 सितम्बर 1932 को भारती चुपचाप लैंसडौन से पौड़ी आ पहुँचे, जहाँ उनका ठिकाना था एडवोकेट कोतवालसिंह नेगी का घर। रात में उन्होंने छिपा कर लाये गये कपड़े के टुकड़ों को सिल कर तिरंगा बनाया। योजना अन्तिम समय तक बेहद गोपनीय रही। इसीलिये वे न तो पौड़ी आते समय पकड़े गये और न झण्डे को अपनी बाँह के अन्दर छिपा कर सभा स्थल में प्रवेश करते समय ही।
तहसील के प्रांगण में अभिनन्दन सभा आरम्भ हो चुकी थी। सभा में सभी सरकारी अफसर व छोटे मुलाजिम और पौड़ी जिले के रायबहादुर, रायसाहबान, वकील, ठेकेदार, थोकदार आदि गणमान्य व्यक्ति व सेवानिवृत्त कर्मचारी मौजूद थे। गवर्नर हैली का अभिनन्दन पत्र पढ़ा जा चुका था। तभी पूर्व योजनानुसार उनके एक साथी ने उन तक एक छड़ी पहुँचा दी। उन्होंने दूसरों की नजर बचाते हुये चुपचाप आस्तीन में छिपाये झण्डे को निकाल कर छड़ी में चढ़ाया और भरी सभा में उसे लहराते हुये ''मैल्कम हैली गो बैक'' के नारे लगाने लगे। जयानन्द भारती को तुरन्त पुलिस ने दबोच लिया। उन्हें एक साल की सजा हुई। मगर इलाके में हैली के आगमन की बजाय एक दलित युवक के इस दुस्साहस की ही चर्चा होती रही।
1932 के बाद पौड़ी में आन्दोलन या इस प्रकार का विरोध नहीं देखा गया। इसका एक कारण था राज्य में प्रान्तीय एसेम्बली व जिला स्तर पर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की स्थापना। जून 1923 में पौड़ी जिले में पहली जिला परिषद बनी। आरम्भ में इसके अध्यक्ष व सदस्य गैर राजनीतिक पृष्ठभमि के थे। इसके पास न संसाधन थे और न कोई भवन। 1928 से 1931 के दौर में कांग्रेस के प्रतापसिंह नेगी के कार्यकाल में परिषद ने जिले में यातायात, शिक्षा एवं पानी के तीन मूलभूत मुद्दों पर अपनी क्षमतानुसार कार्य किया। ज्यादातर बोर्ड सदस्य कांग्रेसी पृष्ठभूमि से ही आते। सन् 1931 से 1935 तक प्रमुख कांग्रेस नेता अनुसूया प्रसाद बहुगुणा इसके अध्यक्ष व जगमोहन सिंह नेगी शिक्षा समिति के संयोजक बने। सभी सदस्यों के कांग्रेसी होने के कारण जिले में कांग्रेस की आन्दोलनात्मक गतिविधियां शान्त होने लगी। 'भारत छोड़ो आन्दोलन' तक उसमें बहुत तेजी नहीं आ सकी।
इस दौर में गढ़वाल एक बेहद पिछड़ा प्रदेश था जिसका मुख्यालय तक मोटर सड़क से नहीं जुड़ा था। सड़क मार्ग दुगड्डा तक था, जहाँ से आवागमन पैदल ही होता था। इसमें बहुत समय लग जाता था। सन् 1935 में हरेन्द्र सिंह रावत डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के अध्यक्ष बने तो बोर्ड ने अपनी ओर से पहल करते हुए वर्ष 1936 की विजयादशमी पर दुगड्डा से आगे फतेहपुर में सड़क निर्माण पर कार्य आरम्भ करा दिया। लेकिन संसाधनों की कमी के कारण सड़क दो साल बाद गुमखाल पर आकर रुक गईं। लंगूरगढ़ी की कठोर चट्टानों को काटना कठिन हो गया। सड़क मार्ग को आगे बनाने के लिये अब सरकारी सहायता एक मात्र सहारा बच रह गया था। लेकिन सरकार थी कि सुन ही नही रही थी।
इसके लिये गढ़वाल जागृत संघ, जिसमें गढ़वाल के प्रबुद्ध व्यक्ति शामिल थे, आगे आया। जागृति संघ ने इसके लिये 7 नवम्बर 1938 को एक जबरदस्त आन्दोलन शुरू किया। संयुक्त प्रान्त सरकार पर इसका प्रभाव न पड़ा, लेकिन जनप्रतिनिधि उसके दबाव में आ गये। उस समय जनप्रतिनिधि प्रायः ईमानदार व निस्वार्थ व्यक्ति ही होते थे, अतः उन्होंने संघ की अपील पर अपने त्यागपत्र दे दिये। इन्हें लेकर गढ़वाल जागृति संघ ने लखनऊ जाकर सरकार से मुलाकात की। सरकार तब इस माँग को अस्वीकार न कर सकी और उसने सड़क निर्माण का काम अपने हाथ में लेना स्वीकार कर लिया।
No comments:
Post a Comment