BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Wednesday, June 6, 2012

खून कराता पानी

http://www.janjwar.com/society/1-society/2705-khoon-karata-pani

जल को संरक्षित करके रखने वाले जल पुरखे- कुंआ, तालाश, बाबड़ी की जगह लोगों ने हथिया कर अपने उपयोग में ले लिया. नदियां को सिकुड़ने पर मजबूर कर दिया गया. इन्हें बचाने के नाम पर करोड़ों के फंड पानी की तरह जरूर बह चुके हैं...

संजय स्वदेश

पानी पिलाकर पुण्य कमाने लोकवाणी देश में समाजिक संस्कृति रही है. पर हालात अब बदल चुके हैं. अब पानी की प्यास खूनी हो चुकी है. यह लोगों की जान से बुझने लगी है.  गत दिनों में उत्तर प्रदेश में धार्मिक नगरी मथुरा के कोसीकलां कस्बे में पानी के विवाद पर भड़के दंगे में चार लोगों की जान चली गई. अभी यह मामला शांत ही नहीं हुआ था कि इसके अगले दिन छत्तीसगढ़ के मुंगेली जिले के ग्राम सिंघनपुरी में पानी भरने को लेकर हुए विवाद में तीन लोगों की मौत हो गई और दर्जनभर लोग घायल हो गए.

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पानी के लिए इस झगड़े में लोगों की जान गई तो मीडिया खबर बनी. लेकिन पानी के लिए मारपीट की घटनाएं तो कई गली मुहल्ले में आम हो चुकी है. लेकिन उसमें जान नहीं जाती है, इसलिए वह खबर नहीं बनती. खैर, बात खबर की नहीं, उस प्रकृति की पानी की है, जिसके बारे में पुरखे प्यासे को पानी पिलाकर पुण्य कमाने की सीख देते रहे हैं.पर अब यह सीख बदल चुकी है. अब नई पीढ़ी को यह सीख शायद ही मिलती हो.

अब तो दूसरे की प्यास काट कर पानी की जतन का जमाना चल पड़ा है. फिर भी संवेदनशील समझदार अभिभावक यह जरूर सीख देते हैं कि जल बचाओ नहीं तो भविष्य में प्यासे मरोगे. यह बात स्कूलों में भी पढ़ाई जाने लगी है. पानी बचाने के निर्झर नीर का महत्व बताया जाने  लगा है. फिर भी न जल बचता है न ही प्यास बूझती है. 

उदारीकरण के बाजार में प्रकृति के जल को गंदा साबित कर मोटी कमाई जरिया बना लिया गया. प्रकृति से अमीर गरीब को बराबर की मात्रा में मिलने वाला निर्झर नीर पर भी कारपोरेट कंपनियों का अघोषित डाका पड़ गया. शुद्ध पेजयल के नाम पर भले ही 12-15  रुपये लीटर की एक बोतल पानी किसी की आत्मा तृप्त करती हो, लेकिन कभी उसके जेहन में यह बात नहीं आती होगी कि प्रकृति की ओर से मुफ्त में मिलने वाला यही पानी देश के किसी इलाके में कम पड़ रहा है तो वहां खून की प्यास जाग उठती है. 

जल संकट को भांप कर विशेषज्ञों ने भविष्य वाणी की कि विश्व में अगला युद्ध पानी के लिए होगा. भारत के कई पड़ोसी राज्य जल बंटवारे को लेकर हमेशा ही टकराते रहे हैं. मथुरा और मुंगेली की खूनी घटनाएं भविष्य में पानी को लेकर खतरनाक हालात के संकेत दे रहे हैं. विशेषज्ञ कहते हैं कि पानी का असली संकट भरपूर मात्रा में पानी नहीं होना है. बिना तर्क करने वालों के दिमाग में यह बात भले ही आसानी से उतर आती होगी, लेकिन मानसून के बदरा को देखिये, भले ही कही कम बरसे या ज्यादा, कहीं भी पूरी शिद्दत से बूंद बूंद बचाने का प्रयास नहीं चलता है.

सरकार रेल वार्टर हार्वेटिंग की योजना बना कर इस प्रोत्साहन के नाम पर सहयोग की भी बात करती है. लेकिन इसकी अनिवार्यता की बात कभी नहीं होती. नहीं तो वर्षा पर ही केंद्रीत जल संरक्षण से इतना पानी मिल जाए कि उसी पानी को बेच कर मोटी कमाई करने वाली कॉरपोरेट कंपनियां भाग खड़ी हों. 

जल को संरक्षित करके रखने वाले जल पुरखे- कुंआ, तालाश, बाबड़ी की जगह लोगों ने हथिया कर अपने उपयोग में ले लिया. नदियां को सिकुड़ने पर मजबूर कर दिया गया. इन्हें बचाने के नाम पर करोड़ों के फंड पानी की तरह जरूर बह चुके हैं. देश की जल नीति न तो पारंपरिक जल पुरखों को बचाने में खरी उतरी और न ही बारिश के पानी को बचा पाने में कारगर साबित हुई. 

हाल ही में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक 1982 में बनी देश की जल नीति को तो करीब दो दशक तक समीक्षा की जहमत नहीं उठाई गई. बाद में  भी जो जल नीति बनी वह भी खरी न उतर कर खोखली साबित हुई. हालांकि देश की पानी की नीति में पीने के पानी को प्राथमिकता में रखा गया है, फिर खेतों में फसलों की सिंचाई, व अन्य उपयोग को प्राथमिकता में रखा गया है. लेकिन जरा हालात देखिए. न पीने के भरपूर पानी है और न ही सिंचाई के लिए नहरों में भरपूर प्रवाह. आश्चर्य तो तब होता है, जब जहां आसपास पानी के भरपूर स्रोत होने के बाद भी लोगों की प्यास अधूरी रहती है. पानी के लिए दूर-दूर तक भटकना पड़ता है. विकास की बयान बहाने के दावे करने वाले गुजरात के वडोदरा जिले की तिलकावाडा तालुक के दो गांवों में पानी की इतनी कमी है कि लोग अपनी बेटियों का ब्याह उस गांव में नहीं करते हैं. 

संस्थाओं की रिपोर्ट कहती है कि गंगा के उद्गम वाले राज्य उत्तराखंड में करीब आठ हजार गांवों में पानी का संकट गंभीर है. हिमाचल के गांवों में भले ही भरपूर पानी मिले या न मिले, लेकिन वहां के एक बांध का पानी दिल्ली की प्यास बुझाने चली आती है. मरुअस्थल वाले राजस्थान में पानी के स्रोत बहुत कम है, लेकिन वहां के संकट और हिमलाय की तराई वाले गांवों से लेकर राजधानी दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में इसकी समस्या समान है. चाहे देश हो या राज्य, शहर हो या गलीका आदमी, अपनी प्यास के लिए आत्म निर्भर नहीं है. उन्हें तो बस पानी चाहिए. इसके लिए लड़क-झगड़ना मंजूर है.
 केवल यह कह कर जल संकट से उबरने की जिम्मेदारी से नहीं बचा जा सकात है कि बढ़ती आवादी के कारण नदी, तालाब, कुओं का समुचित संरक्षण नहीं हो पा रहा है. जब तक दृढ़ इच्छा शक्ति से जल संरक्षण के पारंपरिक पुरखों के   संरक्षण और उसके संबद्धन की जिम्मेदारी सरकार के साथ हर आदमी नहीं समझेगा, अपने हिस्से के पानी बचाने का प्रयास नहीं करेगा, यह प्यास खूनी होती जाएगी.

sanjay-swadeshसंजय स्वदेश हिंदी पत्रिका समाचार विस्फोट के संपादक हैं. 

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