BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Welcome

Website counter
website hit counter
website hit counters

Friday, July 6, 2012

Fwd: In Search of Garhwali Culture गढ़वळि संस्कृति क खोज मा



---------- Forwarded message ----------
From: Bhishma Kukreti <bckukreti@gmail.com>
Date: 2012/7/7
Subject: In Search of Garhwali Culture गढ़वळि संस्कृति क खोज मा
To: kumaoni garhwali <kumaoni-garhwali@yahoogroups.com>, nirala utterakhand <niralautterakhand@gmail.com>, arju <uttranchalkalasangam@googlegroups.com>, uttarakhandpravasi <uttarakhandpravasi@yahoogroups.com>, uttaranchalwasi <uttaranchalwasi@yahoogroups.com>


चबोड़ इ चबोड़ मा गंभीर छ्वीं
                       गढ़वळि संस्कृति क खोज मा
                                   खुजनेर - भीष्म कुकरेती
पता नि किलै धौं अच्काल जै पर बि द्याखो संस्कृति खुज्याणो खजि लगीं च. मि खामखाँ इ अपण ड़्यार आ णु थौ कि इ-उत्तराखंड पत्रिका क विपिन पंवार जीक फोन आई बल,"भैजी आप गाँ जाणा छंवां त जरा गढ़वळि संस्कृति क इंटरव्यू लेक ऐ जैन, अच्काल गढ़वळि संस्कृति कि बड़ी भारी मांग च."
जब बिटेन मीडिया वाळु न सूण कि मार्केटिंग कु नियम च कि अपण ग्राहकुं तै वो इ द्याओ जु ऊं तै चयाणु ह्वाऊ त मीडिया वळा अपण बन्चनेरूं भौत खयाल करण मिसे गेन। वो अलग बात च कि भारत वासी हिंसा , अनाचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार से निजात चाणा छन अर अखबार या टी.वी वळा यूँइ खबरों ता जादा महत्व दीन्दन.
ग्राहक की मांग देखिक इ विपिन पंवार जीन बोली होलु कि गढ़वळि संस्कृति क इंटरव्यू ल्हेकी ऐ जयां. मीन बि स्वाच कि उनि बि मि खांमाखां गाँ जाणु छौ त यीं बौ मा कुछ काम नी त स्या कलोड़ी काँध मलासणि च वळ हिसाब से मीन स्वाच कुछ ना से बढिया बेकार को इ सै कुछ त काम मील. चलो ए बाना गढ़वळि संस्कृति से बि मुलाकात ह्व़े जालि अर म्यार टैम बि पास ह्व़े जालो.
पण सबसे बड़ो सवाल यू छौ कि या गढ़वळि संस्कृति कख रौंदी अर या होंदी कन च अर यींक रंग रूप क्या च !
जब मि छ्वटु थौ या जवानी मा गाँ मा रौऊ त में तै कबि बि खयाल नि आई कि मै तै गढ़वळि संस्कृति दगड मेलमुलाकत रखण चयांद कि कुज्याण कब काम ऐ जाओ धौं ! ना ही हमन किताबु मा बांच कि गढ़वळि संस्कृति बि क्वी चीज होंद. हम न त यू. पी बोर्ड क स्कूलूं मा यि पौड़ कि हमारि संस्कृति माने अयोध्या या मथुरा अर बची ग्याई त इलाहाबाद अर वाराणसी. जब मुंबई मा औं त चालीस साल तलक नौकरी संस्कृति या मार्केटिंग संस्कृति दगड़ पलाबंद कार अर अब तक यूँ द्वी संस्कृत्यूँ छोड़िक कैं हैकि दगड आँख उठै क बि नि द्याख. कबि इन बि नि सूझि कि एकाद चिट्ठी गढ़वळि संस्कृति कुणि भेजि द्यूं जां से कबि गाँ जाण ह्वाओ त गढ़वळि संस्कृति तै पछ्याणण मा दिक्कत नि ह्व्वाऊ. गढ़वळि संस्कृति कुणि चिट्ठी भेजणु रौंद त आज औसंद नि आणि छे. पण अब त संस्कृति तै अफिक खुज्याण इ च .
मि ब्यणस्यरिक मा बिजि ग्यों बल सुबेर सुबेर संस्कृति दिखे जालि. मि अन्ध्यर मा इ गाँ ज़िना ग्यों . यू बगत जन्दुर पिसणो च त जनानी जंदुर पिसणा होला त सैत च गढ़वळि संस्कृति जंदरो ध्वार मिल जालि. मि अपण दगड्या सूनु काक क चौक मा ग्यों कि मै तैं ठोकर लगि गे. एक अवाज आई ,' हाँ ! हाँ ! लगा रै बुडडि तै ठोकर ! " हैं , इन आवाज त सूनु काक जंदरो छौ." मी टौर्च जळाइ देखिक खौंळे ग्यों सीडी क बगल मा तौळ एक जंदरौ तौळक पाट भ्युं पड्यू छौ. मीन पूछ,' हे जंदुर इखम क्या करणि छे?"
जंदर क तौळक पाटन कळकळि भौण म जबाब दे ,"बुड्यान्द दैक दिन कटणु छौं"
"हैं ! पण यू बगत त चून-आटो पिसणो च?" मीन पूछ
जंदरौ न जबाब दे, ' अरे लाटु अब नाज क्वी नि पिसद. अब त फ्लोर मिल या पिस्युं आटो जमानो च ."
मीन दुखी ह्वेक अफु कुण ब्वाल," अब संस्कृति कख मीललि !"
जंदरौ तौळक पाट न बोलि," वींक ले क्या, बदखोर ह्वेली डीजल चक्यूँ ध्वार."
मि जाण बिस्यों त जंदरौ पाट न बोलि, ' ह्यां जरा एक काम करि दे. म्यार बुड्या उख गुज्यर भेळुन्द पड्यू च . भौत बुरी हालत मा च. कथगा दै बुड्याक रैबार ऐ ग्याई बल आखिरैं मुख जातरा देखि ले.केदिन ले हम कन एक हैंकाक मीरि बुकान्दा छ्या (मीरि बुकाण- किस/चुम्मा का प्रतीतात्मक शब्द है )." मै समज ग्यों कि जंदरौ तौळक पाट मथ्यौ पाट तै मिलणो जाण चाणो च . लव, प्यार, माया सब्यूँ मा जगा इकसनी होंद, चाहे जीव हो या निर्जीव! मी तौळ क पाट तै कंधा मा उठैक गुज्यर जिना ग्यों . बाट मा जंदरौ तौळक पाट न भौत सी कथा सुणैन. गुज्यरो हालात पैलाक जनि इ छे. हाँ ! पैल लोग रंगुड़ डाल्दा छ्या अब क्वी रंगुड़ नि डालदो. एक जुम्मेवार प्रवासी की असली भूमिका निभांद निभांद मीन वै जंदरौ तौळक पाट तै गुज्यर क भेळउन्द लमडै द्याई अर अब यि द्वी प्रेमी मीलि जाला अर एक हैंकाक मीरि त नि बुकाला पण एक हैंक तै दिखणा राला. . अब यि जंदुर बि प्रागैतिहासिक काल की वस्तु ह्व़े जाला.
अब मीन स्वाच की सुबेर हूण इ वाळ च जनानी पींडौ तौल लेकि संन्यूँ /छन्यूँ मा आणि ह्वेली . मै लग बल उख सन्यूँ मा गढ़वळि संस्कृति क दर्शन ह्व़े इ जाला अर मि गढ़वळि संस्कृति क इंटरव्यू उखी छन्यूँ मा ले ल्योलु. अब चूंकि मेरो त सरा मुन्डीत इ प्रवाशी ह्व़े ग्याई त हमारि गौशाला, सन्नी या छन्न्युं मा गढ़वळि संस्कृति त मिलण से राई. अर उन्नी बि गढ़वळि संस्कृति तै अपनाणो काम हम प्रवास्युं थुका च गढ़वळि संस्कृति तै अपनाणों जुमेवारी गढ़वाळ का बासिन्दौ कि ही हूण चयांद कि ना ? अरे हम प्रवासी गढ़वळि संस्कृति अपणावां कि भैर देसूं संस्कृति अपणावां ! जख रौला उखाक इ संस्कृति अपनाण इ ठीक च कि ना?
त मि दुसरो छन्न्युं मा ग्यो. मि जब छ्वटु छौ त ये बगत (घाम आणौ टैम पर) गाँ से जादा चहल पहल सन्न्युं ज़िना होंद छौ. गोर भैर गाडो, मोंळ भैर गाडो, दुधाळ गौड्यू तै पींड खलाओ, घास खलाओ . ये बगत संन्युं मा भौत काम हूंद थौ.
मि एकाक सनि/छनि/गौसाला मा ग्यों त उख सुंताळ लग्यु छौ. सन्नी चौक मा तछिल, कण्डाळि अर लेंटीना जम्यु छौ. सन्नि क नाम नि छौ बस जंगळ इ जंगळ. फिर मी स्ब्युं सन्न्युं मा ग्यों त सबि जगा इ हाल छौ. सब जगा जंगळ को माहौल. मी अपण सन्नि म ग्यों त मी बेसुध ह्व़े ग्यों .सन्नि गायब छे बस घास अर घास अर द्वी तीन गीन्ठी डाळ बि जम्याँ छ्या. जब सनी इ जंगळ मा तब्दील ह्व़े गेन त उख संस्कृति ह्वेली ना. मि निरसे ग्यों.
इथगा मा म्यार बाडा क सनि बिटेन धै आई., ह्यां जरा इना आवदी "
मी अपण बाडा क छनि क चौक ज़िना ग्यों त उख भैंस बाँधणो कील मी तै भट्याणु छौ. कील मा अब जान त नि छे पण मीन पछ्याणि दे कि यू बड़ो प्रसिद्ध कील छौ. म्यार बूड दिदा न यि सालौ कील घौट होलु पर अब भसभसो ह्व़े ग्या छौ.
मीन ब्वाल , 'कन छे ये भैंसों कील ?"
कीलन जबाब दे, ' बस दिन बिताणो छौं. आज ना त भोळ . बस एक इ लाळसा बचीं च कि अपण ठाकूरो (म्यार बाडा क नौनु) क दर्शन कुरु द्यूं . पोर ऐ बि छ्या नागर्जा पुजणो पण इना नि ऐन . जरा रैबार दे देन कि जब तक उ नि आला मीन नि मरण. मोरी बि ग्याई त इखी रिटणु रौण. कखि हंत्या रूप मा ऐ ग्याई त फिर तुम लोगुन हंत्या बि पुजण अर दगड मा गाळि बि दीण" मी कीलो दगड भौत देर तक छ्वीं लगाणु रौं. मीन कील तै भर्वस दिलाई कि दादा जरुर त्वे तै दिखणो आलु .
मी तै संन्युं हालत से उथगा दुःख, निरासा नि ह्व़े जथगा दुःख यू ह्वाई कि मै तै गढ़वळि संस्कृति इख नि मील अर मी वींको इंटरव्यू नि ले साको.
अब घाम ऐ गये छ्याओ .
हैं ए म्यारो भूभरड़! तौळ संन्युं से एक रस्ता च . मीन द्याख कि गाँ वाळ परोठी, बोतल लेकी दौड़णा सि छ्या. झाड़ा फिराग जाणो बगत बि च. झाड़ा जाणो गुज्यर त हैकि दिसा मा च त फिर यि गौं का लोग इन किलै इक दगड़ी दौड़णा छन ? अर झाड़ा जाण दै परोठी त क्वी नि लिजांद भै !
मीन स्वाच कि जख यि गाँ वाळ जाणा छन वख जरुर गढ़वळि संस्कृति से भेंट ह्व़े जाली.
(गांका लोग कख अर किलै भागणा छया? क्या मै तै संस्कृति क दर्शन ह्व़ेन ? अर ह्वाई च त संस्कृति n क्या ब्वाल ? यांक बान अगलो भाग )
Read second part----
 
Copyright@ Bhishma Kukreti , 7/7/2012

--
 


Regards
B. C. Kukreti


No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...