BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Welcome

Website counter
website hit counter
website hit counters

Wednesday, July 4, 2012

Fwd: [New post] राजनीति : क्रांति और अहिंसा



---------- Forwarded message ----------
From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/7/4
Subject: [New post] राजनीति : क्रांति और अहिंसा
To: palashbiswaskl@gmail.com


New post on Samyantar

राजनीति : क्रांति और अहिंसा

by समयांतर डैस्क

उपेंद्र स्वामी

आजादी की लड़ाई: गांधी और भगतसिंह : अवतार सिंह जसवाल; पृ. : 280, रु. 600; अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स

ISBN 978 - 81 - 7975 -472 - 6

Bhagat_Singh_1929मोहनदास करमचंद गांधी और भगत सिंह, दोनों ही देश की आजादी की लड़ाई के विपरीत ध्रुवी नायकों में रहे हैं। दोनों ही ने इस संघर्ष को निर्णायक दिशा दी। साथ ही, दोनों इतिहासकारों के प्रिय पात्रों में से भी रहे हैं। लोगों की रुचि न केवल दोनों के व्यक्तित्वों को समझने में रही है, बल्कि इस बात में भी उतनी ही रही है कि दोनों एक-दूसरे के बारे में और देश को अंग्रेजों से आजादी दिलाने के बारे में क्या सोचते रहे। आजादी से लगभग सोलह साल पहले 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को दी गई फांसी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक ऐसा पड़ाव थी, जिसको लेकर गांधी हमेशा इतिहासकारों की पड़ताल के दायरे में रहेंगे। वरिष्ठ लेखक अवतार सिंह जसवाल की पहली पुस्तक 'आजादी की लड़ाई: गांधी और भगत सिंह' भी इसी की एक महत्त्वपूर्ण कोशिश है।

इतिहास सबका साझा है और जो घट चुका उसे बदला नहीं जा सकता। लेकिन घटनाओं की पृष्ठभूमि और उन तक ले जाने वाले हालात का विश्लेषण हर लेखक अपने नजरिये से करता है। इसी में उसकी ताकत या कमजोरी छिपी है कि वह अपने विश्लेषण को कितना विश्वसनीय बना पाते हैं। जसवाल इसमें काफी हद तक कामयाब हुए हैं। बीसवीं सदी की शुरुआत के बाद के आजादी के संघर्ष में गांधी का प्रभामंडल इतिहासकारों पर काफी हावी रहा है। यह किताब उससे कतई मुक्त है। इसके उलट इसमें उनके शुरुआती दिनों, लंदन में बैरिस्टरी और दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष के दिनों का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है। इसमें बिना किसी लाग-लपेट के कहा गया है कि मोहनदास गांधी भी किसी आम आदमी की ही तरह भय, प्रलोभन, मौकापरस्ती जैसी कमजोरियों से ग्रस्त थे। उनका प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में यकायक आकर अहिंसा का मंत्र फूंक देना भी किसी प्रयोजनवश ही था। यह किताब उस प्रयोजन पर गहरे सवाल खड़े करती है, और केवल इसी पर नहीं, बल्कि गांधी के तमाम कदमों के प्रयोजन पर सवाल खड़े करती है। जैसे कि चौरी-चौरा की घटना के बाद गांधी का असहयोग आंदोलन को अचानक खत्म कर देना, आम लोगों के साथ-साथ नेहरू, मालवीय व लाजपतराय जैसे कांग्रेस के नेताओं को भी नागवार गुजरा। किताब में लेखक ने कहा है कि गांधी का यही रुख क्रांतिकारी आंदोलन को जन्म देने के साथ-साथ देश के राजनीतिक हालात को सांप्रदायिक रंग देने के लिए भी जिम्मेदार रहा।

जसवाल ने इस किताब में ईस्ट इंडिया कंपनी के आने से पहले के भारत के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य और 19वीं सदी में देश में घटित तमाम किसान, श्रमिक, आदिवासी आंदोलनों को भी खास परिप्रेक्ष्य में रखा है। इनसे उस पृष्ठभूमि का भी अंदाजा हो जाता है जिसमें अंग्रेजों ने बगावतों की धार कुंद करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुसलिम लीग जैसे राजनीतिक ढांचे खड़ा करने का दांव खेला। जसवाल ने आजादी की लड़ाई में किसान-मजदूर संघर्षों के अलावा कम्युनिस्ट पार्टी व भगत सिंह की हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की भूमिका की भी विस्तार से चर्चा की है।

गांधी के व्यक्तित्व को जहां उनकी आत्मकथाओं के गहन विश्लेषण से भी भलीभांति समझा जा सकता है, वहीं भगत सिंह ने अपने बारे में कम ही लिखा है, सिवाय 'मैं नास्तिक क्यों' में अपनी नास्तिकता के तर्कपूर्ण आधार के। लेकिन भगत सिंह ने अपनी पार्टी के कार्यक्रमों, योजनाओं व नीतियों और राजनीतिक हालात के बारे में लगातार लिखा और काफी प्रभावशाली तरीके से अपनी बातें रखीं। यहां तक कि गांधीवाद की सीमाओं व उद्देश्यों के बारे में भी उन्होंने अपनी बात साफगोई के साथ रखी। उन्होंने स्पष्ट कहा कि गांधीवाद पूर्ण स्वतंत्रता के बजाय केवल सत्ता में राजनीतिक हिस्सेदारी की आकांक्षा तक सीमित है। किताब में परिशिष्ट के तौर पर भगत सिंह के लेख 'मैं नास्तिक क्यों' के अलावा हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन द्वारा जारी किए गए पर्चे 'बम के दर्शन' को भी शामिल किया गया है, जो 1929 में क्रांतिकारियों द्वारा वायसराय की गाड़ी को उड़ाने की कोशिश के बाद गांधी द्वारा यंग इंडिया में लिखे लेख 'बम की पूजा' के जवाब में था। इसके अलावा भगत सिंह द्वारा तैयार क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसविदा भी परिशिष्ट में है। ये दोनों ही पर्चे गांधी व क्रांतिकारियों की विचारधारा व आजादी की लड़ाई के प्रति दृष्टिकोण में अंतर को साफ रेखांकित करते हैं। वे यह भी साफ करते हैं कि क्रांति व उग्रवाद के बारे में भगत सिंह के विचार क्या थे। किताब के आखिरी चार अध्याय सेंट्रल असेंबली में भगत सिंह व उनके साथियों द्वारा बम फेंके जाने, मुकदमे की कार्यवाही, फांसी की सजा और उसके बाद के राजनीतिक घटनाक्रम पर हैं, जो मुख्य रूप से गांधी की भूमिका पर रोशनी डालते हैं।

इतिहास, वह भी आजादी की लड़ाई से जुड़ा इतिहास अवतार सिंह का पसंदीदा विषय रहा है। उन्होंने इसका गहन अध्ययन भी किया है, जिसकी झलक इस किताब में दिखती है। भारत की आजादी से ठीक पहले के कुछ दशकों के दौरान राजनीतिक दावपेंचों की अंतर्दृष्टि भी इससे मिलती है। इस लिहाज से भी यह एक जरूरी किताब है।

Comment    See all comments

Unsubscribe or change your email settings at Manage Subscriptions.

Trouble clicking? Copy and paste this URL into your browser:
http://www.samayantar.com/book-review-gamdhi-and-bhagat-singh/



No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...