BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Monday, July 16, 2012

सद्भाव और शांति का जश्न

16.07.2012

सद्भाव और शांति का जश्न


-राम पुनियानी


साम्प्रदायिक हिंसा सभी दक्षिण एशियाई देशों का नासूर है। भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की शुरूआत अंग्रेजों के आने के साथ हुई। अपनी "फूट डालो और राज करो" की नीति के तहत, अंग्रेजों ने इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण किया और समाज के वे तबके, जो अपने सामंती विशेषाधिकारों को बचाए रखना चाहते थे,  नें इतिहास के साम्प्रदायिक संस्करण और धर्म का इस्तेमाल अपने राजनैतिक हितों को साधने के लिए करना शुरू कर दिया। हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने अंग्रेजों की "फूट डालो और राज करो" की नीति को सफल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। साम्प्रदायिक हिंसा, भारत की सड़कों और गलियों और यहां तक कि गांवों तक फैल चुकी है। इसके विस्तार के पीछे कई कारण हैं परंतु यह निर्विवाद है कि इसने समाज को घोर कष्ट और दुःख दिए हैं। कई सामाजिक संगठन और व्यक्ति, अपने-अपने स्तर पर, यह कोशिश करते आ रहे हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा की आग को हमेशा के लिए बुझा दिया जाए और समाज में सद्भाव और शांति की स्थापना हो।

इस सिलसिले में अहमदाबाद में 1 जुलाई को आयोजित "शांति एवं सद्भावना दिवस" इसी दिशा में एक प्रयास था। इस दिन, वसंत-रजब की पुण्यतिथि थी। वसंतराव हेंगिस्ते और रजब अली लखानी दो मित्र थे जो साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए काम करते थे। विभाजन के बाद अहमदाबाद में भड़की भयावह साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान वे शांति स्थापना की कोशिशों में लगे हुए थे। शहर के एक हिस्से में दंगे की खबर मिलने के बाद वे वहां पहुंचे। नफरत की आग में जल रही जुनूनी भीड़ ने उन दोनों की जान ले ली। उनके शहादत के दिन, गुजरात में अनेक संगठन अलग-अलग आयोजन करते रहे हैं।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कई असाधारण रूप से साहसी व्यक्तियों, चिंतकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने साम्प्रदायिक शांति की वेदी पर अपनी बलि दी है। इस सिलसिले में गणेशशंकर विद्यार्थी का नाम तुरंत हम सब के ध्यान में आता है। वे कानपुर में सन् 1931 में साम्प्रदायिक हिंसा रोकने के प्रयास में मारे गए थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता अत्यंत महत्वपूर्ण थी। जब पूरा देश ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति का जश्न मना रहा था तब गांधीजी नोआखली और बंगाल के अन्य स्थानों में दंगों की आग को शांत करने के प्रयास में लगे हुए थे। गांधीजी एक महामानव थे। उनके लिए उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा का कोई महत्व नहीं था-महत्व था पागल भीड़ को सही रास्ता दिखाने का। यही कारण है कि ब्रिटिश साम्राज्य के आखिरी वाईसराय और स्वतंत्र भारत के पहले गर्वनर जनरल लार्ड माउंटबेटन ने उन्हें "एक आदमी की सेना" कहा था।

इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तरह के असाधारण साहस और प्रतिबद्धता के प्रदर्शन के अनेक  उदाहरण हमारे देश में होंगे। ऐसे सभी व्यक्तियों को सम्मान से याद रखा जाना ज़रूरी है। उनकी जयंतियां और पुण्यतिथियां मनाना एक औपचारिकता मात्र नहीं होनी चाहिए। हमें उनके मूल्यों से कुछ सीखना होगा। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि आज के भारत में साम्प्रदायिक हिंसा का बोलबाला बढ़ता जा रहा है और उसकी प्रकृति और स्वरूप में लगातार परिवर्तन हो रहे हैं। सन् 1980 के दशक में व उसके बाद उत्तर भारत के अनेक शहरों में गंभीर साम्प्रदायिक हिंसा हुई। मेरठ, मलियाना, भागलपुर और दिल्ली के दंगों ने विभाजन के बाद हुई साम्प्रदायिक हिंसा की यादें ताजा कर दीं। नैल्ली और दिल्ली में हुई हिंसा में भारी संख्या में निर्दोष लोगों ने अपनी जानें गंवाईं। सन् 1992-93 के मुंबई दंगों से देश को यह स्पष्ट चेतावनी मिली कि हमारे शहरों में अंतर्सामुदायिक रिश्तों में जहर घुलता जा रहा है। मुसलमानों के बाद एक अन्य अल्पसंख्यक समुदाय-ईसाई-को निशाना बनाया जाने लगा। पास्टर स्टेन्स की हत्या और उसके बाद कंधमाल में हुई हिंसा ने कईयों की आंखें खोल दीं।

साम्प्रदायिक हिंसा के मूल में है धर्म की राजनीति। निहित स्वार्थी ताकतें अपने राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक एजेन्डे को धर्म की चासनी में लपेटकर लागू करना चाहती हैं। दुर्भाग्यवश, भारत में साम्प्रदायिक हिंसा का दौर-दौरा, वैश्विक स्तर पर साम्राज्यवादी ताकतों के तेल संसाधनों पर कब्जा करने के षड़यंत्र के समांनांतर चल रहा है। साम्राज्यवादी ताकतें, धर्म के नाम पर कट्टरवाद और आतंकवाद को प्रोत्साहन  दे रही हैं। साम्राज्यवादी ताकतों ने दुनिया के धार्मिक समुदायों में से एक बड़े समुदाय का दानवीकरण कर दिया है। इस प्रक्रिया में "सभ्यताओं के गठजोड़" का स्थान "सभ्यताओं के टकराव" ने ले लिया है। निहित स्वार्थी ताकतें सभ्यताओं के टकराव के सिद्धांत की पोषक और प्रचारक हैं। यह सिद्धांत, मानव इतिहास को झुठलाता है। यह इस तथ्य को नकारता है कि मानव समाज की प्रगति के पीछे विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों का गठजोड़ रहा है। जहां शासक और श्रेष्ठि वर्ग अपनी शक्ति और संपदा की बढोत्तरी के लिए संघर्ष करते रहे वहीं पूरी दुनिया के आमजन एक-दूसरे के नजदीक आए, आपस में घुले-मिले और उन्होंने एक-दूसरे से सीखा-सिखाया। चाहे खानपान हो, पहनावा, भाषा, साहित्य, वास्तुकला या धार्मिक परंपराएं-सभी पर अलग-अलग संस्कृतियों और सभ्यताओं की छाप देखी जा सकती है। मानव सभ्यता की प्रगति को उर्जा दी है सामाजिक मेलजोल के इंजिन ने।

धर्म के नाम पर की जाने वाली विभाजक राजनीति की शुरूआत होती है मानव जाति के वर्गीकरण का आधार सामाजिक-आर्थिक कारकों के स्थान पर धर्म को बनाने से। मानव समाज के जो विभिन्न तबके, स्तर या समूह हैं, उनके मूल में हैं आर्थिक-सामाजिक कारक। इस यथार्थ को झुठलाकर कुछ ताकतें यह सिद्ध करने में जुटी हुई हैं कि धार्मिक कर्मकाण्डों की विभिन्नता, मानव जाति को अलग-अलग हिस्सों में बांटती है। समाज को एक करने वाले मुद्दों को पीछे खिसकाकर, समाज को बांटने वाले मुद्दों को बढ़ावा दिया जा रहा है। साम्प्रदायिक हिंसा का आधार होता है "दूसरे से घृणा करो" का सिद्धांत। यही दुष्प्रचार एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य की जान सिर्फ इसलिए लेने की प्रेरणा देता है कि वह दूसरे धर्म में विश्वास रखता है। इस तरह की हिंसा से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता है और अलग-अलग समुदाय अपने-अपने मोहल्लों में सिमटने लगते हैं। केवल अपने धर्म के मानने वालों के बीच रहने से मनुष्यों का दृष्टिकोण संकुचित होता जाता है और दूसरे समुदायों के बारे में फैलाए गए मिथकों पर वह और सहजता से विश्वास करने लगता है। हिंसा-ध्रुवीकरण-अपने अपने मोहल्लों में सिमटना-संकुचित मानसिकता में बढोत्तरी का यह दुष्चक्र चलता रहता है। इसी दुष्चक्र के चलते हमारे देश में अल्पसंख्यकों को समाज के हाशिए पर पटक दिए जाने के अनेक उदाहरण सामने आ रहे हैं।

समाज में मानवता की पुनस्र्थापना का संघर्ष लंबा और कठिन है। विभिन्न धर्मों के हम सब लोगों की एक ही सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत है और हमारी ज़रूरतें तथा महत्वाकांक्षाएं भी समान हैं। बेहतर समाज बनाने की हमारी कोशिश में सिर्फ एक चीज आड़े आ रही है और वह है धर्म-आधारित राजनीति से उपजी घृणा और जुनून। इस जुनून को पैदा करने के लिए भावनात्मक मुद्दों को उछाला जाता है। इस बात की गहन आवश्यकता है कि समाज के सोचने के ढंग को बदला जाए। हम सब पहचान-आधारित संकुचित मुद्दों की बजाए उन मुद्दों पर विचार करें जिनका संबंध समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों और उन्हें जीवनयापन के साधन मुहैय्या कराने से है। अल्पसंख्यकों के बारे में फैलाए गए मिथकों से मुकाबला किया जाना जरूरी है।   हमारी मिली-जुली संस्कृति पर जोर दिया जाना आवश्यक है। हमें बात करनी होगी भक्ति और सूफी परंपराओं की, हमें याद रखना होगा गांधी, गणेशशंकर विद्यार्थी, वसंत-रजब और उनके जैसे असंख्यों के मूल्यों को। शांति और सद्भाव की अपनी पुरानी परंपरा को पुनर्जीवित करने के प्रयासों को हम सलाम करते हैं। हमें भरोसा है कि यही राह हमें प्रगति और शांति की ओर ले जाएगी। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण: अमरीश हरदेनिया)  (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)


संपादक महोदय, कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने प्रकाशन में स्थान देने की कृपा करें।

- एल. एस. हरदेनिया


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