BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Wednesday, June 18, 2014

ये किसका लहू है कौन मरा! पहाड़ों का रक्तहीन कायकल्प ही असली जलप्रलय चूंकि प्रकृति में दुर्घटना नाम की कोई चीज नहीं होती। गनीमत है कि दार्जिलिंग से लेकर हिमाचल तक समूचे मध्य हिमालय में कोई अशांति है नहीं और न कोई माओवादी उग्रवादी या राष्ट्रविरोधी है।बिना दांत के दिखावे का पर्यावरण आंदोलन जरुर है और है अलग राज्य आंदोलन। हिमाचल और उत्तराखंड अलग राज्य बन गये हैं।सिक्किम का भारत में विलय हो गया है।हो सकता है कि कल सिक्किम के रास्ते भूटान और नेपाल भी भारत में शामिल हो जाये तो हिंदुत्व की देवभूमि का मुकम्मल भूगोल तैयार हो जायेगा। बुनियादी सवाल यही है कि संस्थागत प्राकृतिक व्यवस्था या ईश्वरीय सत्ता को तोड़नेवाले वे कातिल कौन हैं और क्यों उनकी शिनाख्त हो नहीं पाती।


ये किसका लहू है कौन मरा!

पहाड़ों का रक्तहीन कायकल्प ही असली जलप्रलय चूंकि प्रकृति में दुर्घटना नाम की कोई चीज नहीं होती।

गनीमत है कि दार्जिलिंग से लेकर हिमाचल तक समूचे मध्य हिमालय में कोई अशांति है नहीं और न कोई माओवादी उग्रवादी या राष्ट्रविरोधी है।बिना दांत के दिखावे का पर्यावरण आंदोलन जरुर है और है अलग राज्य आंदोलन। हिमाचल और उत्तराखंड अलग राज्य बन गये हैं।सिक्किम का भारत में विलय हो गया है।हो सकता है कि कल सिक्किम के रास्ते भूटान और नेपाल भी भारत में शामिल हो जाये तो हिंदुत्व की देवभूमि का मुकम्मल भूगोल तैयार हो जायेगा।


बुनियादी सवाल यही है कि संस्थागत प्राकृतिक व्यवस्था या ईश्वरीय सत्ता को तोड़नेवाले वे कातिल कौन हैं और क्यों उनकी शिनाख्त हो नहीं पाती।

पलाश विश्वास


फैज और साहिर ने देश की धड़कनों को जैसे अपनी शायरी में दर्ज करायी है,हमारी औकात नहीं है कि वैसा कुछ भी हम कर सकें।जाहिर है कि हम मुद्दे को छूने से पहले हालात बयां करने के लिए उन्हीं के शरण में जाना होता है।


इस लोक गणराज्य में कानून के राज का हाल ऐसा है कि कातिलों की शिनाख्त कभी होती नहीं और बेगुनाह सजायाफ्ता जिंदगी जीते हैं।चश्मदीद गवाहों के बयानात कभी दर्ज होते नहीं हैं।

चाहे राजनीतिक हिंसा का मामला हो या चाहे आपराधिक वारदातें या फिर केदार जलसुनामी से मरने वाले लोगों का किस्सा,कभी पता नहीं चलता कि किसका खून है कहां कहां,कौन मरा है कहां।गुमशुदा जिंदगी का कोई इंतकाल कहीं नुमाइश पर नहीं होता।

तवारीख लिखी जाती है हुक्मरान की,जनता का हाल कभी बयां नहीं होता।

प्रभाकर क्षोत्रियजी जब वागार्थ के संपादक थे,तब पर्यावरण पर जया मित्र का एक आलेख का अनुवाद करना पड़ा था मुझे जयादि के सामने।जयादि सत्तर के दशक में बेहद सक्रिय थीं और तब वे जेल के सलाखों के दरम्यान कैद और यातना का जीवन यापन करती रही हैं।इधर पर्यावरण कार्यकर्ता बतौर काफी सक्रिय हैं।

उनका ताजा आलेख आज आनंदबाजार के संपादकीय में है।जिसमें उन्होंने साफ साफ लिखा है कि प्रकृति में कोई दुर्घटना नाम की चीज नहीं होती।सच लिखा है उन्होंने,विज्ञान भी कार्य कारण के सिद्धांत पर चलता है।


जयादि ने 10 जून की रात से 16 जून तक गढ़वाल हिमालयक्षेत्र में आये जलसुनामी की बरसी पर यह आलेख लिखा है।जिसमें डीएसबी में हमारे गुरुजी हिमालय विशेषज्ञ भूवैज्ञानिक खड़ग सिंह वाल्दिया की चेतावनी पंक्ति दर पंक्ति गूंज रही है।प्रख्यात भूगर्भ शास्त्री प्रो. खड़क सिंह वाल्दिया का कहना है कि प्रकृति दैवीय आपदा से पहले संकेत देती है, लेकिन देश में संकेतों को तवज्जो नहीं दी जाती है। उन्होंने कहा कि ग्वोबल वार्मिग के कारण खंड बरसात हो रही है। प्रो. वाल्दिया ने कहा है कि 250 करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय की उत्पत्ति प्रारंभ हुई। एशिया महाखंड के भारतीय प्रायदीप से कटकर वलित पर्वतों की श्रेणी बनी।


जयादि ने लिखा है कि अलकनंदा,मंदाकिनी भागीरथी के प्रवाह में उस हादसे में कितने लोग मारे गये,कितने हमेशा के लिए गुमशुदा हो गये,हम कभी जान ही नहीं सकते।उनके मुताबिक करोड़ों सालों से निर्मित प्राकृतिक संस्थागत व्यवस्था ही तहस नहस हो गयी उस हादसे से।


जयादि जिसे प्राकृतिक संस्थागत व्यवस्था बते रहे हैं,धार्मिक और आस्थावान लोग उसे ईश्वरीय सत्ता मानते हैं।

जयादि के आलेख पर बस इतना ही।बाकी आलेख नीचे बांग्ला में दिया जा रहा है।

बुनियादी सवाल यही है कि संस्थागत प्राकृतिक व्यवस्था या ईश्वरीय सत्ता को तोड़नेवाले वे कातिल कौन हैं और क्यों उनकी शिनाख्त हो नहीं पाती।

बुनियादी सवाल यही है कि इस बेरहम कत्ल के खिलाफ चश्मदीद गवाही दर्ज क्यों नहीं होती।

पर्यावरण संरक्षण आंदोलन बेहद शाकाहारी है।


जुलूस धरना नारे भाषण और लेखन से इतर कुछ हुआ नहीं है पर्यावरण के नाम अबतक।


वह भी सुभीधे के हिसाब से या प्रोजेक्ट और फंडिंग के हिसाब से चुनिंदा मामलों में विरोध और बाकी अहम मामलों में सन्नाटा।


जैसे केदार क्षेत्र पर फोकस है तो बाकी हमिमालय पर रोशनी का कोई तार कहीं भी नहीं।

जैसे नर्मदा और कुड़नकुलम को लेकर हंगामा बरपा है लेकिन समूचे दंडकारण्य को डूब में तब्दील करने वाले पोलावरम बांध पर सिरे से खामोशी।

पहाड़ों में चिपको आंदोलन अब शायद लापता गांवों,लोगों और घाटियों की तरह ही गुमशुदा है।लेकिन दशकों तक यह आंदोलन चला है और आंदोलन भले लापता है,आंदोलनकारी बाकायदा सक्रिय हैं।


वनों की अंधाधुंध कटाई लेकिन दशकों के आंदोलन के मध्य अबाध जारी रही,जैसे अबाध पूंजी प्रवाह।अंधाधुध निर्माण को रोकने के लिए कोई जनप्रतिरोध पूरे हिमालयक्षेत्र में कहीं हुआ है,यह हमारी जानकारी में नहीं है।


परियोजनाओं और विकास के नाम पर जो होता है,उसे तो पहाड़ का कायकल्प मान लिया जाता है और अक्सरहां कातिल विकास पुरुष या विकास माता के नाम से देव देवी बना दिये जाते हैं।

कंधमाल में आदिवासी जो विकास का विरोध कर रहे हैं तो कारपोरेट परियोजना को खारिज करके ही।इसीतरह ओड़ीसा के दूसरे हिस्सों में कारपोरेट परियोजनाओं का निरंतर विरोध हो रहा है।


विरोध करने वाले आदिवासी हैं,जिन्हें हम राष्ट्रद्रोही और माओवादी तमगा देना भूलते नहीं है।उनके समर्थक और उनसे सहानुभूति रखने वाले लोग भी राष्ट्रद्रोही और माओवादी मान लिये जाते हैं।


जाहिर सी बात है कि हिमालय में इस राष्ट्रद्रोह और माओवाद का जोखिम कोई उठाना नहीं चाहता।


पूर्वोत्तर में कारपोरेट राज पर अंकुश है तो कश्मीर में धारा 370 के तहत भूमि और संपत्ति का हस्तांतरण निषिद्ध।दोनों क्षेत्रों में लेकिन दमनकारी सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून है।

मध्यभारत में निजी कंपनियों के मुनाफे के लिए भारत की सुरक्षा एजंसियां और उनके जवान अफसरान चप्पे चप्पे पर तैनात है।तो कारपोरेट हित में समस्त आदिवासी इलाकों में पांचवी़ और छठीं अनुसूचियों के उल्ल्ंघन के लिए सलवाजुड़ुम जारी है।

गनीमत है कि दार्जिलिंग से लेकर हिमाचल तक समूचे मध्य हिमालय में कोई अशांति है नहीं और न कोई माओवादी उग्रवादी या राष्ट्रविरोधी है।बिना दांत के दिखावे का पर्यावरण आंदोलन जरुर है और है अलग राज्य आंदोलन।


हिमाचल और उत्तराखंड अलग राज्य बन गये हैं।सिक्किम का भारत में विलय हो गया है।हो सकता है कि कल सिक्किम के रास्ते भूटान और नेपाल भी भारत में शामिल हो जाये तो हिंदुत्व की देवभूमि का मुकम्मल भूगोल तैयार हो जायेगा।

बाकी हिमालय में धर्म का उतना बोलबाला नहीं है,जितना हिमाचल, उत्तराखंड,नेपाल और सिक्किम भूटान में।नेपाल, हिमाचल और उत्तराखंड में हिंदुत्व है तो भूटान और सिक्किम बौद्धमय हैं।

जाहिर है कि आस्थावान और धार्मिक लोगों की सबसे ज्यादा बसावट इसी मध्य हिमालय में है,जिसमें आप चाहें तो तिब्बत को भी जोड़ लें। वहां तो बाकी हिमालय के मुकाबले राष्ट्र सबसे प्रलयंकर है जो कैलाश मानसरोवर तक हाईवे बनाने में लगा है और ग्लेशियरों को बमों से उड़ा भी रहा है।ब्रह्मपुत्र के जलस्रोत बांधकर समूचे दक्षिण एशिया को मरुस्थल बनाने का उपक्रम वहीं है।

अपने हिमाचल और उत्तराखंड में राष्ट्र का वह उत्पीड़क दमनकारी चेहरा अभी दिखा नहीं है।जो पहलेसे आत्मसमर्फम कर चुके हों,उनके खिलाफ किसी युद्ध की जरुरत होती नहीं है।फिर राष्ट्र के सशस्त्र सैन्य बलों में गोरखा,कुंमायूनी और गढ़वाली कम नहीं हैं।

सैन्यबलों का कोई आतंकवादी चेहरा मध्यहिमालय ने उस तरह नहीं देखा है जैसे कश्मीर और तिब्बत में।


नेपाल में एक परिवर्तन हुआ भी तो उसका गर्भपात हो चुका है और वहां सबकुछ अब नई दि्ल्ली से ही तय होता है।

जाहिर है कि मध्यहिमालय में अबाध पूंजी प्रवाह है तो निरंकुस निर्विरोध कारपोरेट राज भी है।

जैसा कि हम छत्तीसगढ़ और झारखंड में देख चुके हैं कि दिकुओं के खिलाफ आदिासी अस्मिता के नाम पर बने दोनों आदिवासी राज्यों में देशभर में आदिवासियों का सबसे ज्यादा उत्पीड़न है और इन्हीं दो आदिवासी राज्यों में चप्पे चप्पे पर कारपोरेट राज है।

स्वयत्तता और जनांदोलनों के कारपोरेट  इस्तेमाल का सबसे संगीन नजारा वहां है जहां आदिवासी अब ज्यादा हाशिये पर ही नहीं है,बल्कि उनका वजूद भी खतरे में है।

देवभूमि महिमामंडित हिमाचल और उत्तराकंड में भी वहीं हुआ है और हो रहा है।हूबहू वही।पहाड़ी राज्यों में पहाड़ियों को जीवन के हर क्षेत्र से मलाईदारों को उनका हिस्सा देकर बेदखल किया जा रहा है और यही रक्तहीन क्रांति केदार सुनामी में तब्दील है।

गोऱखालैंड अलग राज्य भी अब बनने वाला है जो कि मध्य हिमालय में सबसे खसाताहाल इलाका है,जहां पर्यावरण आंदोलन की दस्तक अभीतक सुनी नहीं गयी है।गोरखा अस्मिता के अलावा कोई मुद्दा नहीं है।विकास और अर्थव्यवस्था भी नहीं।जबकि सिक्किम में विकास के अलावा कोई मुद्दा है ही नहीं और वहां विकास के बोधिसत्व है पवन चामलिंग।


मौसम की भविष्यवाणी को रद्दी की टोकरी में फेंकने वाली सरकार को फांसी पर लटका दिया जाये तो भी सजा कम होगी।

हादसे में मारे गये लोगों,स्थानीय जनता,लापता लोगों,गांवों,घाटियों की सुधि लिये बिना जैसे धर्म पर्यटन और पर्यटन को मनुष्यऔर प्रकृति के मुकाबले सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी,जिम्मेदार लोगों को सुली पर चढ़ा दिया जाये तो भी यह सजा नाकाफी है।


अब वह सरकार बदल गयी लेकिन आपदा प्रबंधन जस का तस है।कारपोरेट राज और मजबूत है।भूमि माफिया ने तराई से पहाड़ों को विदेशी सेना की तरह दखल कर लिया है।

प्रोमोटरों और बिल्डरों की चांदी के लिए अब केदार क्षेत्र के पुनर्निर्माण की बात कर रही है ऊर्जा प्रदेश की सिडकुल सरकार।पहाड़ और पहाड़ियों के हितों की चिंता किसी को नहीं है।

देवभूमि की पवित्रता सर्वोपरि है।

कर्मकांड सर्वोपरि है।

मनुष्य और प्रकृति के ध्वंस का कोई मुद्दा नहीं है।

हिमालय की इस नरकयंत्रमा पर लेकिन किसी ने किसी श्वेत पत्र की मांग नहीं की है।

धारा 370 को पूरे हिमालयमें लागू करने की मांग हम इसीलिे कर रहे हैं क्योंकि हमारी समझ से हिमालयऔर हिमालयवासियों को बचाने का इससे बेहतर कोई विकल्प नहीं है।

लेकिन इस मांग पर बार बार लिखने पर भी हिमालय क्षेत्र के अत्यंत मुखर लोगों को भी सांप सूंघ गया है।

अरे,पक्ष में नहीं हैं तो विपक्ष में ही बोलो,लिखो।

कम से कम बहस तो हो।



अब साहिर की वे नायाब पंक्तियां वीडियो के साथ।साभार सत्नारायण।





ये किसका लहू है कौन मरा

साहिर लुधियानवी द्वारा 1946 के नौसेना विद्रोह के समय लिखी नज़्म

ऑडियो - विहान सांस्‍कृतिक मंच


ये किसका लहू है कौन मरा

ऐ रहबरे मुल्को क़ौम बता

आँखें तो उठा नजरें तो मिला

कुछ हम भी सुनें हमको भी बता

ये किसका लहू है कौन मरा---

धरती की सुलगती छाती पर

बेचैन शरारे पूछते हैं

हम लोग जिन्हें अपना न सके

वे ख़ून के धारे पूछते हैं

सड़कों की जुबाँ चिल्लाती है

सागर के किनारे पूछते हैं।

ये किसका लहू है कौन मरा---


ऐ अज़्मे फ़ना देने वालो

पैग़ामे वफ़ा देने वालो

अब आग से क्यूँ कतराते हो

मौजों को हवा देने वालो

तूफ़ान से अब क्यूँ डरते हो

शोलों को हवा देने वालो

क्या भूल गये अपना नारा।

ये किसका लहू है कौन मरा---


हम ठान चुके हैं अब जी में

हर जालिम से टकरायेंगे

तुम समझौते की आस रखो

हम आगे बढ़ते जायेंगे

हम मंजिले आजादी की क़सम

हर मंजिल पे दोहरायेंगे।

ये किसका लहू है कौन मरा---

4:54


প্রকৃতিতে 'দুর্ঘটনা' বলে কিছু নেই

জয়া মিত্র

১৮ জুন, ২০১৪, ০০:৩৮:০০


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ভারতের পরিবেশ-ইতিহাসে জুন মাসটা হয়তো বরাবরের জন্য কালো রঙে চিহ্নিত হয়ে গেল। এক স্মৃতি-ভারাক্রান্ত, পরিত্রাণবিহীন, গভীর শোকার্ত কালো। ঠিক এক বছর আগে ১৫ জুন রাত্রি থেকে ১৬ জুন সকালে হিমালয়ের গঢ়বালে প্রাকৃতিক দুর্যোগ ও বিশৃঙ্খলা যে মাত্রায় পৌঁছেছিল তার নীচে চাপা পড়ে ধ্বংস হয়ে গেল কোটি কোটি বছরে তিল তিল করে গড়ে ওঠা সূক্ষ্ম জটিল অকল্পনীয় বিরাট প্রাকৃতিক সংস্থান। অলকানন্দা-মন্দাকিনী-ভাগীরথীর পার্বত্য অববাহিকায় কত মানুষ নিশ্চিহ্ন হয়েছিলেন সে দিন? আমরা জানি না। দেশি-বিদেশি ইন্টারনেট রিপোর্টে সে সংখ্যা এক লক্ষ পর্যন্ত উঠেছে। নদীর কিনারে, পাহাড়ের খাঁজে, জঙ্গল ঘেঁষে বসা কত গ্রাম নিশ্চিহ্ন হয়? ছ'শো? তারও বেশি? আমরা জানি না। যে মানুষরা সমতল থেকে গিয়েছিলেন, কোনও না কোনও রিজার্ভেশন চার্টে, সমতলের কোনও গৃহে, কোনও বুকিংয়ের খাতাপত্রে যাঁদের হিসেব ছিল, সেই ক'জন মানুষের কথাই কেবল জানা গিয়েছে। এ পৃথিবীর আর কোনও জায়গায় কি প্রাকৃতিক বিধ্বংসে এত মানুষের প্রাণ, বসতি, সংসার মুছে গিয়েছে কখনও?

ভয়নাক বৃষ্টির চাপে ফেটে গিয়েছিল চোরাবারি তাল, যার অন্য নাম গাঁধী সরোবর। নিশ্চয়ই তা-ই। জলের তুফান আছড়ে পড়েছিল কেদারনাথ মন্দিরের গায়ে, গৌরীকুণ্ডে, মন্দাকিনীর খাতে। কিন্তু অলকানন্দায়? কর্ণপ্রয়াগ, শ্রীনগর, দেবপ্রয়াগে? উটের কাঁধে 'শেষ খড়'টি পড়লে কেমন করে তার ঘাড় মটকে যায়, তা বুঝতে গেলে বাকি বোঝার ওজনটা যাচাই করে দেখতে হবে। একটা চোরাবারি তালকে ওই প্রলয়ের সমগ্র কারণ ভাবা বা সে কথা বলা প্রকৃত সত্যকে এড়িয়ে যাওয়া। যে বনভূমি, যে পর্বতাংশ লোপ হয়ে গেল তা এ দেশে স্থিত, কিন্তু সমস্ত পৃথিবীরই সম্পদ। এই নীল-সবুজ গ্রহটিই মানুষের একমাত্র বাসস্থান। শুধু মানুষের নয়। মানুষ যার এক অংশমাত্র, সেই সমগ্র প্রাকৃতিক সংস্থান কেবল এই গ্রহটিতেই রয়েছে। এই প্রাকৃতিক শৃঙ্খলাকে যদি মানুষ ছিন্ন করে তবে সে নিজের প্রজাতিকে ধ্বংসের কিনারায় নিয়ে আসছে। বহুমুখী, প্রবল এবং শেষ পর্যন্ত অর্থহীন এক বিজ্ঞাপিত আধুনিকতার উন্নয়ন আগ্রাসনে এই প্রাকৃতিক শৃঙ্খলাসমূহ লঙ্ঘন করে আরও আরও বেশি ক্ষমতা আয়ত্ত করতে চান যে মুষ্টিমেয় মানুষ, তাঁরা হিমালয়ের ক্ষত নিরাময় হয়ে ধীরে ধীরে প্রাকৃতিক ছন্দ ফিরে আসার জন্য সসম্ভ্রম অপেক্ষা করার চেয়ে বেশি উচ্চরবে ঘোষণা করতে চান 'কেদারে যাবার নতুন রাস্তা তৈরি হয়ে গেছে, মন্দাকিনীর ও-পার দিয়ে।' অর্থাৎ আবার সেই একই আঘাত, একই আগ্রাসন আবার ঘটছে। এক বছর আগে যে সব আঘাতের ফলস্বরূপ নেমে এসেছিল ওই বিধ্বংস।

কত দূর যায় এই ধসের, এই ধ্বংসের পরিণাম? এই পৃথিবীতে প্রকৃতিতে কোনও কিছুই পরস্পর বিচ্ছিন্ন ভাবে নেই। প্রাকৃতিক সত্য থেকে দূরে সরে থাকা মানুষেরাই কেবল সেই অবিচ্ছিন্নতাকে দেখতে পান না, তাঁদের কাছে সবই খণ্ডিত, তাৎক্ষণিক, সবই অ্যান্টিবায়োটিকে নিরাময়যোগ্য। নিয়ম না বুঝে নিজের যেমন ইচ্ছে সার্থকতা লাভ করতে গিয়ে দেখা যায় না প্রাকৃতিক সংস্থানগুলির ধীর কিন্তু অমোঘ মৃত্যু। ২০১৩ জুনের সেই ভয়াল ধ্বংসকে নিতান্ত নিছক 'অতিবৃষ্টি জনিত দুর্ঘটনা', 'প্রকৃতির খেয়াল' বলে চিহ্নিত করতে হয়। কিন্তু প্রকৃতিতে তো 'দুর্ঘটনা' বা 'আকস্মিক' বলে কিছু হয় না। নিয়ম লঙ্ঘিত হতে থাকলে তার যে ফল হওয়ার কথা, তা-ই ঘটে। বিস্ফোরণের পর বিস্ফোরণে আমূল কেঁপে ওঠে পাহাড়। সূক্ষ্ম স্থিতিস্থাপকতাকে অগ্রাহ্য করে তৈরি হয় প্রকাণ্ড সব বাঁধ আর জমা জলের বেসামাল ওজন। ছিন্নভিন্ন হয়ে যায় প্রাচীন জঙ্গল। অন্তর্হিত হয়ে যায় ঝরনাজাল।

গঙ্গোত্রী হিমবাহের বরফ গলে যাচ্ছে ভয়াবহ রকমের দ্রুত। ধবলগিরি (ধৌলাগিরি)-র তুষারশূন্য চূড়ায় কালো পাথর। দেশের আরও বহু এলাকার মতোই নিঃশব্দে বন্ধ, পরিত্যক্ত হয়ে আছে উত্তরবাংলার শিলিগুড়ি-কার্সিয়ং হিলকার্ট রোড, অসংখ্য ধসে। ঝরনা কিংবা পার্বত্য নদীগুলির প্রবাহ বন্ধ হয়ে গিয়েছে, কিন্তু প্রতি দিন বাড়ছে গাড়ির প্রবাহ। পাহাড়ের ঢাল কাঁপছে সাত তলা হোটেলের ভারে। অথচ ওই সব জায়গায় অনেক পুরনো গ্রাম আছে। আছে দীর্ঘ দিন ধরে চলে আসা মানুষের সুশৃঙ্খল পরিশ্রমী জীবনযাপন। বহু কাল ধরে প্রাকৃতিক নিয়ম মেনে জীবন কাটানো সেই মানুষেরা।

হিমালয়ের চেয়ে অনেক দক্ষিণে ভারতের প্রধান জলধারাটি নিজেকে অসংখ্য স্রোতমুখে ভাগ করে সমুদ্রে মিশছে ১৬৮ কিলোমিটার জায়গা ধরে। সেখানে এই দেশের নিজস্ব প্রাকৃতিক বৈশিষ্ট্য গড়ে তুলেছিল পৃথিবীর বৃহত্তম নদী-মোহনা বনাঞ্চল-সুন্দরবন। রাজনৈতিক কারণে তার কেবল এক তৃতীয়াংশই এই দেশে। সংখ্যাতীত বিচিত্র উদ্ভিদ ও প্রাণী কে জানে কত কাল ধরে বাস করে নোনাজল-মিঠেজল, বালি ও পলিমাটির এই অসাধারণ প্রাকৃতিক সংস্থানের মধ্যে। এদের মধ্যে কিছু কিছু আছে কেবলমাত্র এখানেই। পৃথিবীর আর কোনওখানে নয়। কিন্তু এখানকার প্রাণরস সেই নদীধারাটি তার সব শাখাপ্রশাখা নিয়ে আজ যখন তীব্র জলাভাবে ভুগছে, যখন সারা দেশের সব জায়গার মতোই ভরাট হয়ে যাচ্ছে সুন্দরবনেরও নদীখাতগুলি, গত ত্রিশ বছরে ধীরে ধীরে বাদাবনের অপেক্ষাকৃত নিচু দক্ষিণাংশের শতকরা বিশ ভাগ নিমজ্জনের ছবি দেখাচ্ছে উপগ্রহের ক্যামেরা, আমরা কি কোথাও পাহাড়ের সঙ্গে সাগরের, বোরো ধানের অথৈ জলতৃষ্ণার সঙ্গে এই বালিমাটিতে ভরে যাওয়া নদীগুলির গভীর সম্পর্ক দেখতে পাই? বুঝতে কি পারি, প্রাকৃতিক সংস্থান বিশৃঙ্খল হওয়ার সঙ্গে সঙ্গে মানুষ আর প্রাণী জীবনের বিপন্নতা? অনুভব করি সেই সব মানুষকে আমার দেশবাসী, আমার স্বভাষাভাষী বলে, যাঁদের বাসভূমি সত্যি সত্যিই ডুবতে বসেছে, কারণ দেশের নগরগুলির চাই আরও বেশি বিদ্যুতের ঝলমলানি?

না কি আধুনিকতার নামে 'আরও জিনিস, যে কোনও শর্তে আরও বেশি জিনিস'-এর এক অর্থহীন চিৎকৃত প্রচার আমাদের সর্ব চিন্তা, সর্ব বোধশক্তিকে অসাড় করে ফেলেছে ধীরে ধীরে? তিন ঘণ্টার রেল কি বাসযাত্রায় যারা জানালার পাশে বসবার জন্য ব্যস্ত ব্যাকুল হই, জীবন নামক এই এক বার মাত্র টিকিট পাওয়া যাত্রাটির সর্ব দিকে বিস্তারিত এ পৃথিবীর দিকে, সহ-জ উত্তরাধিকারে পাওয়া পরম রহস্যময় প্রকৃতির দিকে কেন বোধকে মেলে দিই না? মোবাইলের গেম খেলার জন্যই কি সেই মানব অস্তিত্ব, যা রাত্রির আকাশে তাকালে তিনশো আলোকবর্ষ দূরের তারাটির আলো তার নিজের চোখে দেখতে পায়?

যদি বিস্মিত হওয়ার, বিহ্বল হওয়ার, বেদনা পাওয়ার বোধ হারিয়ে ফেলতে থাকে মানুষ, নিজের দেশ, সে দেশের নদী মাটি জঙ্গল কিছুই সে আর নিজের বলে বুঝতে না পারে, যদি অন্য মানুষকে দিয়ে বুঝতে না পারে ভালবাসার বোধ, যদি অন্যের পীড়ায় বেদনা না পায়, মানবজীবনের মাঝখানে দাঁড়িয়ে তার হাতে থাকে কেবলই এক অলীক লাভের পেনসিল, তবে আর মানুষ কেন? তখন কি মানবস্বভাব-বিরহিত সেই জড়-হয়ে-যেতে-থাকা মানুষদের জন্যই আমাদের শোক, যারা যাচ্ছে বোধবিহীন ধ্বংসের দিকে, সঙ্গে নিয়ে যাচ্ছে নিজেদের প্রজাতিকেও?

उत्तराखंड को लेकर दिल्ली में मंत्रणा

लेखक : नैनीताल समाचार ::अंक: 24 || 01 अगस्त से 14 अगस्त 2013:: वर्ष :: 36:

देवेन्द्र बिष्ट

बीस जुलाई की शाम को दिल्ली के गांधी पीस फाउंडेशन में एक सेमिनार का आयोजन किया गया, जिसमें 'उत्तराखंड को बचाने की चुनौतियाँ' विषय पर गहन विचार-विमर्श हुआ। यह सेमिनार शाम के 5.30 बजे शुरू हुआ और दिल्ली ने भी इस दिन वही मौसम महसूस किया, जो उत्तराखंड पिछले एक महीने से महसूश कर रहा है। दिनभर की बारिश ने पूरे दिल्ली शहर में पानी भर दिया और यातायात बिलकुल कछुवे की तरह खिसक रहा था। परन्तु गांधी पीस फाउंडेशन की भीड़ से बिलकुल ऐसा नहीं लगा क्योंकि वहाँ पर उत्तराखंड के शुभचिंतक एक बड़ी मंत्रणा कर रहे थे। क्योकि विषय अभी हाल के आपदा से प्रेरित था इसलिए इसमें प्रवक्ता के रूप में वही लोग थे, जो इस विषय के ज्ञाता रहे है और जिन्होंने अपना जीवन पर्यावरण के शोध मैं लगाया है। इसमें मुख्य वक्ता हिमांशु ठक्कर जी, वयोवृद्ध पर्यावरणविद प्रोफेसर के.एस. वल्दिया, शेखर पाठक एवं मशहूर आन्दोलनकारी शमशेर सिंह बिष्ट थे। इस सेमिनार का संचालन प्रकाश चौधरी ने किया और इसका आयोजन उत्तराखंड पीपुल्स फोरम के द्वारा दिया गया !

हिमांशु ठक्कर जी ने सेमिनार की शुरुआत की जिसमें उन्होंने हाइड्रो प्रोजेक्ट्स के रोल के बारे मैं बताया और क्यों हाइड्रो पॉवर को इतनी महत्ता दी जाती है सरकार के द्वारा ! भारत में अभी बयालीस हजार मेगावाट के हाइड्रो प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं और सरकार वर्ष २०32 तक इनको डेढ़ लाख मेगावाट तक पहुँचाने की कोशिश कर रही है। अभी तक चल रहे प्रोजेक्ट्स का विश्लेषण किया जाय तो, नवासी प्रतिशत हाइड्रो प्रोजेक्ट्स टारगेट से कम बिजली का उत्पादन कर रहे हैं, पचास प्रतिशत उनमें से ऐसे है जो टारगेट का पचास प्रतिशत से भी कब बिजली उत्पादन कर रहे हैं ! हाइड्रो प्रोजेक्ट्स का यूएसपी है कि उनकी पिकिंग क्षमता काफी तेज होती है जिसके कारण हाइड्रो प्रोजेक्ट्स की जरूरत काफी बढ़ रही है, ये हाइड्रो प्रोजेक्ट्स जहाँ भी लगे हैं वहाँ के निवासियों को कभी इन्होंने बिजली नहीं दी है, जिसका उदाहरण उन्होंने भाखड़ा नंगल का दिया! उत्तराखंड में अभी तक 98 हाइड्रो प्रोजेक्ट्स ऑपरेशनल हैं जिनमें 3600 मेगवाट बिजली बनती है और इकतालीस अभी बन रहे हैं और लगभग दो सौ अभी प्लांड हैं ! जैसा कि आम विचार है कि रन ऑफ दि रिवर परियोजना काफी ठीक है। यह विचार गलत है क्योंकि इसमें भी उतने ही खतरे हैं जैसा कि आम प्रोजेक्ट्स में हैं! सब में बाँध और स्टोरेज की जरूरत होती है। टनल की भी आवश्यकता होती है। उत्तराखंड सदा से ही भूस्खलन बाढ़ प्रोन रहा है और जबसे विस्फोटकों का प्रयोग बढ़ा है उसने पहाड़ को और कमजोर कर दिया है ! सन् 2000 से 2010 तक 1600 हेक्टेयर जमीन से सरकार ने वन हटाने की अनुमति दी थी, जो कि एक अन्य कारण है बाढ़ आने का ! नदी को टनल में डालकर हम नदी को मार रहे है। उन्होंने बताया कि श्रीनगर की त्रास्दी का सबसे बड़ा कारण कम्पनी द्वारा बनाया गया बाँध है। 17 जून को बाँध के द्वार खोलने से पूरा गाद, सिल्ट और बोल्डर्स श्रीनगर शहर में भर गया। वहाँ अभी भी मलबे के नीचे मकान दबे हुए हैं और यह मलबा कम्पनी द्वारा अवैध तरीके से अलकनंदा नदी में फैंका गया था। इस पर कम्पनी पर मुकदमा होना चाहिए ! श्रीनगर को बाँध मिस मैनेजमेंट के कारण त्रासदी झेलनी पड़ी ! सरकार और पूँजीपतियों की मिलीभगत ने इस आपदा को और बड़ा कर दिया !

डॉ खड्ग सिंह वाल्दिया ने हमें एक प्रेजेंटेशन के द्वारा बताया कि आखिर आपदा के वैज्ञानिक कारण क्या हैं, कैसे हिमालय इन आपदाओं से सदा जूझता रहा है। आपदा नई बात नहीं है इन जगहों के लिए। लेकिन अब नदी के स्थान पर भवनों का निर्माण होने से आपदा ने अपने अधिकार को माँगा है। केदार घाटी में 1970 तक सिर्फ एक मंदिर और एक-दो दुकानें हुआ करती थीं। बाद में वहाँ होटल्स, गेस्ट हाउसेस, रिसॉर्ट्स बन गये और नदी के बहाव क्षेत्र में जो भी निर्माण हुआ वह सब 16-17 जून को नदी बहा ले गयी। लेकिन केदार मंदिर को उतना नुकसान नहीं हुआ क्योकि, हमारे पुरुखों ने जब इसका निर्माण किया था तो उसको बहाव क्षेत्र से अलग बनाया था! नदी का बहाव क्षेत्र हम पिछले सौ सालो में जहाँ-जहाँ नदी बही है उस से अनुमान लगा सकते हैं और उस बहाव क्षेत्र मैं किसी भी प्रकार का निर्माण मौत को दावत देना है।

शेखर पाठक ने बताया कि उत्तराखंड मे इस प्रकार की आपदाएं सदा आती रही हैं लेकिन इस बार उसका कार्य क्षेत्र केदारनाथ रहा। जहाँ जान और माल की काफी क्षति हुई है जिसके कारण यह काफी भयावह हो गयी। कारण आप सभी जानते हैं, एक ऐसा विकास जो विनाश की ओर ले गया है उत्तराखंड को। 1880 में नैनीताल में भी आपदा आई थी जिसमें 151 लोग मरे थे, लेकिन उसके बाद अंग्रेजों ने ऐसे इंतजाम किये कि फिर दुबारा वह काफी समय तक नहीं आई, लेकिन आज वही विकास वहाँ भी दिख रहा है और इसी प्रकार का मंजर वहाँ भी देखने को मिल सकता है। पाठक जी ने कुछ बातें सुझायीं- सबसे पहले रिहैबिलिटेशन, इस आपदा का विश्लेषण, हिमालयी क्षेत्र में जीवन एवं संसाधनों का विकेन्द्रीकरण !

शमशेर सिंह बिष्ट जी ने इस बात पर जोर दिया कि आज के समय में कोई भी सरकार व प्रशासन से सवाल क्यों नहीं पूछता? पूरा जीवन आन्दोलनों के हवाले करने वाले इस नायक की आवाज में दर्द साफ दिखाई दिया। उम्र एवं शारीरिक क्षमता ने उनके हौसले पर कोई असर नहीं छोड़ा था। आज भी उनका हौसला उतना ही बुलंद था। उत्तराखंड के जोशीमठ ब्लॉक में 2006 से 2011 तक 20632 किलोग्राम डायनामाइट और एक लाख इकहत्तर किलोग्राम डेटोनेटर का इस्तेमाल किया गया है जिससे पहाड़ कमजोर हुआ है और यही कारण है जो आपदा लेकर आते हैं। समय है हम सब को साथ मिलकर खड़े होने की और इस विनाश के विकास को रोकने की। सभा का समापन चारु तिवारी जी के वोट ऑफ थैंक्स के साथ हुआ।


हिमालय में सुनामी : आपदा पर उत्तराखंड हिमालय की आवाज़ सुनो...

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सुरेश भाई

विकास के जिस मॉडल पर आज तक बेतहाशा सड़के खुदती रही विद्युत परियोजनाएं भारी विस्फोटों के साथ सुरंगे खोद कर संवदेनशील पर्वत माला को झकझोरती रही और नदियों के अविरल प्रवाह को जहाँ-तहाँ रोककर गांव के लोगों के लिए कृत्रिम जलाभाव पैदा किया गया और कभी इन्हीं जलाशयों को अचानक खोलकर लोगों की जमीनें एवं आबादियां बहा दी गई। अब भविष्य में ऐसा विकास का मॉडल उत्तराखंड में नहीं चलेगा। इस आवाज़ को इस रिपोर्ट के माध्यम से यहां के लोगों ने बुलंद किया है।उत्तराखंड में 16-17 जून को आई आपदा की जानकारी इलेक्ट्रानिक व प्रिंट मीडिया के द्वारा प्रचारित की जाती रही है। इसके अलावा कई लेखकों व प्रख्यात पर्यावरणविदों ने भी आपदा के कारणों व भविष्य के प्रभावों पर सबका ध्यान आकर्षित किया। इसी को ध्यान में रखते हुए 23-26 सितम्बर 2013 को उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग, अगस्तमुनी, ऊखीमठ, गोपेश्वर, कर्णप्रयाग, श्रीनगर, ऋषिकेश और हरिद्वार के प्रभावित गांव व क्षेत्र का अध्ययन एक टीम द्वारा किया गया है। इस टीम में प्राकृतिक संसाधनों पर विशेषज्ञों का एक दल जिसमें उड़ीसा स्थित अग्रगामी से श्रीमती विद्यादास, गुजरात में कार्यरत दिशा संस्था की सुश्री पाउलोमी मिस्त्री, और कर्नाटक संस्था इन्वायरमेंट प्रोटेक्शन ग्रुप के श्री लियो सलडान और दिल्ली से ब्रतिन्दी जेना शामिल थी।


टीम द्वारा यहां के प्रभावित समुदायों के बारे में जानने के लिए व्यक्तिगत तथा सामुहिक स्तर पर बैठकों का आयोजन किया गया था। लगातार भारी वर्षा के कारण अध्ययन टीम के लिए यह संभव नहीं था कि द्रुत गति से प्रभावित ग्रामीणों के पास पहुँचा जा सके और उन गाँवों के जोड़ने वाले सारे पुल एवं सड़के ध्वस्त हो चुके थे। भ्रमण के दौरान आपदा प्रभावित समुदाय के सदस्यों, पत्रकारों, विभिन्न निर्माणाधीन बांध स्थलों पर स्थानीय लोगों के साथ बातचीत की गई है। इस आपदा ने उत्तराखंड हिमालय की संवेदनशीलता पर पुनः लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। टीम द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट को लेकर देहरादून में हिमालय सेवा संघ नई दिल्ली, उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान, उत्तराखंड जन कारवां ने देहरादून में 26 नवंबर को एक बैठक आयोजित की है। बैठक में रिपोर्ट के अलग-अलग अध्यायों में आपदा प्रभावित इलाकों की गहरी समस्याओं को प्रतिभागियों द्वारा शामिल करवाया गया है। इस बैठक में प्रसिद्ध गाँधी विचारक सुश्री राधा बहन, प्रो. विरेन्द्र पैन्यूली, डा. अरविन्द दरमोड़ा, लक्ष्मण सिंह नेगी, ब्रतिन्दी जेना, तरुण जोशी, ईश्वर जोशी, जब्बर सिंह, प्रेम पंचोली, अरण्य रंजन, इन्दर सिंह नेगी, दुर्गा कंसवाल, डा. रामभूषण सिंह, रमेंश मुमुक्ष, जय शंकर, मदन मोहन डोभाल, सुरेश भाई, बंसत पाण्डे, देवेन्द्र दत्त आदि कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।


रिपोर्ट की प्रस्तावना में हिमालयी सुनामी के बारे में बताया गया है। इसके दूसरे अध्याय में आपदा के परिणाम में सुनामी से हुए परिवर्तनों को रेखांकित किया है। इस त्रासदी में मौत एवं महाविनाश का तांडव किस तरह से हुआ है इसके साथ ही राहत और बचाव के कार्य में व्यवस्था की उदासनीता एवं फिजूलखर्ची और सिविल सोसायटी की भूमिका के बारे में बताया गया है। रिपोर्ट के अंतिम अध्याय में इस हिमालयी सुनामी पर उत्तराखंड की आवाज को सुझाव के रूप में प्रस्तुत किया गया है कि इस आपदा से सबक लेकर उत्तराखंड में विकास की अवधारणा को बदलना होगा। विकास के जिस मॉडल पर आज तक बेतहाशा सड़के खुदती रही विद्युत परियोजनाएं भारी विस्फोटों के साथ सुरंगे खोद कर संवदेनशील पर्वत माला को झकझोरती रही और नदियों के अविरल प्रवाह को जहाँ-तहाँ रोककर गांव के लोगों के लिए कृत्रिम जलाभाव पैदा किया गया और कभी इन्हीं जलाशयों को अचानक खोलकर लोगों की जमीनें एवं आबादियां बहा दी गई। अब भविष्य में ऐसा विकास का मॉडल उत्तराखंड में नहीं चलेगा। इस आवाज़ को इस रिपोर्ट के माध्यम से यहां के लोगों ने बुलंद किया है और इससे 40 वर्ष पूर्व भी यहां के सर्वोदय कार्यकर्ताओं की आवाज को महात्मा गांधी की शिष्या सरला बहन ने पर्वतीय विकास की सही दिशा के रूप में प्रसारित किया था, जिसे वर्तमान परिप्रेक्ष में इसी जमात की नई पीढ़ी के द्वारा हिमालय लोक नीति के रूप में सरकार के सामने प्रस्तुत किया था। आज पुनः आपदा के संदर्भ में नए आयामों के साथ सरकार और जनता के सामने लाया गया है।


आपादा पर उत्तराखंड की आवाजइस टीम की अध्ययन रिपोर्ट में आपदा प्रबंधन, राहत और बचाव कार्य में हुई अनियमितता पर सवाल खड़े किए गए हैं। जिसमें कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के दौर में आपदा के लिए संवेदनशील उत्तराखंड में विकास के नाम पर भारी अनदेखी हुई है। यदि उत्तराखंड सरकार के पास मजबूत जलवायु एक्शन प्लान होता तो इस बार की आपदा के पूर्वानुमानों को ध्यान में रखा जा सकता था और लोगों को बचाया भी जा सकता था। आपदा के बारे में वैज्ञानिकों और मौसम विभाग की सूचनाओं के प्रति लापरवाही बरती गई है। जिसके कारण लगभग 1 लाख पर्यटक चारों धाम में फंसे रहे हैं, जिन्हें या तो भूखा रहना पड़ा या अल्प भोजन पर जीवन गुजारना पड़ा है। उत्तराखंड सरकार के पास पर्यटकों की संख्या का केवल अनुमान मात्र ही था। बताया जाता है कि पिछले पांच दशकों में आपदा का यह दिन सबसे अधिक नमी वाला दिन था।


केदारनाथ में अधिकांश तबाही हिमखंडों के पिघलने से चौराबारी ताल में भारी मात्रा में एकत्रित जल प्रवाह के कारण हुई है। इसके चलते इस तबाही में केदारनाथ में जमा हुए लोगों में भगदड़ मच गई और हजारों लोगों की जिंदगी चली गई है। आपदा के उपरांत केदारनाथ एवं इसके आस-पास का उपग्रह द्वारा लिए गए चित्रों के विश्लेषण से स्पष्ट हो गया है कि देश के प्राकृतिक आपदा मानचित्र का पुर्नरीक्षण करके नए सिरे से बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को चिन्हित किया जाना चाहिए।


इस आपदा ने 20 हजार हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि तथा 10 हजार से अधिक लोगों की जिंदगी को मलबे में तब्दील कर दिया। इसके कारण इन नदी क्षेत्रों के आस-पास बसे हुए गांव के आवागमन के सभी साधन नष्ट हुए हैं। नदी किनारों के गाँवों का अस्तित्व मिटने लगा है। कई गांव के निवासियों को अपनी सुरक्षा के लिए अन्यत्र पलायन करना पड़ा है।


आपादा पर उत्तराखंड की आवाजउत्तराखंड समेत देश- विदेश के कई स्थानों से आए पर्यटकों व श्रद्धालुओं के परिवार वाले अपने लापता परिजनों को वापस घर लौटने की आस लगाए बैठे हैं। कई लोगों के शव अब तक बरामद नहीं हो सके हैं और कितने लोग कहाँ से थे, उसकी अंतिम सूची नहीं बन पाई है।


अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन के उच्चायुक्त जेम्स बीमन ने अध्ययन दल को बताया है कि उन्हें जानकारी नहीं हो सकी है कि इस आपदा में ब्रिटिश नागरिक कुल कितने उत्तराखंड में थे। क्योंकि 100 से अधिक ब्रिटिश परिवारों ने इस संबंध में उच्चायोग से संपर्क करके बताया है कि इस आपदा के बाद उनके लोगों का कोई पता नहीं है। यही स्थिति नेपाली लोगों की भी है।


आपदा से पूर्व गौरीकुण्ड में खच्चरों की अनुमानित संख्या 8000 थी आपदा के बाद मृत लोगों के शवों की तलाश तो जारी है लेकिन पशुओं की मृत्यु संख्या क्या है, और जो बचे हैं उनकी स्थिति क्या है, अधिकांश पशु बुरी तरह जख्मी भी हुए हैं जो इलाज और चारा-पानी के अभाव में मरे हैं।


आपादा पर उत्तराखंड की आवाजराहत कार्य में सरकार की ओर से बहुत देरी हुई है। 16-17 जून को आई आपदा के बाद 21 जून को देर शाम तक 12 युवा अधिकारियों को नोडल अधिकारी के रूप में आदेश दिए जा सके थे, जो 22 जून की रात्रि और 23 जून की सुबह तक प्रभावित क्षेत्र में पहुँच पाए थे। सवाल यह है कि आखिर यह देर क्यों हुई है? इससे कोई भी समझ सकता है कि सामान्य दिनों में जनता के कामकाज में कितनी देरी होती होगी?


उत्तराखंड में सन 2010, 011, 012, 013 में लगातार बाढ़, भूस्खलन, बादल फटना और इससे पहले भूकंप जैसी विनाश की कई घटनाएं हो रही है फिर भी राज्य के पास पुनर्वास एवं पुर्नस्थापन नीति क्यों नहीं है? मुवाअजा राशि में बढ़ोतरी हुई है लेकिन सही पात्र व्यक्ति तक पहुँचना अभी बाकी है। उत्तराखंड सरकार द्वारा पुर्ननिर्माण के लिए प्रस्तावित 13800 करोड़ में से 6687 करोड़ की राशि स्वीकृत है। इसके आगे भी केन्द्र सरकार विभिन्न स्रोतों से राज्य को आपदा से निपटने के लिए सहायता दे रही है। इतनी सहायता के बाद भी उत्तराखंड सरकार रोना-धोना कर रही है। उत्तराखंड राज्य के लोगों ने पृथक राज्य के लिए अभूतपूर्व संघर्ष किया है। लोगों की मांग रही है कि जल, जंगल, जमीन पर गाँवों का अधिकार मिले। इसी बात को लेकर चिपको, रक्षासूत्र, नदी बचाओ, सरला बहन द्वारा पर्वतीय विकास की सही दिशा और वर्तमान परिप्रेक्ष हिमालयी लोक नीति ने राज्य एवं देश का ध्यान आकर्षित किया है। इसके बावजूद सरकारों की अपनी मनमर्जी ने हिमालयी क्षेत्र के पहाड़ों को उजाड़ने वाली परियोजनाओं को महत्व दिया है। जिसके परिणाम आपदा को बार-बार न्यौता मिल रहा है। सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजना, सड़कों के चौड़ीकरण से निकलने वाले मलवे ने पहाड़ों के गांव को अस्थिर बना दिया है। नदियों के उद्गम संवेदनशील हो गए हैं। अब मानव जनित घटना को रोकना ही श्रेयस्कर होगा।


प्रसिद्ध भूगर्भ वैज्ञानिक डॉ. खड़ग सिंह वाल्दिया का कहना है कि राज्य में संवेदनशील फॉल्ट लाइनों को ध्यान में न रखकर सड़कें बनायी जा रही हैं। यही कार्य जल विद्युत परियाजनाओं के निर्माण में हो रहा है। अधिकांश जल विद्युत परियोजनाएं भूकंप व बाढ़ के लिए संवेदनशील फॉल्ट लाइनों के ऊपर अस्थिर चट्टानों पर बन रही हैं। उनका मानना है कि भूगर्भ वैज्ञानिकों को केवल रबर स्टैम्प के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। आपदा से निपटने के लिए सत्ता एवं विपक्ष के नेताओं को समुदाय, सामाजिक संगठन, अभियान और आन्दोलनों के साथ संवाद करने की नई राजनीतिक संस्कृति बनानी चाहिए। यह अखबारों में छपी खबरों को भी संज्ञान में लेकर राज्य की जिम्मेदारी बनती है। जिसका सर्वथा अभाव क्यों है? माननीय उच्चतम न्यायालय ने केद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को आदेश दिया कि वह एक विशेषज्ञ समिति का गठन करे जो यह सुनिश्चित करें कि उत्तराखंड के सभी निर्मित अथवा निर्माणाधीन जल विद्युत परियोजनाओं के कारण जून माह में राज्य में आए आकस्मिक बाढ़ में क्या योगदान रहा है? इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी आदेश जारी किया कि भागीरथी और अलकनन्दा नदियों पर हाल ही में प्रस्तावित 24 जल विद्युत परियोजनाओं की जाँच की जाए। जिनका विरोध पर्यावरण कार्यकर्ताओं तथा विशेषज्ञों द्वारा अभी जारी है। उच्चतम न्यायालय ने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय तथा उत्तराखंड सरकार को यह भी हिदायत दी है कि वह उत्तराखंड में किसी भी नए जल विद्युत परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति जारी नहीं करेंगे। इस आपदा में बाँधों की क्या भूमिका रही इसे पता करने के लिए विशेषज्ञ दल में राज्य सरकार के प्रतिनिधियों, भारतीय वन्य जीव संस्थान, केन्द्रीय विद्युत अथॉरिटी, केन्द्रीय जल आयोग और अन्य विशेषज्ञों को शामिल किया जाय-ऐसा न्यायालय का आदेश था। इन आदेशों को उत्तराखंड की सरकार भूल गई है। हर रोज नई-नई परियोजना के उद्घाटन हो रहे है और अब सिर्फ बजट बांटना शेष बचा है। जबकि उत्तराखंड के सामाजिक पर्यावरण से जुड़े संगठन आपदा से निपटने के लिए राज-समाज मिलकर काम करने की दिशा में दबाव बना रहे हैं।


हिमालय के सतत विकास की सही दिशा- हिमालय की लोकनीति


आपादा पर उत्तराखंड की आवाजहिमालय दक्षिण एशिया का जल मीनार है। अतः यहां की जल, जंगल, जमीन के साथ संवेदनशील होकर व्यवहार करने की आवश्यकता है। उत्तराखंड में चिपको, नदी बचाओ, रक्षासूत्र, जन कारवां और सिविल सोसायटी, सरला बहन के द्वारा पर्वतीय विकास की सही दिशा और वर्तमान परिप्रेक्ष में हिमालय लोक नीति राज्य एवं केन्द्र कि सामने प्रस्तुत की गई है। इसको ध्यान में रखकर हिमालय के लिए एक समग्र एवं मजबूत हिमालय नीति बनवाने की पहल की गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भविष्य के लिए उपरोक्त रिपोर्टों, अध्ययनों व हिमालय लोक नीति के अनुसार निम्नानुसार कदम बढ़ाने की आवश्यकता है -


1. हिमालय भारत को उत्तर दिशा की ओर से सुरक्षित रखता है। अतः इस बात को ध्यान में रखकर ही यहाँ विकास का कार्य करना चाहिए। इसलिए हिमालय का मात्र व्यावसायिक दोहन के लिए विकास का कार्य नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए खनिजों के लिए खनन का कार्य, बड़े-बड़े जल विद्युत परियोजनाएं जो यहाँ के पर्यावरण के साथ-साथ लोगों के जीवन को भी क्षति पहुँचाएगा। विकास की नई योजनाएं चाहे वह वन संसाधनों के दोहन के लिए बनाई गई हो अथवा लोगों के परंपरागत कौशल को प्रभावित करने वाला हो।

2. हिमालय का दुनिया में विशेष स्थान है। अतः यहां पर पंचतारा आकर्षित आधुनिक महानगरीय शैली की तरह बड़े-बड़े सुविधाओं वाले भवनों के निर्माण करने से बचना होगा। इसके स्थान पर हमें चाहिए कि यहाँ पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के अनुसार ही छोटे अथवा मध्यम आकार का घर बनाएं जिससे कि स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव न पड़े।

3. इसलिए यहाँ की भौगोलिक एवं पर्यावरणीय स्थिति को देखते हुए निर्माण की रूपरेखा एवं योजना के क्रियान्वयन के लिए हिमालयी मॉडल तैयार करना होगा। यह मॉडल ऐसा होना चाहिए जो एक ओर आधुनिक समुदाय की सभी मूलभूत आवश्यकताओं को सुनिश्चित करे जैसे कि भवन, सड़के, विद्युत वितरण लाइन्स, शैक्षणिक एवं स्वास्थ्य सेवा से जुड़े भवनों आदि बनाने से पहले हमें यहं की प्रकृति की संवेदनशीलता, भौगोलिक स्थिति और हिमालय की प्राथमिक एवं अनंत भूमिकाओं को ध्यान में रखकर विकास करना होगा।

4. हिमालयी राज्यों खास करके उत्तराखंड, हिमांचल, अरूणांचल, असम आदि में जल विद्युत उत्पादन हेतु प्रस्तावित परियोजनाओं तथा वर्तमान परियोजनाएं जो सुरंग पर आधारित हो उन्हें तत्काल प्रभाव से बंद कर देना चाहिए। विद्युत उत्पादन के अन्य वैकल्पिक अपरंपरागत ऊर्जा स्रोत जैसे कि सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा तथा घराट (पानी मिल) आधारित लघु जल विद्युत परियोजनाओं को बढ़ावा देना चाहिए जिससे कि हिमालयी क्षेत्रों में बसे लोगों को ऊर्जा मिले इसके लिए प्रत्येक हिमालय राज्य को छोटी व लघु जल विद्युत परियोजना के लिए अपना ग्रिड बनाना चाहिए।

5. वर्तमान में कार्यरत जल विद्युत परियोजनाओं के प्रभावों का अध्ययन करना चाहिए और नदी के पानी का 30 प्रतिशत से ज्यादा भाग को बदलना नहीं चाहिए।

6. वर्तमान में कार्यरत जल विद्युत परियोजनाओं के टरबाइन में जमी हुई नदी की गाद को तत्काल निकालने की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे कि नदी के निचले क्षेत्र की उर्वरक कृषि भूमि पर इसका दुष्प्रभाव न हो।

7. किसी भी परियोजना को स्वीकृत करने से पहले उसे यह अनुमति लेना आवश्यक होगा कि परियोजना, प्रभावित समुदाय को विश्वास में लेकर बनाया गया है अथवा नहीं परियोजना के दुष्प्रभाव के आंकलन के लिए विश्वसनीय संस्थाओं के सहयोग से वैज्ञानिक अध्ययन कराया गया हो तथा इसमें स्थानीय ज्ञान एवं अनुभवों को सम्मिलित किया गया हो। परियोजना का लाभ-हानि विश्लेषण केवल आर्थिक आधार पर नहीं हो, बल्कि इसमें सामाजिक एवं पर्यावरणीय कीमत को भी शामिल करनी चाहिए। कुल मिलाकर जब तक स्थानीय समुदाय परियोजना के लिए सहमति नहीं दे तब तक सरकार उस परियोजना के लिए मंजूरी नहीं देगी। प्रायः भोले भाले ग्रामीण लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए कंपनियों तथा भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से अवैध कागजात तैयार कर ली जाती है। इससे बचने के कड़े नियम का प्रावधान होना चाहिए जिससे कि आरोपियों को कठोर सजा मिल सके। यदि किसी कारणवश परियोजना संचालक एवं स्थानीय लोगों के बीच मतभेद उत्पन्न हो जाएं तो ऐसी स्थिति में सरकार का निर्णय सर्वप्रथम स्थानीय समुदाय के हित में होना चाहिए।

8. लघु विद्युत परियोजनाएं जो किसी धारा अथवा छोटी धारा के ऊपर बनाई जा रही हैं और लगातार जल प्रवाह में कोई व्यवधान उत्पन्न करता हो तथा स्थानीय सहयोग से बनाई जा रही हो-ऐसे परियोजनाओं के लिए तकनीकी सहयोग एवं आर्थिक मदद राज्य सरकार द्वारा होना चाहिए। ऐसे परियोजनाओं से उत्पादित विद्युत को गाँव में स्थानीय लोगों द्वारा लघु उद्योगों के लिए सर्वप्रथम उपलब्ध कराना चाहिए जिससे कि बेरोजगारी कम हो सके तथा लोगों का पलायन भी रूक सके।

9. वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत (सौर, पवन, गोबर गैस) का विकास प्राथमिकता के आधार पर करना चाहिए और इसे ऊर्जा का प्रमुख श्रोत बनाना चाहिए।

10. 1960 के दशक में उत्तराखंड में लगभग 200 लघु जल विद्युत इकाईयां थीं जो बड़े-बड़े सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजनाओं के आने के बाद सभी के सभी बंद हो चुके हैं। ये सभी इकाईयां पर्यावरण एवं स्थानीय लोगों के लिए हानिकारक भी नहीं थी। ऐसे बंद पड़े इकाइयों का जल्द से जल्द सुधारकर इनका उपयोग ग्रामीण लघु उद्योगों के लिए की जानी चाहिए। इस तरह के लघु जल विद्युत ईकाइयां संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र में बनवाना चाहिए जिससे यहाँ के लोगों की ऊर्जा से संबंधित जरूरत पूरी हो सके।

11. हिमालय में विकास के कार्यों को निजी कंपनियों अथवा ठेकेदारों को नहीं देना चाहिए क्योंकि इनका मुख्य उद्देश्य किसी भी कीमत पर अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करने की होती है। इसके बदले विकास के कार्यों को ग्रामीण स्तर की संस्थाएं जैसे ग्राम सभा अथवा ग्राम पंचायत अथवा क्षेत्र व जिला पंचायत के द्वारा कराना चाहिए।

12. नदियों और अन्य जल श्रोतों के प्राकृतिक एवं उनमुक्त जल बहाव को किसी भी हालत में अवरोध नहीं करना चाहिए।

13. जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर पहला अधिकार स्थानीय लोगों का होना चाहिए। स्थानीय समुदाय के स्पष्ट अनुमति के बिना पानी का उपयोग अन्य कार्यों के लिए नहीं होना चाहिए। स्थानीय समुदाय को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वे अपने जल स्रोतों की प्रबंधन के पूर्ण रूप से अपने हाथों में लेकर करे। उन्हें पानी के उपयोग हेतु नियम बनाने का अधिकार हो और इस नियम का पालन सभी लोगों द्वारा की जाए।

14. जल संरक्षण के लिए प्राकृतिक उपाय, जैसे चौड़ीपत्ती वाले पेड़ों का रोपण करना, विभिन्न विधियों द्वारा वर्षा जल संग्रह करना और इस तरह के फसल उत्पादन को बढ़ावा देना चाहिए जो कम से कम पानी का उपयोग करता हो। हिमालय के लिए किसी भी प्रकार के विकास की नीति में जल संरक्षण प्रमुख मुद्दा हो।

15. चाहे कारण कुछ भी हो, किसी भी नदी के जल बहाव को नहीं रोकना चाहिए यह अच्छा होगा कि प्रत्येक नदी के अलग नीति बनानी चाहिए।

16. किसी भी भवन के लिए जिसका कुल क्षेत्रफल 200 वर्ग मीटर से ज्यादा हो, वर्षा जल संग्रहण की व्यवस्था अनिवार्य रूप से होना चाहिए।

17. जंगल के लिए उपयुक्त प्रबंधन के लिए यह अति आवश्यक हो गया है कि ब्रिटिश काल से लागू वन अधिनियम को समाप्त कर दिया जाए। वन के प्रबंधन की जिम्मेदारी स्थानीय लोगों को सौंपी जाए।

18. गाँव एवं इसमें रहने वाले लोगों के विकास को सुनिश्चित करने के लिए, जंगल का कुछ हिस्सा खास करके सामुदायिक वन संसाधन (सी. एफ. आर.) को ग्रामवासियों के उपयोग के लिए दे देना चाहिए। हिमालय में बसने वाले प्रत्येक गाँवों के लिए अनिवार्य रूप से उनको अपना वन विकसित करना होगा।

19. जंगल एवं जैव विविधता के संरक्षण एवं विस्तार के लिए कठोर कदम उठाना चाहिए।

20. जंगल को आग से सुरक्षित रखने के लिए हमें चौड़ीपत्ती वाली विभिन्न प्रजाति के पेड़ों का वनीकरण करना होगा क्योंकि ऐसे पेड़ों वाले जंगलों में आग लगने पर आसानी से काबू की जा सकती है।

21. कृषि, फलदार पेड़ लगाने का कार्य, वनीकरण आदि को हिमालय में बसने वाले लोगों के जीविका के लिए उत्तम श्रोत माना गया है। अतः किसी भी प्रकार के विकास योजना में ये सभी कार्य मूलभूत आधार के रूप में होना चाहिए।

22. जडी-बूटी और संगन्ध पेड़-पौधों तथा फलदार पेड़ों के रोपण को बढ़ावा देना चाहिए।

23. कृषि उत्पाद के गुणात्मक सुधार की कार्य-योजनाओं को बढ़ावा देना चाहिए। स्थानीय लोगों को 'वेल्यू एडिसन' की कार्य योजनाओं में सम्मिलित कर उन्हें प्रगतिशील उद्यमी बनने में सहायता करनी चाहिए।

24. आपदा प्रबंधन के लिए मजबूत आपदा प्रबंधन मैन्यूअल ग्राम स्तर से बनाई जाए।

25. सरकार को आपदा से निपटने के लिए वित्तीय नीति बनानी चाहिए इसके लिए गांव से लेकर राज्य स्तर तक प्रभावितों को समय पर आर्थिक सहयोग दिलाने के लिए खासकर बैंको की जबावदेही सुनिश्चित करनी चाहिए।

26. आपदा प्रभावितों को वनाधिकार अधिनियम 2006 के अनुसार खाली पड़ी वन भूमि को कृषि एवं आवासीय भवन निर्माण के लिए उपलब्ध करवाना चाहिए।


आपादा पर उत्तराखंड की आवाज

महिला केन्द्रित विकास


1. महिलाओं को अपने परंपरागत एवं स्वतंत्र रोज़गार के अवसर का अधिकार मिलना चाहिए।

2. महिलाओं के लिए शिक्षा एवं स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दों पर काम करने वाले महिला संस्थान और अन्य संगठनों को स्थानीय महिलाओं के अनुभवों को भी ध्यान में रखकर योजनाऐं बनानी चाहिए।

3. समुदाय आधारित पर्यटन को बढ़ावा देना चाहिए। दुगर्म पर्यटन स्थलों को सड़क मार्ग के अपेक्षा रज्जू मार्ग (रोप-वे) द्वारा जोड़ना चाहिए। ग्रीन टैक्नोलोजी का इस्तेमाल कर सड़क का निर्माण करना चाहिए। हिमालय जैसे अति संवदेनशील क्षेत्रों में निर्माण कार्य में डायनामाईट का उपयोग नहीं करना चाहिए और मलबा को घाटी के ढाल पर जमा नहीं करना चाहिए। ठोस अवशिष्ट एवं मलबा का उपयुक्त विधि द्वारा प्रबंधन करना चाहिए। बड़े स्तर पर निर्माण कार्य योजना में अवशिष्ट प्रबंधन एवं वृक्षारोपण का कार्य करना अनिवार्य रूप से सम्मिलित होना चाहिए।

4. आधुनिक संचार एवं सूचना तकनीकी का विकास इसके अधिकतम स्तर तक यहाँ करना चाहिए।

5. जब हम कहते हैं कि कृषि का विकास, फल उत्पादन, वनीकरण आदि जीविकोपार्जन का महत्वपूर्ण साधन है तब इसका मतलब यह है कि सबके लिए उर्वरक जमीन हो/जमीन की उर्वरकता किसान के हाथों में है।

6. फल उत्पादन एवं वनीकरण के लिए अपेक्षाकृत कम उपजाऊ वाले जमीन से भी अच्छी आमदनी प्राप्त की जा सकती है। अतः जमीन की उर्वराशक्ति की स्थिति की जाँच कराना आवश्यक है। अच्छी ज़मीन पर खेती कार्य की जाए परंतु किसी भी हालत में 30 डिग्री से अधिक ढाल वाली जमीन पर खेती न की जाए।

7. भूगर्भ विज्ञान की भाषा में कहा जाता है कि हिमालय हिन्दुस्तान और एशिया प्लेट के संधिस्थान पर स्थित है जो आपस में टकराकर कई छोटे-छोटे प्लेटों में टूट गए हैं और ये सभी प्लेटें एक दूसरे के ऊपर निरंतर गतिमान हैं। हमें इन भूगर्भीय हलचलों के अध्ययन के आधार पर ही इस क्षेत्र की भू उपयोग के बारे में समझना होगा। बड़े-बड़े जलाशयों एवं बहुमंजिला भवनों का निर्माण कार्य इस क्षेत्र के लिए आपदाओं को निमंत्रण देने जैसा होगा। हिमालय की एक निश्चित ऊँचाई के बाद के क्षेत्रों को अति संवेदनशील क्षेत्र घोषित करना होगा। इन क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के मानवीय गतिविधियाँ चाहे वह पर्यटन ही क्यों न हो पूर्णतः प्रतिबंधित करना होगा। इन दुर्गम स्थानों को सड़क मार्ग से न जोड़कर, रज्जू मार्ग (रोप-वे) एवं उड़न खटोला जैसे विकल्प पर विचार करना होगा। नदियों एवं धाराओं से उत्पादित जल विद्युत का उपयोग इन उड़न खटोलों को चलाने में करना चाहिए।


आपादा पर उत्तराखंड की आवाज

http://hindi.indiawaterportal.org/comment/reply/46400



पिछली आपदा का वो सच जो मीडिया नहीं दिखाता.....

उत्तराखंड आपदा को आज एक साल पूरा हो गया, उत्तरकाशी में इस पूरी आपदा को मैंने बहुत करीब से देखा...और जिया....आज मन था की बहुत कुछ लिखू....लेकिन सर घूम जाता है ये सोचकर की कहाँ से शुरू करूँ और क्या छोडू...क्या लिखू....तय किया की कुछ नही लिखूंगा....

बहरहाल आपदा की इस कवरेज के दौरान बहुत कुछ सिखने को मिला, रिपोर्टिंग, राजनीती, मानवीय संवेदनाएं...,और वो सबकुछ जो आमतोर पर दसियों साल में हम नही समझ पाते ...सीख पाते...हमने देखा कि किस तरह से अचानक राष्ट्रीय मीडिया पहाड़ों में छा गया था...

कुछ के लिए ये वक्त था खुद को एक्सपोज करने का....ऋषिकेश में सडक की बांयी और खड़ा होकर कोई कहता हम केदारघाटी पहुँच गये तो अगले पल सडक के दांयी और खड़ा होकर बोलता हम गंगोत्रीघाटी पहुँच गये....पहाड़ की सामाजिक सरंचना से अनजान लोगों ने हवा बना दी कि पहाड़ में लोग भूखों मर जायेंगे....सरकार ने लगे हाथ हेल्ली से राशन भेजने का काम शुरू कर दिया...एक किलो आटा कुंतल के भाव पड़ा...ये सबसे आसन तरीका भी था....लोगों का ध्यान बंटाने का....लोग अब एक एक किलो आटा-दाल के लिए लड रहे थे....बेतरतीब हेल्ली उडाये जा रहे थे...लेकिन हमने प्रसव पीड़ा से तडपती ...दम तोडती महिलाओं को देखा....प्रसव वेदना में महिलाओं मिलों पैदल चलते देखा....लेकिन हेल्ली शायद उनके लिए नही था....नेता आते लेकिन पीड़ित को साथ ले जाने से कतराते...हमने देखा कि किस तरह से देरी से सुरु हुआ रेस्क्यू कार्य....हजारों हजार लोगों पर भारी साबित हुआ....

जब मैं हर्षिल पहुंचा तो देखा कि सरकारी दावों के विपरीत वहाँ अब भी चार हजार के आस पास लोग फंसे हुए थे....एक हेलिकॉप्टर आता तो यात्री चील कवों की तरह टूट पड़ते....जब मैं हर्षिल में उतरा तो एक महिला यात्री ने चिल्लाकर गाली दी....सालो तुम क्यों आये ....तुम्हारी जगह कम से कम यात्री वापस जाते....मुझे बिलकुल भी बुरा नही लगा उलटे आँखे भर आई.....लोग हप्ते भर से फंसे हुए थे....घरों से कोई सम्पर्क नही था....कब लौटेंगे ये भी कुछ तय नही था....कई मौके ऐसे आये....जब फ़ोनों देते देते गला रुंध गया...जिला मुख्यालय में बेसुमार राहत सामग्री पहुँच चुकी थी.....इसमें भी अधिकतर राहत उन्ही स्थानों तक पहुँच पायी जहाँ तक पहुंचा जा सकता था....

स्थानीय नेताओं के लिए यह आपदा जैसे एक सुनहरा अवसर था.....वोट बैंक के लिए अपने अपने क्षेत्रों में राहत सामग्री पहुंचा दी.....जहाँ आपदा से कुछ हुआ ही नही था....BJP के एक नेता तो कम्बल ही उड़ा ले गये....बहरहाल बहुत कुछ है लिखने और कहने को....लेकिन फिर समस्या वही कहाँ से सुरु करु....क्या लिखू....क्या छोडू....होचपोच है दिमाग में.....सो फिर कभी.....

साभार : Sunil Navprabhat

पश्चिम ने हमें सिविलाइज नहीं किया है। बल्कि यह कहना चाहिए कि पश्चिम में सभ्यता, जनवाद, आजादी, समानता, भ्रातृत्व आदि के सिद्धान्त पैदा करने का अतिरिक्त समय वहाँ के लोगों को पूरब से लूटी गई भौतिक सम्पदा के कारण मिल पाया। ब्रिटेन का औद्योगीकरण भारत से होने वाली लूट के कारण हो पाया। यही बात फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल और उनके उपनिवेशों के बारे में भी कही जा सकती है। यह सच है कि पश्चिम में प्रबोधन और नवजागरण के कारण तमाम मुक्तिदायी विचारों ने जन्म लिया। लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि हम नस्ली तौर पर कमजोर हैं और वे नस्ली तौर पर श्रेष्ठ। नस्ली श्रेष्ठता और हीनता के तमाम सिद्धान्त विज्ञान ने गलत साबित कर दिये हैं। आज पश्चिम का जो शानदार विकास हुआ है उसके पीछे बहुत बड़ा कारण एशिया और अफ्रीका की साम्राज्यवादी लूट है।

इस लेख से

http://ahwanmag.com/archives/821

Lalajee Nirmal

13 hrs · Edited ·

उदितराज और रामविलास पासवान अगर अम्बेडकर वादी नहीं हैं तो मायावती भी अम्बेडकरवादी कैसे हो सकती हैं |मै इन तीनों के घर गया हूँ, उदितराज और रामविलास के घर में मैंने अम्बेडकर को देखा जब की मायावती के घर के दरवाजे के उपर गणेश को बैठे देखा |जो भी लोग डा.अम्बेडकर और उनकी 22 प्रतिज्ञाओं को फालो करते हैं वे मायावती को कैसे माफ़ कर सकते हैं ,चौराहे पर डा. अम्बेडकर और घर में गणपति |

उदितराज और रामविलास पासवान अगर अम्बेडकर वादी नहीं हैं तो मायावती भी अम्बेडकरवादी कैसे हो सकती हैं |मै इन तीनों के घर गया हूँ, उदितराज और रामविलास के घर में मैंने अम्बेडकर को देखा जब की मायावती के घर के दरवाजे के उपर गणेश को बैठे देखा |जो भी लोग डा.अम्बेडकर और उनकी 22 प्रतिज्ञाओं को फालो करते हैं वे मायावती को कैसे माफ़ कर सकते हैं ,चौराहे पर डा. अम्बेडकर और घर में गणपति |

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Indresh Maikhuri

15 hrs ·

प्रति,

श्रीमान मुख्यमंत्री,

उत्तराखंड शासन,

देहरादून.

महोदय,

उत्तराखंड में एक वर्ष पूर्व भीषण आपदा आई थी,जिससे राज्य में बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान हुआ था.इस आपदा में देश-विदेश के लोगों,संस्थाओं ने आगे बढ़कर मदद की.केंद्र सरकार ने भी सात हज़ार करोड़ रुपये की सहायता का ऐलान किया था.

लेकिन आपदा के एक वर्ष बाद देखें तो राज्य सरकार के पास ना तो कोई समग्र नीति और ना ही दृष्टि नजर आती है,जो भविष्य में इस तरह की विभीषिकाओं का कारगर ढंग से मुकाबला करने में सक्षम हो सके.

महोदय,आपदा के एक वर्ष बीतने पर भाकपा(माले) आपसे यह मांग करती है कि –

महोदय,आपके द्वारा केंद्र सरकार से आपदा से निपटने के लिए 4000 करोड़ रुपये की मांग की गयी है.भाकपा(माले) मांग करती है कि आपदा से निपटने के लिए केंद्र सरकार द्वारा दिए गए 7000 करोड़ रुपये तथा अन्य माध्यमों से प्राप्त कुल धनराशि एवं उसके खर्च को लेकर राज्य सरकार एक श्वेत पत्र जारी कर संपूर्ण ब्यौरा सार्वजनिक किया जाए.

महोदय,आपदा की विभीषिका को बढाने में उत्तराखंड में कदम-कदम पर बनने वाली जलविद्युत परियोजनाओं की बड़ी भूमिका थी.उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर भारत सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति ने भी इस तथ्य को माना है.लेकिन कुछ दिन पूर्व राज्य मंत्रिमडल की बैठक में उच्चतम न्यायालय में परियोजना निर्माण पर लगी रोक हटाने की पैरवी करने का फैसला लिया गया.यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय है और दर्शाता है कि बीते वर्ष की आपदा से सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा है और वह भविष्य में भी ऐसी त्रासदियों को आमंत्रित करना चाहती है.महोदय,भाकपा(माले) यह मांग करती है कि राज्य में निर्माणाधीन/प्रस्तावित सभी परियोजनाओं की समीक्षा की जाए.बीते वर्ष की आपदा की विभीषिका बढाने के लिए जिम्मेदार जे.पी.,जी.वी.के.,लैंको,एल एंड टी जैसी जलविद्युत् परियोजना निर्माता कंपनियों के खिलाफ जान-माल को नुकसान पहुंचाने के लिए आपराधिक मुकदमा दर्ज किया जाए.

राज्य में जनोन्मुखी पुनर्वास नीति घोषित की जाए.आपदा पीड़ितों को जमीन के बदले जमीन दी जाए और मकान के बदले मकान दिया जाए.मुआवजे में राज्य सरकार अपना हिस्सा बढ़ाते हुए, इसे पांच लाख रुपया किया जाए.जिनके रोजगार के साधन पूरी तरह नष्ट हो गए हैं,उन्हें इन स्थितियों से उबरने तक जीवन निर्वाह भत्ते के रूप में राज्य द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन दिया जाए.

अनियोजित शहरीकरण,बेतहाशा खनन और सड़क निर्माण सहित तमाम निर्माण कार्यों में अंधाधुंध विस्फोटकों के इस्तेमाल व मलबा नदियों में डाले जाने ने भी आपदा की विभीषिका को कई गुना बढ़ा दिया.शहरों में तमाम निर्माण नियोजित तरीके से हों,अवैध खनन पर रोक लगे, विस्फोटकों के इस्तेमाल को नियंत्रित किया जाए और किसी भी सूरत में मलबा नदियों में निस्तारित करने की अनुमति ना हो.इन सब बातों को सुनिश्चित करने के लिए सरकार नियामक इकाईयों को चुस्त-दुरुस्त करे.

महोदय,आपदा के एक वर्ष बीतने पर उक्त उपायों को प्रभावी तरीके से सुनिश्चित करवाने के लिए राज्य सरकार को स्वयं पहल करनी चाहिए थी.लेकिन अफ़सोस कि राज्य सरकार तो सिर्फ लीपापोती जैसे उपाय ही कर रही है. अतः भाकपा(माले) राज्य सरकार से मांग करती है कि उक्त मांगों पर तत्काल प्रभावी कार्यवाही की जाए अन्यथा पार्टी आंदोलनात्मक कदम उठाने को बाध्य होगी .

उचित कार्यवाही की अपेक्षा में

सहयोगाकांक्षी,

राज्य कमिटी,

भाकपा(माले)

Vidya Bhushan Rawat The government in Uttarakhand and Himachal have played tricks and allowed laws to be violated. Every special region in India have land when outsiders can not violate that but corruption and nepotism allow such things to happen. Politicians have used the sentiments of the people, their unresolved problems of years to befool them and violate all environmental laws. If we talk of nature, preserving climate, protection of Ganga, the goons of politicians will lynch us in public yet I feel Uttarakhand people will respond, they will rise up against such devastation of nature which is mafia made.


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