नरेश गोस्वामी जनसत्ता 3 मार्च 2012: भारतीय चुनाव प्रणाली के अध्येता बताते हैं कि हमारे यहां आज तक कोई केंद्र या राज्य सरकार ऐसी नहीं बनी जिसे कुल मतदान का बहुमत हासिल हुआ हो। अक्सर तो सरकार बनाने वाले दल या गठजोड़ का वोट प्रतिशत इतना कम रहता है कि अगर उसे परीक्षा में दिए जाने वाले अंकों के हिसाब से आंका जाए तो अधिकतर पार्टियां चुनावों में तृतीय श्रेणी में पास हो पाती हैं। लोग रोजमर्रा के अनुभवों से जानते हैं कि इतने कम अंक लेकर छात्रों को अच्छी नौकरी तो क्या अच्छे संस्थान में दाखिले तक के लाले पड़ जाते हैं। जबकि राजनीतिक दल इसी प्रदर्शन के बूते सरकार बना कर देश की समस्त संसाधन-संपदा के नियंत्रक बन बैठते हैं। यह हमारी राजनीति का ऐसा अंधेरा है जिसमें न्याय, बराबरी और खुशहाल समाज बनाने की सारी संभावनाएं लापता हो जाती हैं। सत्ता की यह एक ऐसी संरचना है जो धीरे-धीरे अल्पमत के चौतरफा वर्चस्व के रूप में रूढ़ होती जा रही है। देश की आजादी के तुरंत बाद जड़ जमा लेने वाली यह अल्पमत संरचना पिछले बीस-तीस बरसों में पहले से ज्यादा स्वेच्छाचारी होती गई है। शिक्षा का सबसे पहले, सबसे ज्यादा और आखिर तक इसी अल्पमत समूह ने लाभ उठाया। सरकारी स्कूलों की सस्ती शिक्षा पाकर हर तरह की नौकरियों पर कब्जा जमाया। शिक्षित और सबल होने के कारण सरकारी योजनाओं में सेंध लगाई। अपने परिवार को पीढ़ियों के लिए सुरक्षित किया, फिर जाति और अंतत: इलाके के लिए कोई ऐसा काम कर दिखाया जो उसके आगामी राजनीतिक जीवन के लिए एक तरह का निवेश बन गया। नौवें दशक के आरंभ में जब इस अल्पमत को लगा कि अब सरकारी ढांचे में कुछ भी खास नहीं बचा जो उसकी कामनाओं और सपनों को पूरा कर सके तो वह अर्थव्यवस्था के निजीकरण के पक्ष में माहौल बनाने लगा। और इस बीच संचित की गई राजनीतिक-सामाजिक पूंजी के दम पर उसने उन सारे क्षेत्रों को व्यवसाय में बदल दिया जो कभी राज्य की जिम्मेदारी हुआ करते थे। उसे शिक्षा में व्यवसाय की उम्मीद दिखी तो वह अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में शिक्षण संस्थान खोलने लगा। इन संस्थानों के बारे में दिलचस्प बात यह है कि उनमें शायद ही कोई ऐसा संस्थान हो जिसके नाम में एक बार ग्लोबल या इंटरनेशनल न आता हो। उनकी भव्यता देख कर यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं होता कि उनके निर्माण में लगा पैसा किसी व्यक्ति का निजी निवेश नहीं हो सकता। शासन की कार्यप्रणाली को समझने वाले लोग जानते हैं कि यह पैसा या तो बैंकों का होता है या फिर रसूखदार और ताकतवर लोगों के आपसी नेटवर्क का नतीजा होता है। शिक्षा को उद्योग बना देने वाले इस अल्पमत ने अब खेती की जमीन को रियल इस्टेट के कारोबार में बदल दिया है। सत्ता में होने के कारण उस पर किसी का नियंत्रण नहीं होता। इसीलिए वह किसी भी कानून और नियम को अपने हित में इस्तेमाल कर लेता है। उसे लगता है कि अब शहरों का विकास होना चाहिए तो खेती की जमीन पर आवासीय परिसर उगने लगते हैं। यह अल्पमत जब अर्थशास्त्रियों, योजनाकारों और नीति-निर्माताओं की शक्ल में सामने आता है तो वृद्धि दर को विकास और प्रगति का पर्याय बना देता है। गजब यह कि यह सारा उपक्रम जनता के नाम पर किया जाता है। और दुहाई यह दी जाती है कि हमें जनता ने चुना है। जबकि मतदान करते ही जनता उस प्रक्रिया से कट जाती है जिसके तहत सरकार बनाई जाती है। उसकी इस बारे में कोई भूमिका नहीं होती कि सरकार कैसे-कैसे बनाई गई है। उसमें किनका हित साधा गया है। जनता को मीडिया के जरिए बेशक यह खबर मिल जाती हो कि सरकार बनाने में क्या-क्या समझौते किए गए हैं, किन औद्योगिक गुटों और सत्ता-प्रबंधकों की सहायता ली गई है। लेकिन वह सत्ता की इस बंदरबांट को नियंत्रित करने या रोकने की स्थिति में नहीं रह जाती। सरकार के गठन के मामले में इसे लगभग स्थायी अनुभव माना जा सकता है कि उसमें अक्सर ऐसे लोगों की भूमिका निर्णायक होती है जो कभी जनता के सामने नहीं आते और जिनके बारे में आम नागरिकों को बहुत देर तक पता नहीं चलता कि वे कौन हैं और किस आधार पर इतने महत्त्वपूर्ण हो गए हैं। विडंबना यह है कि सत्ता की इस अल्पमत संरचना को समझने और उसे प्रश्नांकित करने का काम स्थायी रूप से नहीं किया जाता। और इस अनुभवगत तथ्य पर भी ध्यान नहीं दिया जाता कि असल में सरकार और उसके शासकीय ढांचे की मार्फत वही जन-जीवन में सामूहिक वंचना और दुख का कारण बनी बैठी है। यह जंजाल इतना विराट है कि उसमें आम नागरिक को यह अहसास ही नहीं होता कि अगर यह संरचना ध्वस्त कर दी जाए तो उसका जीवन कई गुना बेहतर हो सकता है। सरकार की जन-कल्याण योजनाओं के जरिए इस सच्चाई को बखूबी समझा जा सकता है कि यह अल्पमत जनमत का कितना सम्मान करता है। गौर करें कि जब ऐसी कोई योजना तैयार की जाती है तो जनता को उसकी प्रक्रिया और औचित्य से अवगत नहीं कराया जाता। आम नागरिक को कभी पता नहीं चलता कि इन योजनाओं को कौन तैयार करता है। लेकिन यहां यह अहम बात जेहन में रहनी चाहिए कि इस अल्पमत समूह के सहोदर लोकवृत्त, शैक्षिक संस्थाओं और मीडिया में भी होते हैं जो किसी खास विचार और विमर्श को चर्चा में लाकर उसके इच्छित निष्कर्षों के इर्दगिर्द सहमति बनाने का काम करते हैं। ऐसे में चुनावों के जरिए सत्ता में आए नेतृत्व से यह सवाल क्यों न पूछा जाए कि चुनावी प्रक्रिया से निकले जिस परिणाम को वह जनादेश कहता है, उसकी वैधता क्या है और जब वह सरकार के रूप में ऐसे बडेÞ फैसले करता है जिनसे करोड़ों लोगों का जीवन, उनका वर्तमान और भविष्य तय होता है तो निर्णय की उस प्रक्रिया में जनता की हैसियत क्या होती है। एक बार नौवें दशक को याद करें, जब मनमोहन सिंह (जो तब वित्तमंत्री थे) के नेतृत्व में आर्थिक सुधारों के नाम पर सत्ता के अल्पमत को देश की समस्त संपदा सौंपने का फैसला लिया गया था। क्या उस समय इन सुधारों की जरूरत और औचित्य को लेकर सरकार वाकई जनता के बीच गई थी? सच तो यह है कि जन-जीवन को आमूल बदल देने वाले उस निर्णय पर जिस तरह की भाषा और जटिल सूत्रों में बातें की गई थीं उसे लोग न तब समझ पाए थे, न आज समझते हैं। इसलिए लोकतंत्र के तलबगारों को खुद से यह सवाल आगे लगातार पूछना पडेÞगा कि क्या सिर्फ चुनाव हो जाने और सरकार बन जाने से जनता का सबलीकरण हो जाता है? असल में, पिछले दो दशक के दौरान लोकतंत्र की दूसरी लहर का जो हश्र हुआ है उसे देखते हुए यह पड़ताल और जरूरी हो गई है। लोकतंत्र की इस दूसरी लहर में मंडल आयोग के बाद राजनीति में उन जातियों का प्रवेश एक ऐतिहासिक घटना थी जो लोकतंत्र की पहली लहर में सत्ता से वंचित रह गए थे। यह बात सब जानते हैं कि इलाकाई राजनीति पिछले बीस-पचीस बरसों में इन्हीं पिछड़ी और दलित जातियों से तय हो रही है। और अब हालत यह हो चुकी है कि केंद्र सरकार तक उनकी सहायता या समर्थन के बिना डावांडोल हो जाती है। इन जातियों का नेतृत्व जो लोग कर रहे थे उनके गंवई तौर-तरीकों को देख कर यह उम्मीद जगी थी कि शायद वे देश की प्राथमिकताएं बदलने का प्रयास करेंगे या कि उनकी देशज जीवन-शैली और खेती-किसानी की पृष्ठभूमि अर्थतंत्र के उस ढांचे को बदल देगी जिसमें देश का अल्पमत समूह अपनी ही जनता का शोषण करता रहा है। लेकिन इन्हीं बरसों में मुक्त बाजार ने समाज में अमीरी, अनियंत्रित उपभोग और आम लोगों को साधनहीन करने की जो प्रक्रिया शुरू की, उसमें वह पिछड़ा और दलित नेतृत्व भी साझीदार हो गया जो मूलत: प्रतिरोध की राजनीति से आया था और जिनके समर्थकों ने रोजमर्रा के जीवन में सत्ता के ऐश्वर्य और उसकी अराजकता के नतीजे भुगते थे। आज इन राजनीतिक दलों के पास भी अपने-अपने पूंजीपति और सत्ता के प्रबंधक हो गए हैं। मायावती पहचान और सोशल इंजीनियरिंग की जिस राजनीति को साध कर सत्ता में आर्इं और जिसे लोकतंत्र के सिद्धांतकारों ने इस बात की मिसाल बना कर प्रचारित किया कि लोकतंत्र में बिना रक्तपात के भी कितना बड़ा सामाजिक बदलाव लाया जा सकता है, उसी दलित मुख्यमंत्री के काल में जमीन के नामालूम कारोबारी धन्नासेठ बन गए। नोएडा में फार्मूला वन रेस जैसे फूहड़ तमाशे का आयोजन कराया गया। इसी तरह धरतीपुत्र कहे जाने वाले मुलायम सिंह यादव की पार्टी तो एक समय जैसे फिल्मी सितारों और अमर सिंह जैसे लोगों के कब्जे में चली गई थी। आखिर ऐसा क्या हुआ होगा कि जो पार्टी अपने जातिगत आधार के कारण मजबूत बनी, चुनाव लड़ी और सरकार बनाने में सक्षम हुई, उसे ऐसे सितारों और धंधेबाजों की जरूरत आ पड़ी। दरअसल, यहीं से पता चलता है कि जनता सिर्फ चुनावी राजनीति में भाग लेती है। जबकि इसके परे संसाधनों पर कब्जे की एक और राजनीति है, जहां देश-समाज का अल्पमत जन-दबावों से सुरक्षित रह कर अपने हितों का गुणा-भाग करता रहता है। एक लंबे समय तक इस संरचना पर पारंपरिक अभिजनों या अगड़ी जातियों का कब्जा रहा, लेकिन इधर के वर्षों में इसमें पिछड़ा और दलित नेतृत्व भी शामिल हो गया है। सच तो यह है कि इसमें वह हर राजनीतिक समूह शामिल हो सकता है जो बाजार का साझीदार बनने को तैयार है। गहराई से देखें तो अल्पमत का वर्चस्व इसलिए घटित हुआ है, क्योंकि हमारी शासन-व्यवस्था में संसाधनों का प्रवाह केंद्र की तरफ जाता है। हमारी व्यवस्था की बनावट ही ऐसी है कि अंतत: देश-समाज की संपदा का नियंत्रण और उसका बंटवारा इसी अल्पमत राजनीतिक सत्ता के हाथों में चला जाता है। संसाधनों पर इस एकछत्र नियंत्रण का परिणाम यह होता है कि सरकार सर्वशक्तिमान बन जाती है और जनता निरीह हो जाती है। इस पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार कांग्रेस की है या भाजपा की। उसका चरित्र ही ऐसा है कि उसमें जो भी प्रवेश करेगा उसे उसकी शर्तों के अनुसार ही काम करना होगा। जाहिर है कि ऐसे में चाहे मायावती हों या मुलायम सिंह, दोनों को या तो अल्पमत की ही राजनीति करनी होगी या फिर राजनीति का कोई और विकल्प तैयार करना होगा। बहरहाल, यह अकारण नहीं है कि बरसों से जड़ता का रूपक बने उत्तर प्रदेश के चुनावों में मुख्यधारा के सारे दल एक दूसरे की खामियां तो गिना रहे हैं, लेकिन कोई भी यह ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि उसके सत्ता में आने से जनता का भला कैसे हो जाएगा। जो अल्पमत के वर्चस्व पर टिकी इसी राजनीति का हिस्सा है वह उसकी अपूर्णताओं, सीमाओं और उसमें निहित अन्याय पर कैसे उंगली उठा सकता है! |
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