अनिल चमड़िया जनसत्ता 23 फरवरी, 2013: सपना की एक डायरी का हिस्सा पढ़ने को मिला। उसमें वह एक पात्र भक्तिन नानी के एक प्रसंग का उल्लेख करती है। बाल विवाह की उम्र में ही उनके पति का निधन हो गया। वे जिन्हें चाहती थीं, उनसे शादी करना चाहती थीं। लेकिन प्रेम की वह आजादी उस पुरुष और समाज का सामंती मिजाज स्वीकार नहीं कर रहा था। शादी के बाद उस पुरुष की विवाहिता के बच्चे जीवित नहीं बच पाते थे। लोगों ने भक्तिन नानी को डायन कहना शुरू कर दिया। भक्तिन नानी ने खुद के डायन होने और कहलाने की अवस्था को चुपचाप स्वीकार कर लिया। लोकप्रिय लेखिका सुधा अरोड़ा के वक्तव्य से इस प्रसंग को विस्तार दिया जा सकता है। वे लिखती हैं कि हर किस्म के गुलामों के कुछ सार्वजनिक और कुछ निजी वसूल होते हैं, चार दीवारों वाला घर उसकी पहली जरूरत होता है जिसकी दीवारों और छत के बीच वह अपने को महफूज होने का भ्रम पाल सके। औरत ने जब गुलामी को अपना सुरक्षा-कवच बना लिया तो उसने अपने स्वभाव में कुछ तमगे अनिवार्य रूप में धारण कर लिए। समाज का कोई भी वर्ग या समुदाय जिस अवस्था में है उसकी यथास्थिति के कारणों को उससे बेहतर दूसरा नहीं जानता। दूसरा तो दूसरा होता है। इन दोनों के बीच नजरिए का फर्क कितना बारीक होता है यह दिल्ली की प्रखर राजनीतिक कार्यकर्ता कविता कृष्णन बताती हैं। वे कहती हैं कि हम अपनी आजादी की सुरक्षा की मांग करते हैं, और वे कहते हैं, महिलाओं की सुरक्षा। वे इसे इस तरह से विस्तार देती हैं कि इस सुरक्षा का मतलब वे जानती हैं। इसे उन्होंने परिवार में, स्कूलों में, वार्डन सबसे सुन रखा है। सुरक्षा का मतलब है, अपने दायरे में रहो। घर की चारदीवारी में रहो, एक खास तरह के कपड़े पहनो। जैसे दिल्ली पुलिस महिलाओं की सुरक्षा के लिए मर्द बनने का इश्तेहार जारी करती है। वे सवाल करती हैं कि क्या मर्दानगी महिलाओं पर होने वाली हिंसा का समाधान है? या, समस्या है और समस्या की जड़ है? महिलाओं की सुरक्षा की बाबत जो भाषा अभी तैयार हुई है उसे आदिवासी महिला ढुंगढुंग अपने इस सवाल से बताती हैं। निर्भया या दामिनी के साथबलात्कार के बाद इंडिया गेट पर आंदोलन दिखता है और मीडिया में हर जगह महिलाओं की सुरक्षा की चिंता दिखती है। लेकिन इन कार्रवाइयों ने इस तरह की भाषा को जन्म कैसे दिया कि हमें हर पुरुष से डर लगने लगा है? दरअसल, जिस समाज में बहुसंख्यक आबादी के खिलाफ जाति, लिंग, धर्म और गरीबी के कारण वंचना और दमन की स्थितियां हों, वहां उनके लिए सुरक्षा की मांग कौन किस भाषा में कर रहा है उसे देखने का नजरिया वंचित वर्गों में भिन्न होता है। यहां जातियों के नजरिए की चर्चा नहीं कर रहे हैं। दो वर्गों की सुरक्षा का सवाल सबसे महत्त्वपूर्ण होकर शहरी आबादी में अभी उभरा है। महिलाओं के अलावा मुसलमानों की सुरक्षा का सवाल ज्यादा पेचीदा हुआ है। गुजरात में नरेंद्र मोदी के फिर से विधानसभा चुनाव जीतने के बाद यह बात बहुत प्रचारित की गई कि उनके नेतृत्व को मुसलमानों का भी समर्थन हासिल हुआ है। ऐसे आंकड़े भी बताए जा रहे हैं कि फलां मुसलिम बहुल इलाके में नरेंद्र मोदी के उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब हुए हैं। यह किस हद तक प्रचार है, इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है। बेहतर तो यह है कि हम उस प्रचार के आधार पर ही बातचीत करें तो मुसलमानों के समर्थन से क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि उन्हें नरेंद्र मोदी में आस्था है? नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात में मुसलमानों के खिलाफ जितनी बड़ी हिंसा हुई, क्या उसे इस समुदाय के लोगों ने भुला दिया है? क्या वे अब अपनी सुरक्षा नरेंद्र मोदी के शासन में ही देख रहे हैं? मुझे याद है कि महाविद्यालय में एक सहपाठी, जो पिछड़े-दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के लिए छात्रसंघ के चुनाव के दौरान सबसे ज्यादा सक्रिय लोगों में एक था, 1992 के बाद एक इस्लामी पोशाक में मिला। उसने बस एक ही सवाल पूछा कि क्या अब उसके पास कोई दूसरा चारा भी रह गया था? एक दूसरा मुसलिम युवक बेहद मायूस होकर ताना देता है कि आप नहीं समझ सकते हैं, मुसलमान होकर जीने का दर्द। देश के विभिन्न शहरों में ऐसे अध्ययन सामने आए हैं कि मुसलमानों को किराए पर मकान नहीं मिलते हैं। सच्चर समिति बताती है कि रोजगार-धंधे, राजनीति, प्रशासन में कितने मुसलमान हैं। अब तो यह कहा जाने लगा कि देश में दलितों से भी बदतर स्थिति मुसलमानों की है। देश की राजनीतिक स्थिति ऐसी हो गई हो कि मुसलमानों के सामने सबसे बड़ा सवाल छत और दीवार के बीच खुद के महफूज होने का भ्रम पालने का हो तो वह क्या कर सकता है! इस पहलू से एक अध्ययन किया जा सकता है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा होने के कारण बताने वालों में समाज पर वर्चस्व रखने वाली जातियों और धर्म से जुड़े लोगों के विचारों को अलग किया जाए। यानी एक कोलाज बनाया जाए और वहां दामिनी के साथ बलात्कार की घटना के बाद आए बयानों को चिपका दिया जाए तो यह पता चलेगा कि हर राजनीतिक पार्टी और सत्ता संस्थानों में वे विचार हावी हैं। राजनीतिक पार्टियों के इस रुख की वजह मतदान को प्रभावित करने वालों के बीच अपनी पैठ बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा होती है। लोकतंत्र को समाज की अवस्था बदलने के एक माध्यम के रूप में स्वीकार किया गया है। लेकिन जब यह उन शक्तियों द्वारा हथिया लिया जाए जिनका निहित स्वार्थ यथास्थिति और वर्चस्व को बनाए रखने में होता है, तो लोकतंत्र महज नाम का रह जाता है। तब लोकतंत्र के बारे में विभिन्न वर्गों और समुदायों का नजरिया वही नहीं होता जो वर्चस्वशाली तबके का होता है। राजनीतिक पार्टियों के समर्थक होने का अनिवार्य अर्थ यह नहीं होता कि लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था की मौजूदा हालत से खुश हैं। इस तरह का समर्थन तो चुनाव प्रणाली की विवशता है। यह अकारण नहीं है कि जो मौजूदा राजनीतिक पार्टियों में से किसी का समर्थक नहीं होता, उसे देश के लिए सबसे खतरनाक समूह के सदस्य के रूप में देखा जाता है। ऐसे लोकतंत्र में जिस किसी भी पहलू पर विचार सामने आते हैं, उनकी बारीकी से पड़ताल इस मायने में जरूरी होती है कि आखिर समाज की संरचना की दिशा क्या है। पटना में जेडी वीमेंस कॉलेज की एक विद्यार्थी बताती है कि समाज पर वर्चस्व रखने वालों के लिए तो समानता का विचार इतने से ही पूरा हो जाता है कि लड़के-लड़की को स्कूल में समान रूप से पढ़ाया जाए। लेकिन क्या यह प्रावधान पर्याप्त है और समानता का पर्याय हो सकता है? लोकतंत्र में समानता का अर्थ छद््म भावों का निर्माण करना नहीं हो सकता। वर्चस्ववादी विचार ये भाव तैयार करते हैं। मुसलमानों के खिलाफ भाजपा के शासनकाल में दंगे नहीं होते, यह बात तो अक्सर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता कहते रहे हैं। इसका क्या अर्थ निकाला जाए? मजे की बात तो यह है कि पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट भी यही कहते रहे हैं। और तो और, धर्मनिरपेक्षतावादी लालू यादव ने तो पुलिस वालों को हड़का कर दंगे नहीं होने दिए और उन्हें मुसलमानों के वोट मिलते रहे। जिस देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के सामने समानता से पहले अपनी सुरक्षा का सवाल लगातार बना रहे, वहां लोकतंत्र की दशा और दिशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। मुसलमानों की सुरक्षा की बाबत विभिन्न तरह की राजनीतिक पार्टियों में कितनी एकरूपता है? क्या भाजपा समेत संघ परिवार की दलील दिल्ली पुलिस के मर्दवादी विज्ञापन जैसी नहीं है, यानी हिंदूवादी बन कर मुसलमानों की सुरक्षा करो! नरेंद्र मोदी की सत्ता स्थापित करो। संसदीय राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में मोदी या संघ के संचालक भी बाजी मार कर सत्ता पर काबिज हो सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि भक्तिन नानी डायन हैं या डायन जैसे विचार सही हैं। संसदीय राजनीति ने मुसलमानों के साथ दो तरह के व्यवहार किए हैं। एक ने मुसलमानों में मुसलमानियत को उकेरा है तो दूसरे ने डराया है। पटियाला की एक गोष्ठी में समाजशास्त्री डॉ राजेश गिल एक अध्ययन के बारे में बता रही थीं कि उसमें यह पाया गया कि पुरुष टेलीफोन का इस्तेमाल अपने संबंधों के विस्तार के लिए करता है तो महिलाएं अपने सामाजिक संबंधों को बनाए रखने की कोशिश के लिए ही करती हैं। अगर मुसलमानों को धर्म की तरफ खुद की सुरक्षा के लिए धकेलने की ही कार्य-योजना चल रही हो तो उनके पास क्या विकल्प बचता है। किसी भी देश में नागरिकता के विकास का पैमाना क्यों नहीं तैयार किया जाना चाहिए, ताकि उस पैमाने पर जाति, धर्म, लिंग, भाषाई सदस्यों की स्थिति का अध्ययन किया जाए। लोकतंत्र की अवस्था को अमीर देशों के विकास के पैमाने और नजरिए से नहीं मापा जा सकता। दंगे न हों तब भी असुरक्षा महसूस की जा सकती है, या जो असुरक्षा की भावना बनी हुई है उसे बनाए रखा जा सकता है। जिन घरों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की घटनाएं नहीं हुई हैं क्या उन्हें असुरक्षा बोध से मुक्त और समानता की स्थिति में माना जा सकता है? देश में मुसलमानों को सुरक्षा नहीं अपनी आजादी की सुरक्षा चाहिए, जिसे अभी तक इस लोकतांत्रिक व्यवस्था ने सुनना ही शुरू नहीं किया है। बल्कि सच तो यह है कि वे अपनी आ२जादी की सुरक्षा की मांग न उठाएं, इस मकसद से उनके सामने असुरक्षा का प्रश्न बनाए रखना जरूरी समझा जा रहा है। इस तरह असुरक्षा की स्थितियां बनाए रखना आजादी और समानता की लड़ाई को रोकने का सबसे बड़ा हथियार बन कर हमारे सामने आ रहा है। और लोकतंत्र के नाम पर यह जारी है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/39473-2013-02-23-07-05-17 |
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