BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Sunday, July 16, 2017

उनके पास साहित्यकार नहीं हैं तो हमारे पास कितने साहित्यकार बचे हैं? शिक्षा व्यवस्था आखिर क्या है?

उनके पास साहित्यकार नहीं हैं तो हमारे पास कितने साहित्यकार बचे हैं? शिक्षा व्यवस्था आखिर क्या है?
पलाश विश्वास
हमारे आदरणीय जगदीश्वर चतुर्वेदी ने फेसबुक वाल पर सवाल किया है कि पांच ऐसे उपन्यासों के नाम बतायें,जो संघ परिवार की विचारधारा से प्रेरित है।इसकी प्रतिक्रिया में दावा यही है कि संघ परिवार के पास कोई साहित्यकार नहीं है।
लगता है कि बंकिम वंशजों को पहचानने में लोग चूक रहे हैं।गुरुदत्त का किसी आलोचक ने नोटिस नहीं लिया,लेकिन वे दर्जनों उपन्यास संघी विचारधारा के पक्ष में लिकते रहे हैं।
आचार्य चतुरसेन और नरेंद्रकोहली के मिथकीय आख्यान से लेकर उत्तर आधुनिक विमर्श का लंबा चौड़ा इतिहास है।
इलाहाबादी परिमल को लोग भूल गये।
सामंती मूल्यों के प्रबल पक्षधर ताराशंकर बंद्योपाध्याय जैसे ज्ञानपीठ,साहित्य अकादमी विजेता दर्जनों हैं।
कांग्रेस जमाने के नर्म हिंदुत्व वाले मानवतावादी साहित्यकार और संस्कृतिकर्म भी हिंदुत्व की विचारधारा को पुष्ट करते रहे हैं।
जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद आपातकाल के अवसान के बाद मीडिया के केसरियाकरण को सिरे से नजरअंदाज करने का नतीजा सामने है।
समूचा मीडिया केसरिया हो गया है।
भारतीय भाषाओं के साहित्य,माध्यमों और विधाओं, सिनेमा, संगीत,मनोरंजन,सोशल मीडिया में जो बजरंगी सुनामी जारी है,उसे नजरअंदाज करना बहुत गलता होगा।
उनके पास साहित्यकार नहीं है,यह दावा सरासर गलत है।नस्ली,सामंती,जाति वर्चस्व से मुक्त साहित्य क्या लिखा जा रहा है और ऐसा साहित्य क्या लिखा जा रहा है,जो रंगभेदी शुद्धतावादी हिंदुत्व की विचारधारा के प्रतिरोध में है,यह कहना मुश्किल है।
मानवतावादी साहित्य के नामपर सामंती मूल्यों को मजबूत करने वाले साहित्यकारों की लंबी सूची है।
बंकिम के आनंदमठ से चर्चा की शुरुआत करे तो सूची बहुत लंबी हो जायेगी।
संघ परिवार के संस्थानों,उनकी सरकारों से सम्मानित,पुरस्कृत साहित्यकारों, संपादकों,आलोचकों की पहले गिनती कर लीजिये।बहुजन विमर्श के अंबेडकरी घराने के अनेक मसीहावृंद के नाभिनाल भी संघ परिवार से जुड़े हैं।नई दिल्ली न सही, नागपुर, जयपुर, लखनऊ,गोरखपुर,भोपाल,कोलकाता,चंडीगठ से लेकर शिमला और गुवाहाटी से लेकर बेंगलूर तक तमाम रंग बिरंगे साहित्यकार संघ परिवार की संस्थाओं से नत्थी है।
हिंदी,हिंदू,हिंदुस्तान की तर्ज पर उग्र बंगाली,असमिया,तमिल सिख राष्ट्रवादी की तरह हिंदी जाति का विमर्श भी प्रगतिशील विमर्श का हिस्सा रहा है,जो संघ परिवार की नस्ली रंगभेदी विचारधारा के मुताबिक है।
हिंदी क्षेत्र के साहित्यकार संस्कृतिकर्मी हिंदी,हिंदू,हिंदुस्तान के बहुजन विरोधी विचारधारा से अपने को किस हद तक मुक्त रख पाये हैं और उनके कृतित्व में कितनी वैज्ञानिक दृष्टि,कितनी प्रतिबद्धता और कितना सामाजिक यथार्थ है,आलोचकों ने उसकी निरपेक्ष जांच कर ली है तो मुझे मालूम नहीं है।
हम नामों की चर्चा नहीं करना चाहते लेकिन बुनियादी मुद्दों, समाज,जल.जंगल,जमीन,उत्पादन प्रणाली और आम जनता के खिलाफ एकाधिकार कारपोरेट हिंदुत्व के अस्श्वमेधी नरसंहार अभियान के पक्ष में यथास्थितिवाद, आध्यात्म, मिथक, उपभोक्तावादी ,बहुजन विरोधी,स्त्री विरोधी साहित्य सही मायनों में संघ परिवार की विचारधारा से ही प्रेरित है।
असमता और अन्याय की सामंती व्यवस्था के पक्ष में  मुख्यधारा का समूचा साहित्य है, मीडिया है, माध्यम और विधाएं हैं।यह सबसे बड़ा खतरा है।
आजादी से पहले और आजादी के बाद भारतीय भाषाओं हिंदुत्व की विचारधार की जो सुनामी चल रही है,वह साहित्य और संस्कृति,माध्यमों और विधाओं के गांव,देहात,जनपद,कृषि से कटकर महाजनी सभ्यता के मुक्तबाजार हिंदू राष्ट्र में समाहित होने की कथा है।
समूची शिक्षा व्यवस्था हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक है,जिसका मूल स्वर सरस्वती वंदना है।जहां विविधत और सहिष्णुता जैसी कोई बात नहीं है।साहित्य के अध्यापकों और प्राध्यापकों का केसरिया कायाकल्प तो हिंदुत्व के पुनरूत्थान से पहले ही हो गया था कांग्रेसी नर्म हिंदुत्व के जमाने में,इसलिए बजरंगी अब रक्तबीज हैं।
भारतीय भाषाओं में चूंकि आलोचकों और संपादकों की भूमिका निर्णायक है और प्रकाशकों का समर्थन भी जरुरी है,उसके समीकरण अलग हैं,इसलिए संघ समर्थक साहित्य की चीरफाड़ कायदे से नहीं हुई।
अनेक प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष आदरणीय आदतन बहुजनविरोधी,आध्यात्मवादी,सामंती मल्यों के प्रवक्ता,सवर्ण वर्चस्ववादी नायक अधिनायक के सर्जक,सामंती प्रेतों को जगानेवाले,जाति व्यवस्था,शुद्धतावाद,पितृसत्ता,नस्ली वर्चस्व के पैरोकार हैं,जिनकी व्यक्तित्व कृतित्व की हमारे जातिसमृद्ध आलोचकों ने नहीं की है।
इनमें से ज्यादातर प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष लबादे में संघ परिवार के एजंडे को ही मजबूत करते रहे हैं,कर रहे हैं।
उनके पास साहित्यकार नहीं हैं तो हमारे पास कितने साहित्यकार बचे हैं?

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