BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Thursday, February 13, 2014

हिंसा-प्रतिहिंसा के राजनैतिक समीकरण

हिंसा-प्रतिहिंसा के राजनैतिक समीकरण

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एक संवाददाता

muzaffarnagar-riots-in-mediaपहले दंगा भड़काने में जुटा रहा मीडिया अब इस पर परदापोशी करने और जो हुआ था, उसे जेनुइन ठहराने में जुट गया। यह आरएसएस की मशीनरी, एक ताकतवर किसान जाति के गांवों के दबंगों, सरकारी मशीनरी और मीडिया की अभूतपूर्व एकजुटता का दृश्य था।

मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में करीब दो महीनों तक लगातार छिटपुट लेकिन गंभीर सांप्रदायिक वारदातों के बाद आखिरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कामयाब रहा। हिंदुस्तान के इतिहास में जो दंगे अभी तक शहरों तक महदूद रहते आए थे, आखिर उन्होंने गांवों को अपनी चपेट में ले लिया। भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के नाम का औपचारिक ऐलान किया और यूं समझिए कि इससे पहले दोआबे के जाट बाहुल्य गांवों ने उनके ही अंदाज में उन्हें सलामी दे दी। मोदी का अमित शाह को यूपी चुनाव का प्रभारी बनाना व्यर्थ नहीं गया। इस नए कामयाब प्रयोग में यह भी साध लिया गया कि एक गैर बीजेपी सरकार में भी सरकार और उसकी मशीनरी से लेकर मीडिया तक को किस तरह नियंत्रित किया जा सकता है। और यह भी कि कितनी भी बड़ी हिंसा और विस्थापन हो और सब कुछ सामने बिलख रहा हो, उसे कैसे अनसुना-अनहुआ करार दिया जा सकता है। और यह भी कि कैसे हर बर्बरता को बहुसंख्यक लोगों के दिलों के लुत्फ का सामान बनाया जा सकता है।

और गुजरात में जिस तरह हत्याओं और बलात्कारों का अनुष्ठान गोधरा की आड़ में जेनुइन ठहराया दिया गया था, यहां कवाल की आड़ में हर गुनाह को सहज-स्वाभाविक और जरूरी सा बता दिया गया। मीडिया और बीजेपी की छोडि़ए, मुसलमानों के वोटों के लिए जीभ ललचाए बैठीं कई दूसरी राजनीतिक पार्टियों ने भी इसी थ्योरी पर मुहर लगाई। अखबारों ने यूपी की समाजवादी पार्टी की सरकार और उसके प्रशासन की नाकामी और नीयत पर तो सवाल उठाए लेकिन इस वारदात से पहले और बाद में खुलकर सांप्रदायिक हिंसा कराने में जुटी आरएसएस, बीजेपी और उसके संगठनों की टीम को क्लीनचिट दिए रखी।

कवाल कांड से पहले अगस्त महीने में ही शाहपुर, मीरापुर और लिसाढ़ में तो 2 जून को शामली में मामूली बातों को तूल देकर सांप्रदायिक दंगे कराए जा चुके थे। इन सभी में बीजेपी नेताओं ने बढ़-चढ़कर भूमिका अदा की थी। मुजफ्फरनगर की जानसठ तहसील के कवाल गांव में 27 अगस्त को एक दुर्भाग्यपूर्ण झगड़े में तीन युवकों की जानें चली गईं। पुलिस के मुताबिक, पड़ोसी गांव मलकपुरा मजरा गांव के रहने वाले कक्षा 12 के छात्र गौरव की कवाल निवासी शाहनवाज से साइकिल की टक्कर को लेकर मारपीट हो गई थी। बाद में गौरव अपने फुफेरे भाई सचिन के साथ कवाल पहुंचा और उनका शाहनवाज के साथ बुरी तरह झगड़ा हुआ। शाहनवाज की मौके पर ही मौत हो गई और शाहनवाज पक्ष के लोगों ने गौरव और सचिन को घेरकर मार डाला। बाद में इसे लड़कियों की छेड़छाड़ के मामले से changed-headlineजोड़ दिया गया जिसकी प्रमाणिकता लगातार संदिग्ध बनी रही। इस दौरान गांव में दो संप्रदायों के बीच फायरिंग और एक वाहन में आगजनी की वारदात भी हुई। जिले में पहले ही सांप्रदायिक अभियान में जुटी आरएसएस-बीजेपी की टीम ने इस दुर्भाग्यपूर्ण आपराधिक वारदात को सांप्रदायिक तनाव में बदलने में देर नहीं लगाई। पुलिस-प्रशासन की कारगुजारियों और मीडिया की भयानक भूमिका ने इस मंसूबे को और आसान बना दिया। इसका अनुमान अगले दिन दैनिक जागरण में छपी एक खबर के शीर्षक से लगाया जा सकता है। दैनिक जागरण की खबरों को फोटोशॉप में जाकर मोर्फ कर उनके फर्जी शीर्षक लगा दिए गए थे। फेसबुक पर एक ही विकल्प मोदी जैसे संघियों के पेज नफरत और दंगा फैलाने के अड्डे बन गए थे। खबरें तो छोडि़ए, 'छाती पर चढ़कर काटी सांसों की डोर' जैसे ही शीर्षक भावनाएं भड़काने के लिए काफी थे। इस खबर में मोटे अक्षरों से लाइव भी लिखा गया था, मानो अखबार का संवाददाता वहां बैठा पूरी घटना की लाइव कवरेज कर रहा हो। दूसरे अखबारों की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही थी। सचिन और गौरव जाट समुदाय से थे जो जिले में सामाजिक और सियासी तौर पर बेहद असरदार है। अफवाहों, इस तरह की रिपोर्टिंग और आरएसएस के नेटवर्क ने आग में घी का काम किया। अगले दिन सचिन और गौरव के अंतिम संस्कार से लौट रही भीड़ ने अल्पसंख्यकों के घरों और एक ईंट भट्टे में आग लगा दी और एक बाइक सवार दंपत्ति से मारपीट की। बिजनौर के बीजेपी एमएलए भारतेंदु सिंह, और बीजेपी के संजीव बालियान ने कवाल रोड पर जाम लगा रहे लोगों को संबोधित किया। बीएसपी एमएलए मौलाना नजीर इस इलाके के मुसलमानों के बीच पहुंचे।

सौरम, कादीखेड़ा, चुडियाला आदि कई गांवों में पहले ही सांप्रदायिक संघर्ष की कई गंभीर घटनाएं योजनाबद्ध ढंग से अंजाम दी जा चुकी थीं। रेलगाडिय़ों और बसों में मुस्लिम युवकों के साथ मारपीट के जरिए भी माहौल भड़काने की कोशिशें लगातार जारी थीं। शामली में बीजेपी विधानमंडल दल के नेता हुकुम सिंह और बीजेपी एमएलए सुरेश राणा अरसे से मामूली बातों को सांप्रदायिक तूल देकर और शामली के एसपी के मुस्लिम होने का मुद्दा बनाकर उनके खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे। शामली में कुछ दिनों पहले ही सांप्रदायिक दंगे को अंजाम दिया जा चुका था। जिस दिन कवाल में तीन युवकों की मौत हुई थी, उसी दिन भैंसी गांव में भी एक धार्मिक स्थल में तोडफ़ोड़ की गई थी। जिले के गांव पहले ही गरमाए हुए थे और प्रदेश सरकार और प्रशासन ठोस कदम उठाने के बजाय लगभग लीपापोती के अंदाज में था। साफ है कि मिशन मोदी के तहत यूपी के बीजेपी चुनाव प्रभारी अमित शाह के मॉडल में दो समुदायों के किसी भी झगड़े को सांप्रदायिक संघर्ष में तब्दील कर देने के निर्देशों का पालन हो रहा था और समाजवादी पार्टी सरकार की नाकामी शाह की मुहिम में सहायक बनी हुई थी। कवाल कांड में मृतक शहजाद पक्ष की ओर से दर्ज कराई गई एफआईआर में दोनों मृतकों के अलावा उनके परिवार के दूसरे लोगों की नामजदगी को मुद्दा बनाते हुए प्रशासन पर आरोप लगा कि शाहनवाज की हत्या में शामिल दोनों युवकों की मौत मौके पर ही हो गई तो बाकी नामजदगियां फर्जी हैं और ये सपा के मंत्री आजम खां और सपा नेता अमीर आलम खान के दबाव में की गई हैं। इस बीच डीएम सुरेंद्र सिंह जो जाट समुदाय से ही थे, के तबादले को भी जाटों के बीच मुद्दा बना दिया गया। प्रदेश सरकार और प्रशासन की तमाम रहस्यमयी लापरवाहियों के बावजूद एक बड़ी हिंसा के लिए किस तरह की तैयारियां थीं, इसका अनुमान कवाल कांड से पूर्व की घटनाओं के अलावा कवाल कांड के बाद की घटनाओं से भी लगाया जा सकता है।

आरएसएस और बीजेपी समर्थक फेसबुक आदि सोशल साइट्स पर पाकिस्तान में दो युवकों की नृशंस हत्या की एक बहुत पुरानी वीडियो क्लिप को कवाल में गौरव और सचिन की मौत का वीडियो बताकर प्रचारित कर रहे थे। बीजेपी के सरधना इलाके के एमएलए संगीत सोम खुद ऐसा करने वालों में शामिल थे। यह काम इतनी तेजी से किया गया कि देखते-देखते गांवों-गांवों में मोबाइल फोन पर इस क्लिप को देख-दिखाकर नफरत का पारा बेहद ऊपर चढ़ा दिया गया था। साहित्यकार कंवल भारती को एक सामान्य टिप्पणी पर गिरफ्तार कर लेने वाली सरकार पानी सिर से ऊपर जाने तक आंखें मूंदें रहीं। 28 अगस्त को कांधला इलाके के भभीसा गांव के पास एक वाहन से उतारकर जमातियों (मुस्लिम तीर्थयात्रियों) के साथ बुरी तरह मारपीट की गई। इस बीच भारतीय किसान यूनियन ने 31 अगस्त को नंगला मंदौड इंटर कॉलेज में और बीएसपी विधायक मौलाना नजीर ने भी जानसठ इलाके में इसी तारीख को महापंचायत आयोजित करने का ऐलान कर दिया। प्रशासन से 29 अगस्त को हुई वार्ता के बाद भाकियू नेता राकेश टिकैत ने 31 अगस्त की महापंचायत को 15 दिन के लिए स्थगित करने का ऐलान कर दिया। उस वक्त बातचीत में बीजेपी नेता भी शामिल थे। लेकिन बाद में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और राष्ट्रीय लोकदल के कार्यकर्ताओं ने यह फैसला मानने से इंकार कर दिया। लेकिन, कुल मिलाकर जाटों की अस्मिता के प्रश्न जैसा माहौल बनाने में कामयाब रहे आरएसएस और बीजेपी के हाथों में ही डोर थी और उनके कार्यकर्ता जगह-जगह झगड़ों को हवा देने में जुटे थे। आरएसएस इस कदर इंस्टीट्यूशनल रॉयट सिस्टम (आइआरएस) के आधार पर काम कर रहा था कि पब्लिक स्कूल तक यह नफरत पहुंचा दी गई थी। मुजफ्फरनगर शहर के एमजी पब्लिक स्कूल में कुछ छात्रों ने मुस्लिम छात्रों को क्लासरूम से बाहर निकालकर उनकी पिटाई की। 29 अगस्त को बीजेपी नेताओं ने शामली जिले के झिंझाना-ऊन मार्ग पर जाम लगवा दिया। इसी दिन जानसठ इलाके के कवाल और अंतवाड़ा के धार्मिक स्थलों में तोड़-फोड़ की वारदातें हुईं। 30 अगस्त को हापुड की सेना भर्ती रैली से लौट रहे युवकों ने मुजफ्फरनगर के पास ट्रेन में दारुल उलूम देवबंद के एक छात्र की बुरी तरह पिटाई कर दी। इसी दिन घटायन और बेलड़ा गांवों में मुस्लिम युवकों पर हमले किए गए और चित्तौड़ा इलाके में एक युवक को गोली मारकर घायल कर दिया गया। लांक गांव के पास भी एक मदरसे के छात्र को बस से उतारकर उसकी बुरी तरह पिटाई की गई। गांव-गांव फैल रही हिंसा और हिंदू संगठनों के तीखे तेवरों के बीच 30 अगस्त को मुजफ्फरनगर शहर के मुस्लिम बहुल खालापार इलाके में जुमे की नमाज के बाद हजारों की भीड़ जमा हो गई जिसे बसपा सांसद कादिर राणा, उनके भतीजे और बसपा से ही विधायक नूरसलीम राणा, कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री सइदुज्जमा व मौलाना जमील, सपा नेता राशिद सिद्दीकी आदि ने संबोधित किया और अल्पसंख्यकों पर जारी हमले रोकने की चेतावनी दी। आरपार की लड़ाई के साथ यह ऐलान भी किया गया कि कवाल इलाके में दूसरा पक्ष महापंचायत करेगा तो मुसलमान भी करेंगे। डीएम-एसपी ने मौके पर जाकर मुसलमान नेताओं से बात की और ज्ञापन लेकर उन्हें शांत किया। बाद में इन सभी नेताओं के खिलाफ धारा 144 तोडऩे और भड़काऊ भाषण देने के मामले दर्ज किए गए। लेकिन हिंदू संगठनों ने डीएम-एसएसपी के ज्ञापन लेने पहुंचने को एक पक्ष को हवा देने का मामला कहकर प्रचारित किया।

अगले दिन 31 अगस्त को निषेधाज्ञा के बावजूद नंगला मंदौड गांव के इंटर कॉलेज में हुई पंचायत में जाटों की खासी भीड़ जुटी जिसमें मंच पूरी तरह बीजेपी नेताओं के कब्जे में था। बीजेपी विधायक सुरेश राणा, कुंवर भारतेंदु सिंह, अशोक कटारिया, बीजेपी जिलाध्यक्ष सतपाल पाल, साध्वी प्राची, उमेश मलिक, कपिल अग्रवाल आदि ने उग्र भाषण दिए। आलम यह था कि इस पंचायत में पहुंचे कांग्रेस के जाट नेताओं हरेंद्र मलिक, श्यामपाल सिंह, बसपा के पूर्व मंत्री योगराज सिंह और यहां पहुंचे भाकियू के कुछ नेताओं को बोलने ही नहीं दिया गया। हरेंद्र मलिक जैसे ताकतवर नेताओं के लिए यह पहला अनुभव होगा कि जाटों की भीड़ के बीच कोई उन्हें बोलने से रोक पाए और यह भाजपा की जाटों में घुसपैठ का भी गवाह था जिसकी लंबी तैयारियां की गई थीं। चरण सिंह जैसे नेताओं के न होने, महेंद्र सिंह टिकैत की मृत्यु के बाद भाकियू का वैसा दबदबा न रह जाने, अजित सिंह का जमीनी राजनीति न कर पाने, खेती की जोत छोटी होते चले जाने और खेती करना महंगा और दुष्कर होते चले जाने, लंपट पूंजी से अचानक मालामाल हुए तबके के रोल मॉडल बन जाने और प्रोग्रेसिव-उदार आंदोलनों के अभाव में लंपटीकरण का जाल मजबूत हो जाने जैसे कारणों से इन इलाकों में आरएसएस की दाल गल चुकी थी। बहरहाल लाठी-डंडों और धारदार हथियार लहराते हुए पंचायत में शामिल हुए युवकों ने पुलिस की मौजूदगी में ही एक कार को तोडफ़ोड़ कर आग के हवाले कर दिया। इसी दिन भोकरहेड़ी गांव में कांग्रेस नेता सइदुज्जमा के रिश्तेदार ठेकेदार शौकत की हत्या कर दी गई, खतौली इलाके में पांच जमातियों को निशाना बनाया गया और छपरा गांव के चार मुस्लिम युवकों को सिमरथी गांव के पास से गुजरते हुए जख्मी कर दिया गया। अगली तारीखों में भी मुंझेड़ा, भैंसी, खतौली, तितावी, शाहपुर-बरवाला रोड, सांझक, सिलावर, शामली आदि में मुस्लिम युवकों व दारुल उलूम के छात्रों पर हमले, इबादतगाहों, मदरसों में तोडफ़ोड़ की वारदातें जारी रहीं। रेलगाडिय़ों में मुस्लिम टोपी या दाढ़ी वाले लोगों का सफर मुश्किल कर दिया गया। 3 सितंबर को शामली शहर दंगों में झोंक दिया गया जिसमें एक युवक की मौत हुई और कई लोग घायल गए। दोनों जिलों में भारी तनाव के बीच बीजेपी ने 5 सितंबर को बाजार बंद कराए।

ऐसे हालात में एक मामूली आदमी भी जानता था कि किसी भी दिन मुजफ्फरनगर और शामली के गांव भयानक हिंसा की चपेट में जा सकते हैं पर प्रदेश सरकार और यहां भेजी जा रही उसके अफसरों की टीमें मुतमइन सी थीं। कभी भाकियू के जिलाध्यक्ष रहे वीरेंद्र सिंह (बसपा सरकार के मुंह लगे अफसर शशांक शेखर के भाई) किसी राष्ट्रीय किसान यूनियन के संयोजक के तौर पर नंगला मंदौड़ इंटर कॉलेज में 7 सितंबर की महापंचायत का ऐलान कर चुके थे जिन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। लेकिन, सब आरएसएस के खास अंदाज में हो रहा था कि जाने कब कोई ऐलान कर दे और कौन उसे पूरा करने में जुट जाए। इस महापंचायत के नाम में 'बेटी बचाओ-बहू बचाओ' जुमला भी जोड़ दिया गया। हालांकि, यह खापों और आरएसएस के स्त्री विरोधी फरमानों और हमेशा यौन हिंसा करने वालों को जाति और धर्म के आधार पर प्रश्रय देने के उनके इतिहास के चलते एक मजाक ही था। टिकैत परिवार के हाशिये पर जाने और अजित सिंह की जमीनी पकड़ छीजने के स्पेस में आरएसएस के सबसे ज्यादा काम गठवाला खाप का मुखिया हरिकिशन और उसका परिवार आया। 5 सितंबर को बाबा हरिकिशन की सदारत में लिसाढ़ में सर्वजातीय पंचायत बुलाई गई। एक तरह से यहीं अगले दो दिन बाद शुरू हुए हिंसा के तांडव की पटकथा पर अंतिम मुहर लग गई थी। एडीजी अरुण कुमार जिन पर मुस्लिम रिहाई मंच आदि संगठन मुसलमानों को फर्जी मुकदमों में फंसाने का आरोप लगाते रहे हैं, मुजफ्फरनगर में डेरा डाले हुए थे। 6 अक्टूबर को डीजीपी देवराज नागर भी मुजफ्फरनगर पहुंचे। मानो वे चीजों को नियंत्रित करने नहीं बल्कि इस पंचायत के मंच वगैरह के इंतजाम संभालने आए हों। फोर्स को किसी भी हालत में टकराव से बचने का निर्देश दिया गया था।

सब कुछ साफ था। 7 सितंबर को हिंदू संगठनों से प्रेरित जाट युवाओं के जत्थे खुलेआम हथियार लहराते, गाली-गलौज करते और हिंसक-सांप्रदायिक नारों के साथ मुसलमानों को ललकारते हुए नंगला मंदौड़ की महापंचायत में पहुंच रहे थे। इसके प्रमाण के तौर पर अखबारों में तस्वीरें भी मौजूद हैं। अल्पसंख्यकों में भारी डर, गुस्सा और तनाव पैदा हो चुका था। कई जगहों पर वे मदरसों और मस्जिदों में इकट्ठा हो रहे थे। पंचायत में जा रहे एक जत्थे का शाहपुर इलाके के बसी कलां गांव में टकराव हुआ जिसमें कई लोग घायल हुए। इस महापंचायत में आसपास के जिलों और दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान आदि राज्यों से भी करीब एक लाख लोग जुटे थे। मुसलमानों से कारोबारी रिश्ते न रखने, छेड़छाड़ के मामलों में एफआईआर लिखवाने के बजाय मौके पर ही फैसला करने जैसे उग्र भाषणों के बीच हथियार लहराए जाते रहे। इस पंचायत में शामिल लोगों ने अपने साथ कांधला से लाए गए एक गाड़ी के ड्राइवर इसरार को मार डाला। इस बीच बसी में पथराव से घायल कुछ लोग लहूलुहान हालत में पंचायतस्थल पर पहुंचे तो भड़काऊ भाषणों से पहले ही उफान खा रही भीड़ आरपार की लड़ाई के ऐलान के साथ निकल पड़ी। मुझेड़ा गांव के पास एक धार्मिक स्थल के निकट फिर टकराव हुआ जिसमें पंचायत में शामिल दो लोगों की मौत हो गई। भोपा क्षेत्र के पास जौली गांव में भी टकराव हुआ जिसे एक मिथक में तब्दील कर दिया गया और अफवाहों का बाजार गर्म कर दिया गया। जिले भर में अफवाहें फैला दी गईं कि कई सौ जाटों को मारकर ट्रैक्टरों समेत गंगनहर में बहा दिया गया है। हालांकि इस इलाके से जो सात शव मिले, उससे साफ हुआ कि मृतकों में चार मुसलमान समुदाय के लोग थे और तीन हिंदू समुदाय के। देखते-देखते मुजफ्फरनगर शहर के हालात भी बेकाबू हो गए। एक चैनल के पत्रकार राजेश वर्मा समेत तीन लोगों की मौत के बाद शहर में कफ्र्यू लगा दिया गया और सेना बुला ली गई।

लेकिन, हिंसा का असली तांडव मुजफ्फरनगर और शामली जिलों के जाट बाहुल्य गांवों में शुरू हुआ। मेरठ, बागपत और पानीपत जिलों के सीमावर्ती इलाकों तक इस तनाव की आंच पहुंची। कुटबा, बहावडी, लांक, खरड़, फुगाना, लिसाढ़, हडौली, हसनपुर, मोहम्मदपुर, बागपत आदि अनेक गांवों में अल्पसंख्यकों को घेर लिया गया। बाकायदा सामूहिक फैसले लेकर अल्पसंख्यकों के घरों को फूंक दिया गया, उनकी निर्मम ढंग से हत्याएं की गईं। बहुत से लोग किसी तरह जान बचाकर खेतों में छिप गए। कई गांवों में अल्पसंख्यक सुमदाय के लोग माहौल को भांपकर दिन में ही निकलने लगे थे तो उन्हें योजना के तहत गांवों के प्रधान और दूसरे चौधरियों ने यह कहकर रोक लिया कि सदियों से यहां रहते आए हो, हमारे रहते तुम्हें क्या खतरा है। बाद में यही 'संरक्षक' उन पर हमलों की अगुवाई कर रहे थे। गांवों से आबादी की आबादी या तो खदेड़ दी गई या फिर लोग अपना सब-कुछ छोड़छाड़ जान-बचाकर मुस्लिम बहुल कस्बों के मदरसों, मस्जिदों और दूसरी 'सुरक्षित जगहों' पर भाग आए। आरएसएस ने गांवों में हिंदू-मुसलमानों की सदियों से साथ रहने की परंपरा को झटके में तार-तार कर दिया है। फिलहाल, जाट किसानों को यह बात समझ में आना मुश्किल है लेकिन इससे गांवों को नए संघर्षों से गुजरना होगा। मसलन, फिलहाल धान की फसल की कटाई सिर पर है। एक-डेढ़ महीने बाद ही गन्ने की छोल (छिलाई) भी शुरू होगी। उनके गांवों से जो अल्पसंख्यक उजड़कर गए हैं, उनमें से अधिकतर उनके खेतों में मामूली मजदूरी पर और कई बार घास आदि के बदले लगभग बेगार में काम करते आए थे। कुछ लोग उनके उजड़े घरों को घेरकर फायदे की ताक में हों पर यह फायदा भी आखिर एक छोटे से तबके तक ही सीमित रह सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान पहले ही मजदूरों के अभाव के संकट से गुजर रहा है। सांप्रदायिक मुहिम के तहत जिन अति पिछड़ा वर्ग और दलित तबके को मुसलमानों के खिलाफ इकट्ठा किया गया है, गांवों में उनके साथ भी सामाजिक तनाव की स्थिति रहती आई है। अब खेतों के काम के लिए उन पर दबाव बनाने की कोशिश होगी तो नई तरह की दिक्कतें पेश आएंगी। फिर गांवों में एक तबका अचानक बहुत अमीर हुआ है और वह ठेकेदारी से लेकर राजनीति तक में मुखर होना चाहता है। लेकिन आम छोटा किसान जो लगातार महंगी होती जा रही खेती से पहले ही तंग है, इस स्थिति में सबसे ज्यादा मुसीबत में आएगा। इस संकट को समझ रहे लोगों ने गांव छोड़कर चले गए मुसलमानों से वापस आने की अपीलें भी की हैं पर वे अपराधियों पर कार्रवाई के नाम पर कोई सहयोग न होने और सुरक्षा की कोई गारंटी न होने के कारण लौटना नहीं चाहते हैं। वैसे भी किसान नेताओं और बीजेपी समेत तमाम पॉपुलर पार्टियों के पास खेती के संकट से निपटने के लिए कोई नीति नहीं है। असली मुद्दों से जूझे बिना आरक्षण दिलाने की मुहिम और झूठी इज्जत के नाम पर खड़े किए जाने वाले आंदोलन आखिर कितनी दूर तक कारगर हो सकते हैं? जहां तक राजनीतिक फायदे की बात है तो इससे बीजेपी को तो फायदा होगा पर जाटों का कोई बड़ा फायदा होने नहीं जा रहा है। चरण सिंह परिवार की जिस पार्टी को वे अपनी घरेलू पार्टी समझते हुए सत्ता विमर्श में शामिल रहते थे, उस ताकत का वजूद दांव पर आ गया है। बीजेपी जाटों को खूब तरजीह दे तो भी उनकी डोर कहीं और से ही संचालित होगी। फिर चुनावी जीतें दूसरी जातियों के साथ जोड़-घटा के समीकरणों पर ही निर्भर होती हैं। गुर्जर जैसी दूसरी ताकतवर जातियों ने अपने एक प्रभावी नेता के बीजेपी में मुखर होने के बावजूद दूसरी पार्टियों में मौजूद अपने नेताओं की स्थिति को ध्यान में रखा है और कुल मिलाकर शांति बनाए रखी है। हालांकि, बीजेपी ने बाकी गांवों में भी अपने प्रयोग दोहराने की कोशिशों पर कोई ब्रेक नहीं लगा दिया है। बहुत से गांव जिनमें हिंसा भी नहीं हुई थी, तनाव को देखते हुए अल्पसंख्यक समाज के लोग अपनी रिश्तेदारियों में भाग आए। हिंसा के दौरान बहुत से लोगों ने थानों में फोन कर मदद की गुहार लगाई तो उन्हें टका सा जवाब दे दिया गया। आलम यह था कि करीब एक लाख लोग अपने घरों से उजड़ चुके थे। इस छोटे से इलाके में यह मंजर 1947 की स्थिति से भी ज्यादा भयानक था। अस्पतालों में महिलाओं, बच्चों, बूढ़ों समेत हर उम्र के लोगों के शव पहुंच रहे थे। बहुत से शवों को टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया था। 12 सितंबर को प्रशासन ने खुद माना कि 38 कैंपों में करीब 42 हजार लोग हैं। इस दिन प्रशासन मृतकों की संख्या 52 मान रहा था। इन प्रशासनिक आंकड़ों से ही स्थिति की भयावहता का अनुमान लगाया जा सकता है।

लेकिन, गांवों के हालात और ज्यादा भयानक थे और मृतकों की संख्या और ज्यादा थी, जो कैंपों में भाग आए लोगों से बातें करके पता चल रहा था। लेकिन, पहले दंगा भड़काने में जुटा रहा मीडिया अब इस पर परदापोशी करने और जो हुआ था, उसे जेनुइन ठहराने में जुट गया। यह आरएसएस की मशीनरी, एक ताकतवर किसान जाति के गांवों के दबंगों, सरकारी मशीनरी और मीडिया की अभूतपूर्व एकजुटता का दृश्य था। कमालपुर गांव में पास के एक मुस्लिम बहुल गांव से पलायन कर दलितों ने शरण ले रखी थी। इन दलितों के पलायन को इस तरह पेश किया गया, मानो उन उत्पीडि़तों की आड़ में भयानक नरसंहार तार्किक हो जाता हो। इन लोगों को ईख के खेत में झुककर दौड़ाते हुए एक फोटो खींचा गया जिसका अमर उजाला में कैप्शन लगाया गया कि जंगलों में मारे-मारे घूमते दलित। यह एक तरह से उत्पीडि़तों का मजाक ही था। इसी अखबार में इस बीच एक स्टोरी प्रमुखता के साथ छापी गई कि जौली नहर पर पंचायत से लौटते लोगों पर हमला नक्सली हमले जैसा था। मुस्लिम धार्मिक संगठनों और जनता की मदद से चल रहे कैंपों में न प्रशासन और न मीडिया के लोग ही जाकर झांक रहे थे। आखिर, एक साइट डेली भास्कर डॉट कॉम पर एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसमें गांवों में सामूहिक बलात्कार की वारदातों की पुष्टि होती थी। एक मां ने बताया कि उसकी तीन बेटियों के साथ बलात्कार किया गया और उसे यह सब देखने के लिए मजबूर किया गया। एक 16 वर्षीय युवती ने बताया कि उसे घंटों बंधक बनाकर सामूहिक बलात्कार किया गया। इन युवतियों ने गठवाला खाप के मुखिया हरिकिशन, बेटे राजेंद्र और कई दूसरे लोगों के नाम भी बताए। इस रिपोर्ट में उत्पीडि़तों के चेहरे ढके फोटो भी दिए गए थे। यह साइट लगातार इन कैंपों के लोगों से बातचीत के आधार पर बेहतरीन रिपोर्टिंग कर रही है। एकबारगी इस रिपोर्ट से हडकंप मचा पर फिर बलात्कार पर परदापोशी का मानो सामूहिक निर्णय ले लिया गया। बलात्कार और युवतियों-बच्चियों के गायब होने की खबरें इस तरह की साइट्स पर आती रहीं और इन कैंपों में पहुंचे मानवाधिकार संगठनों व दूसरी तथ्य खोजी कमेटियों की रिपोर्ट में भी दर्ज होती रहीं लेकिन इन्हें पुलिस की फाइलों ने दर्ज करने से इनकार कर दिया। इस तरह यह हिंसा इसलिए भी याद रखी जाएगी कि कैंपों में उत्पीडि़त महिलाएं और उनके परिजन बलात्कार की घटनाओं को लेकर चिल्लाते रहे लेकिन मुल्क के कानों पर कोई जूं नहीं रेंग सकी। बीबीसी ने राहत कैंप में पड़े बीएसएफ के एक मुसलमान जवान का दर्द भी छापा जो छुट्टी में अपने घर आया था और उसे देश की सेवा का यह सिला दे दिया गया। अखबारों में तो गांवों में एकतरफा कार्रवाई से तनाव जैसी खबरों को तरजीह दी जाने लगी, जैसे मीडिया को इंतजार हो कि लुटे-पिटे लोगों को ही कब जेल भेजा जाएगा।

पूरे प्रकरण में संदिग्ध रही प्रदेश सरकार के मुखिया अखिलेश यादव और उनके पिता मुलायम सिंह यादव के बयानों ने भी उत्पीडि़तों के जले पर नमक ही छिड़का। ये लोग न तो अपनी सरकार में अल्पसंख्यकों की हिफाजत कर सके, न भयानक हिंसा के बाद उनके उत्पीडऩ को ईमानदारी से दर्ज ही करा सके। हद तो यह है कि कैंपों में रहने, खाने-पीने, दवाओं, सफाई, कपड़ों, शौच आदि के लिए भी सरकारी मशीनरी ने कोई उल्लेखनीय मदद नहीं की। ऐसे माहौल में पुनर्वास की बात तो छोड़ ही दीजिए। स्थिति यह है कि भूखे-बेरोजगार युवक कैंपों से गांवों में लौटने के बजाय कस्बों में काम की तलाश में फिर रहे हैं। खेतों में मजदूरी और गांवों में फेरी करने वालों के लिए खतरे हैं। मौसम बदल रहा है और कैंपों में बीमारियां फैलने का खतरा बना हुआ है। उन्हें नहीं पता कि वे कहां जाएं, उनसे बिछुड़ गए उनके अपने कहां हैं, हमेशा चौधरियों की हां में हां करते रहने के बावजूद उनका क्या कसूर है, उनका कौन घर, कौन गांव, कौन वतन, कौन रहनुमा है? उन्हें नहीं पता कि वे जी पाएंगे कि नहीं लेकिन मुसलमानों की रहनुमाई का दावा करने वाली पार्टियों को उनके वोटों का लालच परेशान कर रहा है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए बीजेपी को दंगों की खुली छूट के आरोप झेल रही समाजवादी पार्टी बिना कुछ दांव पर लगाए डैमेज कंट्रोल की कोशिशों में जुटी है। कहा जा रहा है कि मुसलमानों का दिल कांग्रेस और बीएसपी के बीच झूल रहा है। बीएसपी के पास चूंकि आधार दलित वोट है, इसलिए उसके नेताओं की उम्मीदें बढ़ गई हैं। उधर, केंद्र में बीजेपी का मुकाबला करने का सामथ्र्य अपने पास ही होने का तर्क देकर कांग्रेस भी कांटा लिए तैयार बैठी है। विडंबना यह है कि मुलायम की कारगुजारी सामने है ही। बीएसपी भी अतीत में एनडीए की यात्रा कर चुकी है और नरेंद्र मोदी के लिए गुजरात जाकर वोट भी मांग चुकी हैं। कांग्रेस खुद हिंदुत्व की यात्रा में बहुत आगे जा चुकी है और जेनुइन सेक्युलर सियासत पर उसका यकीन नहीं रह गया है।

गुजरात का नरसंहार हुआ था तो कहने को यह था कि सूबे में भी सरकार बीजेपी की थी और केंद्र में भी बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। उस बूढ़े प्रधानमंत्री ने राजधर्म के पालन की खोखली नसीहत देकर घुटने टिका दिए थे, अजीब नहीं था। लेकिन इस बार राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस की। कांग्रेस आखिर क्यों नहीं राष्ट्रपति शासन लागू कर इस भयावह हिंसा में इंसाफ की नजीर पेश कर सकती थी? लेकिन ऐसा होना ही नहीं था। सांप्रदायिक नफरत के साइंटिस्टों के प्रयोग गुजरात से निकलकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों तक कामयाब हो ही जाने थे। अल्पसंख्यकों को और ज्यादा आइसोलेशन में धकेल दिया जाना था। और ड्रेकुला को दिल्ली की छाती के और नजदीक आ जाना था।

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