सय्यद मुबीन ज़ेहरा जनसत्ता 17 फरवरी, 2013: आम बजट आने वाला है और इसे लेकर जितना वित्तमंत्री उलझन में हैं उससे कहीं अधिक महिलाओं में चिंता और चिंतन चल रहा है। आज की महिला अपनी गृहस्थी और पेशेवर जिंदगी में तालमेल बना कर रखती है। आज महिलाएं देश की आर्थिक सेहत सुधारने में प्रमुख सहयोगी बन सकती हैं। चंदा कोचर, किरण मजुमदार शॉ, कावेरी कलानिथी, प्रभा परमेश्वरम् आदि का महिला होने के बावजूद आर्थिक उन्नति में असाधारण योगदान है। इनके साथ साधारण भारतीय महिलाओं के योगदान को बढ़ाने के लिए भी बजट से हम सब उम्मीद लगाए बैठे हैं। इस समय जब वित्तमंत्री आम बजट बना रहे हैं, देश की आम और खास दोनों महिलाओं की अपेक्षा उनसे बहुत अधिक है। इसलिए हम अभी से बजट को लेकर अपनी आकांक्षाएं वित्तमंत्री के समक्ष रख देना चाहते हैं, ताकि उन्हें यह तो विचार आ सके कि उन्होंने हमें किन-किन घोषणाओं से वंचित किया है। महिलाओं के लिए इस समय सबसे अहम सवाल उनकी सुरक्षा को लेकर है। इसलिए आम बजट में महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े किसी भी एलान से परहेज नहीं करना चाहिए। इसके लिए अगर पुलिस को अतिरिक्त वित्तीय सहायता चाहिए तो बजट में इसका प्रावधान कर देना चाहिए। पुलिस, अर्ध सैनिक बलों और फौज में महिलाओं की संख्या बढ़ाने पर भी बजट में जोर होना चाहिए। बजट में सरकार को महिलाओं की सुरक्षा के साथ-साथ उनके स्वास्थ्य से संबंधित योजनाओं को आगे बढ़ाना होगा। हम अक्सर सड़क पर प्रसव के समाचार सुनते हैं। बच्चों को जन्म देते समय महिलाओं की मौत की खबरें भी मन को विचलित कर देती हैं। इसके अलावा देखा गया है कि उनके स्वास्थ्य को लेकर न तो घर-परिवार को चिंता होती है और न ही समाज को। ऐसे में बजट में उनके स्वास्थ्य को लेकर जरूर कुछ किए जाने की आवश्यकता है। महिलाओं के लिए विशेष रूप से एम्स जैसे अस्पताल बनाने का प्रावधान होना चाहिए। विधवाओं को दी जाने वाली पेंशन की रकम बहुत कम है। उसे बढ़ाने की जरूरत है। साथ ही उनके इलाज के लिए अस्पतालों को विशेष बजटीय सहायता भी दी जानी चाहिए। वित्तमंत्री को अपने बजट में उन पहलुओं की ओर भी ध्यान देना होगा, जिनसे समाज बेटियों को बोझ न समझे। आज शिक्षा महंगी होती जा रही है। ऐसे में अगर अभिभावकों को लड़के या लड़की के मामले में उच्च शिक्षा को लेकर सोचना पड़ता है तो वे लड़कों पर ही खर्च करना उचित समझते हैं, क्योंकि उनकी नजर में लड़की तो पराया धन होती है। ऐसे में उच्च शिक्षा में लड़कियों के लिए ऐसी योजनाएं बनानी होंगी, जिससे उनकी आगे की शिक्षा न रुके। आज डॉक्टरी और इंजीनियरिंग की पढ़ाई इतनी महंगी है कि अक्सर अभिभावक लड़कियों को इनमें नहीं भेजते, क्योंकि उनके अनुसार लड़कियां तो उनकी सेवा के लिए रुकेंगी नहीं। ऐसे में उन लड़कियों के लिए सरकार की ओर से शिक्षा में आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए, जो चिकित्सा की शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। यह सहायता ऊंट के मुंह में जीरा न हो, बल्कि जितनी फीस है उसके अनुसार ही होनी चाहिए। इसके बदले उनसे यह अनुबंध कराना चाहिए कि वे कम से कम एक वर्ष ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के इलाज के लिए खुद को समर्पित करेंगी। यही नहीं, महिलाओं का रोजी-रोजगार से जुड़ना उनके सशक्तीकरण का एक बड़ा आधार है। बजटीय प्रावधानों में महिलाओं के लिए रोजगार के साधन बढ़ाने के उपायों पर ध्यान रखना होगा, ताकि अधिक से अधिक महिलाएं रोजगार से जुड़ सकें। साथ ही उन्हें दी जा रही करों में छूट का दायरा बढ़ाते हुए नौकरी-पेशा महिलाओं को इससे पूरी छूट देने की आवश्यकता है। यह सच है कि अधिकतर महिलाओं को बही-खाता रखने के विचार से ही चक्कर-सा आता है और उन्हें एकाउंटेंट जो भी समझा देता है उसके अनुसार वे कर देती हैं। वैसे भी दफ्तर के बाद घर में बच्चों की देखभाल और घर-गृहस्थी के झंझट में उसे बही-खाता संभालने का समय ही कहां मिलता है? अगर उन्हें करों में छूट मिलती है तो बचा हुआ पैसा वे अपने घर के लिए सामान खरीदने या अपने लिए कुछ खरीदने में खर्च कर देंगी। हर हाल उसका कर से बचा हुआ पैसा बाजार में आएगा और सरकार को यह पैसा दूसरे तरीके से वापस मिल जाएगा। स्त्री का सबसे बड़ा शौक खुद को सजाना है। इसलिए उसके सौंदर्य प्रसाधन पर भी दयादृष्टि बनाए रखना होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करती हैं। वे खेतों में भी काम करती हैं और मजदूरी भी। मगर उन्हें मर्दों के बराबर मजदूरी नहीं मिलती। ग्रामीण कुटीर उद्योग में भी उसकी मेहनत हड़प करने वाले लोगों की कमी नहीं है। कुछ आर्थिक नीतियां ऐसी बनानी होंगी, जिनसे कुटीर उद्योग का फायदा बिचौलियों और एजेंटों को न पहुंच कर सीधे गांव की मेहनती महिलाओं तक पहुंचे। आज निजी क्षेत्रों में आरक्षण की बात हो रही है तो ऐसे में औद्योगिक घरानों को अपने उद्योगों में अधिक से अधिक महिलाओं के लिए रोजगार के साधन जुटाने के लिए कहना चाहिए। इससे महिलाओं के लिए रोजगार के दरवाजे तेजी से खोलेंगे। वित्तमंत्री को बजट को एक गृहिणी का बजट बनाने के बारे में सोचना चाहिए। यह मान कर चलना चाहिए कि चाहे महंगाई किसी भी चीज की हो, अगर उससे घर का बजट चौपट होता है तो उसका पूरा भार स्त्री को ही उठाना पड़ता है। रसोई के मामले में उससे बड़ा प्रबंधक गुरु आज तक पैदा नहीं हुआ। कब दाल का पानी कितना बढ़ाना है और अगर प्याज महंगा हो गया है तो उसे किस प्रकार काम में लाना है? बाहर कितनी बार खाना खाने जाना है और किसकी शादी में कितना महंगा तोहफा देना है, यह वह अच्छी तरह जानती है। घर का बजट संभला रहे यह एक महिला से बेहतर कोई नहीं बता सकता। रसोई गैस की कीमतें बढ़ने से घरों में रसोई का बजट वाकई चौपट हो गया है। ऐसे में सार्वजनिक रसोईघर की संकल्पना को बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है। इससे भोजन की बर्बादी पर भी अंकुश लगाया जा सकता है। अगर वित्तमंत्री रसोई में प्रयोग की चीजों को बख्श देते हैं और ऐसी चीजों को करों के दायरे में लाते हैं जो विलासिता के साधन हैं और भरे पेट की दुनिया से जुड़े हैं तो नारी पर बजट बहुत भारी नहीं पड़ेगा। लेकिन अगर वह सकल घरेलू उत्पाद, अर्थनीति, राजकोषीय घाटा, वित्तीय संकट, वित्तीय सुधार, विदेशी निवेश, बाजारी अर्थव्यवस्था, क्रेडिट रेटिंग और लाभ-हानि जैसे शब्दों में उलझ गए तो फिर महिलाओं के लिए यह बजट अच्छा साबित नहीं होगा। उन्हें ध्यान रखना होगा कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए व्यवहार करना है। जहां तक वित्तीय घाटे को संतुलित करने की बात है, उसे वित्तमंत्री उन पूंजीपतियों पर चाबुक चला कर पूरा कर सकते हैं, जो देश के पैसे पर कुंडली मारे बैठे हैं। आशा है वे इस बार का आम बजट महिलाओं को ध्यान में रख कर बनाएंगे। |
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