BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Wednesday, February 12, 2014

राजनीति : भाषायी आड़ की सीमाएं

राजनीति : भाषायी आड़ की सीमाएं

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प्रस्तुति: अभिषेक श्रीवास्तव

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी बोलते हैं और पूरा देश उस पर बहस करना शुरू कर देता है। पिछले कुछ समय से इस देश की राजनीति, समाज और मीडिया में यही चल रहा है। भाषण की वक्रता मामले में मोदी ने अपने तमाम समकालीनों को काफी पीछे छोड़ दिया है और खुद अपनी ही बिरादरी के लोगों के लिए चुनौती पैदा कर दी है कि वे हर बार मोदी के कहे का किस तरह बचाव करें। एक ओर भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता मोदी के कहे का तर्क खोजने की कोशिशों में जुटे रहते हैं तो दूसरी ओर विरोधी कांग्रेस पार्टी ने बाकायदा रिसर्चरों की एक संगठित टीम बैठा रखी है जिनका चौबीसों घंटे एक ही काम रहता है- मोदी का कहा सुनना, उनकी भाषा की काट और झूठे तथ्यों का विश्लेषण तैयार करके पार्टी प्रवक्ताओं को ब्रीफ करना और हर दिन सोशल मीडिया से लेकर टीवी के परदे पर तकरीबन मोदी के ही लहजे में उन्हें चुनौती देना। भाषा और तथ्यों के इस टी-20 मैच में सिर्फ गति मायने रखती है। मोदी की भाषा का असल मर्म क्या था और तथ्यों के पीछे कौन-सी राजनीतिक बाजीगरी छुपी थी, इससे कांग्रेस क भी कोई विशेष सरोकार नहीं है। मोदी लगातार जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, उसके दो पहलू हैं। पहला, प्रत्यक्षत: भाषा और उससे निकलने वाले स्पष्ट संदेश का मामला है। दूसरा पहलू उसके पीछे छुपी राजनीतिक चतुराई और झूठ है। इन दोनों को अपनी-अपनी तरह विश्लेषित करने का काम कई रूपों में हुआ है। विद्या सुब्रमण्यम और राम पुनियानी ने अगर इसे लेखों के रूप में विश्लेषित किया है तो शम्शुल इस्लाम ने उनकी बातों का ऐतिहासिक संदर्भ में नरेंद्र मोदी के नाम लिखे एक खुले पत्र के रूप में जवाब देकर। प्रस्तुत हैं उन्हीं लेखकों की रचनाओं से लिए गए कुछ अंश जो मोदी की मानसिकता को समझने के साथ उनके कहे के सामाजिक और सांस्कृतिक निहितार्थों को स्पष्ट कर देते हैं।

मोदी की भाषा

narendra-modiपिछले दिनों सबसे ज्यादा चर्चा नरेंद्र मोदी के रायटर्स (अंतरराष्ट्रीय संवाद समिति) को दिए साक्षात्कार में इस्तेमाल किए गए शब्द 'कुत्ते का बच्चा' पर हुई। यह एक घृणास्पद तुलना थी, जिसे बीजेपी के प्रवक्ताओं ने अपनी सफाई से और घिनौना बना दिया कि यह सभी जीवित प्राणियों के प्रति मोदी के दयाभाव का सूचक है। बहरहाल, उनसे सवाल किया गया था कि क्या उन्हें 2002 में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों के लिए खेद है। उनकी यह भाषा आखिर इस स्पष्ट सवाल का जवाब कैसे हो सकती है? मोदी ने दो हिस्से में इस सवाल का जवाब दिया था। पहले उन्हों ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एसआईटी ने 2002 की हिंसा के मामले में उन्हें 'क्लीन चिट' दे दी है। इस तरह उन्होंने एसआईटी की बराबरी से तुलना सुप्रीम कोर्ट के साथ कर डाली। यह बात अलग है कि इंटरव्यू लेने वाले ने न तो उन्हें इस पर टोका और न ही यह याद दिलाया कि गुजरात की एक अदालत में एसआईटी की रिपोर्ट के खिलाफ सुनवाई चल रही है।

जवाब का दूसरा हिस्सा कहीं ज्यादा भ्रामक रहा। उन्होंने कहा था, 'एक और बात, कोई भी आदमी अगर हम कार चला रहे हों, हम ड्राइवर हों, और कोई और कार चला रहा हो और हम पीछे बैठे हों और तब भी कोई कुत्ते का बच्चा पहिये के नीचे आ जाए, तो क्या उससे दुख नहीं होगा? … मैं मुख्यमंत्री रहूं या नहीं, लेकिन मैं एक इंसान हूं। अगर कहीं कुछ भी खराब होता है, तो दुखी होना स्वाभाविक है। '

ध्यान दें कि जवाब 'हम कार चला रहे हों' से 'हम ड्राइवर हों' और फिर 'कोई और कार चला रहा हो' में बदल गया था। क्या यह फ्रायड के मुताबिक मनोवैज्ञानिक चूक है कि पहले उन्होंने 'हम ड्राइवर हों' कहा कि लेकिन जब उसके निहितार्थ को समझा तो उसे 'पीछे बैठे हों' में बदल दिया? 2002 की हिंसा के संदर्भ में इससे जो निष्कर्ष निकल रहा है, उसकी उपेक्षा करना कठिन है।

इस सवाल के बारे में उन्हें पहले से तैयार रहना चाहिए था। बहरहाल, 'कहीं' भी 'कुछ खराब' होने की बात भी समस्याग्रस्त है। सवाल 'कहीं' के बारे में था ही नहीं। साक्षात्कार लेने वाले रायटर्स के पत्रकार दुनिया में 'कहीं भी' कुछ अनिष्ट घटने पर मोदी की दयालुता का पैमाना नापने के लिए यह सवाल नहीं पूछ रहे थे। वे सीधे तौर पर यह जानना चाहते थे कि उन्हें 2002 के दंगे पर खेद है या नहीं। मोदी आसानी से कह सकते थे कि एसआईटी ने उन्हें निर्दोष बताया है और उन्हें उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट भी बेदाग साबित कर देगा। वे यह भी कह सकते थे कि उनके प्रशासन के तमाम प्रयासों के बावजूद हिंसा हुई और उन्हें इसका खेद है। लेकिन जाहिर है, अगर वे ऐसा कह देते तो संघ परिवार की कुदृष्टि उन पर पड़ जाती।

मोदी के बयानों और भाषा को आरएसएस तय कर रहा है, यह 'सेकुलरिज्म का बुरका' वाले उनके बयान से बिल्कुल साफ हो जाता है जो उन्होंने पुणे के एक कॉलेज में दिया था। आखिर उन्होंने 'बुरका' ही क्यों कहा, 'घूंघट' क्यों नहीं? इसलिए क्योंकि बुरका इस्लामिक है। इस बयान का निशाना किस पर था यदि इसमें अब भी कोई संदेह है तो शिव सेना के एक प्रवक्ता की टिप्पणी याद करें जो उसने एक टीवी चैनल पर की थी कि किसी भी अपराधी को लोगों के सामने बुरका पहनाकर लाया जाता है ताकि उसकी पहचान हो सके।

बहरहाल, जरा और पीछे चलें तो इंडिया टुडे के कॉनक्लेव में दिया उनका एक बयान याद आता है कि महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का नाम बदलकर महात्मा गांधी विकास गारंटी योजना रख दिया जाना चाहिए। उनकी इसके पीछे यह दलील थी कि मौजूदा नाम से यह संदेश जाता है कि लाभार्थी गरीब है जबकि नए नाम से यह प्रतीत होगा कि उसे राष्ट्रीय विकास में भागीदार बनाया गया है। इस बयान पर सभागार में खूब तालियां बजी थीं। मामला यह है कि हर कानून को अपने उद्देश्य में बिल्कुल स्पष्ट होना चाहिए कि वह क्या हासिल करने की मंशा रखता है। यदि उद्देश्य रोजगार दिलवाना है, तो योजना के नाम में यह बात आनी ही चाहिए। रोजगार दिलवाने वाली योजना का नाम विकास पर रख देना कोई अर्थ नहीं देता।

इसी तरह मोदी ने दिल्ली के एक कॉलेज में कहा था कि गुजरात दूध का अग्रण्णी उत्पादक है और दिल्ली में वहीं से दूध आता है। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के आंकड़े कहते हैं कि गुजरात दुग्ध उत्पादन में देश में पांचवें स्थान पर है। यह सही है कि अमूल का दूध दिल्ली के बड़े हिस्से में आता है, लेकिन सच्चाई यह भी है कि अमूल के प्रणेता वर्गीज कुरियन के मोदी शुरू से ही निंदक रहे हैं।

- विद्या सुब्रमण्यम , द हिंदू में 22 जुलाई, 2013 को प्रकाशित लेख 'द मोर ही टॉक्स' से

भाषा के पीछे छुपी राजनीति

'नरेंद्र मोदी का एक चीज को दूसरी चीज से जोड़कर यह कहना कि चूंकि वे राष्ट्रवादी हैं और हिंदू हैं, इसलिए वह हिंदू राष्ट्रवादी हैं, दरअसल, देश की आंखों में धूल झोंकने का प्रयास है। यह तर्क मोदी के पितृ संगठन आरएसएस की विचारधारा और कार्यशैली का हिस्सा है। ' (राम पुनियानी)

'हिंदू राष्ट्रवादी शब्द की उत्पत्ति ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक ऐतिहासिक संदर्भ में हुई। यह स्वतंत्रता संग्राम मुख्य रूप से एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ा गया था। 'मुस्लिम राष्ट्रवादियों' ने मुस्लिम लीग के बैनर तले और 'हिंदू राष्ट्रवादियों' ने 'हिंदू महासभा' और 'आरएसएस' के बैनर तले इस स्वतंत्रता संग्राम का यह कहकर विरोध किया कि हिंदू और मुस्लिम दो पृथक राष्ट्र हैं। स्वतंत्रता संग्राम को विफल करने के लिए इन हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवादियों ने अपने औपनिवेशिक आकाओं से हाथ मिला लिया ताकि वे अपनी पसंद के धार्मिक राज्य 'हिंदुस्थान' या 'हिंदू राष्ट्र' और पाकिस्तान या इस्लामी राष्ट्र हासिल कर सकें।

'भारत को विभाजित करने में मुस्लिम लीग की भूमिका और इसकी राजनीति के विषय में लोग अच्छी तरह परिचित हैं लेकिन मुझे लगता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 'हिंदू राष्ट्रवादियों' ने कैसा घटिया और कुटिल रोल अदा किया इसके विषय में आपकी याद्दाश्त को ताजा करना जरूरी है।

नरेंद्र जी! 'हिंदू राष्ट्रवादी' मुस्लिम लीग की तरह ही द्विराष्ट्र सिद्धांत में यकीन रखते हैं। मैं आपका ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट करना चाहूंगा कि हिंदुत्व के जन्मदाता, वी.डी. सावरकर और आरएसएस दोनों की द्विराष्ट्र सिद्धांत में साफ-साफ समझ में आने वाली आस्था रही है कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं। मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने 1940 में भारत के मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की शक्ल में पृथक होमलैंड की मांग का प्रस्ताव पारित किया था, लेकिन सावरकर ने तो उससे काफी पहले, 1937 में ही जब वह अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण कररहे थे, तभी घोषणा कर दी थी कि हिंदू और मुसलमान दो पृथक राष्ट्र हैं।

'फिलहाल भारत में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र अगल-बगल रह रहे हैं। कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मान कर गंभीर गलती कर बैठते हैं कि हिंदुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप में ढल चुका है या केवल हमारी इच्छा होने से इस रूप में ढल जाएगा। इस प्रकार के हमारे नेकनीयत वाले पर कच्ची सोच वाले दोस्त मात्र सपनों को सच्चाई में बदलना चाहते हैं। इसलिए वे सांप्रदायिक उलझनों से अधीर हो उठते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को जिम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन ठोस तथ्य यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक प्रश्न और कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता के नतीजे में हम तक पहुंचे हैं। हमें अप्रिय इन तथ्यों का हिम्मत के साथ सामना करना चाहिए। आज यह कत्तई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यत: दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान। '

'मेरा सेक्युलरिज्म, इंडिया फस्र्ट' वाला नरेंद्र मोदी का दावा भी समस्यामूलक है। "आप स्वयं को 'भारतीय राष्ट्रवादी' नहीं बल्कि 'हिंदू राष्ट्रवादी' मानते हैं। यदि आप 'हिंदू राष्ट्रवादी' हैं, तो निश्चित रूप से फिर तो देश में 'मुस्लिम राष्ट्रवादी', 'सिख राष्ट्रवादी', 'ईसाई राष्ट्रवादी' एवं अन्य 'राष्ट्रवादी' भी होंगे। इस प्रकार आप भारत विभाजन के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं। निश्चित रूप से यह आपके संगठन के द्विराष्ट्र सिद्धांत में अखंड विश्वास के कारण है। '

'हिंदू राष्ट्रवादी' राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे की निंदा व अपमान करते हैं

'श्रीमान मोदी जी! आरएसएस के एक वरिष्ठ और पूर्णकालिक कार्यकर्ता होने के नाते आप अच्छी तरह जानते होंगे कि आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने स्वतंत्रता प्राप्ति की पूर्व संध्या पर राष्ट्रीय ध्वज के लिए इस भाषा का प्रयोग किया था — 'वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा, न अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आपमें अशुभ है और एक ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हों, बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेह होगा। '

'हिंदू राष्ट्रवादियों' ने 1942-43 में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर गठबंधन सरकारें चलाईं।

सन् 1942 भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण वर्ष है। अंग्रेजों के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी आह्वान 'अंग्रेजो भारत छोड़ो' किया गया था। इसके प्रत्युत्तर में ब्रिटिश शासकों ने देश को नरक में बदल दिया था। ब्रिटिश सशस्त्र दस्तों ने पूरी तरह से कानून के शासन की अनदेखी करते हुए बड़े पैमाने पर आम भारतीयों को मार डाला। लाखों लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया और हजारों को भयानक दमन व यातना का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश भारत के विभिन्न प्रांतों में शासन कर रही कांग्रेसी सरकारें बर्खास्त कर दी गईं। केवल हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ही ऐसे राजनैतिक संगठन थे जिनको अपना कार्य जारी रखने की अनुमति दी गई। इन दोनों संगठनों ने न केवल ब्रिटिश शासकों की सेवा की बल्कि मिलकर गठबंधन सरकारें भी चलाईं। आरएसएस के महाप्रभु 'वीर' सावरकर ने 1942 में कानपुर में हिंदू महासभा के 24वें महाधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में इसकी पुष्टि की कि… 'व्यावहारिक राजनीति में भी हिंदू महासभा जानती है कि हमें तर्कसंगत समझौते करके आगे बढऩा चाहिए। इस तथ्य पर ध्यान दीजिए कि हाल ही में सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिली-जुली सरकारें चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का मामला सर्वविदित है। उद्दंड लीगियों (मुस्लिम लीग के सदस्य) को कांग्रेस भी अपने दब्बूपन के बावजूद खु़श नहीं रख सकी, लेकिन जब वे हिंदू महासभा के संपर्क में आए तो काफी तर्कसंगत समझौतों और सामाजिक व्यवहार के लिए तैयार हो गए, और फजलुल हक के प्रधानमंत्रित्व (उन दिनों मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री ही कहा जाता था) और हिंदू महासभा के काबिल व सम्मान्य नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के काबिल नेतृत्व में ये सरकार दोनों संप्रदायों के फायदे के लिए एक साल से भी ज्यादा चली। और हमारे सम्मानित महासभा नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी और यह सरकार करीब एक साल तक दोनों समुदायों के हित में सफलतापूर्वक चली। '

जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस देश को आजाद कराने के लिए लड़ रहे थे तब 'हिंदू राष्ट्रवादी' ब्रिटिश हुकूमत और ब्रिटिश सेना को ताकतवर बनाने में मदद कर रहे थे।

श्रीमान्! मैं समझता हूं कि आप नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम से जरूर परिचित होंगे जिन्होंने जर्मनी और जापान के सैन्य सहयोग से भारत को मुक्त कराने का प्रयास किया था। लेकिन, इस अवधि के दौरान 'हिंदू राष्ट्रवादियों' ने बजाय नेताजी को मदद करने के, नेताजी के मुक्ति संघर्ष को हराने में ब्रिटिश शासकों के हाथ मजबूत किए। हिंदू महासभा ने 'वीर' सावरकर के नेतृत्व में ब्रिटिश फौजों में भर्ती के लिए शिविर लगाए। हिंदुत्ववादियों ने अंग्रेज शासकों के समक्ष मुकम्मल समर्पण कर दिया था जो 'वीर' सावरकर के निम्न वक्तव्य से और भी साफ हो जाता है, 'जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फायदे में हो। हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारखानों वगैरह में प्रवेश करना चाहिए… गौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गए हैं। इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के कहर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताकत पहुंचा कर ही किया जा सकता है। इसलिए हिंदू महासभाइयों को खासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीके से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए। '

आर एस एस की भावना

श्रीमान्! आपने अपने साक्षात्कार में दावा किया कि आरएसएस अपने कार्यकर्ताओं के मन में देशभक्ति की भावना, राष्ट्र की भलाई के लिए काम करना और अनुशासन की भावना भरता है। जब से आरएसएस 'हिंदू राष्ट्र' के लिए खड़ा हुआ है कोई साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है कि आरएसएस के हाथों लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत का क्या भविष्य हो सकता है। आपको संघ के प्रमुख विचारक गोलवलकर के उस वक्तव्य को भी साझा करना चाहिए कि आरएसएस एक स्वयंसेवक से क्या अपेक्षाएं करता है। 16 मार्च 1954 को सिंदी (वर्धा) में संघ के शीर्ष नेतृत्व को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था—'यदि हमने कहा कि हम संगठन के अंग हैं, हम उसका अनुशासन मानते हैं तो फिर 'सिलेक्टीवनेस' (पसंद) का जीवन में कोई स्थान न हो। जो कहा वही करना। कबड्डी कहा तो कबड्डी; बैठक कहा, तो बैठक जैसे अपने कुछ मित्रों से कहा कि राजनीति में जाकर काम करो, तो उसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें इसके लिए बड़ी रुचि या प्रेरणा है। वे राजनीतिक कार्य के लिए इस प्रकार नहीं तड़पते, जैसे बिना पानी के मछली। यदि उन्हें राजनीति से वापिस आने को कहा तो भी उसमें कोई आपत्ति नहीं। अपने विवेक की कोई जरूरत नहीं। जो काम सौंपा गया उसकी योग्यता प्राप्त करेंगे ऐसा निश्चय कर के यह लोग चलते हैं। '

'हमें यह भी मालूम है, कि अपने कुछ स्वयं सेवक राजनीति में काम करते हैं। वहां उन्हें उस कार्य की आवश्यकताओं के अनुरूप जलसे, जुलूस आदि करने पड़ते हैं, नारे लगाने होते हैं। इन सब बातों का हमारे काम में कोई स्थान नहीं है। परंतु नाटक के पात्र के समान जो भूमिका ली उसका योग्यता से निर्वाह तो करना ही चाहिए। पर इस नट की भूमिका से आगे बढ़कर काम करते-करते कभी-कभी लोगों के मन में उसका अभिनिवेश उत्पन्न हो जाता है। यहां तक कि फिर इस कार्य में आने के लिए वे अपात्र सिद्ध हो जाते हैं। यह तो ठीक नहीं है। अत: हमें अपने संयमपूर्ण कार्य की दृढ़ता का भलीभांति ध्यान रखना होगा। आवश्यकता हुई तो हम आकाश तक भी उछल-कूद कर सकते हैं, परंतु दक्ष दिया तो दक्ष में ही खड़े होंगे। '

स्वतंत्रता संग्राम और आरएसएस

'श्रीमान्! दस्तावेजों में दर्ज आरएसएस के इतिहास को देखते हुए आपका यह दावा संदेहास्पद है कि आरएसएस ने आपको देशभक्ति का पाठ पढ़ाया। मैं आपके ध्यानार्थ कुछ तथ्य रखना चाहूंगा। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 'असहयोग आंदोलन' एवं 'भारत छोड़ो आंदोलन' मील के दो पत्थर हैं। और यहां इन दो महत्त्वपूर्ण घटनाओं पर महान गोलवलकर की महान थीसिस है—'संघर्ष के बुरे परिणाम हुआ ही करते हैं। 1920-21 के आंदोलन के बाद लड़कों ने उद्दंड होना प्रारंभ किया, यह नेताओं पर कीचड़ उछालने का प्रयास नहीं है। परंतु संघर्ष के उत्पन्न होने वाले ये अनिवार्य परिणाम हैं। बात इतनी ही है कि इन परिणामों को काबू में रखने के लिए हम ठीक व्यवस्था नहीं कर पाए। सन् 1942 के बाद तो कानून का विचार करने की ही आवश्यकता नहीं, ऐसा प्राय: लोग सोचने लगे। '

इस तरह गुरु गोलवरकर यह चाहते थे कि हिंदुस्तानी अंग्रेज शासकों द्वारा थोपे गए दमनकारी और तानाशाही कानूनों का सम्मान करें! सन् 1942 के आंदोलन के आंदोलन के बाद उन्होंने फिर स्वीकारा—

'सन् 1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परंतु संघ के स्वयं सेवकों के मन में उथल-पुथल चल हीरही थी। संघ यह अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों में कुछ अर्थ नहीं, ऐसा केवल बाहर केलोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए। '

'श्रीमान्! हमें बताया गया है कि संघ ने सीधे कुछ नहीं किया। हालांकि, एक भी प्रकाशन या दस्तावेज ऐसा उपलब्ध नहीं है जो यह प्रकाश डाल सके कि आरएसएस ने भारत छोड़ो आंदोलन के लिए परोक्ष रूप से क्या काम किया। वस्तुत: संघ के प्रश्रयदाता 'वीर' सावरकर ने इस दौरान मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन सरकारें चलाईं। दरअसल आरएसएस ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत छोड़ो आंदोलन के समर्थन में कुछ भी नहीं किया बल्कि वास्तव में, उसने इस आंदोलन जो एक महान आंदोलन था, के खिलाफ ही काम किया जो आपके और आपके शुभचिंतकों के लिए देशभक्ति के विपरीत था।'

स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों का अपमान

'श्रीमान्! मोदी जी, मैं गुरुजी के उस वक्तव्य पर आपकी राय जानना चाहूंगा जो भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और अशफाकउल्लाह खां के बलिदान का अपमान करता है। यहां संघ कार्यकर्ताओं और आपके लिए गीता के समान सत्य 'बंच ऑफ थॉट्स' से 'बलिदान महान लेकिन आदर्श नहीं' (Martyr Great but Not Ideal) का एक अंश पेश है—

'नि:संदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शनप्रमुखत: पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊंचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामनेआदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान कोमहानता का सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करें, नहीं माना है। क्योंकि, अंतत: वे अपना उदे्श्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी। '

श्रीमान्! क्या इस से अधिक शहीदों के अपमान का कोई बयान हो सकता है? जबकि आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार तो और एक कदम आगे चले गए। '

"कारागार में जाना ही कोई देशभक्ति नहीं है। ऐसी छिछोरी देशभक्ति में बहना उचित नहीं है। ''

'श्रीमान्! क्या आपको नहीं लगता कि अगर शहीद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, अशफाक उल्लाह खां, चंद्रशेखर आजाद तत्कालीन संघ नेतृत्व केसंपर्क में आ गए होते तो उन्हें 'छिछोरी देशभक्ति' के लिए जान देने से बचाया जा सकता था? यकीनन, यही कारण था कि ब्रिटिश शासन के दौरान आरएसएस के नेताओं व कार्यकर्ताओं को किसी भी सरकारी दमन का सामना नहीं करना पड़ा। और संघ ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कोई शहीद पैदा नहीं किया। श्रीमान्! क्या हम 'वीर' सावरकर द्वारा अंग्रेज सरकार को लिखे गए चापलूसी भरे माफीनामों को सच्ची देशभक्ति मानें? '

लोकतंत्र विरोध

'मोदी जी! गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रमुख नेता के रूप में आपसे आशा की जाती है कि आप भारत की लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष नीति के अंतर्गत काम करें। लेकिन गुरु गोलवककर के उस आदेश पर आपका क्या रुख है, जो उन्होंने 1940 में संघ के 1350 प्रमुख स्वयंसेवकों के समूह को संबोधित करते हुए दिया था। उनके अनुसार 'एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से अनुप्राणित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्जवलित कर रहा है। '

'मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूं कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में, 'एक झंडा, एक नेता, एक विचारधारा' यूरोप की फासिस्ट और नाजी पार्टियों का नारा था। सारा विश्व जानता है कि उन्होंने प्रजातंत्र के साथ क्या किया। '

'आरएसएस संविधान में दिए गए संघीय व्यवस्था, जो भारतीय संवैधानिक ढांचे का एक मूल सिद्धांत है, के एकदम खिलाफ है। यह 1961 में गुरु गोलवरकर द्वारा राष्ट्रीय एकता परिषद् के प्रथम सम्मेलन को भेजे गए पत्र से स्पष्ट है। इसमें साफ लिखा था' आज की संघात्मक (फेडरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटा कर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्मक शासन प्रस्थापित हो। '

जातिवाद समर्थक और स्त्रीविरोधी नीतियों के हामी हैं

'यदि आप आरएसएस और इसके बगलबच्चा संगठन, जो भारत में हिंदुत्व का शासन चाहते हैं, के अभिलेखों में झांककर देखें तो तत्काल स्पष्ट हो जाएगा कि वे सब के सब डॉ अंबेडकर के नेतृत्व में प्रारूपित संविधान से घृणा करते हैं। जब भारत की संविधान सभा ने भारतीय संविधान को अंतिम रूप दिया तो आरएसएस खुश नहीं था। 30 नवंबर 1949 के संपादकीय में इसका मुखपत्र ऑर्गनाइजर शिकायत करता है कि—'हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गई थी। आज तक इस विधि की जो मनुस्मृति में उल्लिखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वत:स्फूर्त धार्मिक नियम-पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है। '

'वास्तव में आरएसएस 'वीर' सावरकर द्वारा निर्धारित विचारधारा का पालन करता है। श्रीमान्! जी आपको लिए यह कोई राज नहीं है कि 'वीर' सावरकर अपने पूरे जीवन में जातिवाद और मनुस्मृति की पूजा के एक बड़े प्रस्तावक बने रहे। 'हिंदू राष्ट्रवाद' की इस प्रेरणा के अनुसार: – 'मनुस्मृति एक ऐसा धर्मग्रंथ है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सर्वाधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति रीति-रिवाज, विचार तथा आचरण का आधार हो गया है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक एवं दैविक अभियान को संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिंदू अपने जीवन तथा आचरण में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिंदू विधि है। '

- शम्सुल इस्लाम

नरेंद्र मोदी के नाम लिखे खुले पत्र से

राजनीति के निहितार्थ

'हिंदू राष्ट्रवादियों को जरूरत है राममंदिर की, भारतीय राष्ट्रवादियों को चाहिए स्कूल, विश्वविद्यालय और फैक्ट्रियां ताकि युवाओं को काम मिल सके। हिंदू राष्ट्रवाद बांटने वाला और एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति के बीच दीवारें खड़ी करने वाला है। भारतीय राष्ट्रवाद समावेशी है और उसकी जड़ें इस दुनिया में हैं, दूसरी दुनिया में नहीं। दुर्भाग्यवश हिंदू राष्ट्रवादी, पहचान से जुड़े मुद्दों को लेकर इतना शोर-शराबा कर रहे हैं कि गरीबों और समाज के हाशिए पर पटक दिए गए लोगों से जुड़े मुद्दे पृष्ठभूमि में चले गए हैं। भारतीय राष्ट्रवाद, जो हमारे स्वाधीनता संग्राम से उपजा है, के लिए हिंदू राष्ट्रवाद एक चुनौती बन गया है। म्यंनमार और श्रीलंका में बौद्ध राष्ट्रवाद प्रजातांत्रिकरण की प्रक्रिया में रोड़ा बन गया है। मुस्लिम राष्ट्रवाद ने पाकिस्तान और कई अन्य देशों को बर्बाद कर दिया है।

ऐसा लग रहा है कि हम इतिहास की एक काली, अंधेरी सुरंग से गुजर रहे हैं, जब राजनीति में धर्म के घालमेल को न केवल स्वीकार्यता बल्कि कुछ हद तक सम्मान भी मिल गया है। यह भारत में तो ही रहा है दुनिया के कई अन्य हिस्सों में भी हो रहा है। हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि हमारे देशवासी, धार्मिक राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद के बीच के फर्क को नहीं भूलेंगे।

हिंदू राष्ट्रवाद समाज के कमजोर वर्गो की बेहतरी के लिए सकारात्मक कार्यवाही का विरोधी है और इसलिए 'अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण' शब्द गढ़ा गया है। हिंदू राष्ट्रवादी कतई नहीं चाहते कि धार्मिक अल्पसंख्यकों की भलाई के लिए कुछ भी किया जाए। प्रधानमंत्री पद के इच्छुक सज्जन बहुत चतुर हैं। उनका यह कहना कि चूंकि वे हिंदू परिवार में पैदा हुए थे और राष्ट्रवादी हैं, इसलिए वे हिंदू राष्ट्रवादी हैं, उनकी कुटिलता का एक और प्रमाण है। यह समाज को बांटने का उनका एक और भौंडा प्रयास है। '

- राम पुनियानी

' हिंदू राष्ट्रवाद बनाम भारतीय राष्ट्रवाद'

साभार: द हिंदू, शम्शुल इस्लाम और राम पुनियानी

असहिष्‍णुता और बेईमानी के शिखर

मशहूर अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन ने यह कहा ही था कि वह भारतीय नागरिक होने के नाते नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनका नाम गुजरात दंगों से जुड़ा है, मोदी समर्थकों ने सोशल मीडिया पर उनकी बेटी को लेकर अश्लील पोस्टों की झड़ी लगा दी। भाजपा सांसद चंदन मित्रा ने नोबेल पुरस्कार विजेता सेन से भारत रत्न वापस लेने की अशालीन मांग करके सेन विरोधी मुहिम को हवा दी। सेन को एनडीए सरकार के दौरान ही भारत रत्न से नवाजा गया था। मोदी समर्थकों ने सोशल साइट्स पर यहां तक लिखा: "अमत्र्य सेन पहले आप अपनी टॉपलेस बेटी नंदना सेन को काबू में करें। '' उनके साथ एक अद्र्धनग्न युवती का फोटो भी लगाया गया जिसका तात्पर्य स्पष्ट था। बाद में पता चला कि जिस युवती की टॉपलेस फोटो लगाकर आरएसएस-बीजेपी के लोग अमत्र्य सेन की लानत-मलानत कर रहे हैं, वह ब्राजील की किसी मॉडल का है। भारतीय संस्कृति, परंपरा और नैतिकता की दुहाई देने वाले, औरतों को लेकर किस स्तर तक उतर सकते हैं, यह उसका छोटा उदाहरण है और शायद उस समय का बड़ा संकेत भी कि अगर ये सत्ता में आए तो क्या करसकते हैं। सामूहिक नरसंहार और बलात्कार की इसी संस्कृति के बूते 'पॉपुलर' पॉलिटिक्स कर रहे मोदी और उनके समर्थक विरोध और असहमति को कतई भी बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं। इससे पहले भी हिंदुत्व ब्रिगेड के बांकुरे सोशल साइट्स पर विरोधी पार्टी की महिला नेताओं की फर्जी नग्न चित्र डालते रहे हैं।

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