BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Tuesday, April 21, 2015

गौ मूत्र को पवित्र मान पी जाते हैं, लेकिन दलितों के हाथ का छुआ हुआ पानी नहीं पी सकते !

गौ मूत्र को पवित्र मान पी जाते हैं, लेकिन दलितों के हाथ का छुआ हुआ पानी नहीं पी सकते !



संघ परिवार में इंसानों को जानवरों से भी कमतर मानने का रिवाज़ शुरू से ही है

जानवर, दलित और चकवाडा का तालाब

हिन्दू तालिबान -40

भंवर मेघवंशी

राजस्थान की राजधानी जयपुर के निकटवर्ती इलाके दुदू के फागी कस्बे के चकवाडा गाँव के निवासी बाबूलाल बैरवा लम्बे समय तक विहिप से जुड़े रहे हैं तथा उन्होंने कारसेवा में भी हिस्सेदारी की। संघ की विचारधारा से जुड़ने और वहाँ से मोह भंग होने के बाद वे इन दिनों अम्बेडकर के विचारों से प्रभावित हैं। उनके साथ घटी एक घटना ने उनकी और उन्हीं के जैसे अन्य दलित ग्रामीणों की आँखें खोलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। हुआ यह कि बाबूलाल के गाँव चकवाडा के जिस तालाब में गाय, भैंस, बकरी, बिल्ली, कुत्ते, सूअर आदि सब नहाते थे, उसमें यह कारसेवक बाबूलाल बैरवा भी नहाने की हिम्मत कर बैठा, यह सोच कर कि है तो वह भी हिन्दू ही ना, वह भी संघ से जुड़ा हुआ विहिप का कार्यकर्त्ता और राम मंदिर के लिए जान तक देने को तैयार रहा एक समर्पित कारसेवक है। इसी गाँव के लोग तो ले गए थे उसे अयोध्या अपने साथ, वैसे भी सब हिन्दू-हिन्दू तो बराबर ही है, लेकिन बाबूलाल का भ्रम उस दिन टूट गया जिस दिन वह अपने ही गाँव के तालाब में नहाने का अपराध कर बैठा। गाँव के सार्वजनिक तालाब में नहाने के जुर्म में इस दलित कारसेवक पर सवर्ण हिन्दुओं ने 51 हज़ार रुपये का जुर्माना लगाया। गाँव वालों के इस अन्यायपूर्ण फैसले के खिलाफ बाबूलाल चिल्लाता रहा कि वह भी तो हिन्दू ही है, कारसेवा में भी जा चुका है, विश्व हिन्दू परिषद् से जुड़ा हुआ है और फिर वह भी तो उसी तालाब में नहाया है जिसमें सब लोग नहाते हैं। इसमें जब जानवर नहा सकते हैं तो वह एक इन्सान हो कर क्यों नहीं नहा सकता है ? लेकिन बाबूलाल बैरवा की पुकार किसी भी हिन्दू संगठन तक नहीं पहुंची।

थक हार कर बाबूलाल न्याय के हेतु जयपुर में दलित अधिकार केंद्र के पी एल मीमरौट से मिला। इसके बाद दलित एवं मानव अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन आगे आये और बाबूलाल को न्याय और संवैधानिक हक अधिकार दिलाने की लड़ाई और तेज तथा व्यापक हुयी। देश भर से आये तकरीबन 500 लोग एक रैली के रूप में चकवाडा के दलितों को सार्वजानिक तालाब पर नहाने का हक दिलाने के लिए सदभावना रैली के रूप में निकले, मगर उन्हें माधोराजपुरा नामक गाँव के पास ही कानून, व्यवस्था और सुरक्षा के नाम पर पुलिस और प्रशासन द्वारा रोक लिया गया। मैं भी इस रैली का हिस्सा था, हिन्दू तालिबान का टेरर क्या होता है, आप इसे उस दिन साक्षात् देख सकते थे। लगभग 40 हज़ार उग्र हिन्दुओं की भीड़ ' कल्याण धणी की जय' और 'जय जय श्रीराम' के नारे लगाते हुए निहत्थे दलितों की सदभावना रैली की और बढ़ रहे थी। उनके हाथ में लट्ठ और अन्य कई प्रकार के अस्त्र शस्त्र भी थे, उनका एक ही उद्देश्य था दलितों को सबक सिखाना। अब अतिवादियों की भीड़ थी सामने, बीच में पुलिस और एक तरफ मुट्ठी भर दलितों की एक रैली।

हालात की गंभीरता के मद्देनज़र दलितों ने अपनी रैली को वहीँ समाप्त कर देने का फैसला कर लिया। गुस्साए हिंदुत्ववीरों की हिंसक भीड़ ने पुलिस और प्रशासन पर धावा बोल दिया। वे इस बात से खफा हो गए थे कि प्रशासन के बीच में खड़े हो जाने की वजह से वो लोग दलितों को सबक नहीं सिखा पा रहे थे। इसलिए उनका आसान निशाना जिलाधिकारी से लेकर पुलिस के आई जी और एस पी इत्यादि लोग बन गए। बड़े अधिकारीयों को जानबूझकर निशाना बनाया गया, जिन्होंने भाग कर जान बचायी अंततः लाठी चार्ज और फायरिंग हुयी जिसमे 100 से ज्यादा लोग घायल हो गए। दलितों की समानता रैली और बराबरी की मुहिम अपने मक़ाम तक नहीं पहुंच पाई।

इस घटनाक्रम पर संघ की ओर से दलितों के पक्ष में एक भी शब्द बोलने के बजाय इसे विदेशी लोगों द्वारा हिन्दू समाज को बांटने का षड्यंत्र करार दिया गया। उस दिन दलितों के विरुद्ध जुटी हिंसक भीड़ का नेतृत्व संघ परिवार के विभिन्न संगठनों से जुड़े ग्राम स्तरीय कार्यकर्त्ता कर रहे थे। इसका मतलब यह था कि दलितों के आन्दोलन को विफल करने की पूरी साज़िश को संघ का समर्थन प्राप्त था। मनुवादियों ने मानवतावादियों की मुहिम को मात दे दी थी। अंततः बाबूलाल बैरवा को हिन्दू मानना तो बहुत दूर की बात इन्सान ही नहीं माना जा सका, या यूँ समझ लीजिये कि जानवर से भी बदतर मान लिया गया।

संघ परिवार में इंसानों को जानवरों से भी कमतर मानने का रिवाज़ शुरू से ही है। इसका साक्षात् उदाहरण हरियाणा प्रदेश के जज्जर जिले की वह घटना है, जिसमे पुलिस की मौजूदगी में गौहत्या की आशंका में पांच दलितों की निर्मम तरीके से जिंदा जला हत्या की गयी, जबकि ये लोग एक मरी हुयी गाय की खाल ( चमड़ा ) उतार रहे थे, पूरे देश के इंसानियतपसंद लोगों ने इस अमानवीय घटना की कड़े शब्दों में निंदा की, वहीँ विहिप के राष्ट्रीय नेता आचार्य गिरिराज किशोर ने निर्दोष दलितों के इस नरसंहार को उचित ठहराते हुए यहाँ तक कह दिया कि –'एक गाय की जान पांच दलितों की जान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।' एक गाय जो कि अंततः है तो एक जानवर ही, वह उनके लिए दलितों (इंसानों ) की जान से ज्यादा कीमती होता है ! वे गाय के मूत्र को पवित्र मान कर पी जाते हैंलेकिन दलितों के हाथ का छुआ हुआ पानी नहीं पी सकते हैं। घर में पाले गए कुत्ते और बिल्लियाँ उनके साथ खाती हैं, साथ में एक ही पलंग पर सोती है और उनकी महँगी महंगी वातानुकूलित गाड़ियों में घूमती है मगर दलितों को साथ बिठाना तो दूर उनकी छाया मात्र से ही उन्हें घिन आती है। यह कैसा धर्म है जहाँ पर गन्दगी फ़ैलाने वाले लोग सम्मान पाते है और सफाई करने वाले लोग नीचे समझे जाते हैं, तमाम निकम्मे जो सिर्फ पोथी पत्रा बांचते हैं या दुकानों पर बैठ कर कम तोलते हैं और दिन भर झूठ पर झूठ बोलते हैं, उन्हें ऊँचा समझा जा कर उच्च वर्ग कहा जाता है, जबकि मेरी नज़र में यह विचार एवं व्यवहार के तल पर ' उच्च' नहीं 'तुच्छ' वर्ग है जो किसी और की मेहनत पर जिंदा रहते हैं, श्रम को सम्मान नहीं, अकर्मण्यता को आदर देने वाला निकम्मापन ही यहाँ धर्म मान लिया गया है। यह बिलकुल झूठ, फरेब पर टिका हुआ गरीब, दलित, आदिवासी और महिला विरोधी धर्म है, रोज महिलाएं घरों में अपमानित होती हैं। उन्हें ज्यादती का शिकार होना पड़ता है, जबरन शादी करनी पड़ती है और रोज बरोज अनिच्छा के बावजूद भी अपने मर्द की कथित मर्दानगी जो कि सिर्फ वीर्यपात तक बनी रहती है, उसे झेलना पड़ता है। उन्हें हर प्रकार से प्रताड़ित, दण्डित और प्रतिबंधित एवं सीमित करने वाला यह धर्म ' यत्र नार्यस्तु पुजयन्तु,रमन्ते तत्र देवता' के श्लोक बोल कर आत्ममुग्ध होता जाता है। इसे धर्म कहें या कमजोरों का शोषण करने वाली अन्यायकारी व्यवस्था ? इस गैर बराबरी को धर्म कहना वास्तविक धर्म का अपमान करना है।

गैर बराबरी पर टिके इस धर्म के बारे में सोचते सोचते मुझे डॉ. अम्बेडकर का वह कथन बार बार याद आता है जिसमें देश के दलितों को सावधान करते हुए वो कहते हैं कि – 'भारत कभी भी मजहबी मुल्क नहीं बनना चाहिए, विशेषकर हिन्दू राष्ट्र तो कभी भी नहीं, वरना देश के अनुसूचित जाति व जन जाति के लोग पुनः अछूत बनाये जा कर गुलाम बना दिए जायेंगे। …….अब यह दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को तय करना है कि वे आज़ाद रहना चाहते है या वर्ण व्यवस्था के, जाति और लिंग भेद के गुलाम बनने को राज़ी है ? अगर राज़ी है तो मुझे कुछ भी नहीं कहना है। ………….( जारी )

-भंवर मेघवंशी की आत्मकथा 'हिन्दू तालिबान' का चालीसवां अंश

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About The Author

भंवर मेघवंशी, लेखक राजस्थान में मानव अधिकार के मुद्दों पर कार्यरत हैं । वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयंसेवक रहे हैं।

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