BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Wednesday, July 18, 2012

हरेला: लाग हरिया्व, लाग दसैं, लाग बग्वाल, जी रये, जागि रये...

हरेला: लाग हरिया्व, लाग दसैं, लाग बग्वाल, जी रये, जागि रये...



नवीन जोशी

`लाग हरिया्व, लाग दसैं, लाग बग्वाल, जी रये, जागि रये, यो दिन यो मास भेटनैं रये, तिष्टिये, पनपिये, हिमाल में ह्यूं छन तक, गंग ज्यू में पांणि छन तक, अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये, स्याव कस बुद्धि हो, स्यों जस तराण हो, दुब जस पंगुरिये, सिल पिसी भात खाये, जाँठ टेकी झाड़ जाए...´ यानी 10वें दिन कटने वाला हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे, बग्वाल तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीते रहो, जाग्रत रहो, यह शुभ दिन, माह तुम्हारी जिन्दगी में आते रहें, समृद्ध बनो, विकसित होवो, हिमालय में जब तक बर्फ है, गंगा में जब तक पानी है, आकाश की तरह ऊँचे हो जाओ, धरती की तरह चौड़े हो जाओ, सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, दूब घास की तरह फैलो, (इतनी अधिक उम्र जियो कि) भात भी पीस कर खावो..... यह वह आशीषें हैं जो कुमाऊं अंचल में एक ऋतु व प्रकृति पर्व हरेला के अवसर पर घर के बड़े सदस्य सात अनाजों की पीली पत्तियों (हरेले के तिनड़ों) को बच्चों, युवाओं के सिर में रखते हुऐ देते हैं। इन ठेठ कुमाउनी आशीषों में त्रेता युग में देवर्षि विश्वामित्र द्वारा भगवान श्रीराम को दी गईं "आकाश की तरह ऊँचे होने और धरती की तरह चौड़े होने" की आशीषों का भाव भी है। प्रियजन घर की बजाय दूर प्रवास पर सात समुद्र पार भी हों तो उन्हें हरेले के पीले तिनके चिटि्ठयों के जरिऐ भेजे जाते हैं, जिनका उन्हें भी वर्ष भर इन्तजार रहता है।

हरेला कुमाऊं में वर्ष में तीन बार, चैत्र माह के प्रथम दिन, श्रावण माह लगने से नौ दिन पूर्व आषाड़ माह में और आश्विन नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है, और इसी प्रकार नौ दिन बाद चैत्र माह की नवमी, श्रावण माह के प्रथम दिन और दशहरे के दिन काटा जाता है। श्रावण मॉस में मनाया जाने वाला हरेला बरसात के दिनों में पवित्र व शिव के माने जाने वाले श्रावण मास की संक्रांति को मनाया जाता है, इसी दिन सूर्यदेव दक्षिणायन तथा कर्क से मकर रेखा में प्रवेश करते हैं। हरेले के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत, कौंड़ी, मादिरा, धान और भट्ट आदि के बीज घर के भीतर रिंगाल की टोकरियों अथवा लकड़ी के बक्सों में एक विशिष्ट पद्धति से पांच अथवा सात परतों में मिट्टी के साथ बोये जाते हैं, और प्रतिदिन नियमानुसार सुबह-शाम पूजा के बाद पानी दिया जाता है। धूप की रोशनी न मिलने के कारण यह पौधे पीले तिनकों के रूप में दिखते हैं। 10वें दिन यानी संक्रान्ति को इन्हें घर के बुजुर्ग अथवा महिलाऐं काटकर आशीषों के साथ पहले घर के मन्दिरों, फिर गांव के मन्दिरों, घर के द्वारों तथा बाद में बच्चों, युवाओं व बड़ों को एक विशेष पद्धति से पांवों से शुरू करते हुऐ शिर में आशीषों के साथ चढ़ाते हैं। माना जाता है कि जिस घर में हरेले के पौधे जितने बड़े होते हैं, उसके खेतों में उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होती है। इस प्रकार इस पर्व से बिना सूर्य की रोशनी के दुरूह परिस्थितियों में पौधों को अधिक तेजी से उगाने की प्रेरणा भी मिलती है। इस त्योहार को उत्तम कृषि उपज, हरियाली, धनधान्य, सुख संपन्नता आदि से भी जोड़ा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शिव पत्नी सती को अपना कृष्ण वर्ण नहीं भाता था, इसलिऐ वह अनाज के पौधों, हरेले के रूप में गौरा रूप में अवतरित हुईं। इस पर्व को शिव विवाह से भी जोड़ा जाता है। इस दिन शिव पार्वती की पूजा का प्राविधान है।

डिकारों का भी है प्राविधान

हरेले की पूर्व संध्या को डिकारे बनाने का प्राविधान है। सामान्यतया लाल चिकनी मिट्टी से बिना किसी सांचे के शिव, गौरा एवं गणेश जी की मूर्तियां बनाई जाती हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। कई बार डिकारे केले के तने, भृंगराज आदि से भी बनाऐ जाते हैं। इनमें पहले चावल के आटे से श्वेत तथा फिर किलमोड़े, अखरोट, पांगर के छिलकों, कोयले तथा विभिन्न वनस्पतियों के प्राकृतिक रंगों से रंग कर चेहरे की आकृतियां बनाई जाती हैं। शिव सामान्यता नीले तथा गौरा सफेद बनाई जाती हैं। 

देश में अन्य जगह भी मनाऐ जाते हैं ऐसे ही ऋतु पर्व

हरेला जैसे ही ऋतु पर्व देश के अन्य हिस्सों में कमोबेश समान एवं अलग तरीकों से मनाऐ जाते हैं। यहाँ उत्तराखंड के के गढ़वाल अंचल में हरियाला पर्व मनाया जाता है। इसके साथ ही झारखण्ड में बालिकाओं द्वारा अंकुरित बीजों के चारों ओर सामूहिक गायन के साथ इसी तरह का त्यौहार मनाया जाता है, राजस्थान में जौ के बीजों के साथ गणगौर पर्व, हिमाचल प्रदेश के लाहुल में शीत ऋतु में अंधेरे में जौं के पीले अंकुरों (यौरा) उगाने के रूप में, हरियाणा और पशिम बंगाल में दशहरे के दौरान तथा अरुणांचल प्रदेश में भी ऐसे ही त्यौहार मनाऐ जाते हैं।

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