केपी सिंह जनसत्ता 8 मार्च, 2013: अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिला सशक्तीकरण की बात करना फैशन नहीं, जरूरत है। इक्कीसवीं शताब्दी में भी महिलाएं संविधान-प्रदत्त मूलभूत अधिकारों को पाने के लिए जद्दोजहद कर रही हैं। यह जद्दोजहद नई नहीं, सहस्राब्दियों पुरानी है। मानव-सभ्यता जब पृथ्वी पर पनपने लगी तो पुरुष ने अपनी शारीरिक सामर्थ्य का फायदा उठाते हुए पहला अधिकार स्त्री पर जताया था। महिलाओं के शोषण की कहानी वहीं से शुरू हो गई थी। संपत्ति पर अधिकार का सिलसिला उसके बाद शुरू हुआ। वर्ष 1848 में सोनेका फाल्स में आयोजित महिला-अधिकार सम्मेलन में जारी किए गए घोषणा-पत्र में कहा गया था कि मानवता का इतिहास पुरुष द्वारा स्त्री पर लगातार अत्याचार और उस पर आधिपत्य जमाने की गाथा मात्र है। प्राचीन रोमन साम्राज्य में महिलाओं को पुरुष के स्वामित्व वाला प्राणी समझा जाता था। फ्रांस में उन्हें आधी आत्मा वाला जीव समझा जाता था, जो समाज के विनाश के लिए जिम्मेदार था। चीनवासी महिलाओं में शैतान की आत्मा के दर्शन करते थे। इस्लाम के प्रचार से पहले अरबवासी लड़कियों को जिंदा दफ्न कर दिया करते थे। भारत में भी सीता से लेकर द्रौपदी तक स्त्रियां विभिन्न प्रकार की अग्नि-परीक्षा से गुजरती रही हैं। कन्या हत्या के पाप से जब भारतवासी मुक्त होने लगे थे तो सहज ही कन्या-भ्रूण हत्या सामाजिक व्यवस्था में स्थापित हो गई थी। मापदंड और तरीके भिन्न हो सकते हैं, पर महिलाओं के प्रति भेदभाव और शोषण एक विश्वव्यापी सामाजिक परिदृश्य है। इसे सभ्यता-दोष मान कर सभी को इसके निराकरण के उपाय ढूंढ़ने की जरूरत है। महिला सशक्तीकरण की बात करने से पहले इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ने की आवश्यकता है कि क्या वास्तव में महिलाएं अशक्त हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि अज्ञानवश या निहित स्वार्थों ने एक षड्यंत्र के तहत एक असत्य को बार-बार सत्य बता कर उसे सत्य के रूप में स्थापित कर दिया गया हो? मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक तथ्य यह साबित करते हैं कि वह प्राणी जिसे हम 'औरत' कहते हैं, जन्म से औरत नहीं होती, उसे समाज द्वारा 'औरत' बनाया जाता है। वह अशक्त नहीं, अशक्त बताई जाती है। प्रकृति ने स्त्री और पुरुष दोनों को अलग-अलग प्रकार की शक्तियां देकर एक समान रूप से सशक्त बनाया है। पुरुष में अगर शारीरिक सामर्थ्य थोड़ी ज्यादा है तो स्त्री में शारीरिक शक्ति का संवरण करने की शक्ति पुरुष से अधिक होती है। इसका प्रमाण है कि भारत में महिलाओं की औसत आयु पुरुषों की औसत आयु से लगभग पांच वर्ष अधिक है। भावनात्मक रूप से महिलाएं पुरुषों से अधिक संतुलित होती हैं। विषम परिस्थितियों से शीघ्र बाहर निकल कर संयमित हो जाने और दर्द सहने की क्षमता स्त्रियों में पुरुषों से अधिक होती है। मानसिक प्रबलता और कार्य-निपुणता में महिलाएं अगर पुरुषों से इक्कीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं हैं। फिर यह समझने की जरूरत है कि स्त्री क्यों पुरुष के अधीन होती चली गई? सभ्यता के प्रारंभ में 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' का सिद्धांत स्थापित हो जाना स्वाभाविक था। बौद्धिक क्षमता और भावनात्मक दृढ़ता के मापदंड उस समय अज्ञात थे। इसीलिए शारीरिक सामर्थ्य ने जीवों के बीच परस्पर संबंधों को परिभाषित करने में अहम भूमिका निभाई थी। जंगल की प्रवृत्ति को परिभाषित करता 'बलशाली को ही अधिकार है' का सिद्धांत सभ्य समाज के शुरुआती दौर में ही मानव-समाज में अपनी जगह पक्की कर चुका था। शायद यही कारण था कि पुरुष ने स्त्री की तनिक सापेक्ष शारीरिक दुर्बलता को उसके आजीवन शोषण की गाथा बना डाला। पर आधुनिक सभ्य समाज में शारीरिक क्षमता के मुकाबले मानसिक प्रबलता, सृजनात्मक शक्ति और भावनात्मक परिपूर्णता ज्यादा मायने रखती है। सर्वविदित सत्य यही है कि आधुनिक सभ्यता के श्रेष्ठता के स्थापित मानकों पर महिलाएं पुरुषों से कहीं भी पीछे नहीं हैं। ऐसे में महिला सशक्तीकरण की चर्चा और अधिक सार्थक हो जाती है। प्रसिद्ध दार्शनिक मज्जिनी (1805-1872) ने कहा था कि पुरुष को अपने दिमाग से यह विचार निकाल देना चाहिए कि वह महिला से श्रेष्ठ होता है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन की पत्नी नैन्सी रेगन ने एक बार बताया था कि स्त्री चाय की पुड़िया (टी बैग) के समान होती है। और 'टी बैग' की गुणवत्ता का तब तक पता नहीं चलता, जब तक उसे गरम पानी में डाल कर परखा नहीं जाता। महिलाओं के संदर्भ में गरम पानी में डालने से उनका अभिप्राय था अवसरों की उपलब्धता। यानी महिलाओं की क्षमता का अंदाजा उन्हें उपलब्ध अवसरों के परिप्रेक्ष्य में ही लगाया जाना चाहिए। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारणों से महिलाओं को राष्ट्र और समाज के विकास में भागीदारी के उतने अवसर नहीं मिल पाए जिनकी वे हकदार थीं। धीरे-धीरे महिलाओं ने समाज में अपनी उस भूमिका को स्वीकार कर लिया जो पुरुष से कमतर आंकी जाती रही है। पुरुष द्वारा बनाए गए सामाजिक और राजनीतिक कानून जो पुरुष को केंद्र में रख कर बनाए गए थे, महिलाओं पर ज्यों के त्यों लागू होते चले गए। स्त्री घर की चारदीवारी के अंदर घरेलू परिस्थितियों की दासी बन गई और घर के बाहर उसकी भूमिका सीमित होती चली गई। घरेलू और सार्वजनिक गतिविधियां लिंग के आधार पर वर्गीकृत हो गर्इं। महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने का अधिकार पुरुषों ने अपने पास ही रखा। घर से बाहर की सारी भूमिकाएं पुरुषों ने हथिया लीं। इस लैंगिक भेदभाव ने महिलाओं को और कमजोर बना दिया और सर्वत्र पुरुष का वर्चस्व स्थापित होता चला गया। समाज में पुरुष के वर्चस्व की कीमत सभी सभ्यताओं ने सदैव चुकाई है। जनसंख्या के आधे भाग के योगदान के अभाव में समाज की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति की दर उतनी नहीं बढ़ पाई, जितनी शायद संभव थी। वर्ष 2011 के इंदिरा गांधी शांति पुरस्कार प्रदान करते समय भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि राष्ट्र की आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की उचित भागीदारी के बिना सामाजिक प्रगति की अपेक्षा रखना तर्कसंगत नहीं होगा। वर्ष 2009 में संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया की सबसे बड़ी पांच सौ कंपनियों (फारचून 500) में महिलाओं की भागीदारी को लेकर एक सर्वेक्षण कराया था। निष्कर्ष यह निकला था कि जिन कंपनियों के प्रबंधन में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व मिला था उनमें निवेशकों को तिरपन प्रतिशत अधिक लाभांश और चौबीस प्रतिशत अधिक बिक्री का फायदा मिला था। जाहिर है, महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करके आर्थिक प्रगति की रफ्तार बढ़ाई जा सकती है। भारत सरकार महिला सशक्तीकरण के प्रति सदैव सकारात्मक रही है। वर्ष 2001 में महिला सशक्तीकरण से संबंधित राष्ट्रीय नीति की घोषणा की गई थी। इस बहुआयामी नीति में महिलाओं के विकास का वातावरण तैयार करने, समानता के साथ राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक विकास में भागीदारी सुनिश्चित करने, भेदभाव समाप्त करने, महिलाओं के प्रति हिंसा को रोकने और सभी क्षेत्रों में विकास और भागीदारी के एक समान अवसर उपलब्ध कराने का आह्वान किया गया है। राष्ट्रीय नीति के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते हुए वर्ष 2010 में महिला सशक्तीकरण राष्ट्रीय मिशन 'मिशन पूर्ण शक्ति' की स्थापना की गई थी। संयुक्त राष्ट्र ने भी महिला सशक्तीकरण के पांच-आयामी दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशा-निर्देशों में महिलाओं को राष्ट्रीय मुद्दों पर निर्णायक भूमिका निभाने, विकास के समान अवसरों की उपलब्धता, व्यक्तित्व की महत्ता और स्वेच्छा से जीवन के फैसले करने के अधिकार को अधिमान दिया गया है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में महिला सशक्तीकरण के नियामकों को सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में निर्धारित करने की जरूरत है। दो तिहाई मजदूरी के कार्यों को करने के बाद भी महिलाएं केवल दस प्रतिशत संपत्ति और संसाधनों की मालिक हैं। भूमि पर मालिकाना हक से संबंधित अधिकारों में महिलाओं के हक को जमीनी सतह पर स्थापित करने की आवश्यकता है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन करके पुश्तैनी जमीन में लड़कियों को लड़कों के बराबर अधिकार दे दिया गया है। पर लड़कियों को इस अधिकार की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है। इसके लिए एक सामाजिक क्रांति की जरूरत होगी। महिलाएं समाज के हाशिये पर ढकेल दिया गया वर्ग हैं, इसमें मतभेद नहीं। भारतीय संविधान में पीड़ित और शोषित वर्गों के लिए समानता के अधिकार से ऊपर उठ कर उनके पक्ष में सकारात्मक भेदभाव करने की अवधारणा को स्थापित किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के अनुसार शिक्षण संस्थाओं, सरकारी नौकरियों और प्रशासन में सभी उपेक्षित वर्गों की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करने की परिकल्पना की गई है। फिर यह समझ से बाहर है कि अभी तक किसी ने भी शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में महिलाओं के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण की मांग क्यों नहीं की है? राजनीति में अब भी एक तिहाई भागीदारी की मांग की जा रही है, जबकि महिलाएं राजनीति में भी आधे हिस्से की हकदार हैं। अपनी जिंदगी के बारे में सभी प्रकार के फैसले, जिनमें जीवन-साथी और व्यवसाय चुनने के फैसले महत्त्वपूर्ण हैं, करने की मुहिम को और गति देने की आवश्यकता है। श्रम और सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के लैंगिक वर्गीकरण की दीवार को गिराने से ही महिला सशक्तीकरण की अवधारणा को बल मिल सकता है। संपूर्ण विश्व में परंपरागत पुरुष-प्रधान समाज में एक और कटु सत्य को आत्मसात करने की आवश्यकता है। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के तीन सिद्धांतों पर टिकी वर्ष 1789 की 'फ्रांस की क्रांति' में महिलाओं की स्वतंत्रता और पुरुषों के साथ उनके बराबरी के अधिकार का कहीं भी जिक्र नहीं है। कार्ल मार्क्स का समानता का सिद्धांत भी पुरुष और स्त्री की बराबरी की जद्दोजहद का कभी साक्षी नहीं बन सका। आधुनिक युग में भी जब सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ों के अधिकारों की वकालत विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर की गई तो औरत के अधिकारों की पूरी वकालत नहीं हो पाई। शायद पुरुष वर्चस्व का उद्घोष इसमें आड़े आता रहा। पर महिला सशक्तीकरण के आंदोलन को पुरुषों के अधिकार छीनने की कवायद नहीं समझा जाना चाहिए। न ही इसे पुरुष बनाम स्त्री मुद्दा बनने देना चाहिए। महिला सशक्तीकरण का हामीदार बनने के लिए पुरुष विरोधी बनना कतई जरूरी नहीं है। सशक्तीकरण अधिकारों का बंटवारा नहीं, बल्कि परिस्थितियों और मापदंडों के सुधार का पर्यायवाची है। अगर महिलाओं की स्थिति में सुधार होता है तो पुरुष की स्थिति में भी सुधार होना स्वाभाविक है। शर-शैया पर लेटे हुए भीष्म ने पांडवों को राजनीति के पाठ पढ़ाते हुए नसीहत दी थी कि किसी राजा की कुशलता इस तथ्य की मोहताज होती है कि उसके राज्य में महिलाओं का सम्मान होता है या अपमान। इसलिए महिला सशक्तीकरण किसी भी राज-सत्ता की उपलब्धियों का सार्थक मापदंड होना चाहिए। अंत में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में सभी को समर्पित उद्गार- 'मैं औरत हूं/ आकाश मेरी बैसाखियों पर टिका है/ इंद्रधनुष मेरी आंखों का काजल है/ सूरज की परिक्रमा मेरे गर्भ से गुजरती है/ बादलों में मेरे विचार घुमड़ते हैं/ पर अफसोस/ मेरी अभिव्यक्ति की बयार अभी आना बाकी है।' |
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