BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Friday, November 21, 2014

आनंद तेलतुंबड़े:बिना जातियों का खात्मा किए स्वच्छ भारत नामुमकिन

बिना जातियों का खात्मा किए स्वच्छ भारत नामुमकिन

Posted by Reyaz-ul-haque on 11/20/2014 07:44:00 PM

आनंद तेलतुंबड़े

नरेंद्र मोदी की नाटकबाजी खत्म होती नहीं दिख रही है. पिछले छह महीनों के दौरान, जबसे वे भारत के प्रधानमंत्री बने हैं, उन्होंने बहुत सारी नाटकबाजियां की हैं, लेकिन उस 'अच्छे दिन' के कोई दर्शन नहीं हुए हैं, जिसका वादा उन्होंने जनता से किया था. पिछले शिक्षक दिवस पर उन्होंने स्कूली बच्चों की छुट्टियां रद्द कर दीं और टीवी पर उन्हें सुनने के लिए बच्चों को स्कूल आने को कहा. इस गांधी जयंती पर भी उन्होंने श्रद्धांजली के बतौर दी जाने वाली राष्ट्रीय छुट्टी को रद्द कर दिया और लोगों को झाड़ू उठा कर स्वच्छ भारत अभियान शुरू करने को कहा. हालांकि उनकी दूसरी नाटकबाजियों से हल्के-फुल्के विवाद उठे थे, लेकिन ऐसा लग रहा है कि इस आखिरी वाले को ज्यादातर लोगों ने अपना लिया है जबकि यह संभावित रूप से सबसे विवादास्पद और समस्याग्रस्त है. चूंकि मोदी यहां गांधी की भूमिका अदा कर रहे हैं, क्योंकि खुद उन्होंने गांधी पर सवाल खड़े किए थे और उन्हें खारिज किया था, क्योंकि एक 'महान राष्ट्र' के रूप में भारत की छवि के लिहाज से यह मुद्दा इतना अहम था कि इस पर विवाद खड़े होते, लेकिन इन सबसे अलग इस चुप्पी की मुख्य वजह यह थी कि सामूहिक रूप से इस बात को लेकर लोग अनजान है कि गंदे भारत की जड़ें जातीय संस्कृति में हैं और वे जातियों के उन्मूलन के लिए जरिए इसके खात्मे की जरूरत से और भी अनजान हैं. 

गंदगी की वजह

इसमें बहुत कम संदेह है कि भारत दुनिया में अनोखे रूप से एक गंदा देश है. हालांकि देशों की तुलना करने के लिए गंदगी का कोई सूचकांक नहीं है, लेकिन बहुत कम लोगों ही इससे इन्कार करेंगे कि भारत में जिस तरह हर जगह गंदगी पाई जाती है, वह कहीं और मुश्किल से ही मिलती है. बिना सोचे-विचारे गंदगी को करीबी से जोड़ दिया जाता है. चाहे वह व्यक्ति के स्तर पर हो या देश के स्तर पर, गरीबी के नतीजे में तंदुरुस्ती के बुनियादी ढांचे तथा साफ-सफाई कायम रखने वाले बंदोबस्त का अभाव पैदा होता है. चूंकि भारत में व्यापक गरीबी है, इसलिए गंदगी को भी चुपचाप कबूल कर लिया जाता है. लेकिन यह रिश्ता टिकता नहीं है. दुनिया में भारत से भी गरीब देश मौजूद हैं लेकिन वे साफ-सफाई के मामले में भारत से बेहतर दिखते हैं. भारत में सार्वजनिक शौचालयों के, जहां कहीं वे मौजूद हैं, आसपास लोगों को शौच करते देखना एक आम नजारा है. साफ-सफाई गरीबी से बढ़ कर संस्कृति का मामला है. गरीबों को गंदगी की दशा में मेहनत करनी पड़ती है. भूमिहीन खेतिहर के रूप में वे कीचड़ से भरे खेतों में काम करते हैं, गैर-खेतिहर मजदूरों के रूप में वे कंस्ट्रक्शन या खुदाई या दूसरी तरह के उद्योगों में काम करते हैं, वे कहीं अधिक गंदे और धूल भरे परिवेश में काम करते हैं. लेकिन तब भी वे अपने आस पास काम लायक सफाई बरकरार रखते हैं. जाहिर है कि गरीब लोग वैसी साफ-सफाई नहीं रख सकते जो अमीरों से मेल खाती हो, लेकिन वे काम लायक तंदुरुस्ती और साफ-सफाई की अहमियत बहुत स्वाभाविक रूप से जानते हैं. इसे गांव के सबसे गरीब लोगों और आदिवासी बस्तियों में आसानी से देखा जा सकता है. यहां  तक कि शहरी झुग्गियों तक के लिए यह बात बहुत हद तक सही है; अनेक बाधाओं के बावजूद गरीब लोग अपनी झोंपड़ियों में काम लायक सफाई बनाए रखते हैं. इसकी वजह यह है कि वे तंदुरुस्ती और साफ-सफाई की कमी की वजह से बीमार पड़ने का जोखिम नहीं ले सकते. बुनियादी तौर पर गंदगी सार्वजनिक गतिविधियों से पैदा होती है और उसमें अमीरों का योगदान उनके अनुपात से ज्यादा है. इसकी तुलना अमीरों द्वारा वैश्विक पर्यावरण को अनुपात से अधिक पहुंचाए गए नुकसान से की जा सकती है.

तब फिर कौन सी बात भारत की गंदगी की व्याख्या कर सकती है? इसका जवाब भारतीय संस्कृति में निहित है, जो कि जातीय संस्कृति के अलावा और कुछ नहीं है. यह संस्कृति सफाई कायम रखने की जिम्मेदारी एक विशेष जाति पर थोपती है. यह काम को गंदा तथा कामगारों को अछूत बता कर उनकी तौहीन करती है. हालांकि ऐसा हो सकता है कि खुल्लमखुला छुआछूत को आज व्यवहार में भले न लाया जा रहा हो, लेकिन यह बहुत हद तक अब भी मौजूद है, जैसा कि कुछ सर्वेक्षणों में दिखाया गया है. ये सर्वेक्षण एक्शन एड द्वारा सन 2000 में 50 गांवों में, तथा अहमदाबाद स्थित 'नवसर्जन ट्रस्ट' और रॉबर्ट एफ. केनेडी सेंटर फॉर जस्टिस एंड ह्यूमन राइट्स द्वारा 2009 में मोदी के गुजरात में किए गए. छुआछूत से बढ़कर, भारतीयों के व्यवहार में व्यापक रूप से जातीय आचारों की झलक मिलती है. इन आचारों ने प्रभावी तरीके से विभिन्न कामों को जातीय और लैंगिक रूप दिया है, और यह शिक्षा, वैश्वीकरण और शहरीकरण के प्रसार के बावजूद बदलने से इन्कार कर रहा है. एक तरफ जहां पूरी दुनिया में लोग 'सिविक सेंस' और सफाई बनाए रखने की बुनियादी जिम्मेदारी को निभाते हैं, और उन्हें सुविधाएं मुहैया कराने के लिए सफाई कर्मियों पर उनकी गौण निर्भरता ही होती है, भारत में लोग कचरा फैलाने में एक (ऊंची जातियों वाली) श्रेष्ठताबोध महसूस करते हैं, जिसे फिर बाद में निचली जाति के सफाईकर्मी द्वारा साफ किया जाएगा. अगर सफाई करने वालों के इस छोटे से समुदाय, जिसको गंदगी से भी बदतर समझा जाता है और उसका भरपूर शोषण किया जाता है, पर 1250 मिलियन लोगों द्वारा बेधड़क पैदा की गई गंदगी को साफ करने की जिम्मेदारी रहेगी तो इस देश को इसी तरह गंदा रहना तय है. यह इसी तरह का है कि क्षत्रियों के एक छोटे से समूह को दी गई सुरक्षा की जिम्मेजारियों ने भारत को गुलामी का इतिहास दिया या फिर ज्ञान पर एकाधिकार वाली ब्राह्मणों की एक छोटी सी जाति ने भारत को एक जाहिल और पिछड़ा देश बनाए रखा.

भीतर छुपा जातिवाद


इससे यह बात निकल कर आती है कि जब तक जातीय संस्कृति को खत्म नहीं किया जाता और लोग खुद साफ-सफाई की जिम्मेदारियों को जीवन में नहीं उतार लेते, तब तक कितने भी अभियान चलाए जाएं, वे कामयाब नहीं होंगे. हैरानी की बात है कि मोदी के इस अभियान में जाति के ज अक्षर का जिक्र भी शामिल नहीं है. इससे आम तौर पर अभिजातों द्वारा जाति के अस्तित्व को खारिज किए जाने या कम से कम उन्हें कोई मुद्दा ही न मानने के चलन की बू आती है. मोदी को यह बात कभी समझ में नहीं आएगी कि ऐसे किसी सफाई अभियान के वाल्मीकि बस्ती से शुरू करना असल में वाल्मीकियों और सफाई के बीच रिश्ते को मजबूत करना ही है. गांधी ने भी अपने सरपरस्ती भरे लहजे में यही किया था, बिना जातियों के खिलाफ बोले उन्होंने दिल्ली के भंगियों के बीच रह कर उन्होंने बस अपने महात्मापन का प्रदर्शन किया था. मोदी अपनी अक्ल का यह हिस्सा गांधी से ही हासिल करते हैं, जब वे वाल्मिकियों के बारे में ये लिखते हैं:
 

'मैं नहीं मानता कि वे सिर्फ रोजी रोटी के लिए सिर पर मैला ढोते हैं...कभी किसी को जरूर यह प्रबोधन प्राप्त हुआ होगा कि पूरे समाज और ईश्वर की प्रसन्नता के लिए काम करना उनका कर्तव्य है. कि उन्हें द्वताओं से आशीर्वाद के रूप में प्राप्त हुआ यह काम करना ही होगा और सदियों से मैला ढोने का यह काम एक आंतरिक आध्यात्मिक अनुभूति के रूप में जारी रहना चाहिए.' (पृ. 48-49, कर्मयोग, मोदी के भाषणों का संकलन) 

उम्मीद के मुताबिक, इन 'आध्यात्मिक' टिप्पणियों को तमिलनाडु के दलितों की तरफ से कड़ी निंदा का सामना करना पड़ा, जिन्होंने राज्य के अलग-अलग हिस्सों में मोदी का पुतला दहन किया. लेकिन दो साल के बाद भी, उन्होंने यही टिप्पणी सफाई कर्मचारियों के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए दोहराई, 'एक पुजारी प्रतिदिन प्रार्थना के पहले मंदिर की सफाई करता है, आप भी शहर को मंदिर की तरह साफ करते हैं. आप और मंदिर के पुजारी एक ही जैसे हैं.' गांधी की नकल करते हुए, मोदी ने आंबेडकर द्वारा गांधी पर किए गए हमले के प्रति अपनी भारी जहालत को ही उजागर किया है, जिसमें आंबेडकर ने गांधी द्वारा धार्मिक-आध्यात्मिक मक्कारियों की ओट में जाति के बदसूरत यथार्थ को छिपाने की तीखी आलोचना की थी. यह बात तो अब स्कूल के बच्चे भी जानते हैं. मोदी बड़े मजे में समकालीन सफाई कर्मचारी आंदोलन द्वारा सूखे शौचालयों को गिराने के संघर्ष के बारे में भी नहीं जानते, जिसमें नागरिकों के अलावा रेलवे सबसे बड़ा अपराधी है. और कर्नाटक के सवनौर जिले की उस भयानक घटना के बारे में नहीं जानते, जिसमें सफाई कर्मचारियों ने हताशा में अपने उत्पीड़न के खिलाफ विरोध जाहिर करते हुए अपने सिर पर सार्वजनिक रूप से मानव मल उंड़ेला था. जातियों की तरह, सरकार सूखे शौचालयों या सिर पर मैला ढोने वाले सफाई कर्मियों के दुख को भी नकारती रही है. मोदी जो कुछ कह रहे हैं, उसका एक ही मतलब है कि दलितों के ब्राह्मणवादीकरण की आरएसएस रणनीति को आगे बढ़ाया जाए, ताकि उनके ब्राह्मणवादविरोधी गुस्से को भोथरा बनाया जा सके और इसे हिंदुत्व के एजेंडे को साकार किया जा सके.

स्वच्छ भारत के पीछे असल में भाजपा की श्रेष्ठतावादी सनक है, जो उसे भरमा कर 2004 में 'भारत उदय' की घोषणा करने की तरफ ले गई थी, जबकि देश की 60 फीसदी आबादी खुले में शौच करती है. यह बात मोदी के खाते में जमा होनी चाहिए कि उन्होंने इस शर्मनाक स्थिति को चर्चा में लाते हुए, मौजूदा कार्यकाल में 1.96 लाख करोड़ रुपयों के अनुमानित लागत पर 12 करोड़ शौचालय बनवाने का फैसला किया है. लेकिन यहां भी उन्होंने हाथ की सफाई दिखाई है, क्योंकि वे मुख्यत: उस नवउदारवादी परोपकार पर भरोसा कर रहे हैं, जिसे कॉरपोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी कहा जाता है. बड़ी कुशलता से उन्होंने सफाई के बुनियादी ढांचे के निर्माण में सरकारी जिम्मेदारियों से बच निकले हैं, वे गांधीवादी आध्यात्मिकता का इस्तेमाल करते हुए, कामचलाऊ नौकरियां पैदा करने तक से बच गए हैं और लोगों को हफ्ते में करम से कम दो घंटे का स्वैच्छिक श्रमदान करने को कहा है. अगर स्वच्छ भारत के लिए यही चाहिए तो अनुमानित स्वैच्छिक श्रमदान 40 मिलियन नौकरियों के बराबर होगा जबकि अभी पूरे सार्वजनिक क्षेत्र में कुल मिला कर 18 मिलियन से भी कम नौकरियां हैं. अगर कोई इस मंसूबे को व्यवहारिकता के नजरिए से देखे तो वह पाएगा कि यह हमेशा की तरह एक आम सरकारी ऐलान है, जिसमें बातें तो बड़ी बड़ी हैं, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.

झूठ का ताना-बाना

 
बेशक नरेंद्र मोदी ने अतीत के किसी भी प्रधानमंत्री से ज्यादा, अलग अलग वर्गों, समूहों और तबकों के लोगों को प्रभावित किया है. इसमें खास तौर से उनके विदेशी श्रोता भी हैं. हालांकि उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले या उसके बाद, उन्होंने जो वादे किए या जिन वादों के पूरा होने का दावा किया, उनके बारे में बहुत भरोसेमंद सबूत नहीं हैं. पिछले लोक सभा चुनावों के दौरान चलाए गए अरबों रुपए के गोएबलीय अभियान में उनके नेतृत्व में गुजरात को विकास के मानक के रूप में पेश किया गया और उनके लिए प्रधानमंत्रित्व हासिल किया गया. लेकिन सच्चाई कुछ और ही है. विकास के ज्यादातर मानकों पर गुजरात साधारण या औसत दर्जे का ही राज्य है. उसके बारे में कुछ भी असाधारण नहीं था, सिवाए इसके मुख्यमंत्री के निरंकुश राजकाज के और कॉरपोरेट दिग्गजों के लिए बिछाई गई लाल कालीन के. गुजरात की जीवंतता के बारे में किए गए बढ़ा चढ़ा कर किए गए दावे इन्हीं दो कारकों तक सीमित थे. जनता के नजरिए से देखें, तो यह दूसरे राज्यों जितना ही अच्छा या बुरा था, और कुछ राज्यों के मुकाबले को यकीनन ही बदतर था. हालांकि महज छह महीनों के दौरान प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के प्रदर्शन पर कोई सार्थक राय गलत हो सकती है, सारी तड़क भड़क, उत्साह और मुग्ध कर देने वाली भाषणबाजी जिसके साथ देश में और बाहर लोगों को इस तरह वशीभूत कर लिया गया है कि वे उन्हें एक असाधारण नेता के रूप में देखें, हमें गुजरात में उनके कार्यकाल की याद दिलाते हैं, जिसमें बातें तो बड़ी बड़ी थीं लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहे.


गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने 2007 में इससे मिलता जुलता एक अभियान – 'निर्मल गुजरात' शुरू किया था और बड़े बड़े दावे किए थे. लेकिन गुजरात में कचरा प्रबंधन और प्रदूषण पर उनका रेकॉर्ड भयावह है. गुजरात स्थित एक पर्यावरण कार्यकर्ता रोहित प्रजापति ने भारत के योजना आयोग की 12 मई 2014 की रिपोर्ट 'रिपोर्ट ऑफ द टास्क फोर्स ऑन वास्ट टू एनर्जी' से तथ्यों का इस्तेमाल करते हुए सटीक ब्योरे मुहैया कराए हैं [http://sacw.net/article9679.html.]


इन सबके बावजूद, मोदी को शौचालयों और सफाई के मुद्दों को चर्चा में लाने का श्रेय दिया जाना चाहिए, जब पिछले 60 बरसों से शासक इस तथ्य से आंखें मूंदे हुए थे कि भारत खुले में शौच करता है. इसके लिए उनकी तारीफ की जानी चाहिए, भले ही उन्होंने इस अभियान की कामयाबी में बहुत कम भरोसे का निर्माण किया है. जैसा कि प्रस्तावित किया गया है, यह कॉरपोरेट जगत के लिए निवेश का एक और भव्य मौका बनने जा रहा है. मोदी के अभियान में अब तक की सबसे बड़ी खामी यह है कि अगर उन्हें कारोबार से मतलब है तो उनसे असली मुद्दा ही छूट गया है. उन्हें यह जरूर ही समझना होगा कि बिना जातीय स्वभावों को पूरी तरह खत्म किए बिना भारत कभी भी स्वच्छ नहीं हो सकता. 


अनुवाद: रेयाज उल हक

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