BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Friday, September 19, 2014

महाभारत: नैसर्गिक सत्‍यपर‍कता का प्रतिमान महान महाकाव्‍य September 4, 2014 at 11:00am कात्‍यायनी

महाभारत: नैसर्गिक सत्‍यपर‍कता का प्रतिमान महान महाकाव्‍य

कात्‍यायनी 
 
 
गीता एक ऐसी पुस्‍तक है जो प्रारम्भिक मध्‍यकाल में ब्राम्‍हणवाद और चातुर्वण के पुरूधाओं के लिए काफी उपयोगी थी और आज के शासक वर्ग और हिन्‍दू कट्टरपंथियों के लिए भी बड़े काम की चीज है। इसपर साथी आनन्‍द सिंह ने 12 अगस्‍त को एक उपयोगी पोस्‍ट डाली है।
 
लेकिन यह एक निर्विवाद तथ्‍य है कि गीता मूल महाभारत में एक बाद में प्रक्षिप्‍त अंश है। गीता की ही तरह धर्म-महात्‍म्‍य, तीर्थ महात्‍म्‍य और देव या अवतार महिमा-मण्‍डन वाली महाभारत की कई उपकथाएं स्‍पष्‍टत: प्रक्षिप्‍त लगती है। ये अंश सम्‍भवत: प्रारम्भिक सामन्‍तवाद के युग में जोड़े गये हों।
 
मूल महाभारत प्राचीन भारत का ऐसा महाकाव्‍य है जो प्राचीन ग्रीक त्रासदियों से टक्‍कर में बीस पड़ता है। मार्क्‍सने यदि महाभारत पढ़ा होता तो शायद होमर और ईस्खिलस से पहले वेदव्‍यास का नाम लेते। प्राचीन यूनानी महाकाव्‍यों का हवाला देते हुए मार्क्‍स लिखते हैं कि वे ''वे अब भी हमें सौन्‍दर्यात्‍मक आनन्‍द प्रदान करते हैं तथा जिन्‍हे कुछ मामलों में तो मानक  और अलभ्‍य मॉडल माना जाता है।'' वह इस परिघटना की गम्‍भीर व्‍याख्‍या भी करते हैं: '' यूनानी कला यथार्थ के उस भोलेपन भरे और साथ ही स्‍वस्‍थ, स्‍वाभाविक बोध को प्रतिबिम्बित करती थी, जो मानव जाति के विकास की शुरूआती मंजिलों में , उसके बचपन के जमाने में उसका अभिलक्षण था, वह''नैसर्गिक सत्‍यपरकता'' को उसकी अनुपम आकर्षणशीलता तथा सबके लिए विशेष सम्‍मोहकता समेत प्राप्‍त करने की कामना को प्रतिबिम्बित करती थी '' (बी. क्रिलोव ) इस आधार पर मार्क्‍सवादी सौन्‍दर्यशास्‍त्र की एक महत्‍वपूर्ण प्रस्‍थापना सामने आयी : कला की कृतियों को विशेष सामाजिक अवस्‍थाओं तथा सम्‍बन्‍धों का प्रतिबिम्‍ब मानते समय उन लक्षणों को देखना नितान्‍त आवश्‍यक है, जो इन कृतियों के शाश्‍वत मूल्‍य हैं।
 
नैसर्गिक सत्‍यपरकता के अनुपम आकर्षण और शाश्‍वत मूल्‍यों की दृष्टि से महाभारत प्राचीन ग्रीक महाकाव्‍यों से भी श्रेष्‍ठतर जान पड़ता है। महाभारत शायद एक ऐसा प्राचीन महाकाव्‍य है जो उदात्‍ता के अतिरिक्‍त यथार्थपरकता और शाश्‍वत मानवीय मूल्‍यों एवं द्वंद्वों की दृष्टि से भी अनुपम है। इसे इस दृष्टि से दुनिया का पहला यथार्थवादी महाकाव्‍य कहा जा सकता है कि इसके नायक और महान उदात्‍त  चरित्र भी निर्दोष और निद्वंद्व नहीं हैं। अपने जीवनकाल में कई बार महाभारत के वीर नायक भी अपने आदर्शों से डिगते, कमजोर पड़ते, गतलक्ष्‍य होते, समझौते करते (और उसकी कीमत चुकाते) , कहीं-कहीं कुटिल कूटनीति करते , पराजय बोध या प्रतिशोध से ग्रस्‍त होते दीखते हैं। कई महावीर समय के साथ कदम न मिला पाने के कारण पुराने पड़ते ,हतवीर्य होते या 'कालस्‍य कुटिला गति:' के शिकार होते हुए भी दीखते हैं। महाभारत एक ऐसी महान त्रासदी है जो धीरोदात्‍त , धीरललित और धीरप्रशान्‍त जैसे महाकाव्‍य-नायकों के वर्णित प्रवर्गों का अतिक्रमण करता है। इसमें कहीं भीष्‍म का ,कहीं कृष्‍ण का , कहीं अर्जुन का नायकत्‍व उभरता है, लेकिन धीरोदात्‍त महावीर भीष्‍म के आदर्शवाद और राजनिष्‍ठा की यांत्रिकता उन्‍हें वृद्धावस्‍था में दुर्योधन की उदण्‍डता और द्रौपदी के सार्वजनिक अपमान का साक्षी बनने को विवश करती है।महाभारत युद्ध में वीरता की अंतिम कौंध दिखाने के बाद शरशैया पर लेटे महाविनाश को अंत तक देखकर मृत्‍यु को प्राप्‍त करना मानो उनकी त्रासद नियति थी। शरशैया एक रूपक है। भीष्‍म के लिए तो उनके जीवन का समग्र उत्‍तर-काल ही एक शरशैया के समान यंत्रणादायी था। कृष्‍ण एक वीर पुरूष, यथार्थवादी राजनीतिज्ञ और समर्पित प्रेमी होने के साथ ही अपने युगबोध के चलते समाज की विकासमान और ह्रासमान शक्तियों के सजग पर्यवेक्षक हैं,पर इतिहास की महाकाव्‍यात्‍मक त्रासदी के वे स्‍वयं भी शिकार होते हैं, समूचा कुल आपस में कट मरता है, बलराम समुद्र में प्रवेश कर प्राण त्‍याग देते हैं और वन में एकान्‍त चिन्‍तन-निमग्‍न कृष्‍ण वृद्ध बहेलिया के वाण से बिद्ध निर्वाण प्राप्‍त करते हैं। महाधनुर्धर अर्जुन युद्ध पश्‍चात राज्‍यारोहण समारोह के कृष्‍ण के परिवार की रानियों को जब द्वारका छोड़ने जाते हैं तो रास्‍ते में आक्रमण करके वनवासी जातियॉं सभी रानियों को लूट ले जाते हैं। कर्ण सूतपुत्र कहलाने के अपमान की अतिरेकी प्रतिक्रिया में अपनी वीरता और उदारता की गरिमा को कई बार खोता है। दुर्योधन की अहमन्‍यता, द्रोण, धृष्‍टद्युम्‍न और अश्‍वत्‍थामा के प्रतिशोध, अभिमन्‍यु का प्रसंग, शिखण्‍डी और वृहन्‍नला के अर्थगर्भित रूपक, अनगिनत उपक‍थाऍं तथा परिक्षित और जनमेजय की उत्‍तरकथाऍं --- महाभारत के कलेवर में कई महाकाव्‍य और खण्‍डकाव्‍य समाहित जान पड़ते हैं। रविन्‍द्रनाथ टैगोर से लेकर शिवाजी सावंत, दिनकर और धर्मवीर भारती तक अपने युग की कथा कहने के लिए रूपकों का सन्‍धान करते, पात्रों को निमित्‍त बनाते महाभारत की यात्रा करते रहें हैं। महाभारत की मंचीय प्रस्‍तुति पीटर ब्रुक की सजानात्‍मकता का उच्‍चतम रूप मानी जाती रही है। जर्मन महाकवि गोएठे भी महाभारत की उदात्‍त महाकाव्‍यात्‍मकता से बहुत प्रभावित हुए थे।
 
अपने निहित राजनीतिक हित के लिए मिथकों, धार्मिक पुराणकथाओं और प्राचीन महाकाव्‍यों को इतिहास के रूप में प्रस्‍तुत करने का काम आधुनिक काल में फासीवादी विचारधारा प्राय: करती है। भारतीय हिन्‍दुत्‍ववादी राम, कृष्‍ण आदि को वास्‍तविक ऐतिहासिक चरित्र बताते हैं और इन दिनों महाभारत और रामायण को ऐतिहासिक यथार्थ बताने के लिए भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्‍यक्ष और संघ परिवार से जुड़े इतिहासकार सुदर्शन राव काफी चर्चा में हैं । फासीवादी भाड़े के बुद्धिजीवियों की ऐसी हरकतें इतिहास का विकृतिकरण ही नहीं करती बल्कि महाकाव्‍यों की साहित्‍य-सम्‍पदा का भी अवमूल्‍यन करती हैं। प्राचीन महाकाव्‍य इतिहास नहीं , साहित्यिक कृति है और इस रूप में वे कृतिकार के देश-काल और ज्ञात अतीत के सामाजिक-सांस्‍कृतिक यथार्थ का कलात्‍मक पुनर्सृजन है। कोई भी कल्‍पना यथार्थ से परे नहीं हो सकती। काव्‍यात्‍मक कल्‍पना रूपकों-बिम्‍बों-कथाओं के माध्‍यम से यथार्थ और स्‍मृतियों को ही प्रक्षेपित करती है। इसलिए कलात्‍मक आस्‍वाद और आत्मिक सम्‍पदा-समृद्धि के साथ ही ,साहित्यिक कृतियों का इतिहास के पूरक स्रोत के रूप में इस्‍तेमाल किया जा सकता है, बशर्ते कि हमारे पास वैज्ञानिक इतिहास दृष्टि-सम्‍पन्‍न आलोचनात्‍मक विवेक हो। महाभारत के पूरे कालखण्‍ड में हमें पशुपालन युग, कृषि उत्‍पादन और दासता-आधारित राजतांत्रिक साम्राज्‍यों के काल के सहअस्तित्‍व और संक्रमण के चित्र देखने को मिलते हैं, नयी नागर सभ्‍यता द्वारा जांगल जातियों को तबाह करने और उनके प्रतिरोध के तथ्‍य मिलते हैं और प्राचीन भारत में लोकायतों जैसे आदि भौतिकवादी, नास्तिवादी चिन्‍तन परम्‍पराओं की उपस्थिति के भी साक्ष्‍य मिलते हैं।
 
मार्क्‍सवादी दृष्टि से महाभारत का न तो अभी तक सांगोपांग साहित्यिक अध्‍ययन हो सका है , न ही ऐतिहासिक अध्‍ययन। यह सचमुच बड़े अफसोस की बात है।  

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