BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Sunday, April 26, 2015

जैज़ में बेक़रारी है, वह बेचैन है, थिर नहीं रहता और कभी रहेगा भी नहीं

नीलाभ अश्क जी मंगलेश डबराल और वीरेन डंगवाल के खास दोस्त रहे हैं और इसी सिलसिले में उनसे इलाहाबाद में 1979 में परिचय हुआ।वे बेहतरीन कवि रहे हैं।लेकिन कला माध्यमों के बारे में उनकी समझ का मैं शुरु से कायल रहा हूं।अपने ब्लाग नीलाभ का मोर्चा में इसी नाम से उन्होंने जैज पर एक लंबा आलेख लिखा है,जो आधुनिक संगीत और समता के लिए अश्वेतों के निरंतर संघर्ष के साथ साथ आधुनिक जीवन में बदलाव की पूरी प्रक्रिया को समझने में मददगार है।नीलाभ जी की दृष्टि सामाजािक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में कला माध्यमों की पड़ताल करने में प्रखर है।हमें ताज्जुब होता है कि वे इतने कम क्यों लिखते हैं।वे फिल्में बी बना सकते हैं,लेकिन इस सिलसिले में भी मुझे उनसे और सक्रियता की उम्मीद है।
नीलाभ जी से हमने अपने ब्लागों में इस आलेख को पुनः प्रकाशित करने की इजाजत मांगी थी।उन्होने यह इजाजत दे दी है।
  • आलेख सचमुच लंबा है।लेकिन हम इसे हमारी समझ बेहतर बनाने के मकसद से सिलसिलेवार दोबारा प्रकाशित करेंगे।
  • पाठकों से निवेदन है कि वे कृपया इस आलेख को सिलसिलेवार पढ़े।
चट्टानी जीवन का संगीत 

जैज़ पर एक लम्बे आलेख की तीसरी कड़ी

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जैज़ में बेक़रारी है, वह बेचैन है, थिर नहीं रहता 
और कभी रहेगा भी नहीं 
-- जे.जे.जौनसन, ट्रौम्बोन वादक


जैज़ के स्रोत भले ही तीन-चार सौ साल पहले अफ़्रीका से ग़ुलाम बना कर लाये गये लोगों के गाने-बजाने में खोये हुए हों, उसे अपना रूप लिये भी सौ साल से ज़्यादा हो चले हैं और किसी विशाल बरगद की तरह उसकी डालें और टहनियां और जड़ें इतनी अलग-अलग सूरतें अख़्तियार कर चुकी हैं कि उसकी परिभाषा देना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. मज़े की बात तो यह है कि आज अपनी एक ख़ास जगह हासिल करने और कई मानी में लगभग शास्त्र के दर्जे तक पहुंचने के बावजूद इस बात पर भारी-भरकम बहसें चलती रही हैं कि यह शब्द आया कहां से और संगीत की इस शैली पर लागू कैसे हुआ. शुरू-शुरू में इसे जैज़ कहा भी नहीं जाता था. बल्कि अमरीका के पश्चिमी तट के इलाक़ों में इस शब्द का इस्तेमाल बहुत करके खेलों के सिलसिले में होता था और इसके बहुत-से अर्थों में संगीत की तो कोई जगह भी नहीं थी. यह तो १९१५ के आस-पास हुआ कि संगीत समीक्षकों ने इसे "जैज़" कहना शुरू किया. जानकारों ने इसके ढेरों स्रोत खोज निकाले हैं, पर सब इस बात पर सहमत हैं कि जड़ इस शब्द की कहीं उतरी हुई हो, इस संगीत में चुस्ती-फुर्ती और दम-ख़म लामुहाला तौर पर मौजूद रहता है. ऐसी सिफ़त जो सुनने वाले को थिरकने पर मजबूर कर दे और जोश से भर दे.
जैज़ के सिलसिले में बहस सिर्फ़ उसके नाम को ले कर ही नहीं चली, बल्कि इस बात को भी ले कर चली कि इस संगीत की परिभाषा क्या होगी. तमाम तरह की कोशिशें की गयी हैं. कभी उसे पश्चिमी संगीत-परम्परा के सन्दर्भ में परिभाषित करने का प्रयास हुआ है तो कभी अफ़्रीकी परम्परा के सन्दर्भ में. मगर सभी समीक्षकों को ये कोशिशें सन्तोषजनक नहीं लगीं. ऐसी हालत में इस समस्या को एक अलग नज़रिये से सुलझाने की कोशिश की गयी, कहा गया कि यह संगीत का ऐसा कला-रूप है जो अमरीका में अफ़्रीकी मूल के लोगों और यूरोपीय संगीत के सम्पर्क और टकराव से पैदा हुआ. इस टकराव के नतीजे के तौर पर संगीत के सारे तत्वों में तब्दीली आयी और इन दोनों समृद्ध परम्पराओं के मेल से तीसरी और उतनी ही समृद्ध परम्परा पैदा हुई और परवान चढ़ी. महज़ लय, ताल और सुरों की अदायगी ही नहीं बदली, बल्कि संगीत की इस नयी शैली में स्वत:स्फूर्त प्रयास, आशु रचना, तात्कालिक प्रेरणा, जोश और गायक-वादक की व्यक्तिगत प्रकृति का योगदान महत्वपूर्ण हो उठा; साथ ही महत्वपूर्ण हो उठी हर संगीतकार-विशेष की अपनी ख़ास अदा और उस अदा के चलते धुन या राग में प्रयोगशीलता.
पश्चिमी शास्त्रीय संगीत "लिखा जाता" है. संगीत की रचना के बाद उसकी स्वर-लिपि तैयार की जाती है और रचनाकार के अलावा आगे आने आने वाले गायक और वादक उसे उसकी तैयार-शुदा स्वर-लिपि के अनुसार ही गाते-बजाते हैं. जैसा कि ड्यूक एलिंग्टन के मित्र पियानोवादक अर्ल हाइन्स ने एक बार बताया था -- "...जब मैं शास्त्रीय संगीत बजा रहा था, मैं जो पढ़ रहा था, उस से अलग हटने की हिम्मत नहीं कर सकता था. अगर आपने ध्यान दिया हो सिम्फ़नी बजाने वाले वे सारे संगीतकार उन शास्त्रीय धुनों को बरसों से बजाते आ रहे हैं, लेकिन वे एक सुर की भी तब्दीली नहीं करेंगे, हर बार उन्हें लिखा हुआ संगीत, यानी उसकी स्वर-लिपि दरकार होती है. यही वजह है कि कुछ शास्त्रीय संगीतकारों के लिए जैज़ की अदायगी इतनी मुश्किल होती है." 
अर्ल हाइन्स जिस बात की तरफ़ इशारा कर रहे थे, उसका ताल्लुक़ किसी समूची रचना की अदायगी से था. जैज़ का दक्ष कलाकार किसी धुन या राग को बिलकुल अपने निजी तरीक़े से अदा करेगा, ज़्यादा सम्भावना इसी बात की है कि वह उसी रचना को दूसरी या तीसरी बार बजाते हुए हू-ब-हू पहली बार की तरह न बजाये. सब कुछ कलाकार की अपनी क्षमता, मूड, व्यक्तिगत अनुभव, साथी संगीतकारों की यहां तक कि श्रोताओं की संगत पर निर्भर करता है. और इसका ताल्लुक सिर्फ़ कौशल से नहीं है -- कि उस रोज़ कलाकार अपने "फ़ार्म" पर था या नहीं. कलाकार धुनों, स्वरों के क्रम या लय-ताल को मनमर्ज़ी से बदल सकता है. यूरोपीय शास्त्रीय संगीत बहुत हद तक रचनाकार का माध्यम कहा जाता है, जबकि दूसरी तरफ़ जैज़ की विशेषता ही यह है कि वह सहयोगी सामूहिक प्रयास है -- संगीतकारों की सामूहिक रचनात्मकता, आपसी क्रिया-प्रतिक्रिया और सहयोग पर टिका रहता है. यह प्रयास रचनाकार -- यानी धुन या राग का रचयिता (अगर कोई है ) -- और गायक-वादक के योगदान को बराबर से महत्व देता है. मिसाल के लिए यूरोपीय शास्त्रीय संगीत की कोई रचना, बीठोफ़न की नवीं सिम्फ़नी ही लीजिए, जब किसी वादक द्वारा पेश की जायेगी तो वह उसे ठीक-ठीक वैसे ही पेश करेगा, जैसे बीठोफ़न ने उसे "लिखा है" यानी रचा है; वह उसके एक भी सुर को इधर-उधर नहीं कर सकता. मगर जैज़ में ऐसी बन्दिश नहीं है. वही धुन अलग-अलग गायकों और वादकों की अदायगी में एक नया ही रूप ले सकती है. अब तो रिकौर्डिंग की सुविधा के चलते दो अलग-अलग अदायगियों के अन्तर को लक्षित करना सम्भव हो गया है भले ही वे एक ही कलाकार ने पेश की हों या भिन्न कलाकारों ने; मगर जब यह सुविधा नहीं थी तो अभिनय की तरह जैज़ भी कलात्मक अभिव्यक्ति का बेहद लचीला माध्यम था. अब यही देखिये कि ड्यूक एलिंग्टन की एक रचना "इन अ सेण्टिमेण्ट्ल मूड" को अलग-अलग गायकों और वादकों ने अपने-अपने ख़ास तरीक़े से पेश किया है, जो सिर्फ़ सुन कर ही जाना जा सकता है. 
http://youtu.be/sCQfTNOC5aE (ड्यूक एलिंग्टन और जौन कोल्ट्रेन)

http://youtu.be/1gOij0El_IY(एला फ़िट्ज़जेरल्ड)

http://youtu.be/E_sshOaBqnM (जैंगो राइनहार्ट)

http://youtu.be/qtfLmj-fgsA (सारा वौहन)

http://youtu.be/i2qJuQuDMf8 (जेसिका विलियम्स)

"इन अ सेण्टिमेण्ट्ल मूड" को ड्यूक एलिंग्टन ने १९३५ में डरहम (उत्तरी कैरोलाइना) में रचा था और इसके बोल जैसा कि उन दिनों का रिवाज था, मैनी कुर्ट्ज़ ने तैयार किये थे. जैज़ की कोई रचना कितनी आशु-रचित हो सकती है, "इन अ सेण्टिमेण्ट्ल मूड" इसका बहुत ही मुनासिब उदाहरण है और ख़ुद ड्यूक एलिंग्टन ने इसकी रचना का दिलचस्प क़िस्सा बयान किया है -- "हम ने तम्बाकू के एक बड़े-से गोदाम में आयोजित नृत्य कार्यक्रम में अपने बैण्ड के साथ संगत की थी और कार्यक्रम के बाद उत्तरी कैरोलाइना म्युचुअल इन्श्योरेन्स कम्पनी के एक बड़े अधिकारी ने जो मेरे मित्र भी थे, एक जलसे का बन्दोबस्त किया. मैं वहां पियानो बजा रहा था जब पार्टी में मौजूद दो लड़कियों के साथ हमारे एक और दोस्त का कुछ झगड़ा-सा हो गया. उन्हें शान्त करने के लिए मैंने दोनों लड़कियों को पियानो के दो सिरों पर खड़े रहने के लिए कह कर यह धुन उसी वक़्त वहीं-के-वहीं तैयार की."
"इन अ सेण्टिमेण्ट्ल मूड" को न सिर्फ़ ढेरों जैज़ वादकों ने अपनी-अपनी निजी शैली में पेश किया है, बल्कि कई फ़िल्मों में इस्तेमाल भी किया गया है.
ज़ाहिर है, जो कला-रूप, या हालिया शब्दावली में कहा जाये तो जो रूपंकर-कला, इतनी लचीली हो, उसे ले कर विवाद तो उठेंगे ही और जैज़ शुरू ही से विवादों का अखाड़ा बना रहा है. क्या जैज़ है, क्या नहीं -- इसके बारे में संगीतकारों से ले कर समीक्षकों के बीच गरमा-गरम बहसें चलती रही हैं और अब भी जारी हैं. अब यही देखिये कि कुछ समीक्षक ड्यूक एलिंग्टन की रचनाओं को ही ख़ारिज करते रहे हैं कि ये कुछ भी हों, जैज़ नहीं हैं, और इसके पीछे वे अपने-अपने कारण और तर्क देते रहे हैं; जबकि ड्यूक के साथी अर्ल हाइन्स ने ड्यूक की संगीत रचनाओं की जो बीस एकल प्रस्तुतियां पियानो पर पेश कीं उन्हें कई समीक्षकों ने जैज़ की बेहतरीन मिसालें क़रार दिया. मसला दर असल यह है कि बहुत-से लोग यह नज़रन्दाज़ कर देते हैं कि जैज़ में दूसरे संगीत रूपों और शैलियों से प्रभाव लेने और उन प्रभावों को अपनी प्रकृति में ढाल लेने की अद्भुत क्षमता है और यही जैज़ की ख़ूबी है, यानी जिसका लुब्बे-लुआब ड्यूक एलिंग्टन यह कह कर पेश करते हैं कि "वह सारा संगीतही तो है." 
इसीलिए जैज़ के सिलसिले में एक बात पर शायद सभी विशेषज्ञ सहमत हैं कि वह आज भी 'शास्त्र' की बजाय 'करत विद्या' है। इसी वजह से उसका रूप गायकों और वादकों के बीच विचारों के रचनात्मक लेन-देन से निर्मित हुआ है। किसी धुन को बजाते समय जैज़ मण्डली के किसी सदस्य के मन में कोई ख़याल आयेगा -- हो सकता है कि यह ख़याल पूरा ख़याल भी न हो, बल्कि वह एक ख़ाका  भर हो सकता है और दूसरा सदस्य उसे उठा कर विस्तार देते हुए अगले वादक के हवाले कर देगा और यूँ मूल धुन की बुनियाद पर पच्चीकारी होती चली जायेगी। इसी तरह किसी मण्डली या रिकॉर्ड को सुनते समय, हो सकता है, किसी संगीतकार को कोई विचार सूझे और वह अपने दल के साथ मिल कर उस विचार को विस्तार देने की कोशिश करे। जैज़ के विचार इसी तरह अक्सर संगीतकारों और मण्डलियों के बीच फैलते चले जाते हैं और जैज़ को एक निरन्तर बहती नदी का रूप दे देते हैं। इस सदी के शुरू से ले कर अब तक के अर्से में जैज़ का विकास इतनी तेज़ी से हुआ है कि जो लोग उसके बहुत नज़दीक हैं, उन्हें भी वह एक रहस्य-भरा संगीत जान पड़ता है। ऐसा संगीत, जिसे बजाना शुरू करते समय कोई नहीं कह सकता -- उसके वादक भी नहीं -- कि उसका तैयार रूप, उसकी अन्तिम अदायगी, क्या होगी। इस लिहाज़ से जैज़ बहुत हद तक शुरू से आख़िर तक 'इम्प्रोवाइज़ेशन' की, 'आशु रचना' की कला है।

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