BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Thursday, July 19, 2012

Fwd: TaraChandra Tripathi updated his status: "उत्तराखंड के एक प्रसिद्ध कथाकार का पत्र पढ़ा। उन्होंन...



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Date: 2012/7/19
Subject: TaraChandra Tripathi updated his status: "उत्तराखंड के एक प्रसिद्ध कथाकार का पत्र पढ़ा। उन्होंन...
To: Palash Biswas <palashbiswaskl@gmail.com>


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TaraChandra Tripathi
TaraChandra Tripathi updated his status: "उत्तराखंड के एक प्रसिद्ध कथाकार का पत्र पढ़ा। उन्होंने लिखा है कि ''जो हालत आज कुमाउनी गढ़वाली आदि की है कभी वही संस्कृत की भी हुई थी जब पाली (शुद्ध रूप पालि है) और प्राकृत ( शुद्ध रूप प्राकृतों होना चाहिए क्योंकि प्राकृत भाषाएँ अनेक हैं) ने उसे हासिये पर डाल दिया था। वास्तविकता तो यह है कि ब्राह्मणों और राजन्यों के गठजोड़ ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए संस्कृत को, जो केवल विद्वानों और लेखकों की औपचारिक भाषा के रूप में स्थिर हो गयी थी, शासन और धर्म की भाषा बना दिया था। केवल सीमित अभिजातों की ही उस तक पहुँच होने के कारण वह अंग्रेजी की तरह ही आम जनता के शोषण का कारण बनी। संस्कृत के हावी होने का जितना अभिशाप दलितों और महिलाओं ने भोगा उतना तो किसी बामण या ठाकुर ने तो भोगा ही नहीं। छोटे से छोटे बामण और छोटे से छोटे थोकदार के तो मजे ही रहे। संस्कृत के बल पर धर्म की मनमानी व्याख्या के विरोध में ही तो बुद्ध और महावीर ने जनता की भाषा में धर्मोपदेश दिये थे । अभिलेखों और अन्य उपलब्ध साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि ब्राह्मणवाद के गुप्तकालीन नव जागरण तक पूरे भारत में प्राकृतों या जनता की बोली में राजकाज चलता रहा। अशोक के धर्मलेख, कलिंग मे खारवेल के गुहा लेख, दक्षिण में सातवाहनों के जनभाषा में अंकित अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्त युग से पहले पूरे भारत में जन भाषाओं को ही राजभाषा का पद प्राप्त था। लेकिन सुविधा भोगी वर्ग ने अपनी रचनाओं में इन भाषाओं को इतना तोड­मरोड़ कर प्रस्तुत किया कि वे सर्वथा अव्यावहारिक कृत्रिम भाषा बन गयीं। जहाँ तक संस्कृत की रक्षा का सवाल है, उसे किसी संरक्षण की आवश्यकता नहीं है। पूरे विश्व में उसके हजारों अध्येता विद्यमान हैं और रहेंगे। उत्तराखंड में एक शास्त्रीय भाषा या क्लैसिकल लैंग्वेज के रूप में उसके अध्ययन को प्रोत्साहन देना समझ में आता है, पर उसे राजभाषा बनाने का औचित्य समझ में नहीं आता। अतीत में कभी वह अपने वर्तमान रूप में जन भाषा रही होगी, इसमें भी संदेह है। वह केवल पंडितों और समाज के चुनिन्दा लोगों की औपचारिक भाषा रही होगी। यदि यह नहीं होता तो संस्कृत नाटकों में केवल प्रतिष्ठित पात्रों के संवाद संस्कृत में और अन्य पात्रों के संवाद प्राकृतों में रखने का विधान क्यों होता ? दुर्भाग्य से न केवल हमारे विश्वविद्यालयों में अपितु सत्ता के शीर्ष पर भी थ्री इडियट्स के चमत्कार और बलात्कार में अन्तर न कर पाने वाले महापुरुष बैठे हैं। इसीलिए पहले से ही अर्थ का अनर्थ होता रहा है। संस्कृत को उत्तराखंड की दूसरी राजभाषा बनाना भी एक ऐसा ही अनर्थ है। जिस भाषा को पूरे प्रदेश में बिरले ही लोग जानते हों, और वे भी दैनिक व्यवहार में कभी न लाते हों, उसे राजभाषा बनाने का औचित्य क्या है? अच्छा होता कि प्रदेश संस्कृति की मरणासन्न वाहिकाओं, कुमाऊनी और गढ़वाली को दूसरी राजभाषा बनाने पर विचार किया जाता।"
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