BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Saturday, November 29, 2014

सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों के बजट में कटौती का विरोध

प्रेस विज्ञप्ति_29 Nov 2014_सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों के बजट में कटौती का विरोध

प्रेस विज्ञप्ति

सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों के बजट में कटौती का विरोध

 

नई दिल्ली, 29 नवंबर, 2014 मौजूदा वित्तीय वर्ष 2014-15 के लिए सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों के बजट आवंटन में कटौती संबंधी कई ख़बरें मीडिया में आईं है. इसका मतलब है कि 2014-15 के बजट पूर्वानुमान जो इस साल जुलाई में पेश किया गया था, उसे संशोधित करते हुए इन आवंटनों में कटौती होगी. इस मुद्दे की गंभीरता से पड़ताल करने और इस पर विस्तृत बहस कराने की जरूरत है.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर और प्रमुख अर्थशास्त्री जयति घोष कहती हैं, "बजट में इस तरह की कटौती अमानवीय और गलत है. सामाजिक क्षेत्र के लिए आवंटन पहले से काफी कम है और उसमें और कमी की जा रही है. लेकिन यह किस कीमत पर हो रहा है.?" जयति घोष ने सरकार से अपील की है कि वह संसद, मीडिया और देश के आमलोगों की राय के उलट जाकर चुपके चुपके इन कटौतियों को लागू नहीं करे.

प्रस्तावित कटौती से आने वाले संकट की ओर संकेत करती हुई पॉजिटिव वीमेन नेटवर्क की कौशल्या ने बताया कि एचआईवी संक्रमण का बजट 1785 करोड़ से घटाकर 485 करोड़ रुपये किया जा रहा है. कौशल्या के मुताबिक, "यह कटौती एचआईवी संक्रमित हजारों महिलाओं, पुरुषों और बच्चों के लिए मृत्यु प्रमाणपत्र जैसा है." कौशल्या के मुताबिक बजट आवंटन में इस कटौती से एचआईवी संक्रमित लोगों के जीवन पर असर तो पड़ेगा ही साथ में एचआईवी महामारी के तौर पर भी फैल सकता है.

पिछले कुछ सालों के दौरान, वित्त मंत्रालय द्वारा इस बजट कटौती के पक्ष में एक तर्क ये दिया जा रहा है कि सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों के लिए दिए गए पैसे खर्च नहीं होते. यानी की राज्य सरकारों द्वारा इन कार्यक्रमों को लागू करने वाली एजेंसिया स्वीकृत आवंटन का पूरा हिस्सा इस्तेमाल नहीं कर पातीं, इसलिए साल के मध्य में संशोधित आकलन के दौरान आवंटन में कटौती की जाती है. विडंबना ये है कि ये तर्क एकदम मान्य नहीं है, क्योंकि पिछले कुछ सालों के दौरान सामाजिक क्षेत्र के आवंटन के इस्तेमाल में लगातार सुधार हुआ है.

सेंटर फॉर बजट एंड गर्वनेंस एकाउंटिबलिटी (सीबीजीए) के सुब्रत दास कहते हैं, "समय आ गया है कि संशोधित बजट पूर्वानुमान की प्रक्रिया को संसद के अंदर किया जाना चाहिए और पब्लिक डोमेन के तहत इस पर बहस होनी चाहिए. ताकि कोई कार्यकारी प्राधिकरण संसदीय प्रक्रिया को कमतर नहीं आंक पाए." सीबीजीए के अध्ययन बताते हैं कि अगर तीन समस्याओं का हल तलाश लिया जाए तो सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों का बजट का इस्तेमाल और उसे खर्च करने की गुणवत्ता दोनों में काफी सुधार होता है. ये तीन समस्याएं हैं- योजनाओं के विकेंद्रीकरण में कमी, केंद्र की पैसे मिलने में दरी और सामाजिक क्षेत्र में काम करने वालों की कमी के चलते अपर्याप्त संस्थागत क्षमता.

ऐसे में जरूरत केंद्र सरकार द्वारा उन नीतिगत बदलावों की शुरुआत की है जिससे संस्थागत समस्याओं को दूर किया जा सके ना कि सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के आवंटन में कटौती करने की. जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रवीण झा ने इस मुद्दे पर कहा, "इन कटौतियों के बारे में पब्लिक डोमेन में चर्चा होनी चाहिए. ताकि हमें सामाजिक क्षेत्र से जुड़े अलग अलग मंत्रालयों के मतभेदों के बारे में पता चलेगा. वित्त मंत्रालय ने इन कटौतियों को बिना किसी वजह के थोपा है क्योंकि उनका लक्ष्य राजकोषीय घाटे की दर को 4.1 फ़ीसदी पर लाना है."

मनरेगा में तो कई राज्यों की मांग को पूरा नहीं किया जाएगा. दस राज्यों ने तो पिछले दो-तीन महीनों में केंद्र से ज्यादा संसाधनों की मांग की है. ऐसे में आवंटित राशि के कम इस्तेमाल का तर्क तो मनरेगा के मामले में सही नहीं है. राइट टु फूड कैंपेन की दीपा सिन्हा और जन आवाज के निखिल डे बजट में कटौती से होने वाले नुकसान की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं कि इससे आम गरीबों की  शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और रोजगार संबंधी मुश्किलें कई गुना बढ़ेंगी. उन्होंने कहा,लोगों के पास काम नहीं है, मनरेगा के तहत मिलने वाली मज़दूरी भी नहीं है ऐसे में 3000 करोड़ रुपये की कटौती तो मानवाधिकार के उल्लंघन का मामला है."

ऐसे में जाहिर है कि बजच आवंटन में कटौती की सबसे अहम वजह यही है कि केंद्र वित्त मंत्रालय 2014-15 के संशोधित बजट पूर्वानुमान में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 4.1 फीसदी की दर तक लाना चाहता है. चूंकि जीडीपी उम्मीद के विपरीत बहुत धीमी गति से बढ़ रही है, ऐसे में बजट में अनुमानित कर राजस्व की प्राप्ति नहीं होगी. ऐसे में साफ है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय राजकोषीय घाटे को कम करने के अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों के बजट में कटौती को आसान विकल्प मान रहा है. आईआईटी दिल्ली की प्रोफेसर रितिका खेड़ा कहती हैं, संशोधित पूर्वानुमान हमेशा गरीबों और सामाजिक क्षेत्र के हितों के खिलाफ में होते हैं. भारत का कर-जीडीपी का अनुपात बेहद कम है और इस तरह यह और भी बदतर होगा."

बजट में प्रस्तावित कटौतियों से ये भी संकेत मिलता है कि नई सरकार बजट में अपनी प्राथमिकताओं को बदल सकती है. केंद्र सरकार पिछले कुछ महीनों में घोषित प्रमुख योजनाओं, मसलन स्मार्ट सिटी योजना, गंगा की सफ़ाई और जीर्णोद्वार योजना, स्वच्छ भारत अभियान और आधारभूत ढांचों के निर्माण के लिए बजट आवंटन की घोषणा कर सकती है. एक विकास के काम को दूसरे विकास के काम पर प्राथमिकता देकर मौजूदा वित्तीय संसाधनों में ही राशियों के वितरण के बजाए सरकार को बजट को विस्तार देने की कोशिश करनी चाहिए और यह टैक्स-जीडीपी के अनुपात को बढ़ाकर किया जा सकता है.

सामाजिक क्षेत्र के बजट आवंटन में कटौती से देश में बड़ी संख्या में जीवन यापन कर रहे गरीब और हाशिए के लोगों का जीवन प्रभावित होगा. ऐसे में सरकार को मौजूदा वित्तीय साल में सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रमों के लिए बजट में कटौती नहीं करनी चाहिए और अगले वित्तीय साल के दौरान इसे बढ़ाने पर जोर देना चाहिए.

- सुब्रत दास ( सेंटर फॉर बजट एंड सोशल एकाउंटिबलिटी), निखिल डे (जन आवाज)

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मौजूदा समय में उन आर्थिक और सामाजिक अधिकारों के बजट आवंटन में कटौती की जा रही है जिन्हें आम लोगों ने लंबे संघर्ष के बाद हासिल किया था. पिछले दशक में कई अभियानों और आंदोलन के लंबे संघर्ष के बाद देश के सबसे कमजोर और हाशिए के लोगों को गरिमामयी ढंग से जीवनयापन के मामूली से कानूनी अधिकार मिले थे. लेकिन कारपोरेट घरानों को दी जाने वाली छूट का लालच गरीब और हाशिए के लोगों को मामूली अधिकार भी नहीं देना चाहती, इसलिए इन अधिकारों को बेजा खर्च बता इसपर हमले किए जा रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली मौजूदा केंद्र सरकार ने श्रम कानून, मनरेगा, भूमि अधिग्रहण, वन अधिकारों में कटौती का प्रस्ताव लाने के बाद उस पर अमल भी शुरू कर दिया है. इतना ही नहीं वित्त मंत्रालय ने इन कार्यक्रमों का बजट आवंटन भी कम करने का प्रस्ताव किया है, जो पूरे सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के लिए बड़ा झटका है.


ऐसी सूरत में, देश भर में विभिन्न आंदोलन, अभियानों, नागरिक संगठनों और नागरिक समूहों से जुड़े हजारों मज़दूर, किसान, पेंशनभोगी, झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले तीन दिनों के लिए नई दिल्ली में जमा हो रहे हैं. ये लोग अपने जमीन के अधिकार, श्रम, रोजगार, वन, सूचना, खाद्य, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, पेंशन, अल्पसंख्यक और दूसरे आर्थिक सामाजिक अधिकारों की मांग करते हुए'अबकी बार, हमारा अधिकार' के नारे के साथ रैली निकालेंगे।

 

दिनांक30 नवंबर और एक दिसंबर, 2014

कार्यक्रमजनसभा

अनुमानित भागीदारीदेश भर में चल रहे विभिन्न आंदोलनों के 300 प्रतिनिधि

आयोजन स्थलआंबेडकर भवन, रानी झांसी रोड, झंडेवालन मेट्रो स्टेशन के नजदीक, नई दिल्ली

समयसुबह 10.30 बजे से शाम 6.30 बजे तक

प्रारूपप्रत्येक दिन तीन सत्र का आयोजन, छह थीम पर चर्चा

1.        सामाजिक सेवा और सामाजिक सुरक्षा का अधिकार सुनिश्चित करना

2.        श्रम अधिकारों की रक्षा और उसका विस्तार

3.        प्राकृतिक संसाधनों पर आम लोगों का अधिकार

4.        लोकतंत्र, जबावदेही और पारदर्शिता की रक्षा

5.        विविधता और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा, अल्पसंख्यकों के अधिकार को सुनिश्चित करना, सामाजिक न्याय और लैंगिक न्याय

6.        विभिन्न आंदोलनों में संयोजन विकसित करना और आगे के संघर्ष पर विचार

 

दिनांक2 दिसंबर, 2014

कार्यक्रमरैली और सार्वजनिक बैठक

रैली का नाराअबकी बार हमारा अधिकार

अनुमानित भागीदारीदेश के 20 से भी ज़्यादा राज्यों के मज़दूर, किसान, पेंशनभोगी, झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले और हाशिए पर रहे 10 से 15 हज़ार लोग.

रैली का रास्ताआंबेडकर स्टेडियम से संसद मार्गजंतर मंतर

आयोजन स्थलआंबडेकर स्टेडियम ( दरियागंज, लोक नायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल, नई दिल्ली) वहां से संसद मार्ग और जंतर मंतर तक यात्रा, फिर दिन पर की जन बैठक


शिड्यूल आंबेडकर स्टेडियम में सुबह 10 बजे बैठक, दोपहर से शाम 5.30 बजे तक संसद मार्गजंतर मंतर पर जन बैठक

आमंत्रित सदस्यसभी राजनीतिक दलों के नेता

आयोजक संस्थाएं: अखिल भारतीय रेलवे खान-पान लाइसेंस वेलफेयर एसोसिएशन, ऑल इंडिया एग्रीकल्चर लेबरर्स एसोसिएशन (एआईएएलए), ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेंस एसोसिएशन(एडवा), ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमेन एसोसिएशन (एपवा), ऑल इंडिया स्टुडेंट एसोसिएशन (एआईएसए), ऑल इंडिया सेक्यूलर फॉरम, अनहद, बंधुआ मुक्ति मोर्चा, भावनगर जिला ग्राम बचाओ समिति, कैंपेन फॉर हाउसिंग एंड टेन्यूरियल राइट्स (सीएचएटीआरआई), कैंपेन फॉर सरवाइवल एंड डिग्निटी (सीएसडी), सिविक बेंगलोर, छत्तीसगढ़ किसान मज़दूर आंदोलन, कम्यूनलिज्म कॉम्बैट, एकता परिषद, ग्रीन पीस, आईसीएएन, जामिया टीचर्स सॉल्डिरिटी कैंपेन, जन स्वास्थ्य अभियान (जेएसए), खेत मज़दूर शभा, लोक आह्वान मंच, मोंटफोर्ट सोशल इंस्टीच्यूट (एमएसआई), नेशनल एलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट्स (एनएपीएम), नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्मूयन राइट्स (एनसडीएचआर), नेशनल फेडरेशन ऑफ़ इंडियन वीमेन (एनएफआईडब्ल्यू), न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव (एनटीयूआई), पीएडीएस, पेंशन परिषद, राष्ट्रीय मज़दूर अधिकार मोर्चा (आरएमएएम), राइट टु फूड कैंपेन (आरटीएफसी), सार्थक पहल और अन्य संस्थाएं.

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