BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Friday, February 1, 2013

भ्रष्टाचार में जाति ? जाति के आधार पर जनगणना भी हो जाये!!!

भ्रष्टाचार में जाति ? जाति के आधार पर जनगणना भी हो जाये!!!



सोनी सोरी पर उत्पीड़न करने वाले अधिकारी वीरता के लिए राष्ट्रपति पदक पाते हैं तो निश्चित ही इस देश का हर आदिवासी भ्रष्ट होगा।

पलाश विश्वास

 

कॉरपोरेट आयोजित वैश्विक अर्थव्यवस्था का आयोजन जयपुर साहित्य उत्सव आखिर अपने एजंडे पर खुलेआम अमल करने लगा है कि इस वर्चस्ववादी मंच को आरक्षण विरोधी आंदोलन के सिविल सोसाइटी के भष्टाचार विरोधी मुखड़े के साथ नत्थी कर दिया। बंगाली वर्चस्ववाद जो अब राष्ट्रीय धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के राष्ट्रीय सर्वोच्च धर्माधिकारी प्रणव मुखर्जी की अगुवाई में सर्वव्यापी है, आशीष नंदी ने महज उसका प्रतिनिधित्व किया है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री आशीष नंदी ने कहा है कि एससी, एसटी और ओबीसी समाज के सबसे भ्रष्ट तबके हैं। इन तबको से सबसे ज्यादा भ्रष्ट लोग आते हैं।

बाकी देश भारत विभाजन के कारण गांधी, जिन्ना और नेहरु को गरियाता रहता है क्योंकि उसे बंगाली वर्चस्ववाद की भारत विभाजन में निर्णायक भूमिका के बारे में पता ही नहीं है। बंगाली सवर्ण वर्चस्ववाद ने अस्पृश्यताविरोधी क्रांति के जनक बंगाल के अनुसूचितों को बंगाल के बाहर खदेड़ने के लिए ही भारत का विभाजन हो या नहीं, बंगाल का विभाजन होकर रहेगा, नीति अपनाकर बंगाल में सत्ता पर कब्जा कर लिया। अब बंगाल में जीवन के हर क्षेत्र में न केवल ब्राह्मण वर्चस्व है, बल्कि ब्राह्मणमोर्चा के वाम शासन के 35 साल के राजकाज के बाद फिर ममता बनर्जी के नेतृत्व में ब्राह्मणतंत्र सत्ता में काबिज है। बंगाल में बाकी देश की तुलना में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की संख्या कम है। 17 प्रतिशत और सात प्रतिशत। तीन फीसद ब्राह्मणों, २७ फीसद मुसलमानों और पांच प्रतिशत बैद्य कायस्थ के अलावा बाकी ओबीसी हैं, जिनकी न गिनती हुई है और न जिन्हें हाल में घोषित आरक्षण के तहत नौकरियां मिलती हैं और न सत्ता वर्ग के साथ नत्थी हो जाने के बावजूद सत्ता में भागेदारी। गौरतलब है कि 27 फीसद मुसलमान आबादी में भी नब्वे फीसद मुसलमान हैं। वाम शासन में उनके साथ क्या सलूक हुआ, यह तो सच्चर कमिटी की रपट से उजागर हो गया, पर परिवर्तन राज में उनको मौखिक विकास का मोहताज बना दिया गया है। मजे कि बात यह है कि इन्हीं ओबीसी मुसलमानों के दम पर बंगाल में 35 साल तक वामराज रहा और दीदी का परिवर्तन राज भी उन्हीं के कन्धे पर! भारत विभाजन के शिकार दूसरे राज्यों असम, पंजाब और कश्मीर में जनसंख्या में अब भी भारी तादाद में अनुसूचित हैं। ममता बनर्जी जिन एक करोड़ बेरोजरार युवाओं की बात करती हैं, उनमें से अस्सी फीसद इन्हीं ओबीसी और अनुसूचितों में हैं जिनमें से ज्यादातर ने समय-समय पर नौकरियों के लिए आयोजित होने वाली परीक्षाएं पास कर ली हैं, किंतु इंटरव्यू में बैठे ब्राह्मण चयनकर्ताओं ने उन्हें अयोग्य घोषित करके आरक्षित पदों को सामान्य वर्ग में तब्दील करके उन्हें नौकरियों से वंचित कर रखा है। बंगाल में आरक्षित पदों पर नियुक्तियां कभी बीस फीसद का आंकड़ा पार नहीं कर पायीं। इसलिए बंगाल में आरक्षण विरोधी आंदोलन का कोई इतिहास नहीं है। यहां जनसंख्या का वैज्ञानिक समावेश हुआ है।

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

बहुजन समाज के प्रति अर्थशास्त्रियों के सुतीव्र घृणा अभियान तो कॉरपोरेट नीति निर्धारण से जगजाहिर हैसमाजशास्त्रियों के घृणा अभियान पर अभी तक कोई खास चर्चा नहीं हो सकी है। कम से कम इस मायने में यह बहस शुरू करने में आशीष नंदी का शुक्रगुजार होना चाहिए हमें। नन्दी ने अनुसूचित जनजातियों को लपेटकर अच्छा ही किया। संविधान के पांचवीं और छठीं अनुसूचियों के खुला उल्लंघन के साथ जल जंगल बहुल समूचे पूर्वोत्तर और कश्मीर में सशस्त्रबल विशेषाधिकार कानून और मध्य भारत में सलवा जुड़ुम व दूसरे रंग-बिरंगे अभियानों के बहाने आदिवासियों का दमन जारी है। सोनी सोरी पर उत्पीड़न करने वाले अधिकारी वीरता के लिए राष्ट्रपति पदक पाते हैं तो निश्चित ही इस देश का हर आदिवासी भ्रष्ट होगा। इसी सिलसिले में आसन्न बजट सत्र की चर्चा करना भी जरूरी है, जिसमें शीतकालीन सत्र में पास न हुए पदोन्नति में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के निषेध को खत्म करने के लिए प्रस्तावित विधायक को पिर पेश किये जाने की संभावना है। इसलिए आरक्षण विरोधी आंदोलन के नजरिये से आशीष नंदी ने बेहतरीन काम कर दिया है। अब कॉरपोरेट मीडिया और सोशल मीडिया दोनों का फोकस आरक्षणविरोध पर ही होगा, जाहिर है। संसदीय सत्र शुरु होते न होते शुरु होने वाले सिविल सोसाइटी के आंदोलन के लिए तो यह सुर्खाव के पर हैं! इसी सिलसिले में पुण्य प्रसून वाजपेयी की रपट और उदितराज का लेख पढ़ लिया जाये तो नंदी के बयान के घनघोर रणकौशल को समझने में मदद मिलेगी। हालांकि बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता के जरिये बहुजन समाज के नागरिक और मानवाधिकार हनन से अविचलित लोगों के लिए इसे समझने की जरुरत भी खास नहीं है।

उत्तरी बंगाल में आज भी असुरों के उत्तराधिकारी हैं। जो दुर्गोत्सवके दौरान अशौच पालन करते हैं। उनकी मौजूदगी साबित करती है कि महिषमर्दिनी दुर्गा का मिथक बहुत पुरातन नहीं है। राम कथा में दुर्गा के अकाल बोधन की चर्चा जरूर है, पर वहां वे महिषासुर का वध करती नजर नहीं आतीं। जिस तरह सम्राट बृहद्रथ की हत्या के बाद पुष्यमित्र के राज काल में तमाम महाकाव्य और स्मृतियों की रचनी हुई प्रतिक्रांति की जमीन तैयार करने के लिए। और जिस तरह इसे हजारों साल पुराने इतिहास की मान्यता दी गयी, कोई शक नहीं कि अनार्य प्रभाव वाले आर्यावर्त की सीमाओं से बाहर के तमाम शासकों के हिंदूकरण की प्रक्रिया को ही महिषासुरमर्दिनी का मिथक छीन उसी तरह बनाया गया, जैसे शक्तिपीठों के जरिये सभी लोकदेवियों को सती के अंश और सभी लोक देवताओं को भैरव बना दिया गया। वैसे भी बंगाल का नामकरण बंगासुर के नाम पर हुआ। बंगाल में दुर्गापूजा का प्रचलन सेन वंश के दौरान भी नहीं था। भारत माता के प्रतीक की तरह अनार्य भारत के आर्यकरण का यह मिथक निःसंदेह तेरहवीं सदी के बाद ही रचा गया होगा। जिसे बंगाल के सत्तावर्ग के लोगों ने बंगाली ब्राहमण राष्ट्रीयता का प्रतीक बना दिया। विडंबना है कि बंगाल की गैरब्राह्मण अनार्य मूल के या फिर बौद्ध मूल के बहुसंख्यक लोगों ने अपने पूर्वजों के नरसंहार को अपना धर्म मान लिया। बुद्धमत में कोई ईश्वर नहीं है, बाकी धर्ममतों की तरह। बौद्ध विरासत वाले बंगाल में ईश्वर और अवतारों की पांत अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बनी, जो विभाजन के बाद जनसंख्या स्थानांतरण के बहाने अछूतों के बंगाल से निर्वासन के जरिये हुए ब्राह्मण वर्चस्व को सुनिश्चित करने वाले जनसंख्या समायोजन के जरिये सत्ता वर्ग के द्वारा लगातार मजबूत की जाती रही। माननीय दीदी इस मामले में वामपंथियों के चरण चिन्ह पर ही चल रही हैं।

इस बीच नंदी के बचाव में सोशल मीडिया में सवर्ण हरकतें शुरु हो गयीं। भूतपूर्व माकपाई कोलकाता के प्राध्यापक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने दलील दी है कि जब जनगणना में जाति के आधार पर गणना होती है, तो भ्रष्टाचार में गणना जाति के आधार पर क्यों नहीं होनी चाहिए। मीडिया विशेषज्ञ चारों वेदों के अध्येता यह बता रहे हैं कि जाति के आधार पर जनगणना हो रही है। जबकि हकीकत यह है कि संसद में सर्वदलीय सहमति के बावजूद जाति के आधार पर जनगणना अभी शुरू नहीं हुई है। चतुर्वेदी जी के वक्तव्य के आधार पर जाति के आधार पर पहले गिनती हो जाये तो फिर भ्रष्टाचार की गिनती भी हो जाये। पूना पैक्ट के मुताबिक अंबेडकर की विचारधारा, समता और सामाजिक न्याय के प्रतीक महात्मा गौतम बुद्ध और तमाम महापुरुषों, संतों के नाम सत्ता की भागेदारी में मलाई लूटने वाले चेहरे सचमुच बेनकाब होने चाहिए। इसी मलाईदार तबके के कारण ही भारत में अभी बहुजन समाज का निर्माण स्थगित है। उसके बाद देखा जाये कि उनके अलावा क्या भ्रष्टाचार की काली कोठरी की कमाई खाने वालों में ब्राह्मणों और दूसरी ऊंची जातियों की अनुपस्थिति कितनी प्रबल है। चतुर्वेदी जी के बयान पर अभी बवाल शुरु नहीं हुआ है।

यह संयोग भर नहीं है कि बंगाल में सत्ता प्रतिष्टान से वर्षों जुड़े रहे जगदीश्वर चतुर्वेदी और बंगाली सत्तावर्ग के प्रतिनिधि आशीष नंदी एक ही सुर ताल में बहुजन समाज के खिलाफ बोल रहे हैं, जबकि बंगाल में बहुजन समाज का कोई वजूद ही नहीं है, जो था उसे मटियामेट कर दिया गया है। यह आकस्मिक भी नहीं है। ठीक से कहना मुश्किल है कि जैसे चतुर्वेदी ब्राह्मण हैं तो आशीष नंदी जाति से क्या हैं। वैसे बंगाल में नंदी या तो कायस्थ होते हैं या फिर बैद्य। भारत में अन्यत्र कहीं ये जातियां सत्ता में नहीं हैं। एकमात्र बंगाल में वर्णव्यवस्था बौद्धमय बंगाल के अवसान के बाद ही सेन वंश के शासन काल में ग्यारहवीं सदी के बाद लागू होने की वजह से राजपूतों की अनुपस्थिति की वजह से कुछ और खास तौर पर अंग्रेजी हुकूमत के दरम्यान स्थाई बंदोबस्त के तहत मिली जमींदारियों के कारण कायस्थ और बैद्य तीन फीसद से कम ब्राह्मणों के साथ सत्तावर्ग में है। बाकी देश के उलट बंगाल में ओबीसी अपनी पहचान नहीं बताता और सत्तावर्ग के साथ नत्थी होकर अपने को सवर्ण बताता है, जबकि ओबीसी में माहिष्य और सद्गोप जैसी बड़ी किसान जातियां हैं, नाममात्र के बनिया संप्रदाय के अलावा बंगाल की बाकी ओबीसी जातियां किसान ही हैं। बंगाली ब्राह्मण नेताजी और विवेकानंद जैसे शीर्षस्थ कायस्थों को शूद्र बताते रहे हैं। जबकि बाकी देश में भी कायस्थ. खासकर उत्तरप्रदेश के कायस्थ मुगल काल से सत्ता में जुड़े होने कारण अपने को सवर्ण ही मानते हैं। इसके उलट असम में कायस्थ को बाकायदा ओबीसी श्रेणी में आरक्षण मिला हुआ है। भारत में छह हजार जातियां हैं। तमाम भारत में किसान बहुजन बहुसंख्य आम जनता को ओबीसी, अनुसूचित जातियों और जनजातियों में विभाजित कर रखा गया है। यहां तक कि कुछ किसान जातियों मसलन भूमिहार और त्यागी तो बाकायदा ब्राहमण हैं। अगर पेशा और श्रम विभाजन ही वर्ण व्यवस्था और जातियों के निर्माण का आधार है तो सभी किसान जातियों को एक ही जाति चाहे ब्राह्मण हो या ओबीसी या अनुसूचित, होना चाहिए था। बैद्य बंगाल में ब्राह्मणों से भी मजबूत जाति है। ब्राह्मणों में भी पिछड़ेअशिक्षित और गरीब मिल जाएंगे। पर बैद्य शत प्रतिशत शिक्षित है और शत प्रतिशत फारवर्ड। देश के अर्थशास्त्र पर डॉ. अमर्त्य सेन की अगुवाई में इसी जाति का कब्जा है। बंगाल के सत्ता प्रतिष्ठान में अनुपात के हिसाब से बैद्य को सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला हुआ है। ब्राह्मणों के बाद।

बताया जाता है कि पत्रकार से फिल्मकार बने प्रीतीश नंदी के भाई हैं आशीष नंदी। होंगे या नहीं भी होंगे। इससे फर्क नहीं पड़ता।असल बात यह है कि आशीष नंदी ने जो कुछ कहा हैवह ब्राह्मणेतर सवर्णों और तथाकथित सवर्णों की संस्कारबद्ध श्रेष्ठत्व की वर्चस्ववादी मानसिकता की ही अभिव्यक्ति है। मालूम हो कि अनुसूचितों और पिछड़ों पर अत्याचार इन्हीं जातियों के खाते में हैं। ब्राह्मण तो बस मस्तिष्क नियंत्रण करते हैं। 

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