अरविंद कुमार सेन जनसत्ता 26 अप्रैल, 2012: लंबे समय बाद भारत-पाकिस्तान के बीच कारोबार की खबरें आई हैं। नई दिल्ली में पाकिस्तानी वस्तुओं की प्रदर्शनी हुई, वहीं अटारी सीमा पर कारोबारियों के लिए नई सुविधाएं शुरू की गई हैं। पाकिस्तान ने भारत को सबसे ज्यादा तरजीह वाले देश (एमएफन) का दर्जा दिया तो भारत ने बदले में पाकिस्तान की कंपनियों को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति दे दी है। घरेलू स्तर पर कट्टरपंथियों के तमाम विरोध के बावजूद अपनी निजी यात्रा पर भारत आए पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात की और सुखद बात यह है कि दोनों नेताओं ने कारोबारी संबंध सुधारने पर जोर दिया। लाख टके का सवाल उठता है क्या बेहतर कारोबारी रिश्तों के जरिए भारत और पाकिस्तान के बीच अमन बहाली हो सकती है। कश्मीर और आतंकवाद के मसले पर भारत-पाकिस्तान पहले से बातचीत कर रहे हैं और आने वाले कई बरसों तक यह काम किया जा सकता है। मगर भारत-चीन संबंधों की तर्ज पर कारोबार और सियासत को अलग रख कर द्विपक्षीय संबंधों में सुधार लाया जा सकता है। बेशक भारत और चीन की दूरियां खत्म नहीं हुई हैं, लेकिन दोनों देशों के बीच जमी कड़वाहट की पुरानी बर्फ पिघल चुकी है। भारत-चीन के बीच कारोबार लगातार बढ़ रहा है और छिटपुट नोकझोंक को अलग रखें तो तस्वीर यही है कि व्यापक कारोबारी हित होने के कारण चीन, भारत के साथ जंग लड़ने का जोखिम नहीं उठा सकता। साझा संस्कृति और आबोहवा के कारण भारत-पाकिस्तान के बीच व्यापार की बड़ी संभावनाएं हैं, लिहाजा कारोबार कूटनीति का यह मंत्र द्विपक्षीय संबंध सुधारने के मामले में बेहद कारगर साबित हो सकता है। अहम बात यह है कि भारत-पाकिस्तान के कारोबारी संबंधों को पटरी पर लाने का यह सबसे माकूल वक्तहै। पाकिस्तानी राजनीति की दिशा तय करने वाले तीनों अ (अल्लाह, अमेरिका और आर्मी) अब तक के सबसे कमजोर विकेट पर खड़े हैं। जिहाद का मुलम्मा चढ़ा कर भारत को आतंकवाद निर्यात करने की नीति ने पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को तबाही के कगार पर खड़ा कर दिया है। विदेशी निवेश तो दूर की बात है, बिगड़ते आंतरिक हालात के चलते खुद पाकिस्तानी निवेशक देश छोड़ कर भाग रहे हैं। तीसरी दुनिया के अधिकतर देशों की अर्थव्यवस्थाएं कुलांचे भर रही हैं, वहीं 2011 में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था ने महज 2.4 फीसद की विकास दर हासिल की है। निर्यात के नाम पर पाकिस्तान के पास कपास के अलावा कुछ नहीं है और भारत और चीन में बढ़े कपास उत्पादन के कारण इस मोर्चे पर भी मायूसी है। बढ़ते कर्ज और खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के कारण अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक पाकिस्तान को कई मर्तबा चेतावनी दे चुके हैं। पाकिस्तान की वाणिज्यिक राजधानी कहा जाने वाला कराची शहर कारोबार के बजाय बम धमाकों के कारण चर्चा में रहता है। गरीबी में सालाना दस फीसद की दर से बढ़ोतरी हो रही है और बेरोजगार युवकों के हाथ में कट्टरपंथी गोला-बारूद थमा रहे हैं। पाकिस्तान अपने जीडीपी का पांचवां हिस्सा अमेरिका और चीन से दान में पाता रहा है, मगर इस वक्तयह सोता भी सूख गया है। वैश्विक अर्थव्यवस्था दोहरी मंदी की आशंकाओं से घिरी हुई है। निर्यात पर टिकी चीनी अर्थव्यवस्था नकारात्मक खबरों से भरी पड़ी है। यूरोप के गहराते कर्ज संकट के बीच चीन की कंपनियां राहत पैकेज मांग रही हैं, इसलिए उसने पाकिस्तान को खैरात देना बंद कर दिया है। अमेरिका दो मकसद पूरे करने के लिए पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देता रहा है। पहला, 'आतंकवाद से लड़ने के लिए' और दूसरा, 'दक्षिण एशिया में भारत को संतुलित करने के लिए।' नाटो सेनाओं के रसद आपूर्ति के वाहनों पर लगातार हो रहे हमलों, पाकिस्तान में पनप रहे असंतोष और एबटाबाद प्रकरण के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान को डेढ़ अरब डॉलर की सहायता राशि देने से मना कर दिया है। दूसरी तरफ, भारत की उभरती अर्थव्यवस्था का फायदा उठाने के लिए अमेरिका लगातार करीब आ रहा है और बीते दो दशक में दोनों देशों के आपसी संबंध नाटकीय तरीके से सुधरे हैं। अमेरिका की विदेश नीति में पाकिस्तान से बढ़ती दूरी और भारत के पक्ष में आ रहे झुकाव को साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। मुंबई हमले के आरोपी जमात-उद-दावा के प्रमुख हाफिज सईद पर घोषित किए गए एक करोड़ डॉलर के इनाम से कुछ हासिल नहीं होने वाला है, लेकिन साधारण आदमी भी जानता है कि इस कागजी कवायद से अमेरिकी कंधों पर बंदूक रख कर आतंकवाद के खिलाफ लड़ने का मंसूबा रखने वाले भारतीय नीति-निर्माताओं को खुश करने की कोशिश की गई है। भारत की अर्थव्यवस्था के बढ़ते आकार के साथ ही इस्लामाबाद में अमेरिका की दिलचस्पी कम होगी और नई दिल्ली में बढ़ती जाएगी। पाकिस्तान की सियासत खासकर विदेश नीति पर एकाधिकार रखने वाली सेना भी साख के संकट से गुजर रही है। उसामा बिन लादेन के खिलाफ अमेरिकी अभियान ने पाकिस्तानी सेना की कब्र खोदने का काम किया है। आलम यह है कि जनता में बढ़ती नाराजगी के कारण अर्थव्यवस्था की बदहाली और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की कठपुतली सरकार को छूने की हिम्मत भी पाकिस्तानी सेना में नहीं है, जबकि इससे पहले सेना ने किसी भी सरकार को पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मीडिया और न्यायिक तंत्र की निगाह के साथ पाकिस्तान में सेना और सरकार के बीच शक्ति संतुलन नए सिरे से परिभाषित हो रहा है। पाकिस्तान के लोकतंत्र को समर्थन देकर कारोबारी संबंध सुधारने का यह मौका भारत को नहीं छोड़ना चाहिए। यह कड़वी हकीकत है कि पाकिस्तान के साथ बेहतर संबंधों के बगैर वैश्विक मंच पर भारत की दावेदारी सवालों के घेरे में रहेगी। देशों के बीच द्विपक्षीय कारोबार की संभावनाएं पता लगाने के लिए इस्तेमाल होने वाले ग्रेविटी मॉडल के आधार पर अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि भारत और पाकिस्तान के बीच पचास अरब डॉलर का कारोबार होना चाहिए था। विडंबना देखिए, दोनों देशों के कारोबार की सुई 2.7 अरब डॉलर की अदनी-सी रकम पर अटकी हुई है। कड़वे संबंधों के कारण भारत-पाकिस्तान के बीच होने वाला कारोबार अप्रत्यक्ष तरीके से होता है और दोनों देशों की अर्थव्यवस्था के साथ ही कारोबारियों और उपभोक्ताओं को इसका खमियाजा भुगतना पड़ता है। अप्रत्यक्ष कारोबार (थर्ड पार्टी रूट) का मतलब यह है कि भारत-पाकिस्तान में बिकने वाली वस्तुएं तीसरे देश के जरिए इन देशों के बाजारों में पहुंचती हैं। मसलन, भारत के दवा, इस्पात, आॅटोमोबाइलऔर इंजीनियरी उत्पादों की पाकिस्तान में भारी मांग है, लेकिन ये उत्पाद दुबई और सिंगापुर, यहां तक कि जर्मनी के रास्ते पाकिस्तान में पहुंचाए जाते हैं। यही बात पाकिस्तान से भारत में आयात की जाने वाली वस्तुओं पर लागू होती है। मुनाफे में तीसरे पक्ष की हिस्सेदारी के कारण पाकिस्तान पहुंचते-पहुंचते भारतीय उत्पाद बेहद महंगे होने के कारण बाजार से बाहर हो जाते हैं। पाकिस्तान सरकार करों के रूप में होने वाली आमदनी से महरूम रह जाती है, वहीं आम जनता की भारतीय उत्पाद खरीदने की हसरत पूरी नहीं हो पाती है। भारत और पाकिस्तान के कुल बाहरी कारोबार का महज एक फीसद व्यापार ही दोनों देशों के बीच होता है, जबकि भौगोलिक और सांस्कृतिक नजदीकी को देखते हुए यह आंकड़ा साठ फीसद होना चाहिए। फिलहाल भारत और पाकिस्तान ने अपने यहां एक दूसरे केबैंकिंग सुविधाएं शुरू करने पर रोक लगा रखी है। ऐसे में दोनों देशों के बीच होने वाले कारोबार का भुगतान ईरान में स्थित एशियन क्लियरिंग यूनियन (एसीयू) की लंबी प्रणाली के मार्फत किया जाता है और इसमें वक्तजाया होने के साथ ही हस्तांतरण शुल्क के रूप में कारोबारियों पर आर्थिक बोझ भी बढ़ जाता है। दोनों देशों को जोड़ने वाली लचर परिवहन सुविधाएं और कारोबारियों को वीजा मिलने में होने वाली देरी कोढ़ में खाज का काम करती है। भारत और पाकिस्तान ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया के बीच मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) वक्तकी मांग है। दुनिया के बाकी मुल्कों में जीडीपी में निर्यात का औसत अट्ठाईस फीसद है, वहीं भारत और श्रीलंका में अठारह फीसद और पाकिस्तान में महज बारह फीसद। अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि एफटीए होने से देशों के बीच व्यापार, निवेश, रोजगार और लोगों की आमदनी बढ़ती है। कारोबार बढ़ने से लोगों के हित एक दूसरे के देश की प्रगति के साथ जुड़ जाते हैं, ऐसे में अमन के दुश्मन कट्टरपंथियों की राह मुश्किल हो जाती है। अमेरिका, कनाडा और मैक्सिको के बीच मुक्त व्यापार समझौता (नाफ्टा) होने के सात बरस के भीतर ही आपसी कारोबार तिगुना हो गया है और हरेक देश में मजदूरी की दर और रोजगार में इजाफा हुआ है। भारत की अर्थव्यवस्था पाकिस्तान के मुकाबले नौ गुना ज्यादा बड़ी है, इसलिए दक्षिण एशिया में कारोबारी पहल से अमन लाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी भी भारत की ही है। भारत में दक्षिण एशिया की पचहत्तर फीसद आबादी रहती है और दक्षिण एशिया की बयासी फीसद जीडीपी पर भारत का नियंत्रण है। दक्षिण एशिया में दुनिया की चौबीस फीसद आबादी रहती है, लेकिन इस आबादी का आधा हिस्सा दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब है। आतंकवाद का कहर अलग से है। फिलवक्तदक्षिण एशिया अपने इतिहास में निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। पाकिस्तान में लोकतंत्र का पौधा पनप रहा है, श्रीलंका सत्ताईस साल पुराने गृहयुद्ध से उबर चुका है, बांग्लादेश कट्टरपंथियों की पकड़ से बाहर लोकतांत्रिक हवा में सांस ले रहा है और नेपाल भी कमोबेश शांति की राह पर है। लिहाजा दक्षिण एशिया में मुक्तव्यापार समझौते के लिए इससे अच्छा वक्त नहीं हो सकता। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक हलकों में इक्कीसवीं सदी को तीसरी दुनिया के उदय और विकास का दौर कहा जा रहा है। अमेरिका और यूरोप के आर्थिक संकट के बाद दक्षिण एशिया के पास वैश्विक स्तर पर शक्तिशाली क्षेत्रीय ताकत के रूप में उभरने का मौका है। भारत इस अभियान की अगुआई करने में सक्षम है और इसके लिए कारोबार अहम हथियार है। भारत-पाकिस्तान के बीच चल रही कारोबारी मंत्रणा के बीच पिछले दिनों पाकिस्तान ने अपने डेढ़ लाख सैनिक भारतीय सीमा से हटा कर अफगानिस्तान से लगती सीमा पर तैनात कर दिए। यह विश्वास बहाली का ही फायदा है कि भारत ने इस अवसर का कोई कूटनीतिक फायदा उठाने की कोशिश नहीं की। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लंबे समय से पाकिस्तान के साथ बेहतर संबंधों के हिमायती और दक्षिण एशिया के बीच एफटीए के पक्षधर रहे हैं। दिवालिया होने के कगार पर खड़ी पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की बदहाली का खमियाजा भारत और आखिरकार पूरे दक्षिण एशिया को भुगतना पड़ेगा, इसलिए खुशहाल और स्थिर पाकिस्तान हमारे हित में है। कश्मीर जैसे विवादित मुद्दों को परे रख कर भारत को इस नाजुक मौके का इस्तेमाल पाकिस्तान के साथ संबंध सुधार कर दक्षिण एशिया में शांति के लिए करना चाहिए। शांति और विकास के पथ पर अग्रसर दक्षिण एशिया ही वैश्विक मंच पर भारत का उदय सुनिश्चित करेगा। |
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