मजहबी दहशतगर्द अवाम के साथ नहीं, सामराज के साथ हैं!
इनकलाबो इनकलाबो इनकलाबो इनकलाब!
♦ आशुतोष कुमार
छायाकार प्रकाश के रे
एक मई 2012 … अरावली पर बसे जेएनयू में कुदरती जंगल बहुत है। लाल बैंड के तैमूर रहमान ने कहा कि पार्थसारथी चट्टान के पास वाली घाटी में बने मुक्ताकाशी मंच तक जाते हुए कई बार महसूस हुआ कि कहीं मैं नक्सलबाड़ी तो नहीं जा रहा हूं। फिर वहां उस मंच पर आधी रात तक जो कुछ हुआ, उसे महसूस करना इस एहसास से गुजरना तो था ही कि नक्सलबाड़ी किसी सुदूर अतीत या भूगोल की चीज नहीं, कहीं बहुत आस-पास, बहुत जिंदा, बदस्तूर धड़कती हुई हकीकत है।
रात गहरी थी। उदासियों के गाढ़े धुएं से भरी हुई। आसपास के जंगल से परे एक और जंगल था, जिसे राजधानी कहते हैं। उस के परे एक और, जिसे राज कहते हैं। जेएनयू छात्रसंघ की अध्यक्ष सुचेता डे बोल रही थीं दिल्ली को सजाने वाले मजदूरों के उजाड़े जाने के बारे में। बथानी टोला के कातिलों के छोड़े जाने के बारे में। चंद्रशेखर के कातिलों को बचाने की राजनीतिक साजिश के बारे में। खुद जेएनयू के मजदूरों के संघर्ष के बारे में। वहां मौजूद हजारों छात्र-शिक्षक सुन रहे थे। शांति इतनी थी कि पत्तों के हिलने के सिवा और कोई आवाज न सुनाई देती थी। सर के ऊपर से गुजरते हवाई जहाजों की गुर्राहट भी नहीं। गूंज थी तो बस हलकी सी बंगाली लचक के साथ खड़ी बोली हिंदी में किये जा रहे सुचेता के उद्बोधन की। जो साम्राज्यवाद के अंतिम जश्न का जीत मना रहे हैं, आएं और देखें, कि इस जगह, इस मई दिवस को, भारत और पाकिस्तान के नौजवान, एक साथ, एक सांस, कौन सा सपना देख रहे हैं। आएं और देखें, इस अंधेरे में चहुं ओर छलकती हुई लाल सपनों की ललाई।
किसी को एक कोने में खड़े कुलपति भी दिख गये। बिना किसी आवभगत के दो शब्द कहने के लिए बुला लिया गया। हिचकिचाते-से कुलपति सुधीर सोपोरी आये और कहा, 'लाल सलाम!' हूटिंग के लिए पहले से ही गोलायमान हो रहे होंठों को चुप रह जाना पड़ा, तालियों की गड़गड़ाहट के मारे।
हिरावल (पटना) ने शाम का आगाज किया। संतोष लीड कर रहे थे। पहले फैज की मशहूर नज्म, 'इंतिसाब', 'आज के नाम और आज के गम के नाम'… फिर मुक्तिबोध के 'अंधेरे में' का एक टुकड़ा… 'ऐ मेरे सिद्धांतवादी मन | ऐ मेरे आदर्शवादी मन | अब तक क्या किया | जीवन क्या जिया!' वीरेन डंगवाल की कविता 'किस ने आखिर ऐसा समाज रच डाला है | जिस में बस वही दमकता है जो काला है।' दिनेश कुमार शुक्ल की गोरख पांडे के लिए समर्पित कविता 'जाग मेरे मन मछंदर' तक आते-आते जनता का जुनून जाग चुका था। हिरावल की टीम जा ही रही थी कि 'जनता के आवे पलटनिया' की पुकार हो गयी। फिर तो सब गा रहे थे। मंच। घाटी। जंगल। आसमान। दुनिया के झकझोर हिलने की लय में।
इसी झकझोर में लाल बैंड के तैमूर अपनी शरीके-हयात और शरीके-साज (जिन का नाम मैं ठीक से सुन नहीं पाया, जिस का सख्त अफसोस है) के साथ मंच पर दिखाई पड़े। अपनी भारत-यात्रा के बारे में चंद बातें कहीं। हम चार कंसर्ट करने आये थे। पंद्रह कर के जा रहे हैं। दिल्ली से बंगलोर तक नौजवानों के बीच गाते-गाते एक पल को भी महसूस नहीं हुआ कि हम अपने घर में नहीं, पड़ोस में हैं। भारत-पाकिस्तान की अवाम एक साथ है। एक है। सरमायेदार, दलाल और हथियारों के सौदागर हमारे साझा दुश्मन हैं। मिलजुल कर इन्हें शिकस्त देनी है, यही जज्बा है हिंदुस्तान और पाकिस्तान की नौजवान पीढ़ी का। उन्होंने अपनी टीम के कुछ नये सदस्यों का परिचय कराया, जो भारत में ही उन्हे मिले थे। उनमें से एक तो बस आधे घंटे पहले। उन के साथ तीर्था भी जुड़ गयी थीं, जो शास्त्रीय रागों का पश्चिमी वाद्यों के साथ फ्यूजन करती हैं। इस फ्यूजन में कभी कनफ्यूजन भी हो जाता है। उन के टप्पों को तो लोगों ने पसंद किया, लेकिन जैसे ही उन्होंने 'वक्रतुंड महाकाय' शुरू किया, जनसमुदाय से 'नहीं नहीं' की आर्तनाद उठी। लाल बैंड सुनने आये लोगों को इस झटके की उम्मीद न थी। तीर्था ने भी मौके की नजाकत समझ कर तत्काल माइक तैमूर के हवाले किया।
फिर तो लाल ही लाल था। बैंड ने 'उम्मीदे सहर' से ले कर 'जागो जागो सर्वहारा' तक अपने सभी मशहूर नंबर पेश किये। स्टीरियो की जबरदस्त धमक और गिटार की गूंज के बीच 'नाल फरीदा' भी आया और 'दहशतगर्दी मुर्दाबाद' भी। इस गाने के पहले तैमूर ने साफ-साफ कहा भी कि पाकिस्तान की सारी तरक्कीपसंद अवाम, मजदूर किसान, अच्छी तरह जानते हैं कि मजहबी दहशतगर्द सामराज के पिट्ठू और लट्टू हैं। उन की आपसी लड़ाई एक धोखा है। असली लड़ाई अवाम और सामराज के बीच है। मजहबी दहशतगर्द अवाम के साथ नहीं, सामराज के साथ हैं। लेकिन कुछ वामपंथी भी अपने भोले जोश में इन्हें सामराज-दुश्मन माने बैठे हैं और हमारी बहस उनसे भी है। तैमूर की आशंका सच निकली। अनेक कट्टर क्रांतिकारी अब इसी गाने के लिए उन की लानत-मलामत कर रहे हैं।
आधी रात के आगे तक जंगल गूंजता रहा। इंकलाबी धुनों पर तालियां धमकती रहीं। पांव मचलते रहे। आखिर तक आते-आते मंच और आंगन, धरती और आसमां, जंगल और पहाड़ का भेद खत्म हो चुका था। जैसे दुनिया के नक्शे पर भारत और पाकिस्तान का भेद मिट चुका हो। सब गा रहे थे। सब नाच रहे थे। इनकलाबो इनकलाबो इनकलाबो इनकलाब! जैसे एक नयी-नकोर नौजवान सदी का आगाज हो रहा हो।
फेसबुक पर एक नोट
(आशुतोष कुमार। आलोचक। नेतरहाट, पटना, इलाहाबाद और जेएनयू से पढ़ते हुए इन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक। जनसंस्कृति मंच से जुड़ाव। पुनर्विचार नाम का ब्लॉग। उनसे ashuvandana@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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