BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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Thursday, May 3, 2012

पाक के हालात समझेंगे, तो “लाल बैंड” भी समझ में आएगा

http://mohallalive.com/2012/05/03/all-music-is-beautiful/


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पाक के हालात समझेंगे, तो "लाल बैंड" भी समझ में आएगा

3 MAY 2012 5 COMMENTS

♦ प्रकाश के रे

हर संगीत खूबसूरत होता है… मशहूर संगीतकार बिली स्ट्रेहॉर्न


ई पुराने जेएनयू के साथियों के साथ इस नायब शाम की बाबत देर तक, लगभग सुबह तक बातें होती रहीं। पटना के हिरावल के दस्ते द्वारा कविताओं को संगीतबद्ध कर गाते सुनना, लाल बैंड के कॉमरेड तैमूर, उनके संघर्षों की साथी और जीवनसंगिनी महवश वकार तथा दिल्ली में बसे देशी-विदेशी कलाकारों के जोरदार प्रदर्शन की खुमारी कार्यक्रम की तस्वीरें फेसबुक पर लगाते हुए बढ़ती ही जा रही थी कि शुभम की पोस्ट आ गयी। शुभम के संजीदा लेखों का प्रशंसक होने के नाते इसे भी तुरंत पढ़ गया और दुबारा भी पढ़ा। कभी खीझ हुई, कभी कोफ्त हुई। बहरहाल, उनकी पोस्ट में इतनी गलतबयानियां हैं, इतने फतवे हैं कि उन्हें तुरंत दुरुस्त करना मैंने जरूरी समझा।

आपने बिलकुल सही लिखा है कि 'लाल एक मशहूर बैंड है' लेकिन मैं यह कहना चाहूंगा कि वह 'उसी तरह' प्रोफेशनल नहीं है, जैसे 'बाकी के बैंड्स'। आपको इस कंसर्ट में आने से पहले तैमूर रहमान का बयान पढ़ लेना चाहिए था। यह और भी अच्छा होता, अगर आप इससे एक दिन पहले जेएनयू के इप्टा इकाई ने तैमूर और महवश के साथ बातचीत का करीब तीन घंटे लंबा जो सिलसिला चलाया, उसमें मार्क्सवाद, दुनिया भर में आंदोलनों और राजनीति की दिशा, पकिस्तान में कम्युनिस्ट आंदोलन, लाल के साथियों का काम और अनुभव, छात्र राजनीति, इकबाल और सूफियां से कितना अपनाना है … आदि-आदि कई मसलों पर बेबाकी से बात हुई। इस पृष्ठभूमि में आप उनके इस बैंड के काम को शायद बेहतर समझ पातीं। बहरहाल, इंटरनेट पर उनके कई इंटरव्यू हैं, जिन्हें जरूर देखा जाना चाहिए। खासकर तब, जब सीधे-सपाट फतवे देने की तलब लगी हो।

तैमूर पाकिस्तान की कम्युनिस्ट मजदूर किसान पार्टी के साथ वर्षों से जुड़े हुए हैं और आजकल उसके महासचिव भी हैं। लाहौर के एक विश्वविद्यालय में पढ़ाने के साथ वे कुछ साथियों के साथ इस बैंड को चलाते हैं। बैंड पकिस्तान के शैक्षणिक संस्थानों और प्रगतिशील आंदोलनों-आयोजनों में लगातार प्रस्तुतियां देता रहा है। ऐसे आयोजनों में वे एक भी पैसा नहीं लेते। लेकिन जब वे व्यावसायिक आयोजनों में जाते हैं, तब पैसा लेते हैं। उनकी हिंदुस्तान यात्रा में भी ऐसा ही रहा। चार व्यावसायिक आयोजनों के अलावा बैंड ने दर्जनों ऐसे कार्यक्रमों में शिरकत किया, जिसमें उन्होंने बतौर फीस एक पैसा नहीं लिया। दिल्ली में वे मजदूरों की बस्ती जनता कॉलोनी, दिल्ली सॉलिडारिटी ग्रुप के साथ हैबिटाट सेंटर, वामपंथी प्रकाशन संस्था लेफ्टवर्ड के पुस्तक बिक्री केंद्र के उद्घाटन और जेएनयू में दो कार्यक्रमों में शामिल हुए। इनमें किसी भी आयोजन में उन्हें कोई फीस नहीं दी गयी। यह बात मैं पूरी सूचना और दावे के साथ कह रहा हूं। रही बात प्रोफेशनल होने की, तो यह बात तैमूर ने अपने आलेख और बातचीत में स्पष्ट कर दिया है कि अपनी विचारधारा को प्रचारित करने के लिए वे हर रस्ते का उपयोग करने के लिए तैयार हैं और इस आमदनी का उपयोग उनके काम और आंदोलन को आगे ले जाने के लिए किया जाता है। मुझे ऋत्विक घटक याद आते हैं, जो कहा करते थे कि अपनी बात को लोगों तक ले जाने के लिए किसी भी माध्यम का उपयोग करने में उन्हें कोई हिचक नहीं है।


छायाकार प्रकाश के रे

चलिए, शुभम की यह बात जिस मतलब से कही गयी है, उसे मान भी लिया जाए, तो उनकी इस बात को भी माना जाए कि उसका कंटेंट अलहदा है। और यही बात उनके काम को महत्वपूर्ण बनाती है। जिस राजनीति, जिस सवाल और जिस तेवर के परचम को लाल बैंड पकिस्तान में ले कर चल रहा है, उसे ठीक समझने के लिए पकिस्तान के हालात पर भी गौर किया जाना चाहिए। ठीक यहीं वह सूत्र मिलता है, जो उनकी लोकप्रियता का रहस्य खोलता है। शायद शुभम इस आयोजन में बस संगीत का आनंद लेने के उद्देश्य से गयी थीं। इसी वजह से वह बार-बार बैंड के कलात्मक मेरिट पर लौटती हैं। उस पर मुझे कुछ कहना नहीं हैं क्योंकि यह रसिक का अपना निर्णय होता है कि कोई चीज उसे कितना पसंद आती है और प्रभावित करती है। शायद वे पृष्ठभूमि से आगाह होतीं, तो अधिक आनंद उठातीं।

बहरहाल, थोड़ी-सी बात लाख से अधिक के खर्चे पर। मुझे उस खर्चे का ब्योरा नहीं मालूम, लेकिन जेएनयू और दिल्ली में अन्य जगहों पर कई कार्यक्रमों के आयोजन से जुड़े रहने के कारण मैं उन्हें इस बारे में थोड़ी जानकारी देना चाहूंगा। जेएनयू के उस खुले मैदान और वहां आये लोगों के हिसाब से, फिर बैंड के संगीत की जरूरत के मुताबिक, जिस तरह के साजो-सामान की जरूरत थी, उसका खर्चा ही अकेले लाख रुपये से कहीं अधिक होता है। इसमें साउंड-सिस्टम, टेंट-दरी, रौशनी आदि शामिल हैं। आप खर्च में खाने-पीने, आने-जाने, प्रचार आदि को भी जोड़ सकते हैं। शुभम का फीस की बात कहना बिना किसी आधार का है और इसे उन्हें ठीक कर लेना चाहिए। रही बात, कॉमरेडों की पैसे को लेकर चिंतित होने की बात, तो मैं बस यही कहना चाहता हूं कि यह चिंता नहीं होती, बल्कि एक आयोजन करने का रोमांच होता है, उलझने होती हैं, मजा होता है, परेशानी होती है, संतोष का कोना होता है। इसे छात्र-संघ के बजट और सालाना होने वाले छात्रावासों के उत्सव के साथ मिला कर देखना बिलकुल बेतुका है। ऐसे आयोजन कई सालों में एक-बार ही होते हैं, जिसमें ऐसा उत्साह और ऐसी भागीदारी दिखती है।

शुभम ने उन प्रकाशकों के वर्ग-चरित्र की बात की है जो मार्क्स की किताबें छापते-बेचते हैं। बात तो ठीक है, लेकिन इसे लाल बैंड के साथ जोड़ना सतही और अविचारित रेडिकलिज्म के अलावा कुछ और नहीं। मैं कुछ सवाल रखना चाहता हूं: हम विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं, जिसका खर्च सरकार मजदूरों-किसानों की कमाई चुरा कर संगृहित अधिशेष से करती है। और वह वही सरकार या राज्य है, जो जनता के आंदोलनों का दमन करती है और अगर कश्मीर, नॉर्थ-ईस्ट तथा अफ्रीका की जनता के एक हिस्से की बात मानें, तो एक साम्राज्यवादी राज्य है। और फिर जेएनयू में ही जे-स्टोर सहित कई सुविधाएं और पाठ्यक्रम कॉरपोरेट फाउंडेशनों के पैसे से चलते हैं। और यह भी कि हमारी पढ़ाई और कैंपस को सुगम बनाने के लिए सैकड़ों-हजारों लोग अमानवीय शोषण का शिकार बनते हैं, जैसे कि कैजुअल मेस कर्मचारी और सेक्युरिटी गार्ड। तो बताइए कि क्या हमें ऐसे सवाल उठाने का नैतिक और राजनीतिक अधिकार है?

ध्यान से सोचें तो इसी पेंच में लाल बैंड से जुड़े कई सवालों के जवाब मिलेंगे। कल्चर इंडस्ट्री जैसे भारी-भरकम शब्द गिराने से पहले संदर्भों का भी ख्याल रखा जाना चाहिए। और यह कहना कि जेएनयू जैसी जगहें ही हिरावल जैसी मंडलियों को मंच देती हैं, कहीं किसी सुपरियॉरिटी कॉमप्लेक्स या मीडिल क्लास दंभ से तो पैदा नहीं हुआ है? हिरावल एक राजनीतिक आंदोलन से जुड़ा मंच है और वह गांव-शहर घूम कर अपनी बात पहुंचाता है और कम-से-कम बिहार में तो वह बड़ा नामचीन है। उसका यहां आना दरअसल हमारी खुशकिस्मती है। अब स्वागत वाली बात का जवाब क्या होगा! मुझे तो फूलों का गुलदस्ता देने से ही परहेज है। मेरा मानना है कि फूल तोड़ने के लिए नहीं उगा करते। लेकिन यह आयोजकों की अपनी समझ का मामला है।

बहरहाल, मेरे विचार में फतवे से बचा जाए, सोच-समझ के अपनी मजबूरियों की पड़ताल हो और नये रास्तों की जुगत लगायी जाए। रवायतें और फैशन टूटती-बनती चीजें हैं। बस संतुलन और समन्वय का ख्याल रहना चाहिए कि मुद्दे और मसायल से नजर न हटे। गालिब का यह शेर हमारी मजबूरी को बखूबी बयान करता है :

इमां मुझे रोके है तो खेंचे है मुझे कुफ्र
काबा मेरे पीछे है तो कलीसा मेरे आगे

और फरीद उपाय बताता है : फरीदा टूरेया टूरेया जा, टूरेया टूरेया जा…

(प्रकाश कुमार रे। सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के साथ ही पत्रकारिता और फिल्म निर्माण में सक्रिय। दूरदर्शन, यूएनआई और इंडिया टीवी में काम किया। फिलहाल जेएनयू से फिल्म पर रिसर्च। उनसे pkray11@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)


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