मैं पोर्न देखता हूँ, आप नहीं!
अबकी बार एडल्ट फिल्म देखकर आया हमारा दोस्त संभला और बोला, 'अबे हम वो सब देखने नहीं जाते हैं, समझे.अपने जैसा न समझो कि 'सी ग्रेड' की भुतहा फिल्मों के बहाने शाट देखने पहुंच जाते हो.हम इस तरह की फिल्मों में अंग्रेजी सीखने जाते हैं...
अजय प्रकाश
गोरखपुर विश्वविद्यालय में मैं सन् 2001 में बीए सेकेंड ईयर का छात्र था और छात्र राजनीति में चौचक रमा हुआ था.कभी सांप्रदायिकता के खिलाफ पोस्टरिंग, तो कभी छात्रों की फीस बढ़ोतरी के खिलाफ आंदोलन, सरकारी नीतियों को उजागर करने वाले नुक्कड़ नाटक तो क्रांति के लिए पैसा जुटाने में ट्रेनों-बसों का सफर और इन सबके बीच में कभी-कभी मारपीट.कुल ले-देकर अपना जीवन यही था.
भगत सिंह के विचारों के जरिये समाज बदलने वाला हमारा एक क्रांतिकारी दोस्त इसी जीवन के बीच से कभी-कभी गायब हो जाया करता था.गायब इसलिए कि हममें से किसी के कहीं जाने की तर्कसंगत जानकारी हम दोस्तों या कम से कम टीम लीडर को होती थी.मगर उसके बारे में कोई सुसंगत नहीं बता पाता कि वह कहां गया है.उसके आने पर हम उससे पूछते तो वह कुछ ऐसी बात बताता जो हमें जायज मालूम पड़ती और फिर हम अपने कामों में रम जाते.
संयोग से एक दिन हम लोगों की टीम पोस्टरिंग करके गोरखपुर के विजय चौक से बैंक रोड होते हुए बख्शीपुर चौराहे से अलीपुर के लिए दाहिनी ओर बढ़ी ही थी कि हमारा गायब होने वाला मित्र अंडे की दुकान के पीछे स्थित कृष्णा टॉकीज से निकलता दिखा.हमने उसे ताड़ लिया, 'का राजा इहां कहां से.' वह बिल्कुल हक्का-बक्का.उसे कुछ कहते न बने.
हममें से एक ने कहा, 'एडल्ट नाइट' देखे गइल रहला, एमें कौन क्रांति के शाट रहल ह बेटा.चलो हम साथी (कम्युनिस्टों के बीच प्रयुक्त होने वाली एक विशेष शब्दावली) को बतायेंगे.' तब तक हममें से एक दूसरे ने 'साथी' की शिकायत करने वाले' को धमकाया, 'हर बात को बुर्ज के खलीफा तक पहुंचाना जरूरी है, चाटुकार कहीं के.' इतना कहकर उसने एडल्ट फिल्म देखकर आये दोस्त की तरफ मुखातिब होकर पूछा, 'अबे ये बता सब दनादन था या पैसा बर्बाद हुआ.' अबकी बार एडल्ट फिल्म देखकर आया हमारा क्रांतिकारी दोस्त संभला और बोला, 'अबे हम वो सब देखने नहीं जाते हैं, समझे.अपने जैसा न समझो कि 'सी ग्रेड' की भुतहा फिल्मों के बहाने शाट देखने पहुंच जाते हो.हम इस तरह की फिल्मों में अंग्रेजी सीखने जाते हैं.मार्क्सवाद की जितनी अच्छी किताबें हैं, सब अंग्रेजी में ही तो हैं.'
एक दूसरा वाकया हाल ही का है.एक फोटोग्राफर मित्र कुछ नंगी-अधनंगी उत्तेजक तस्वीरें देख रहे थे.वह आफिस में मेरी ठीक बगल वाली सीट पर बैठते थे.उनकी ओर से चाय देता आ रहा चपरासी मेरे नजदीक आकर बोला, 'सर देखते हैं ये फोटोग्राफर साहब क्या देख रहे हैं, जरा आप भी नजरें घुमा लीजिये.' चपरासी की बात सुन अर्धउत्तेजित हुए फोटोग्राफर ने कहा, 'तुम चपरासी हो और वही रह जाओगे.मैं नंगी फोटो नहीं, फोटो का एंगल देख रहा था.खुद तो एडल्ट कहानियों का प्रिंटआउट निकालते हुए पकड़े जाते हो और हमें कहते हो...'
मेरी यादों में बसे इन दो किस्सों के अलावा सैकड़ों मित्रों, परिचितों, वरिष्ठों और रिश्तेदारों की आत्मस्वीकारोक्तियां हैं, जब उन्होंने कहा- हां, मैंने एडल्ट फिल्में (आजकल पोर्न) देखीं हैं.' बेशक यह आत्मस्वीकारोक्तियां निजी स्तर की रही हैं, जिनका कहीं कोई सार्वजनिक प्रमाण नहीं है, सिवाय इसके कि भारत में पोर्न व्यवसाय सबसे तेजी से उभरता मुनाफे का धंधा है, जहां कस्बे से लेकर मेट्रो शहर सीडी और उससे भी ज्यादा आनलाइन पोर्नोग्राफी से अटे पड़े हैं.
अब लोग गोरखपुर के कृष्णा टॉकीज जैसे एडल्ट फिल्मों वाले सिनेमा हालों से मुंह छिपाते नहीं निकलते, बल्कि साइबर कैफे में 10 रुपया खर्च करके वह सबकुछ पा लेते हैं जिसके दो मिनट के लिए भारतीय दर्शकों को दस बहाने ढूंढ़ने पड़ते थे.उसमें भी कई बार एडल्ट फिल्मों के निर्देशक गच्चा दे जाते थे.गच्चा देने वाले निर्देशकों की फिल्मों में आजकल की बालीवुड फिल्मों जैसे भी 'हाट सीन' नहीं होते और निराश दर्शक गाली-गलौच, मारपीट-पत्थरबाजी पर उतारू हो जाते थे.ऐसे एक मौके का मैं खुद भी गवाह रहा हूं, जब बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर जिले के डीलक्स सिनेमाहाल में ईंटें चली थीं और लोगों ने टार्च दिखाने वाले सिनेमाहॉल कर्मचारियों को पीटकर अपने तन की गर्मी शांत की थी.
उस वक्त मैं राजपूतों के कालेज (वहां इसकी यही पहचान थी) नीतीश्वर सिंह में ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था और हम आठ लोगों की टोली यह फिल्म देखने गयी थी.इससे भी दिलचस्प बात यह थी कि उस वक्त मैं भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के एक पायदान संगठन 'अखिल भारतीय विद्यार्थी परिशद' का सक्रिय सदस्य था और स्टेशन के पास पालिटेक्निक चौराहे पर स्थित उनके दफ्तर की रोज जुटान का हिस्सा भी.
हालांकि एडल्ट फिल्में तो बिहार के ही छपरा जिले में 10वीं के दौरान या उससे पहले भी मेरे दोस्त शिल्पी, ज्योति या गणेश सिनेमाहाल में देख आया करते थे, लेकिन मैं वंचित रह गया था.वंचित इसलिए कि मेरे पिताजी छपरा में लंबे समय से कार्यरत थे और उनका कोई न कोई परिचित हर जगह दिख जाता था.मेरे हिस्से अगर पिताजी के परिचितों का डर न होता, तो जाहिर तौर पर मैं भी 9वीं-10वीं यानी 13 या 14 साल की उम्र (बालिग होने से चार साल पहले) में उन फिल्मों से रू-ब-रू हो गया होता, जिन्हें देखना राजनीतिक और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर गुनाह माना जाता है.धर्म में तो इसके लिए कोई माफी ही नहीं है.
दरअसल यह आधुनिकता और परंपरावादियों के बीच सदियों से चले आ रहे सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष का ही सिलसिला है.हर समय का समाज अपने साथ तकनीकी और संस्कृति दोनों लेकर आता है और वह पहले के समाजों के मुकाबले अपने समय को अधिक लोकतांत्रिक और बराबरी वाला बनाता है.पोर्न को लेकर जिन वर्जनाओं और नैतिकताओं की आज दुहाई दी जा रही है एक समय में इसी तरह के आग्रह उन रिवाजों को लेकर थे, जिनको सुनकर आधुनिक पीढि़यां पुरानी पीढि़यों का 'पागलपन' कहते हुए हंसेंगी.
याद करें जब लड़कियों ने जींस पहननी शुरू की, रोजगार करना शुरू किया, महफिलों में जाने लगीं, स्कूल जाना शुरू किया, फैसला लेने में भागीदार होने लगीं, बारातों में जाने लगीं, नेता बनने लगीं या पब जाने लगीं- इनमें से किसी भी पहल का तत्कालीन समाज के व्यापक हिस्से ने समर्थन नहीं किया और वही दुहाइयां दोहरायी जाती रहीं जो आज पोर्न, यौनकर्म की वैधता या समलैंगिकता को लेकर दी जा रही हैं.
इस तरह की किसी चीज को खुलेआम स्वीकृति देने को लेकर समाज के एक बड़े तबके में आशंकाएं जाहिर की जाने लगती हैं.लोग कहने लगते हैं कि अगर फलां चीज को कानूनी स्वीकृति दे दी गयी तो समाज अपसंस्कृति के गटर में समा जायेगा.हर तरफ व्याभिचार, अपराध और इससे भी बढ़कर आने वाली पीढि़यां अंधकूप की होकर रह जायेंगी.
नब्बे के दशक के बाद जब छोटे-मझोले शहरों और देहातों से निकलकर लड़कियां अपने नजदीकी शहरों या आज के मेट्रो शहरों में बड़ी संख्या में रोजगार करने लगीं तो सार्वजनिक बहसों में स्त्रियों के इस नयी सामाजिक भागीदारी को ऐसे पेश किया जाता था मानो वो वहां काम पर नहीं, मर्दों के जांघों में समाने जाती हैं.निष्कर्ष यह निकाला जाता था कि लड़कियों की भागीदारी वाले दफ्तर कामकाज निपटाने की जगह नहीं, एक दूसरे को सहलाने के 'वो' वाले मसाज सेंटर बन गये हैं.
समाज के संस्कारों की दुहाई का दूसरा बेशर्म सीन शहर या देहात कहीं भी दलितों और मुस्लिमों के सामाजिक-आर्थिक बराबरी के सवाल पर आज भी देख सकते हैं.शहर में विकसित हो रहे मध्यवर्गीय परिवेश के कारण शहरी समाज में दलितों को बराबरी देने के सवाल पर परंपरावादियों का ऐतराज थोड़ी दबी जुबान से बाहर निकलता है.लेकिन देहातों में तो आज भी दरवाजे पर खटिया बिछाये बैठे बुजुर्गों से आसानी से जाना जा सकता है कि दलितों-पिछड़ों-महिलाओं-अल्पसंख्यकों को दिये जाने वाले विकास के मौकों के कारण समाज के संस्कारों में कितनी गिरावट दर्ज की गयी है और शानदार सामाजिक परंपरा कैसे ढह रही है.
इतना ही नहीं, वंचितों-दलितों को बराबरी देने की जब राजनीतिक स्तर पर कोशिश शुरू हुई या उससे भी पहले जब देश में सबको वोट देने के अधिकार की बात हुई तो हर बार समाज और राजनीति की सत्ता पर बैठे लोगों, बुद्धिजीवियों, भाटों और चारण करने वालों ने हमेशा गौरवमयी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक-आर्थिक विरासत के तहस-नहस हो जाने की दुहाई दी.नये समाज के निर्माण में लगे लोगों की तुरही के आगे दकियानूसों ने हमेशा परम्परा और विरासत के भोंपू बजाये हैं, लेकिन हर बार समाज नये मूल्यों के साथ परिवर्तित और संवर्धित होता रहा, बदलता रहा.
हाल के वर्षों में समलैंगिकता को लेकर खूब हंगामा हुआ और अब भी जारी है.समलैंगिकों के समुदाय और उनके समर्थक संगठन कह रहे हैं कि यह मानवीय है, जबकि सरकार इसे अमानवीय कह रही है.इस मामले में सरकार लगातार अदालत में सफाई-दर-सफाई पेश कर रही है क्योंकि इसकी वैधता का सवाल सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है.पिछले वर्षों में दिल्ली उच्च न्यायालय ने आपसी सहमति के आधार पर समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था.उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद केंद्र सरकार आदेश को निरस्त करवाने सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गयी.
समलैंगिक संबंधों के विरोधियों का तर्क था कि पुरुष-पुरुष और स्त्री-स्त्री के बीच यौन संबंधों जैसी मानसिक विकृति को अगर सरकार सही मान लेती है, तो समाज में सांस्कृतिक गंदगी का अंबार लग जायेगा और यौन रोगियों की संख्या तेजी से बढ़ेगी.इस बीच सरकार ने अदालत में एड्स रोगियों का एक आंकड़ा भी पेश किया, जिससे यह जाहिर हो रहा था कि एड्स और दूसरे यौन रोग समलैंगिकों में ज्यादा होते हैं.बाद में इस रिपोर्ट को समलैंगिकता समर्थकों ने चुनौती दी और यह रिपोर्ट झूठी साबित हुई.
जाहिर है समाज में समलैंगिकता का विरोध बुनियादी तौर पर नैतिक कारणों से हो रहा है, न कि रोगों की वजह से.समलैंगिकता को अप्राकृतिक मानने वालों को आशंका है कि सरकारी स्वीकृति मिलते ही व्यभिचारों और यौनव्यहारों में एकाएक इजाफा होगा.मगर सवाल है कि ऐसा सिर्फ कानून बनने भर से हो जायेगा या फिर इसकी एक मौन स्वीकृति समाज में सदियों से मौजूद है.सवाल यह भी है कि सिर्फ कानून लागू कर दिये जाने भर से अगर सामाजिक व्यवहार में उतरना उसकी शर्त होती तो दर्जनों कानूनों को गिनाया जा सकता है, जिनको लागू हुए दशकों बीत चुके हैं, लेकिन हमारे सामाजिक व्यवहार में वह बमुश्किल लागू होते दिखते हैं या उनको समाज में अपनाये जाने में दशकों लग गये.
हां, अगर उसकी सामाजिक स्वीकृति है और हम उसे चोरी-छिपे चलने देते हैं तो उसे वैध करना ज्यादा लोकत्रांत्रिक है.छूट देने, सामाजिक या कानूनी तौर पर वैध करने से समाज का क्षरण होने के बजाय इन गतिविधियों के नाम पर सरकारी-गैरसरकारी स्तर पर जो एक अवैध मशीनरी संचालित होती है, वह बंद हो जाती है और समाज और सरकार दोनों जवाबदेही के लिए जिम्मेदार बनते हैं.अभी की हालत में पोर्न देखना किसी अपराध से कमतर नहीं है.इसी की बदौलत करोड़ों का अवैध व्यापार चल रहा है, जिसका फायदा न तो सरकार को मिल रहा है और न ही समाज को.
पिछले वर्ष के आंकड़ों के मुताबिक हमारा मुल्क सबसे ज्यादा इंटरनेट सर्फिंग करता है.छोटे-बड़े शहरों के हर गली-मुहल्लों में साइबर कैफे खुले हुए हैं या तेजी से खुल रहे हैं.इन दरबेनुमा साइबर सेंटरों पर लोग, खासकर नौजवान अपना काम करने के बाद पोर्न भी देख लेते हैं.नौजवानों में हमेशा ही एडल्ट फिल्में या अब पोर्न देखने का बड़ा क्रेज है या रहा है, जो अस्वाभाविक नहीं है.इनमें से कुछ तो धीरे-धीरे इसके आदी हो जाते हैं, जिसका बेजा फायदा कैफे वाले उठाते हैं.कैफे वालों से वसूली पुलिस वाले करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि कैफे में पोर्न देखे जाते हैं.अगर इससे संबंधित कानून बनता है और इसको देखना वैध कर दिया जाता है तो यह प्रक्रिया रुकेगी.इससे सेक्स संबंधों को लेकर ज्ञान भी बढ़ेगा और सरकार पोर्न या हार्डकोर वीडियो के मानक तय कर सकती है.
हजारों की संख्या में देशी-विदेशी पोर्न वेबसाइट्स हैं, जिनमें आडियो, वीडियो, चैट, फोटो और टेक्स्ट सबकुछ मौजूद है.इन सबको हमारे देश में रोज करोड़ों लोग देख रहे हैं.पोर्न और हार्डकोर के नाम पर जो कुछ उपलब्ध है, उसे अगर हमारे युवा ऐसे ही चोरी-छिपे देखते रहे तो उससे हम नैतिकता का कोई नया मानक तो नहीं रच पायेंगे, लेकिन हमारे नौजवानों में बहुतेरे यौनहिंसा और गलत यौन व्यवहार की आदत से ग्रस्त हो जायेंगे.
ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि कई पोर्न फिल्मों में यौन व्यवहार बेहद हिंसक दिखाया जाता है, जिसे पसंद करने वाला एक मानसिक रोगी ही हो सकता है.चूंकि पोर्न देखने वाली सर्वाधिक संख्या किशोरों-नौजवानों की है, इसलिए सरकार को इस मसले पर विशेष तौर पर सोचना चाहिए.जिससे कि पोर्न देखना जंग जीतना नहीं, बल्कि यौन इच्छाओं और कुंठाओं को पूरा करने वाला एक माध्यम भर बने.
No comments:
Post a Comment