BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Monday, July 16, 2012

Fwd: [New post] टिहरी बांध : बांध में डूबी जिंदगियां



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/7/15
Subject: [New post] टिहरी बांध : बांध में डूबी जिंदगियां
To: palashbiswaskl@gmail.com


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टिहरी बांध : बांध में डूबी जिंदगियां

by गीता गैरोला

हम अभी-अभी नई टिहरी से लौटे हैं।

आगराखाल से नरेंद्रनगर के बीच उतरती शाम में बादलों के बीच छिप-छिप कर डूबते सूरज की लालिमा भी मन को बांध नहीं पाई। जब भी नई टिहरी जाना होता है। हमेशा पहाड़ों की शृंखला के पार स्थिर बर्फ की चोटियों की तरफ ही देखती हूं। पहाड़ों की तलहटी में घिरे कालिमा लिए 65 कि.मी. लंबी झील देखने सेदिल में दहशत सी होने लगती है। ऐसा हमेशा ही होता है। नई टिहरी से लौटकर आने के बाद एक जीता-जागता शहर मेरे खून के साथ रग-रग में दौडऩे लगता है। ढेरों प्रश्न चारों तरफ नाच-नाचकर चीखने लगते हैं।

विकास के नाम पर 125 गांव उनकी गलियां, खेत-खलिहान गधेरे, धारे, नौले, लाखों पेड़, उन पर बसेरा करते पक्षी, उनके नन्हे-नन्हे बच्चे सब पूछने लगते हैं, हमारा क्या कसूर था। तुम्हारे इस विकास से हमें क्या मिला।

1965 में जब तुम बांध बनाने की योजना बना रहे थे। तुमने हमसे क्यों नहीं पूछा कि हम क्या चाहते हैं। आज किसी को याद भी नहीं है कि इसी भागीरथी नदी से 1903 में पन-बिजली का उत्पादन होने लगा था। जिसकी जगमगाती बत्तियां भागीरथी के बहाव में आंखें झपका-झपका कर टिमटिमाती रहतीं। अगर तुम्हें बिजली की जरूरत थी तो ऐसे ही पन बिजली बनाने की बात तुम्हें याद रखनी चाहिए थी।

जब भी नई टिहरी जाना होता है। हमेशा पहाड़ों की शृंखला के पार स्थिर बर्फ की चोटियों की तरफ ही देखती हूं। पहाड़ों की तलहटी में घिरे कालिमा लिए 65 कि.मी. लंबी झील देखने से दिल में दहशत सी होने लगती है। ऐसा हमेशा ही होता है। नई टिहरी से लौटकर आने के बाद एक जीता-जागता शहर मेरे खून के साथ रग-रग में दौडऩे लगता है। ढेरों प्रश्न चारों तरफ नाच-नाचकर चीखने लगते हैं।

मसूरी देहरादून के बीच बनी गलोगी, पन-बिलजी योजना को तुम सब कैसे भूल गए जो आज भी मौजूद है, गलोगी पावर हाउस को चलाने की जिम्मेदारी अंग्रेजी शासन के दौरान भी मसूरी नगर पालिका को दी गई थी। क्या ऐसे ही छोटी-छोटी परियोजनाएं तुम नहीं बना सकते थे। जिनको जिला पंचायत चला सकती है, तुम तो पंचायतों के स्वशासन को सशक्त करने के लिए दिन-रात प्रयत्न करने के दावे करते रहते हो। 1974-75 में जिस दिन तुमने एक किनारे से खुदाई करनी शुरू थी, हमें विश्वास नहीं हुआ कि बांध के नाम पर 30 दिसंबर, 1815 को स्थापित टिहरी और इसके 125 गांवों की पूरी सभ्यता, उसके इतिहास को सचमुच डुबो दिया जायेगा। सीमेंट, कंक्रीट और असेना, डोबरा गांव के पत्थर मिट्टी से 260.5 मीटर ऊंची दीवार बनाकर तुम भागीरथी और भिलंगना के संगम गणेश प्रयाग के नामो-निशान मिटा दोगे। पहाड़ों को कुरेद-कुरेद कर 35 कि.मी. लंबी सुरंगें बनाकर भागीरथी को अंतर्ध्यान कर दोगे। तुम्हें याद होगा भादू की मगरी से नीचे रैका धारमंडल और कंडल गांव को जाने के लिए भिलंगना नदी के ऊपर बना झूला पुल कितना प्यारा था। 1877 में यह झूला पुल टिहरी के राजा प्रताप शाह ने बनवाया था। इसी पुल के ऊपर से राजा प्रतापशाह घोड़े में बैठकर गर्मियों के दिनों में प्रतापनगर के महल में रहने जाया करता था। बुजुर्ग बताते हैं कि कंडल गांव की जमीन टिहरी रियासत की उपजाऊ जमीनों में आला दर्जे की जमीनें थीं। पुल पार करते ही सैकड़ों साल पुराने पीपल के पेड़ की गझिन छांव राही को अपने चमकीले पत्ते हिला-हिलाकर निमंत्रित करती kandal-gaon-and-bridgeरहती। टिहरी से नगुण को जाने वाली सड़क के किनारे वाली बसासतें टिहरी की सबसे घनी और उपजाऊ बसासतें थी। स्यासूं के पल्ली पार मणी गांव के सेरों में लगी रोपणी (रोपाई वाले धान) की हरियाली गंगोत्री, यमुनोत्री जाने वाले यात्रियों की थकान मिटा देती थी। झील की तलछट में दबे नगुण के सेरों में हर वर्ष पापड़ी संक्रांति (वैशाखी) को लगने वाले मेले में हजारों बच्चों ने लाल-हरे चिल्ले और रबड़ से बने गोल चश्मों की रंगीली दुनिया को देखना सीखा। पडियार गांव गोदी, सिरांई और माली देवल के सेरा का भात खाकर सुंदर लाल बहुगुणा ने पूरे विश्व में अपनी धाक जमाई। दोबाटे से टिहरी की तरफ उतरती सड़क के बायीं ओर भागीरथी के किनारे सड़क के नीचे आम के झुरमुट में छिपे तीन धारे के ठंडे मीठे पानी से पूरी टिहरी शहर की प्यास बुझाती थी। भागीरथी के ऊपर 1858 में बने पुल को पार करते ही बड़े से पीपल के पेड़ से ढके टिहरी के बस स्टैंड में खड़ी बसों के कंडक्टरों की बुलाहट सुनाई देने लगती। ऋषिकेश, उत्तरकाशी, घनसाली, प्रतापनगर की आवाजें गड़मड़ होकर यात्रियों को अपने गंतव्य की तरफ जाने को बुलाते रहते। बस स्टैंड से सटे गुरुद्वारे से आती शब्द कीर्तन की मधुर ध्वनि हर एक को मत्था टेकने को उकसाती। बस स्टैंड से सेमल तप्पड़ तक छोटी सी, हलचलों से धड़कते टिहरी बाजार की रौनक उसकी चहल-पहल और रिश्तों की गरमाहट सब झील में समा गई।

tehri-submergingभारत सरकार ने 1996 में टिहरी शहर तथा उसके आसपास के विस्थापित होने वाले गांवों की समस्याओं को समझने हेतु हनुमंत राव कमेटी का गठन किया। हनुमंत राव कमेटी के सुझावों पर बनी भारत की सबसे अच्छी पुनर्वास नीति में विधवा, परित्यक्ता, तलाकशुदा व दूसरी पत्नी के लिए कोई नियम/उपनियम नहीं बनाये गए। समाज के पितृसत्तात्मक ढांचों में उपेक्षित महिलाओं की सुध सरकार क्यों लेती, जब परिवार के लोग ही उन्हें बोझ मानते हैं। विधवा, परित्यकता, तलाक शुदा व दूसरी पत्नी बनी महिलाओं के लिए टिहरी की पुनर्वास नीति में कोई जगह नहीं है। पति की मृत्यु के पश्चात् विधवा महिला का एक मात्र आश्रय पति द्वारा छोड़ी गई जमीन या मकान की संपत्ति होती है। जो अक्सर पत्नी के नाम न होकर बेटों के नाम पर होती है। यहां पर भी विधवा महिलाओं के बेटे ही मकान तथा जमीन से मिलने वाले मुआवजे के पात्र बने। यही तो हैं असमान परंपराएं। जिनकी आड़ में औरतों का शोषण छिपा रहता है। बचपन में पिता, भाई और विवाह के पश्चात पति, बेटों या परिवार के अन्य पुरुष सदस्यों पर आर्थिक रूप से निर्भर इन महिलाओं के लिए बनाये गए कानून सरकारी नीतियों का क्रियान्वयन कभी भी इनके पक्ष में नहीं होता। अगर कुछ बचा तो विस्थापितों के नाम पर बांटे गए 200 करोड़ रुपयों की छीना-झपटी लूट-खसोट और विचौलियों की दलाली। 29 जुलाई 2005 को टिहरी शहर में पानी घुसा और लगभग 100 परिवारों को अपना घर-बार छोडऩा पड़ा। 29 अक्टूबर, 2005 के दिन दो सुरंगें बंद कर दी गईं। 1857 में बना टिहरी का प्रसिद्ध घंटाघर पल-पल पानी में समाती टिहरी उसके आस-पास के 39 गांवों को अंतिम सांसें गिनते देखता रहा।

लगभग चार सौ महिलाओं को एक्सग्रेसिया के रूप में कुछ पैसा दिया गया। इतने कम पैसे में किसी तरह के मकान या जमीन क्रय करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिनके पति संतान न होने पर दूसरा विवाह कर लेते हैं। निसंतान होने, सामाजिक अभिशाप झेलती ऐसी महिलाएं पति द्वारा हमेशा उपेक्षित रहती हैं। विस्थापित होने के कारण पुश्तैनी संपत्ति डूब गई। गांव के अंदर मिलने वाला नैतिक सहारा भी इन महिलाओं से छूट गया। ऐसी ही एक महिला है मनोरमा घिल्डियाल जो नई टिहरी में एक अस्थाई टिन शेड में एकांत जीवन बिता रही हैं। पडियार गांव झील में समाने के बाद गांव के प्रतिष्ठित माफीदारों के परिवार की एक माफीदारिन को भी दर-दर भटकते देखा गया है। डूबक्षेत्र के दलित परिवारों को हरिद्वार तथा देहरादून में पुनर्वासित किया गया। इससे पहले कि ये परिवार उस जमीन में बसने का उपक्रम करते, जमीन के दलालों के पास दलित परिवारों को आवंटित जमीन की सूची पहुंच गई।

उत्तराखंड राज्य स्थापना के बाद बड़े-बड़े बिल्डर, उद्योगपति, भू-माफियाओं के लिए उत्तराखंड की गरीबी और विस्थापन के बाद नए सिरे से बसने की लोगों की बैचेनी ने खाद-पानी का काम किया। इनका सबसे आसान शिकार बनी महिलाएं और दलित। आनन-फानन में इनको बहला-फुसला कर जमीन औने-पौने दामों में विकवा दी गई। जमीन से मिला पैसा शराब की भेंट चढ़ गया। डूबक्षेत्र के अधिकांश दलित परिवार दर-दर भटकने को मजबूर हैं।

झील में पूरी तरह डूबे भल्डियाना गांव के रूकमदास का परिवार आज भी चिन्याली गांव में रह रहा है। इन्हें विस्थापन के बाद हरिद्वार के पथरी क्षेत्र में 8 बीघा जमीन मुआवजे में मिली थी। जब तक पूरी 8 बीघा जमीन बिक नहीं गई तब तक दलाल उनके पीछे लगे रहे। करोड़ों रुपए की जमीन भूमाफियाओं ने मात्र 8 लाख में बेच दी। तीन बेरोजगार बेटों के परिवारों के भरण पोषण के लिए आठ लाख कितने दिन चलते। आज रूकमदास का परिवार दो छोटे-छोटे कमरों में दिन बिता रहा है। गांव की जमीन से दो-चार महीनों की गुजर-बसर के लिए पैदा होने वाली फसलों का सहारा समाप्त हो गया।

tihari-1989मालीदेवल गांव में जन्मी और टिहरी शहर में ब्याही गई 62 वर्षीय देवेश्वरी घिल्डियाल का मायका और ससुराल दोनों ही टिहरी झील में समा गए। जमीन और मकान का मुआवजा तो मिल गया, लेकिन जन्म भूमि की महक झील के नीचे जमी तलछट में समा गई। अपने डूबते शहर से पांच लीटर के केन में गंगाजल भर कर लाई थी। उसमें से बूंद-बूंद अमृत की तरह पीती है, और धारों-धार रोती है। देवेश्वरी ने पुरानी टिहरी में खरीदे कपड़े, टिहरी की मिट्टी, फलों के बीज स्मृति स्वरूप संभाल कर रखे हैं। उन्हें अक्सर रात को पुरानी टिहरी और मालीदेवल के सपने आते हैं। देवेश्वरी का कहना है कि सामाजिक रिश्तों की भरपाई क्या किसी मुआवजे से की जा सकती है। क्या किसी गांव, क्षेत्र, शहर के सामाजिक सांस्कृतिक ताने-बाने को विस्थापित किया जा सकता है।

झील के किनारे जाते ही मेरा तन मन और मेरे वजूद से जुड़ी सारी कायनात उसमें छलांग लगाकर घुसने के लिए बेताब हो जाती है। मैं हाथीथान मोहल्ले के उस घर में घुसकर अपने नन्हे से बेटे के घुटनों-घुटनों चलते निशान लाना चाहती हूं जो उसी घर के बरामदे में कहीं छूट गए। टिहरी बाजार से उन टुकड़ों को बीनना चाहती हूं जो हम सब सहेलियों को चूड़ी पहनाने वाले हाथों से टूट कर झील की गहराई में ही छूट गए।

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